फ्लेमिंग की जेम्स बॉन्ड श्रृंखला किताबों के रूप में प्रसिद्ध रही, लेकिन उससे ज्यादा प्रसिद्धि शायद फिल्मों की वजह से मिली होगी। जैसा कि सबको पता है, इसमें जेम्स बॉन्ड एक ऐसे ब्रिटिश जासूस बने होते हैं जो साजिशों से देश-दुनियाँ को बचा रहा होता है। जेम्स बॉन्ड श्रृंखला की प्रसिद्धि के ही समय का कॉन्ग्रेसी जुमला, “इसके पीछे विदेशी ताकतों का हाथ है!” संभवतः कॉन्ग्रेसियों ने अपने बगलबच्चा कॉमरेडों से सीखा होगा। हर कामयाबी का श्रेय खुद ले लेना और नाकामियों के लिए किसी बेचारे मासूम को कुर्बान करना उनकी आदतों में शुमार रहा है।
शुरुआत की दौर की फिल्मों में जब जेम्स बॉन्ड का किरदार साव्न कॉनरी निभा रहे होते थे, तब किताब पर आधारित जेम्स बॉन्ड की कहानी होती थी मगर बाद में अलग से भी, सिर्फ फिल्मों के लिए कहानियाँ गढ़ी गईं। हर बार जेम्स बॉन्ड विदेशी साजिशों से भी नहीं निपट रहा होता। एक-आध फ़िल्में ऐसी भी हैं, जिसमें उसका शत्रु उतना स्पष्ट नहीं है। ऐसी एक फिल्म थी “टूमोरो नेवर डायज़” जिसका खलनायक एक बड़ी सी मीडिया कंपनी का मालिक होता है। वो अपने फायदे के लिए तीसरा विश्व युद्ध करवाने पर तुला होता है।
मीडिया के बड़े आदमी इलियट कार्वर को खलनायक के रूप में दिखाती इस फिल्म की ख़ास बात इसके किरदारों के नाम, उनकी भूमिका में भी दिखेंगे। खलनायक के साथ जो साइबर-टेररिस्ट काम कर रहा होता है, उसका नाम हेनरी गुप्ता, जी हाँ, गुप्ता था। इसमें जो लड़की जेम्स बॉन्ड की मदद कर रही होती है, वो चीनी जासूस थी। कंप्यूटर-इन्टरनेट जगत में बढ़ते भारतीय प्रभाव और चीन के प्रति बदल रहे नजरिये की झलक दिखती है। फिल्म की शुरुआत में ही खलनायक कहता है, “अच्छी खबर वो है जो बुरी खबर हो!”
बुरी खबरों से टीआरपी ज्यादा मिलती, इसलिए मीडिया वाला बुरी खबर फैलाना चाहता था। ये बिलकुल भारत और इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ़ (ना)पाकिस्तान के हालिया घटनाओं में दिख जाएगा। सीआरपीएफ के जवानों का मारा जाना उनके लिए अच्छी खबर थी, क्योंकि वो हमारे लिए बुरी खबर थी। एक विंग कमांडर के जहाज का शत्रु सीमा में दुर्घटनाग्रस्त होना उनके लिए अच्छी खबर थी, क्योंकि वो हमारे लिए बुरी खबर थी। गिद्ध और बच्चे वाली तस्वीर जैसा ही वो घात लगाए इंतजार करते रहे ताकि लाशों से बोटियाँ नोची जा सके।
आतंकियों का हमला हम पर लगातार 1947 से ही जारी है। सीधी लड़ाई में बार-बार हार जाने वाला पड़ोसी ऐसे जेहादियों को चुनता है, जो परोक्ष युद्ध जारी रख सके। हम हमलों का जवाब दें तो वो बेशर्मी से #SayNoToWar भी कहते हैं! युद्ध चाहने वालों को सीमा पर क्यों जाना चाहिए? अक्षरधाम, मुम्बई तो क्या सीधा संसद पर भी तो हमला कर चुके हैं। मैं सीमाओं से बहुत दूर भी युद्ध क्षेत्र से बाहर कहाँ हूँ? शांति और अमन का ये सन्देश लेकर आप लश्कर और जैश-ए-मुहम्मद के कैंप में क्यों नहीं जाते ये तो #शांतिदूतों को बताना चाहिए!
फिल्मों से बात शुरू हुई थी तो “फ़िल्में समाज का आईना होती हैं” वाला जुमला भी याद आता है। एकतरफा मुहब्बत में जैसे मासूम लड़कियों पर एसिड अटैक होता है, वैसी ही फिल्म “डर” के आने के बाद से काफी कुछ बदला था। लोग उस दौर में “खलनायक” वाले संजय दत्त और शाहरुख़ जैसे बाल रखने लगे थे। कई बच्चों का नाम भी “डर” के उस दौर में “राहुल” पड़ गया था। कल जब अभिनन्दन लौटे तो कई बच्चों का नाम अभिनन्दन रखे जाने की खबर भी आने लगी। रील लाइफ से मुँह मोड़कर भारत अब रियल लाइफ के नायकों को “हीरो” मानने लगा है।
बाकी जिन्हें ये असहिष्णुता लगती हो उन्हें समझना होगा कि आबादी में युवाओं-युवतियों का प्रतिशत बढ़ते ही भारत अब बदल गया है। इमरान के लिए अगर क्रिकेट भी जिहाद है तो उनके जुल्मो-सितम पर ही नहीं, ऐसी हरकतों के समर्थकों के दोमुँहेपन के लिए भी असहिष्णुता बरती जाएगी। अन्याय के प्रति असहिष्णु होना ही चाहिए।