Sunday, November 17, 2024
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बलात्कारी कहकर गोली मारने Vs न्यायिक प्रक्रिया के त्वरित होने Vs ‘बनाना रिपब्लिक’ में फर्क होता है

भारतीय कानून अपराध पर नहीं, अपराध क्यों किया गया, इस आधार पर फैसले देता है। यानी क्राइम ही नहीं, मोटिव (प्रेरणा) भी सिद्ध करनी पड़ती है।

कानून की धज्जियाँ उड़ते देखना हो तो मौजूदा दौर देखिए। जिसे हैदराबाद कांड के नाम से जाना जाता है, उसमें पीड़िता का नाम, वो काम क्या करती थी, या उसकी तस्वीरें, आसानी से उपलब्ध हैं। कानून साफ़ तौर पर कहता है (आईपीसी की धारा 228A और पॉक्सो एक्ट की धारा 23) कि बलात्कार जैसे मामलों में पीड़ित की पहचान, किसी भी तरह से उजागर नहीं की जा सकती। इसके बावजूद सोशल मीडिया पर पीड़िता की तस्वीरें तो तैरती दिखी ही, नाम भी हैश टैग की तरह ट्रेंड करता रहा। पत्रकारिता की नौकरी करने वाले हरेक व्यक्ति को (चाहे धारा याद हो ना हो) ये कानून जरूर पता होता है। सवाल ये है कि फिर किसी ने लोगों को क्या ये बताया कि ऐसा करना अपराध भी है और अनैतिक भी लगता है?

ऐसा इसलिए है क्योंकि इस धारा 228A में एक पेचीदगी है। कुछ स्थितियों में पीड़ित की पहचान जाहिर की जा सकती है। जैसे कि पीड़ित की मृत्यु हो जाए, अथवा वो नाबालिग हो या उसकी मानसिक हालत ठीक ना हो तो उसके परिवार की लिखित इजाजत पर ऐसा किया जा सकता है। हाल ही में दिल्ली हाई कोर्ट के कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश गीता मित्तल और न्यायाधीश सी हरि शंकर ने (13 अप्रैल 2018 को) 12 समाचार बेचने वाली कंपनियों को नोटिस जारी किया था। कठुआ कांड में पीड़ित की पहचान उजागर करने के मामले में जिन्हें नोटिस दिया गया था उनमे ‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’, ‘द हिंदुस्तान टाइम्स’, ‘द इंडियन एक्सप्रेस’, ‘द हिन्दू’, ‘एनडीटीवी’, ‘रिपब्लिक टीवी’, और ‘फर्स्टपोस्ट’ शामिल थे।

अक्सर ‘न्याय की हत्या’ के दावे ठोकने वाले वही काम करते हैं जिन पर लोगों को कानूनों और नीतियों के बारे में जानकारी देने की ‘जिम्मेदारी’ (कथित तौर पर) होती है। जहाँ तक अदालतों का सवाल है, किसी की जीवन-मृत्यु का फैसला सुनाना ऐसे ही मुश्किल होता होगा, ऊपर से जहाँ मामले बलात्कार जैसे हों, जिसे अज्ञात कारणों से कुछ भाषाओं में औरत की इज्जत से जोड़ा जाता है (कृपया “औरत” और बलात्कार को “अस्मत-दारी” कहना इन्टरनेट पर ढूँढ कर पढ़ें) तो मुश्किलें और भी बढ़ जाती होंगी। ऐसे ही एक मामले पर कुछ साल पहले “पिकिंग कॉटन” नाम की किताब लिखी गई थी।

जेनिफर थॉमसन के अपार्टमेंट के कमरे में कोई अपराधी घुस आया और छुरे की नोक पर उसने जेनिफर का बलात्कार किया था। जैसे तैसे सिर्फ एक कम्बल लपेटे जेनिफर वहाँ से भागी और उन्होंने पुलिस को बताया कि वो अपराधी को पहचान लेंगी। तीन दिन बाद जब अपराधियों की पहचान करवाई गई तो उन्होंने रोनाल्ड कॉटन को पहचाना। मुकदमा चला और जेनिफर की गवाही पर रोनाल्ड को सजा भी हो गई। 11 साल जेल में काटने के बाद जब डीएनए टेस्ट को सबूत के तौर पर मान्यता मिली तब जाकर पता चल पाया कि रोनाल्ड कॉटन ने तो अपराध किया ही नहीं था! जब उन्हें बरी किया गया तो वो ग्यारह साल, यानी अपनी पूरी जवानी जेल में काट चुके थे।

ऐसा सिर्फ एक बार नहीं हुआ, ऐसे मामलों से निर्दोषों को बचाने के लिए एक पूरा “इनोसेंस प्रोजेक्ट” चलता है जो किसी भी वक्त हजारों मुकदमों की जाँच कर रहा होता है। वो तय करते हैं कि किन मामलों में किसी बेगुनाह को सजा हुई है और उसका मुकदमा दोबारा देखा जाना चाहिए। भारत का मामला देखें तो यहाँ ऐसे भी मामले मिलेंगे जब किसी को बरसों पहले जमानत मिली मगर बेल बांड भर पाने में असमर्थ होने के कारण वो बरसों जेल में सड़ते रहे। न्यायिक प्रक्रिया में सुधारों की बात कई न्यायाधीश अपने पद से मुक्त होने, रिटायर होने के बाद करते हैं।

जहाँ एक तथ्य ये है कि बलात्कार के मामलों में से कई अदालतों तक पहुँचते ही नहीं, क्योंकि कोई एफआईआर दर्ज नहीं हुई, वहीँ एक तथ्य ये भी है कि इनमें से कई मामले फर्जी भी होते हैं। नवम्बर 2003 में वीएस मलिमथ की अध्यक्षता में एक समिति (सीआरसीजेएस) दहेज़ प्रताड़ना के लिए इस्तेमाल होने वाली धारा 498A को जमानती बनाने की सलाह दे चुकी है। बलात्कार, यौन उत्पीड़न जैसे मामले भी ब्लैकमेल के लिए इस्तेमाल होते हैं। कानूनों में सुधार की ऐसी कोई भी चर्चा दब जाती है, या नारीविरोधी कहलाने के खतरे के डर से भी दबा दी जाती है।

न्यायिक प्रक्रिया पर जनता से ज्यादा राजनीतिज्ञों का भरोसा दिखता है, जब वो कहते हैं कि उन्हें कानूनी प्रक्रिया पर पूरा भरोसा है। शायद वो वाकिफ होते हैं कि अदालती फैसले इतने लम्बे समय तक लटकाए जा सकेंगे कि फैसला आने तक एक तो अपराधी की मृत्यु हो चुकी हो, ऊपर से लोग अपराध और उसकी भयावहता को भी भूल जाएँ। जो ये मानते हैं कि अदालती इन्साफ अमीरों के लिए है, गरीबों के लिए नहीं वो अक्सर जमानत पाए व्यक्तियों के जेल में होने का उदाहरण भी देते ही रहते हैं। एक पुलिस एनकाउंटर में आरोपियों को जब हैदराबाद में मार गिराया जाता है तब आम आदमी की जो प्रक्रिया आती है, वो भी दर्शाती है कि न्यायिक प्रक्रिया पर लोगों का भरोसा कितना बचा है।

बाकी भारतीय कानून अपराध पर नहीं, अपराध क्यों किया गया, इस आधार पर फैसले देता है। यानी क्राइम ही नहीं, मोटिव (प्रेरणा) भी सिद्ध करनी पड़ती है। अगर सिर्फ आरोप के आधार पर किसी को बलात्कारी कहकर गोली मारने का जोश थोड़ा कम हो गया हो तो सोचिएगा। न्यायिक प्रक्रिया के त्वरित होने, और ‘बनाना रिपब्लिक’ होने में फर्क तो होता है ना?

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Anand Kumar
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