जम्मू कश्मीर के पुलवामा जिले में आतंकवादियों ने एक स्पेशल पुलिस अफसर के घर पर हमला कर दिया। हमले में एस पी ओ फ़याज़ अहमद के घर में घुसकर आतंकवादियों ने ताबड़तोड़ फायरिंग की जिसके परिणाम स्वरुप वे, उनकी पत्नी और बेटी गंभीर रूप से घायल हो गए। तीनों को अस्पताल ले जाया गया जहाँ पुलिस अफसर और उनकी पत्नी को मृत घोषित कर दिया गया। बेटी को श्रीनगर के एक अस्पताल में भर्ती करवाया गया है। इस खबर की रिपोर्टिंग करते हुए बीबीसी ने आतंकवादियों को चरमपंथी बताते हुए निम्नलिखित ट्वीट लिखा ;
पुलवामा ज़िले में चरमपंथियों ने जम्मू-कश्मीर पुलिस के एक स्पेशल पुलिस ऑफ़िसर और उनकी पत्नी की गोली मारकर हत्या कर दी है. हादसे में उनकी बेटी भी गंभीर रूप से जख़्मी हुई हैं.https://t.co/9OiBouuRbV pic.twitter.com/Jy5RYkeSqq
— BBC News Hindi (@BBCHindi) June 28, 2021
कई बार आतंकवादियों को चरमपंथी, मिलिटेंट्स या बंदूकधारी बताना बीबीसी के लिए नई बात नहीं है। इसे देखते हुए बीबीसी द्वारा आज फिर ऐसा करना जरा भी आश्चर्यचकित नहीं करता। पर जो बात हर बार आश्चर्यचकित करती है वह यह है बीबीसी ने यह नीति कश्मीर में हुई आतंकवादी घटनाओं की रिपोर्टिंग के लिए खास तौर पर दशकों से अपना रखी है। कश्मीरी आतंकवादियों को बीबीसी कभी चरमपंथी तो कभी गनमेन बताता रहा है। ऐसे में प्रश्न उठता है कि बीबीसी जैसी वैश्विक समाचार संस्था के लिए आतंकवादियों को चरमपंथी बताना आवश्यक क्यों है? क्यों इन्हें आतंकवादी नहीं कहा जा सकता? बीबीसी की यह नीति किस हद तक न्यायसंगत है?
यदि बीबीसी को लगता है कि यह न्यायसंगत है तो फिर वैश्विक आतंकवाद के विरुद्ध दुनियाँ की लड़ाई का क्या होगा? क्या यह प्रश्न नहीं पूछा जाना चाहिए? वैसे देखा जाए तो कश्मीर में आतंकवादियों के पक्ष में बोलना या उनका अपोलॉजिस्ट बनने का काम केवल बीबीसी नहीं करता। आतंकवादियों और सेना, अर्ध सैनिक बल या पुलिस के बीच मुठभेड़ की रिपोर्टिंग में देशी मीडिया आतंकवादियों को चरमपंथी भले न कहे पर यह रिपोर्टिंग देशी पत्रकार और संपादकों के लिए भी अवसर लेकर आती है। वे ऐसे अवसरों पर अपने तरीके से अपोलॉजिस्ट बनने का काम करते हैं।
कई बार तो लगता है जैसे ये लोग इस बात की प्रतीक्षा में रहते हैं कि एक मुठभेड़ हो जाती तो आतंकवाद के लिए अपोलॉजिस्ट बनने का मौका मिल जाता। जब तक मुठभेड़ नहीं होती और रिपोर्टिंग का मौका न मिले तो किस बहाने आतंकवादियों के लिए अपोलॉजिस्ट बना जाए या किस बहाने उनके कर्मों पर चूना पोता जाए? दरअसल देशी मीडिया मुठभेड़ की रिपोर्टिंग में अपने अलग ही खेल रचता है। जैसे कोई आतंकवादी मारा जाए तो उसके प्रिय खेल, प्रिय गाने, प्रिय पहनावे वगैरह पर लिखा जा सके।
यह बताया जा सके कि; वो गणित के समीकरण हल करना चाहता था पर एक दिन अपने मोहल्ले में उसने देखा कि एक पुलिस वाला कुत्ते को पत्थर मार रहा था। बस वह गणित के समीकरण छोड़ ‘चरमपंथी’ बन गया। या फिर उसके पिता हेड मास्टर थे और वह खुद मास्टर बनना चाहता था पर उसके पास मास्टरी का फॉर्म भरने के लिए कलम नहीं थी और उसने निश्चय किया कि वह आतंकवादी बने…. सॉरी, चरमपंथी बनेगा। या यह कि मरने वाला नौजवान धोनी का फैन था और वह विकेट कीपर बनना चाहता था। एक दिन सेना के एक जवान ने उसका दस्ताना छीन लिया और इसलिए यह नौजवान चरमपंथी बन गया।
यदि मीडिया के ऐसे ही खेल रहे तो फिर आतंकवाद के विरुद्ध वैश्विक नैरेटिव का क्या होगा? रिपोर्टिंग को लेकर हर मीडिया हाउस की अपनी नीति हो सकती है पर कुछ बातें तो ऐसी होनी चाहिए जिन्हें लेकर कोई समझौता न हो। भारत द्वारा 370 हटाए जाने के बाद वैश्विक मीडिया संस्थानों की नीति में बदलाव आए दिन भारत के नक़्शे को गलत ढंग से दिखाए जाने से लेकर कश्मीरी आतंकवाद पर पर्दा डालने तक में दिखाई देता है। कई बार ऐसा लगता है जैसे ये संस्थान जानबूझकर भारत सरकार को चिढ़ा रहे हों।
पर एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि बीबीसी जैसी न्यूज़ संस्था क्या हर आतंकवादी को चरमपंथी कहता है? या यह नीति केवल कश्मीरी आतंकवादियों तक सीमित है? महत्वपूर्ण बात यह है कि बीबीसी ने अपनी रिपोर्टिंग में आतंकवादी शब्द का इस्तेमाल न करने का फैसला एक नीति के तौर पर भले ही 2019 में अपनाया हो पर कश्मीरी आतंकवाद के मामले में उसने यह नीति कई वर्षों से अपना रखी है। पर एक प्रश्न यह है कि क्या बीबीसी IRA के आतंकियों को भी पहले से ही चरमपंथी बताता रहा है? भारत में होने वाली आतंकवाद की घटनाओं को लेकर बीबीसी की रिपोर्टिंग पर सवाल हमेशा से उठते रहे हैं। प्रश्न यह है कि बीबीसी इस विषय पर भारत सरकार या भारतीयों की भावना को लेकर कभी गंभीर होगा?