Sunday, November 17, 2024
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एक छोटी सी फ़िल्म ‘द ताशकंद फाइल्स’ की सफलता से क्यों भयभीत हैं वामपंथी समीक्षक?

NDTV ने फ़िल्म को 0.5 स्टार दिया। SCROLL ने इसे नेगेटिव रिव्यु दिया। लेकिन, इन सारे पक्षपाती समीक्षाओं की पोल तो तब खुली जब दर्शकों और सजग लोगों ने IMDB पर इसे रेट किया। रिपोर्ट लिखे जाने तक आईएमडीबी पर हज़ार से भी अधिक लोगों ने मिलकर फ़िल्म को 10 में से 8.4 औसत रेटिंग दी है।

अभी अभी आई फ़िल्म ‘द ताशकंद फाइल्स’ को आम दर्शकों का ख़ूब प्यार मिल रहा है। जैसा कि हमने पिछले कुछ दिनों में देखा, फ़िल्म की रिलीज रोकने की हरसंभव कोशिश की गई लेकिन फ़िल्म अंततः सिनेमाघरों तक पहुँचने में कामयाब रही। तमाम विवादों के बावजूद फ़िल्म 250 स्क्रीन्स पर रिलीज होने में सफल रही और इसके साथ ही एक अलग ही खेल शुरू हुआ। ‘द ताशकंद फाइल्स’ का जब निर्माण हो रहा था, तब कुछ तथाकथित इतिहासकारों व बुद्धिजीवियों ने इसे भ्रामक, तथ्यों से भटकाने वाला और इतिहास से छेड़छाड़ बताया। जब उन्होंने जी भर खेल लिया और फ़िल्म का ट्रेलर रिलीज हुआ तो राजदीप सरदेसाई जैसे गिद्धों ने खेलना शुरू किया। फ़िल्म को प्रोपेगंडा बताने से लेकर इसकी रिलीज की टाइमिंग पर ऐसे सवाल खड़े किए गए, जैसे फ़िल्म के प्रोड्यूसर नरेंद्र मोदी ही हों।

समीक्षकों का कुटिल दुष्प्रचार, रिव्यु से किया इनकार

तमाम कुटिल खेलों के बावजूद जब फ़िल्म रिलीज हुई तो कुछ समीक्षकों ने अपना गंदा खेल शुरू कर दिया। राजा सेन जैसे तथाकथित समीक्षकों ने इस फ़िल्म की समीक्षा करने से मना कर दिया। राजा सेन जब ‘रामगोपाल वर्मा की आग’ की समीक्षा कर सकता है और उसे पसंद करने की कोशिश कर सकता है तो ‘द ताशकंद फाइल्स’ तो एक वास्तविक और संजीदा मूवी है, जिसे बनाने के लिए गहन रिसर्च का सहारा लिया गया है। ये हमारे दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के निधन/हत्या के पीछे रहे कारणों की खोज करती है। ना इस फ़िल्म में कहीं भाजपा को वोट देने की अपील की गई है और न ही इसमें कॉन्ग्रेस को सत्ता से दूर रखने की बात कही गई है, फिर भय कैसा?

एनडीटीवी ने फ़िल्म को आधा स्टार दिया। स्क्रॉल ने इसे नेगेटिव रिव्यु दिया। लेकिन, इन सारे पक्षपाती समीक्षाओं की पोल तो तब खुली जब दर्शकों और सजग लोगों ने आईएमडीबी पर इसे रेट किया। आईएमडीबी सिनेमा का एक वैश्विक डेटाबेस है, जिसकी रेटिंग पर न सिर्फ़ भारत बल्कि दुनियाभर के दर्शक भरोसा जताते हैं। आज से 10 वर्ष बाद जब ‘द ताशकंद फाइल्स’ का नाम सामने आएगा, तब एनडीटीवी, स्क्रॉल और राजा सेन की समीक्षाएँ कहाँ पड़ी होगी नहीं पता लेकिन आईएमडीबी रेटिंग गूगल सर्च के पहले पन्ने पर दिखेगी। ये रिपोर्ट लिखे जाने तक आईएमडीबी पर हज़ार से भी अधिक लोगों ने मिलकर फ़िल्म को 10 में से 8.4 औसत रेटिंग दी है। ये अपनेआप में बड़ी बात है क्योंकि इस पोर्टल पर 8 की रेटिंग पार करनेवाली फ़िल्मों का एक अलग ही क्लब है।

यहाँ सबसे बड़ा सवाल यह है कि आख़िर इस फिल्म से किसे भय है? कॉन्ग्रेस पार्टी के इशारे पर इसके नेताओं ने फ़िल्म की रिलीज रोकने के लिए निर्देशक विवेक अग्निहोत्री को लीगल नोटिस भेजा और धमकाया। तथाकथित समीक्षकों ने इसकी समीक्षा करने से इनकार कर दिया। एनडीटीवी के लिए इस फ़िल्म की समीक्षा करते हुए सैबल चटर्जी ने इसे जंक यानी कचरा बताया। आगे बढ़ने से पहले जान लेते हैं कि इसी चटर्जी ने एनडीटीवी में ‘उरी- द सर्जिकल स्ट्राइक’ की समीक्षा करते वक़्त इसके बारे में क्या कहा था। चटर्जी ने कहा था कि उरी फ़िल्म एक ऐसे ग्रेनेड की तरह है जो फकफकाता तो है लेकिन फटता नहीं है।

इतनी छोटी सी फ़िल्म से इतना ज्यादा भय?

चटर्जी अकेला नहीं है, ताशकंद फाइल्स को ख़राब रेटिंग देने वाले अधिकतर समीक्षकों का इतिहास यही है। क्या राजकुमार हिरानी पर ‘मी टू’ का आरोप लगने के बाद इन समीक्षकों ने ऐसे फ़िल्मों की समीक्षा करना छोड़ा, जिनसे वो जुड़े हुए थे? क्या इन समीक्षकों ने गोलमाल और धमाल सीरीज की समीक्षा करना छोड़ा जो दर्शकों को ग्रांटेड लेकर सचमुच का जंक दिखाते हैं? क्या इन समीक्षकों ने माँ दुर्गा के नाम पर बनी आपत्तिजनक फ़िल्म की समीक्षा करने से रोका? सीधा जवाब है, नहीं। क्या ये समीक्षक इतिहास से जुड़ी हर ऐसी फ़िल्म की समीक्षा नहीं करेंगे जिसमे सत्य ढूँढने की कोशिश की गई हो? अभिनेत्रियों के ‘ऊप्स मोमेंट’ अपनी वेबसाइट पर चलाने वाले इन समीक्षकों को किसका भय सता रहा है?

ये भय है नैरेटिव के बदल जाने का। ये भय अच्छा है क्योंकि जब केवल 250 स्क्रीन्स में रिलीज होने वाली एक छोटी सी फ़िल्म इन्हे इतना भयभीत कर सकती है तो सोचिए उस दिन क्या होगा जब ऐसे विषयों पर कोई बहुत बड़ी फ़िल्म बनेगी? तब क्या ये समीक्षक देश छोड़कर भाग जाएँगे? अभी तो ये बस शुरुआत है। ‘द ताशकंद फाइल्स’ उस कार्य में सफल रही है जो उसे करना था। लोग लाल बहादुर शास्त्री में नए सिरे से इंटेरेस्ट ले रहे हैं। उनसे जुड़ी पुस्तकें खंगाली जा रही हैं, उनके बारे में युवा पढ़ रहा है। फ़िल्म का जो मोटिव था, जो विवेक अग्निहोत्री का विजन था, जो इस फ़िल्म के निर्माण के पीछे का उद्देश्य था, वो सफ़ल हुआ है।

वीकेंड पर फ़िल्म ने क़रीब सवा 2 करोड़ रुपए बटोरे। कम स्क्रीन्स मिलने के बावजूद जहाँ भी फ़िल्म लगी, उसे अच्छा रिस्पांस मिला। लेकिन बॉक्स ऑफिस से भी बढ़कर फ़िल्म ने आम दर्शकों और युवाओं के बीच जो इम्पैक्ट क्रिएट किया है, वो क़ाबिले तारीफ़ है। रिलीज से पहले निर्देशक और पूरी टीम ने युवाओं के साथ बातचीत की, उनके सवालों के जवाब दिए। आज अगर लाल बहादुर शास्त्री के बारे में नई चर्चा निकल पड़ी है, लोग उनके बारे में और जानने को उत्सुक हो रहे हैं, सोशल मीडिया में उनका नाम गूँज रहा है, इससे अधिक श्रद्धांजलि उस महान आत्मा के लिए और क्या हो सकती है? समीक्षकों के कुटिल संकीर्ण दायरों से आगे निकल चुकी ‘द ताशकंद फाइल्स’ की सफ़लता अब दर्शक तय कर रहे हैं।

अभी तो तुम लोगों (कुटिल समीक्षकों) को और ज़लील होना है

ऑपइंडिया ने फ़िल्म की समीक्षा प्रकाशित की जिसमे बताया गया था कि कैसे ये फ़िल्म सभी पक्षों को सामान रूप से रखकर तथ्यों से छेड़छाड़ किए बिना सच्चाई दिखाने की कोशिश करती है। फ़िल्म के ट्रेलर लॉन्च के मौके पर विवेक अग्निहोत्री ने पूछा था कि अगर मुंबई के सबसे अच्छे स्कूल में पढ़ने वाला उनका बेटा शास्त्रीजी के बारे में नहीं जानता, तो क्या ये हमारे शिक्षा व्यवस्था के लिए बुरी बात नहीं? इस दौरान लाल बहादुर शास्त्री के बेटे सुनील शास्त्री ने पीएम मोदी से अपने पिता की तुलना की। शास्त्रीजी के नाती संजय नाथ सिंह ने बताया कि कैसे उनकी मृत्यु के बाद उनके पार्थिव शरीर के चेहरे पर किसीने चन्दन मल दिया था। विवेक अग्निहोत्री ने ऑपइंडिया को एक्सक्लूसिव इंटरव्यू देते हुए वामपंथियों को ये फ़िल्म देखने का निमंत्रण दिया था। इन सभी लेखों से गिरोह विशेष को तगड़ा झटका लगा।

अभी वीडियो स्ट्रीमिंग पोर्टल्स का ज़माना है और एक बड़े दर्शक वर्ग तक पहुँचने के लिए ‘द ताशकंद फाइल्स’ जब वहाँ रिलीज होगी तब ऐसे समीक्षकों, रोमिला थापर छाप इतिहासकारों व देश से खेल रहे नेताओं व उनके परिवारों में जो खलबली मची हुई है, वो और बढ़ जाएगी। असर हुआ है, दूर तक हुआ है और सबसे बड़ी बात कि ‘द ताशकंद फाइल्स’ जैसी छोटी फ़िल्म ने मात्र 250 स्क्रीन्स में रिलीज होकर ऐसा असर कर दिया है। ये एक ऐसा ग्रेनेड साबित हुआ है जिसके फटने से बहुत कुछ फटा। सबसे बड़ा फायदा तो यह हुआ कि मनोरंजन की दुनिया में पाँव जमाकर बैठे भेड़ की खाल में भेड़ियों की कलई खुल गई।

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अनुपम कुमार सिंह
अनुपम कुमार सिंहhttp://anupamkrsin.wordpress.com
भारत की सनातन परंपरा के पुनर्जागरण के अभियान में 'गिलहरी योगदान' दे रहा एक छोटा सा सिपाही, जिसे भारतीय इतिहास, संस्कृति, राजनीति और सिनेमा की समझ है। पढ़ाई कम्प्यूटर साइंस से हुई, लेकिन यात्रा मीडिया की चल रही है। अपने लेखों के जरिए समसामयिक विषयों के विश्लेषण के साथ-साथ वो चीजें आपके समक्ष लाने का प्रयास करता हूँ, जिन पर मुख्यधारा की मीडिया का एक बड़ा वर्ग पर्दा डालने की कोशिश में लगा रहता है।

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