वैसे वे ‘जय भीम-जय मीम‘ का नारा लगाते नहीं थकते। लेकिन, इतिहास ऐसा साक्ष्यों से भरा पड़ा है जो बताते हैं कि कैसे इस नारे का इस्तेमाल दलितों को छलने, अधिकारों से वंचित रखने, प्रताड़ना देने और यहॉं तक उनके नरसंहार के लिए भी किया गया।
यह सिलसिला आज भी रुका नहीं है। आए दिन दलितों को समुदाय विशेष वालों द्वारा निशाना बनाने की खबरें आती ही रहती है। आर्टिकल 370 और 35-A के कवच तले जम्मू-कश्मीर में दलित ही नहीं, गैर इस्लामी और बाहर से आए तमाम लोगों का पीढ़ी दर पीढ़ी शोषण हुआ। उन्हें अधिकारों से वंचित रखा गया।
बीते साल केंद्र सरकार ने इसे समाप्त कर जम्मू-कश्मीर को केंद्र शासित प्रदेश बना दिया। वहॉं डोमिसाइल की नई नीति लागू की। इसके तहत वंचितों को स्थायी निवासी होने का प्रमाण-पत्र दिया जा रहा है।
लेकिन, इस्लाम के नाम पर इसके खिलाफ भी प्रोपेगेंडा शुरू हो गया है। इसमें केवल जम्मू-कश्मीर की पारिवारिक सियासी पार्टियॉं या फिर लिबरल-वामपंथी गिरोह ही शामिल नहीं है। उम्माह के नाम पर अरबी मीडिया भी घृणा फैलाने के कारोबार में लगा है।
जब जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 के प्रावधानों को निरस्त किए जाने के बाद से ही पाकिस्तानी और चीनी मीडिया में ये प्रपंच फैलाया जा रहा है कि इससे कश्मीरियों को डर के साए में धकेल दिया गया है। भले ही पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों की जनसंख्या कई गुना कम हो गई हो या चीन के शिनजियांग में 20 लाख उइगरों को बंधक बना रखा जाता हो।
अब लोगों को डोमिसाइल सर्टिफिकेट मिलने पर नागरिकता मिलने पर अरब का मीडिया भी इसमें कूद गया है।
‘अरब न्यूज़’ लिखता है कि जम्मू-कश्मीर में ‘डेमोग्राफिक इंजीनियरिंग’ का भय वास्तविकता में बदल रहा है क्योंकि सरकार ने 25,000 ‘बाहरियों’ को वहाँ बसाते हुए नागरिकता देने का फ़ैसला लिया है। जम्मू कश्मीर को देश का एकमात्र मजहब बहुल प्रदेश बताते हुए तथाकथित विशेषज्ञों के हवाले से दावा किया है कि क्षेत्र के डेमोग्राफी में बदलाव के लिए मोदी सरकार ने अप्रैल 2020 में नए नियम बनाए।
साथ ही जम्मू-कश्मीर के आईएएस अधिकारी नवीन चौधरी द्वारा वहाँ डोमिसाइल सर्टिफिकेट प्राप्त करने की भी चर्चा की है। बता दें कि पूर्वी बिहार से ताल्लुक रखने वाले चौधरी जम्मू-कश्मीर में 26 सालों तक कार्यरत रहे हैं। साथ ही एनसीपी और पीडीपी जैसी पार्टियों के हवाले से दावा किया गया है कि जम्मू-कश्मीर के संसाधनों और अधिकारों को छीनने के लिए ये बदलाव किए गए हैं, जिन्हें कश्मीरी आज तक ‘बचाते’ आए हैं।
इसके अलावा यूजुअल सस्पेक्ट ‘अल जज़ीरा’ भी पीछे नहीं रहा और उसने दावा किया कि हज़ारों लोगों को नागरिकता दिए जाने के बाद कश्मीर में रहने वाले मजहब के लोगों में डेमोग्राफी के शिफ्ट होने का डर बैठ गया है। साथ ही भारत-विरोधी रुख रखने वाले अमेरिका में राष्ट्रपति पद के डेमोक्रेट उम्मीदवार जो बिडेन का बयान प्रकाशित किया गया है, जिसमें उन्होंने भारत को कश्मीरियों के अधिकारों की रक्षा करने की सलाह दी है। बता दें कि जम्मू-कश्मीर मामले में भारत विदेशी हस्तक्षेप के विरुद्ध रहा है।
An IAS officer from Bihar, Navin Choudhary, has become the first to be granted domicile certificate in Jammu and Kashmir. @MollyGambhir gets you this report pic.twitter.com/Rg3PmmHAXu
— WION (@WIONews) June 26, 2020
जो बिडेन ने कहा है कि असहमति के अधिकार को दबाना, इंटरनेट प्रतिबंधित करना और शांतिपूर्ण प्रदर्शनों पर लगाम कसना लोकतंत्र के विरुद्ध है। एक कश्मीरी के हवाले से ‘अल जज़ीरा’ लिखता है कि कश्मीर दूसरा फिलिस्तीन बन रहा है। साथ ही वो ‘बाहरियों’ के वहाँ बसने और नौकरियों से वंचित रखने के पक्ष में ‘डेमोग्राफिक बैलेंस’ का बेहूदा तर्क देता है। साथ ही उसने कथित एक्टिविस्ट्स से इसे विनाशकारी करार दिया है।
सबसे पहली बात तो ये है कि सरकार ने ऐसा कोई नियम नहीं बनाया है कि कोई भी व्यक्ति नागरिकता के लिए अप्लाई कर देगा और वो जम्मू-कश्मीर का नागरिक बन जाएगा। ऐसा इसीलिए, क्योंकि जिन्हें नागरिकता मिली है वो पहले से ही राज्य में रह रहे हैं। फिर डेमोग्राफिक बदलाव की बात कहाँ आई? नियमानुसार, जिन्होंने जम्मू-कश्मीर में 15 वर्ष गुजारे हैं अथवा जो 7 साल अध्ययनरत हैं, उन्हें ही नागरिकता देने का प्रावधान है।
वहाँ रजिस्टर हो चुके प्रवासी या ऐसे सरकारी अधिकारियों के बच्चों, जिन्होंने कम से कम 10 साल तक वहाँ सेवा दे चुके हैं, वो ही नागरिकता के योग्य हैं। ऐसे में सवाल ये है कि क्या जो लोग वर्षों से उस क्षेत्र की सेवा कर रहे हैं, उन्हें वहाँ की नागरिकता मिलने का अधिकार तक नहीं, वो भी अपने ही देश में? क्या अरबी मीडिया चाहती है कि सबकुछ एकतरफा रहे। ‘बैलेंसिंग’ तो इसी में है कि दोनों पक्षों को एक-दूसरे से फायदा हो।
क्या आप जानते हैं कि जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटने से सबसे ज्यादा फायदा किसे हुआ? दलितों को, वहाँ के वाल्मीकि समुदाय को। वही वाल्मीकि समुदाय, जो 1957 से ही वहाँ रह रहे हैं और जिसके अधिकतर लोग दशकों से बतौर सफाई कर्मचारी काम कर रहे हैं। एक दलित व्यक्ति ने बताया था कि वो वकील बनना चाहता है, लेकिन अगस्त 2019 से पहले तक ये असंभव था, क्योंकि उसे डोमिसाइल सटिफिकेट ही नहीं मिलता।
Moving all Kashmiri Pandits our of Kashmir didn’t trigger fear of demographic change but one guy getting a domicile triggered the fear. Cute pic.twitter.com/H4fSMCc9iR
— Gappistan Radio (@GappistanRadio) June 26, 2020
एक दलित महिला को बीएसएफ के राज्यवार भर्तियों से निकाल दिया गया था, जिसके बाद उसने सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दी थी। उसे मज़बूरी में पढ़ाई छोड़नी पड़ी थी। हालाँकि, अनुच्छेद 370 पर सरकार के निर्णय के बाद उसने अपनी पढ़ाई फिर से चालू की। एक अन्य दलित युवक ने कहा था कि उसका परिवार पिछले तीन पीढ़ियों से जम्मू-कश्मीर में जातिगत भेदभाव का शिकार रहा है, इसका साक्षी रहा है।
क्या अरबी मीडिया चाहता है कि ये दलित ऐसे ही पीढ़ी दर पीढ़ी गुलामी करते रहें और इन्हें इनका अधिकार न मिले? ये कहाँ का न्याय है कि गरीबों को उनका अधिकार सिर्फ़ इसीलिए न दिया जाए क्योंकि किसी स्थान विशेष मे किसी समुदाय विशेष कि बहुलता को बनाकर रखना है। सवाल डेमोग्राफी का नहीं, समानता का है। क्या किसी हिन्दू बहुल राज्य में किसी अन्य मजहब के लोगों को न बसने देने के पीछे ऐसा तर्क दिया जा सकता है कि इससे हिंदुओं मे डर बन जाएगा?
ये मीडिया संस्थान कहते हैं कि फलाँ इलाके में समुदाय विशेष वाले बहुलता में भी हैं और साथ ही डरे हुए भी हैं। ये कैसा तर्क है? वाल्मीकि समाज के लोग तो 1957 में पंजाब से लाकर बसाए गए थे, लेकिन आज तक उन्हें जम्मू-कश्मीर का निवासी नहीं माना गया और उन्हें स्थायी निवास प्रमाण-पत्र, जिसे PRC कहा जाता है- नहीं दिया गया। राज्य सरकार ने वाल्मीकि समुदाय के लोगों को अपने यहाँ रोजगार देने के लिए नियमों में परिवर्तन कर यह लिख दिया कि इन्हें केवल ‘सफ़ाई कर्मचारी’ के रूप में ही अस्थायी रूप से रहने का अधिकार है और नौकरी दी जाएगी।
आज जब शेष भारत में ऐसा माहौल है कि एक जाति सूचक शब्द बोलने पर सजा हो जाती है तब जम्मू-कश्मीर राज्य वाल्मीकि समुदाय को जाति-प्रमाण पत्र तक जारी नहीं करता था, जिससे इस समुदाय के लोगों को अनुसूचित जातियों के लिए बनाए गए विशेष प्रावधानों और सरकारी योजनाओं के लाभ से वंचित रहना पड़ता था। आज उनसे माफी माँगने कि जगह अरबी मीडिया चाहता है कि उन्हें ऐसे ही बदहाल छोड़ दिया जाए?
अरबी मीडिया को अरब महाद्वीप के अल्पसंख्यकों कि चिंता करनी चाहिए क्योंकि ‘फोर्ब्स’ कि एक रिपोर्ट मे स्पष्ट कहा गया था कि सऊदी अरब व अन्य देशों में अल्पसंख्यकों को प्रताड़ित किया जाता है। यहाँ तक कि सऊदी में खुले में एक चर्च तक को ऑपरेट होने की इजाजत नहीं मिलती। ईशनिंदा में लोगों को फँसाया जाता है।
आखिर क्या कारण है कि अरब देशों में नियम-कानून इस्लाम के आधार पर तैयार किए जाते हैं या फिर इस्लामी तौर-तरीके से प्रेरित होते हैं। महिलाओं के अधिकार से लेकर अल्पसंख्यकों की प्रताड़ना और नॉन-इस्लामी नागरिकों को इस्लाम के अनुसार चलने के लिए बाध्य करना, क्या ऐसी घटनाएँ नहीं होतीं? जाहिर है इस्लाम के नाम पर प्रोपेगेंडा फैलाने वालों से जम्मू-कश्मीर के दलितों की चिंता की उम्मीद नहीं रखी जा सकती।
जिहाद और शरिया के पैरोकारों से यह भी पूछा जाना चाहिए कि जम्मू-कश्मीर की डेमोग्राफी कब बदली थी? इसमें सबसे बड़ा बदलाव तो तब आया था, जब कश्मीरी पंडितों को वहाँ से भगाया गया, उनकी महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया, मस्जिदों से अनाउंस कर उनका नरसंहार किया और उनकी संपत्ति व मातृभूमि से उन्हें वंचित कर अपने ही देश में शरणार्थी बना दिया गया। अरबी मीडिया इस पर बात क्यों नहीं करता?
एक घटना आपको याद दिलाते हैं। मार्च 23, 2003 की रात 7 आतंकवादी पुलवामा के हिन्दू बहुल नदीमार्ग गाँव में घुसे और सभी हिन्दुओं को चिनार के पेड़ के नीचे इकठ्ठा करने लगे। रात के 10 बजकर 30 मिनट पर इन आतंकियों ने 24 हिन्दुओं की गोली मार कर हत्या कर दी। गौर करने वाली बात थी कि 23 मार्च को पाकिस्तान का राष्ट्रीय दिवस मनाया जाता है। ऐसी कई सामूहिक हत्याओं से क्या डेमोग्राफी में बदलाव नहीं आया?
असल में अब जी भी हो रहा है, वो इन्हीं घटनाओं को रोकने के लिए हो रहा है। कश्मीर के जिले अब आतंकवादियों से मुक्त होते जा रहे हैं क्योंकि सेना और सशस्त्र बलों को खुली छूट मिली है। अब पत्थर फेंकने को जो बिडेन या अरबी मीडिया ‘अहिंसक प्रदर्शन’ कहते हैं, तो ये अलग बात है। असल में जम्मू-कश्मीर में 370 को निरस्त किए जाने से लेकर दलितों को नागरिकता तक, ‘वास्तविक बैलेंसिंग’ प्रक्रिया यही तो है।