Saturday, April 27, 2024
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जनजातीय समाज बोझ नहीं, एक संपदा: अंग्रेजी ‘ट्राइबल’ मानसिकता से नहीं, नायकों की कहानियों से समझना होगा देश को

"जनजातीय समाज की छवि औपनिवेशिक कथानक के आधार पर देश में गढ़ी गई, जो उनके यथार्थ से पूरी तरह भिन्न है... यहाँ तक कि विश्वविद्यालयों में जनजातीय समाज को पढ़ाया जाता है कि तुमको जो मालूम है, वह तुम नहीं हो, हम जो तुम्हारे बारे में पढ़ा रहे हैं, वह तुम हो। वह भी भ्रमित हो जाता है।"

प्राचीन काल से ही भारत में जनजातीय समाज की महत्वपूर्ण स्थिति रही है। परंतु अंग्रेजों ने परिभाषा बदल दी। उन्होंने औपनिवेशिक कारणों से नई परिभाषाएँ गढ़ीं, नए नाम दिए। ट्राइबल शब्द का प्रयोग प्रारंभ किया और उसकी परिभाषा उन्होंने यूरोपीय तरीके से की, जो भारत पर लागू नहीं होती थी।

इस प्रकार लगभग 150 वर्षों से उन्होंने ऐसा एक कथानक गढ़ा जो आज भी जारी है। इस कथानक की रचना उन्होंने नृतत्व विज्ञान के रूप में की। इस कथानक का ही परिणाम है कि जनजातीय समाज को बोझ समझा जाता है। सचाई यह है कि जनजातीय समाज बोझ नहीं, एक संपदा है। ये बातें राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष हर्ष चौहान ने दिल्ली आईआईटी से सीनेट हॉल में आयोजित एक कार्यक्रम में कही।

आयोग की तरफ से दिल्ली आईआईटी में जनजाति समुदाय एवं विश्वविद्यालयों में अनुसंधान विषय पर एक कार्यक्रम आयोजित किया था। कार्यक्रम में पटना, रांची, पटना, हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय व आईआईटी रायपुर के अलावा देशभर के 30 से ज्यादा विश्वविद्यालयों के कुलपति शामिल हुए थे।

दरअसल आजादी के अमृत महोत्सव के तहत राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग देशभर के विभिन्न विश्वविद्यालयों से जनजाति समाज से आने वाले नायकों को लेकर शोध करने के लिए कहा है। ताकि उन नायकों की कहानियाँ भी लोगों तक पहुँच सके। इसके अलावा जनजातीय समाज से जुड़े विभिन्न विषयों पर विश्वविद्यालयों द्वारा उनके यहाँ शोधकार्य को बढ़ावा देने के लिए कहा है।

जनजाति समुदाय एवं विश्वविद्यालयों में अनुसंधान विषय पर आयोजित कार्यक्रम में आए गणमान्य लोग

आयोग के अध्यक्ष हर्ष चौहान ने इस विषय और अधिक प्रकाश डालते हुए कहा कि हमारे संविधान निर्माताओं के पास यह दृष्टि थी और इसलिए उन्होंने जनजातीय समाज के लिए अद्भुत प्रावधान किए, जो विश्व में इकलौते हैं। उनकी दूरदृष्टि पर हमें गर्व होना चाहिए। पूरे विश्व में जनजातीय समाज की संपदा को सुरक्षित रखने के लिए कहीं भी ऐसे प्रावधान नहीं हैं।

जनजातीय समाज एक मौन समाज है। वह शोर नहीं मचाता। प्रारंभ में अनुसूचित जाति तथा जनजाति का एक ही मंत्रालय था, जबकि दोनों में काफी भिन्नता है। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में पृथक मंत्रालय बना और आयोग की रचना हुई। परंतु अपने देश की यह समस्या है कि नीति-निर्माताओं से लेकर उसके क्रियान्वयन करने वालों तथा अकादमिया तक को जनजातीय समाज की बहुत कम जानकारी है। वर्तमान सरकार ने इस पर ध्यान दिया है और कई योजनाएँ बनाई गई हैं।

इन सभी योजनाओं तथा उनके क्रियान्वयन में मुख्य समस्या यह है कि जनजातीय समाज की छवि और उनके यथार्थ में एक बड़ा अंतर है। जनजातीय समाज की एक छवि औपनिवेशिक कथानक के आधार पर देश में गढ़ी गई है, जो उनके यथार्थ से पूरी तरह भिन्न है। सामान्यतः नीतियाँ उस छवि के आधार पर बनती हैं और इसलिए अच्छी नीयत से बनी होने के बाद भी उनका क्रियान्वयन नहीं हो पाता है।

इसका समाधान विश्वविद्यालयों के पास है। विश्वविद्यालयों में जनजातीय समाज को पढ़ाया जाता है कि तुमको जो मालूम है, वह तुम नहीं हो, हम जो तुम्हारे बारे में पढ़ा रहे हैं, वह तुम हो। वह भी भ्रमित हो जाता है। इससे ही संभ्रम पैदा हो रहा है। इस पर विचार करना होगा। जनजातीय समाज और उनके मुद्दों पर शोध कैसे हो, इस पर विचार किया जाना जरूरी है। शोध का प्रारंभ विश्वविद्यालयों से होगा, तभी इसका समाधान हो पाएगा।

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ऑपइंडिया स्टाफ़
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कार्यालय संवाददाता, ऑपइंडिया

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