मुंबई पर हुए आतंकी हमलों को एक दशक से अधिक का समय बीत चुका है। इतना समय बहुत होता है। इतने समय में बहुत कुछ बदलता है, कहानियों से लेकर किरदार सब कुछ! लेकिन किरदारों की ज़मीन में बहुत से ऐसे किस्से होते हैं, जिनके बिना एक काली रात की सुबह होती ही नहीं। 26/11 आतंकी हमले में उस किरदार का नाम है तुकाराम ओंबले। वही नाम, जिसने सरहद पार से आए हुए आतंकी अजमल कसाब के ताबूत में सबसे बड़ी कील ठोंकी।
निहत्थे पकड़ा एके-47 का बैरल
इस नाम की जड़ें बहादुरी की मिट्टी में बहुत गहरी हैं। 27 नवंबर की रात जब ओंबले का गिरगाँव चौपाटी पर अजमल कसाब से सामना हुआ तब ओंबले पूरी तरह निहत्थे थे। यह जानने के बादजूद कि सामने वाले के हाथों में एके-47 है, ओंबले बिना परवाह किए उस पर टूट पड़े। अपने हाथों से उसकी एके-47 का बैरल पकड़ लिया। ट्रिगर दबा और पल भर में कई गोलियाँ चलीं और ओंबले मौके पर बलिदानी हो गए। इसके पहले अजमल कसाब और उसके साथी छत्रपती शिवाजी टर्मिनल पर गोलीबारी कर चुके थे।
लेकिन इस बलिदान ने बहुत गाढ़ी लकीर खींची। लोगों के लिए मिट्टी में मिलने की सबसे गाढ़ी लकीर! ओंबले के पहले तक उनके गाँव से कोई व्यक्ति पुलिस का हिस्सा नहीं बना था पर उनके शहीद होने के बाद 13 युवा पुलिस में भर्ती हुए। मुंबई से 284 किलोमीटर दूर, महज़ 250 परिवारों का गाँव, केदाम्बे। इस गाँव के लिए देश के लिहाज़ से तीन तिथियाँ सबसे अहम हैं – पहली 15 अगस्त, दूसरी 26 जनवरी और तीसरी 26 नवंबर।
बच्चों के चहेते और युवाओं के लिए नज़ीर
तुकाराम ओंबले ऐसे व्यक्ति थे, जो मृत्यु के पहले तक गाँव के बच्चों के चहेते बने रहे और मृत्यु के बाद युवाओं के लिए नज़ीर बने। यही कारण था कि उनकी मृत्यु के बाद लगभग 13 युवाओं ने पुलिस में शामिल होने का फैसला लिया। उनके गाँव के सरकारी विद्यालय में जब बहादुरी का ज़िक्र छिड़ता है, पढ़ाने वाले ओंबले का नाम सामने रख देते हैं।
उनके परिवार वाले आज भी बड़ी शान से बतौर ‘हवलदार’ उनका परिचय देते हैं। ओंबले बचपन में कटहल और आम बेचते थे और बाकी समय में गाय-भैंस चराते थे। उनके मौसा सेना में गाड़ी चलाते थे और तभी से उन्हें सेना वालों और पुलिसकर्मियों की वर्दी से लगाव हुआ। साल 1979 में पुलिस की नौकरी का हिस्सा बनने के लिए ओंबले ने बृहनमुंबई के विद्युत विभाग की नौकरी तक छोड़ दी थी।
मेरे चाचा ने कसाब को पकड़ा
इंडियन एक्सप्रेस द्वारा प्रकाशित किताब ‘26/11 स्टोरीज़ ऑफ़ स्ट्रेंथ’ के मुताबिक़ तुकाराम ओंबले के चचेरे भाई रामचन्द्र ओंबले का एक बेटा है स्वानन्द ओंबले। जब ओंबले मुंबई में शहीद हुए थे, तब उसकी उम्र साल भर भी नहीं थी। अपने विद्यालय में गाना गाते हुए वह बड़ी दमदारी के साथ कहता है – ‘माझ्या कक्कानी कसाबला पकड़ला’ यानी मेरे चाचा ने ही कसाब को पकड़ा था। बल्कि उस कक्षा में जब भी पूछा जाता है कि तुकाराम ओंबले कौन थे? सभी बच्चे एक साथ जवाब देते हैं – ‘पुलिस’।
तुकाराम ओंबले की बेटी वैशाली अक्सर समाचार समूहों को दिए जाने वाले साक्षात्कारों में कहती हैं कि हमें पता है कि हमारे पिता जी नहीं लौटेंगे। फिर भी हम उम्मीद करते हैं कि ऐसा हो कि वह एक दिन वापस आएँ। दुनिया में होने वाली किसी भी आतंकी घटना के बारे में सुन कर बिलकुल अच्छा नहीं लगता है। ऐसी घटनाओं में भी किसी के परिवार का सदस्य अपनी जान जोखिम में डालता है और सब उसकी सलामती की दुआ करते हैं। उन्होंने जितना कुछ किया अपने देश के लिए किया और देश के लोगों के लिए किया।
दूसरों के लिए रुक जाते ज़्यादा देर
तुकाराम ओंबले के सहकर्मी हवलदार संजय चौधरी ने एक समाचार समूह से बात करते हुए कहा था, “इस बात में कोई शक नहीं है कि ओंबले हम सभी से अलग थे। जहाँ हर पुलिसकर्मी ड्यूटी खत्म पर जल्द से जल्द घर की राह देखता था, वहाँ ओंबले अपनी ड्यूटी से ज़्यादा रुक जाते थे। ओंबले अक्सर नाइट शिफ्ट में देर तक रुक जाते थे, जिससे दूसरे पुलिसकर्मियों को कोई असुविधा न हो। इसके बाद अगले दिन सुबह समय से आ भी जाते थे और हमें अपनी ज़िंदगी में इस तरह के पुलिसकर्मी कम ही नज़र आए। जिन्हें लोगों के साथ-साथ अपने साथ ड्यूटी करने वालों की भी उतनी ही परवाह थी।”