Saturday, April 27, 2024
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मोदी की माँ की तस्वीरों से जूतों की कहानी तक, लिबरलों के धुआँ क्यों निकल रहा है

आज के समय में जब लिबरल ब्रीड अपनी माँ-बाप को ओल्ड ऐज होम और वृद्धाश्रमों में भेजने की वकालत करता दिखता हो, जिनके लिए माता-पिता का उनको घरों में होना अपमान की बात हो, उनके लिए ऐसी तस्वीरें आँखों में सौ-सौ सुइयाँ चुभाने वाली तो लगेगी ही।

लिबरलों की जो ब्रीड है वो कई मायनों में आपको अचंभित करती है। खुद को स्वघोषित विद्वान मानते हैं, ब्रीड का नाम ही लिबरल है तो खुले विचारों के तो वैसे ही क्लेम करने लगते हैं, हर तरह के ‘वाद’ से परे बताते हैं खुद को, हर तरह के विचारों का सम्मान इनकी प्रस्तावना का हिस्सा है, लेकिन क्या ऐसा सच में है? बिलकुल नहीं, क्योंकि ये सारी परिभाषाएँ और परिमितियाँ तब ही सही होती हैं, जब एक लिबरल ब्रीड वाला, दूसरे लिबरल के बालों को जीभ से चाट रहा हो।

कहने का मतलब यह है कि इस ब्रीड की सारी ख़ासियतें इन पर ही जब लगाई जाएँ तो परिभाषाएँ एक तरफ, इनका आचरण दूसरी तरफ। दोनों में दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं। ये वैसे बॉलर हैं जो नाम के आगे स्पिनर लिखवाते हैं और गेंद की गति 120 से कम नहीं रहती। खेलने वाला यह सोचता है कि गेंद घूमेगी, और गेंद सीधी रहने से वो एलबीडब्ल्यू हो जाता है।

जैसे कि लिबरल ब्रीड का व्यक्ति जब असहिष्णुता का डिबेट शुरू करता है तो वो सिर्फ शब्द पकड़ लेता है। वो ऐसा इसलिए करता है कि इनके व्हाट्सएप्प ग्रुपों में कहा जाता है कि इसको चर्चा में लाना है। भले ही इनकी ब्रीड के पुरोधा लिफ़्टों में लड़कियों का मोलेस्टेशन करते पाए जाते हैं, दंगा फैलाने वाली बातें करते हैं, इन फैक्ट जिनके बाप दंगाई रह चुके हों, पार्टी के काडर दूसरी पार्टियों के लोगों को सरेबाजार काट देते हों, वैचारिक असहमति रखने वाले विरोधियों को नमक की बोरियों के साथ ज़िंदा दफ़ना देते हों, ये जिनके साथ खड़े होते हों, उनके राज्य में हर ज़िला साम्प्रदायिक दंगों से पीड़ित हो, और राजनैतिक हत्याओं का क़ब्रिस्तान बन चुका हो, लेकिन ये कहलाते लिबरल ही हैं।

कहलाने में कोई कमी नहीं रखते। इनके लिए किसी नेता के अपनी माँ के पैर छूना अपनी माँ को राजनीति में घसीटना हो जाता है। मैं मोदी द्वारा अपने पैतृक आवास पर, चुनावों में वोट देने से पहले अपनी माँ के पाँव छूने की तस्वीर की बात कर रहा हूँ। मोदी देश के प्रधानमंत्री हैं। आज के दौर में जब तैमूर के नैपी देखने को बेताब ये लिबरल ब्रीड के लोग, मोदी की माँ की तस्वीर पर बौखला रहे हैं तो वो कुछ भूल रहे हैं, जो बहुत ही बुनियादी बात है।

चुनावों के दौरान हर रैली की लाइव कवरेज होती है, हर बड़े नेता की हर बात पर मीडिया नजर रखती है। चाहे ज़मानत पर बाहर घूम रहे राहुल गाँधी की ज़मानत पर बाहर घूम रही माता सोनिया गाँधी के नामांकन से पहले उनके आवास पर हो रहे हवन में शामिल ज़मीन डील के आरोपित रॉबर्ट वाड्रा और उनकी पत्नी प्रियंका गाँधी जो स्वयं जमीन मामलों में संलिप्त होने की आरोपित हैं, इन सबकी तस्वीर भी तो आई थी, वो तो बड़ा क्यूट मोमेंट था!

प्रियंका की नाक से लेकर राहुल के जनेऊ तक की तस्वीरों पर लिबरल ब्रीड स्खलित होता रहा, चरमसुख पाता रहा। दक्षिणपंथियों ने तो कभी नहीं कहा कि बहन और जीजा के साथ, भाँजे-भाँजी को राजनीति में खींच रहे हैं ज़मानत पर बाहर चल रहे घोटालों के आरोपित राहुल और घोटालों के आरोपित सोनिया। न तो लिबरलों की ब्रीड ने इस बात पर अपनी नग्नता दिखाई। उस समय तो वो स्वामिभक्ति दिखा रहे थे कि आह राहुल, वाह राहुल, कितने क्यूट डिंपल हैं!

यही अदा तो एक सितम है!

जब आपकी हर मूवमेंट पर मीडिया कैमरा लेकर दौड़ रहा हो, तो आपके पास छुपाने को बहुत कुछ नहीं रहता। दूसरी बात, मोदी के लिए इन बातों का महत्व है। आज के समय में जब लिबरल ब्रीड अपनी माँ-बाप को ओल्ड ऐज होम और वृद्धाश्रमों में भेजने की वकालत करता दिखता हो, जिनके लिए माता-पिता का उनको घरों में होना अपमान की बात हो, उनके लिए ऐसी तस्वीरें आँखों में सौ-सौ सुइयाँ चुभाने वाली तो लगेगी ही।

ये तस्वीर महज़ एक व्यक्ति का अपनी माँ के पैर छूने जैसा नहीं है। ये उन संस्कारों का मूर्त रूप है कि हम चाहे जो भी हो जाएँ, हर शुभ कार्य से पहले उस शक्ति का, उस माता-पिता का आशीर्वाद लेना न भूलें जिनके कर्म और शुभाशीषों ने हमें वो बनाया जो हम हैं। अगर, दिखावे के लिए ही सही, आशीर्वाद लिया जा रहा है, तो भी यह एक प्रतीक है, एक तरीक़ा है उन लाखों बच्चों में अपने माता-पिता के लिए सम्मान का भाव जगाने का।

यहाँ एक छोटी कहानी सुनाना चाहूँगा। दो युवा साधु थे, सामने नदी थी और एक युवती जिसे पार जाना था। युवती को तैरना नहीं आता था, और काफी डर रही थी। साधु ने अपने मित्र से कहा कि वो जा रहा है उसकी मदद करने। पहले साधु ने कहा कि स्त्री को छूने से ब्रह्मचर्य नष्ट हो जाएगा। दूसरे ने कहा कि मन में पाप न हो तो ब्रह्मचर्य क्योंकर नष्ट होगा। पहला अड़ा रहा कि वो तो मदद नहीं करेगा।

दूसरे ने युवती से अनुमति माँगी और उसे कंधे पर लेकर नदी को पार कर गया। युवती ने साधु का धन्यवाद किया और अपने रास्ते चली गई। दोनों साधु आश्रम पहुँचे। पहला साधु गुरु के पास गया और सारी बात बताई कि उसके साथी ने युवती को कंधे पर लाद कर नदी पार करा दी। गुरुदेव ने कहा, “तुम्हारे साथी ने तो युवती को वहीं पार करा दिया, और तट पर ही छोड़ आया, लेकिन तुम तो उसे अभी भी कंधे पर लिए चल रहे हो।”

उसी तरह, मोदी ने तो माताजी का आशीर्वाद लिया और चले गए, लेकिन लिबरल ब्रीड अभी भी उस तस्वीर को अपने वीआर हेडसेट का वालपेपर बनाए पागल हो रहा है। मोदी रैली में व्यस्त है, इंटरव्यू खत्म हो गया, लेकिन लिबरल ब्रीड कंधे पर लेकर घूम रहा है। लिबरलों के पोस्टर ब्वॉय लिंगलहरी कन्हैया की गरीब माँ पर खूब आहें निकलीं, कैमरा तो उसके घर में भी घुसा था, उसके घर का राजनीतिकरण हुआ कि नहीं?

अक्षय कुमार द्वारा लिए गए नॉन-पोलिटिकल इंटरव्यू में अपने कैनवस जूतों के बारे में बताने पर भी कई लोग मानसिक रूप से परेशान हो गए हैं और फिर चाय बेचने वाली बात को ले आए। ये बातें उनकी वैचारिक नग्नता का परिचायक हैं कि तुम चुनावों में मोदी की ही पिच पर घूमते रहो, मोदी आया, बैटिंग की, खूब धोया और निकल गया। तुम घास छू कर पगलाते रहो। तुम खेल को खेल के समय, उसके नियमों के मुताबिक़ मत खेलो, तुम उसे अपने पूर्वग्रहों के आधार पर, खेल की समाप्ति के बाद खेलो।

ज़ाहिर है कि विरोधियों की हालत फिर वैसी ही होगी, जैसी है। उन्हें सिर्फ नकारने के लिए और उनकी नग्नता पर ध्यान खींचने के लिए लोग याद करते हैं। यह समय चुनावी मुद्दों पर मोदी के बयानों के पोस्टमार्टम में जाता, तो एक डिबेट हो सकती थी। एक चर्चा का जन्म होता, जिस पर लोग राय रखते। लेकिन लिबरल गैंग और मीडिया गिरोह इस बात पर ज़्यादा ध्यान दे रहा है कि मोदी चाय बेचता था कि नहीं, उसके जूतों पर चॉक रगड़ता था कि नहीं।

अपनी माँ के पैर छूना कोई अवगुण नहीं, न ही गरीब परिवार में पैदा होना और उस गरीबी को आजीवन याद रखना। लोग तो थोड़ा पैसा या पद पाते ही अपने भूत को मिटाने की हर संभव कोशिश करते हैं। लेकिन मोदी उसे अपना संबल बना कर, दूसरों के लिए एक प्रतीक बन कर आया है कि हर व्यक्ति अपने जीवन में मेहनत, लगन, उत्साह और जीवटता से जो चाहे पा सकता है।

लिबरल ब्रीड भी मेहनत, लगन, उत्साह और जीवटता दिखा रही है, लेकिन उनका लक्ष्य एक व्यक्ति से घृणा है। समाज के लिए ऐसे लोग भी ज़रूरी हैं, ऐसे प्रतिमान भी समाज में होने चाहिए जिसे आम जनता देखे तो कहे कि आदमी मर जाए, लेकिन ऐसा घृणित जीवन जीना पसंद न करे।

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अजीत भारती
अजीत भारती
पूर्व सम्पादक (फ़रवरी 2021 तक), ऑपइंडिया हिन्दी

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