Tuesday, March 19, 2024
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पाठकों तक हमारी पहुँच को रोक रही फेसबुक, मनमाने नियमों को थोप रही… लेकिन हम लड़ेंगे: ऑपइंडिया एडिटर-इन-चीफ का लेटर

ऑपइंडिया हिंदी का पेज फेसबुक पर अनपब्लिश होने की कगार पर है। ऐसे में फेसबुक के साथ हमारी ये लड़ाई में कई उतार-चढ़ाव आ रहे हैं। इनका अब तक कोई समाधान नहीं निकला है। कारण बहुत तुच्छ और मोटिवेटिड हैं। ऐसा लगता है मानो कोई अदृश्य हाथ है जिसने न केवल ऑपइंडिया की रीच को कम किया हो।

प्रिय पाठकों, 

पहले मैं बता देती हूँ कि आखिर मैं ये पत्र क्यों लिख रही हूँ और क्यों मैंने निर्णय लिया है कि मैं महीने में ये आपको कम से कम 1 बार तो जरूर लिखूँगी। जब मैं ऑपइंडिया से जुड़ी, उस समय हम एक बहुत छोटी ईकाई थे और पाठकों से हमारी बातचीत मात्र नियमित नहीं बल्कि बहुत व्यक्तिगत और उपयोगी भी थी। हम जैसे-जैसे आगे बढ़े ये परस्पर संवाद का सिलसिला कम होता गया।

सोशल मीडिया के जरिए हम एक दूसरे से जुड़े थे, लेकिन इसके भँवर में बातचीच कम होती गई, संदेश कहीं गायब से होने लगे। कम से कम जहाँ से मैं देखती हूँ, हमारी बातचीत बिलकुल कम ही हो गई। काम का भार बढ़ने और संसाधनों के समान रहने के कारण टीम का हर सदस्य अपनी क्षमता की अधिकतम सीमा तक काम करता है।

आशा करती हूँ कि ये पत्र एक नई शुरुआत होंगे। मैं जानती हूँ कि इससे दो तरफा संवाद नहीं होगा लेकिन ये एक कोशिश है कि आप सबके साथ हमारी ईमानदारी से बातचीच हो और एक प्रयास है कि सही मायनों में आप हम से जुड़े रहें। हम ज्यादा से ज्यादा कोशिश करेंगे ये बताने की कि भीतर क्या चल रहा है। अगर हुए तो,  हम आपको अपनी उपलब्धियाँ और अपने संघर्ष भी बताएँगे। वैकल्पिक मीडिया के पास दुनिया में घटित हो रही चीजों से आँख मूँदकर कोने (Ivory tower) में बैठने की लग्जरी नहीं होती। इसका अस्तित्व ही मीडिया के उस हिस्से का विरोध है, जो पारदर्शिता को धता बताते हैं, या फिर लोगों को धोखे में रख कर पारदर्शिता का दिखावा करते हैं।

मैं झूठ नहीं कहूँगी, पिछले कुछ माह हमारे लिए कुछ संघर्ष वाले रहे। हम जैसे बढ़े हमसे उम्मीदें भी बढ़ गईं। एक तरफ जहाँ ये सब गर्व की बात थी कि फ्रीलांसरों द्वारा चलाए जा रहे एक ब्लॉग से हमने एक छोटे समय में अपने पाठकों में इतना दर्जा पा लिया कि वो हमसे अधिक की उम्मीदें करने लगे। दूसरी ओर हमारे पास मौजूद संसाधनों से उन उम्मीदों को पूरा करना भी हमारे लिए एक चुनौती रहा, चाहे ज्यादा हो या कम।

इन सबको एक दुष्चक्र की तरह सोचें। हमें नहीं मालूम कि हम अधिक संसाधन कहाँ से लाएँ, जब तक कि हम वह चीजें नहीं करते, जिनके लिए बड़े संसाधनों की आवश्यकता है।

अब जब हम इन सबके लिए संसाधन जुटाने के लिए संघर्ष कर रहे है, इस क्रम में हमारे ज़रूरत से ज्यादा दुश्मन बन गए हैं। कम से कम मेरे मामले में तो हमने जितना सोचा था उससे काफी ज्यादा। आप देखिए, मैंने ऑपइंडिया ज्वाइन किया था क्योंकि मुझे लिखना पसंद था और मुझे नहीं पता कि कब ये सब मेरे लिए मुझसे ज्यादा बड़ा हो गया। मैं दूसरों के लिए नहीं बोल पाती और मुझे यकीन है कि टीम के बाकी सदस्य भी ऐसा महसूस करते होंगे। कुछ ऐसे प्रोजेक्ट होते हैं जो आप अपने लिए उठाते हैं और जब आप उसे समझते हैं तो वह समझ उस प्रोजेक्ट को बरकरार रखने का कारण बन जाती है। आज यही ऑपइंडिया है।

अदालत में कुछ मामलों पर हमारी लड़ाई जारी है, जिनमें से एक केस इंडिया टुडे द्वारा दायर किया गया है, एक पत्रकार द्वारा जो हमारे लिए प्रतिष्ठा का मामला बन गया है, एक जिहादी द्वारा और कुछ अन्य, जिसमें वह कोर्ट केस भी शामिल है जिसमें मेरे परिवार और मुझसे पूछताछ की गई। इसके अलावा फेसबुक के साथ एक और लड़ाई हफ्तों से चल रही है।

ऑपइंडिया हिंदी का पेज फेसबुक पर अनपब्लिश होने की कगार पर है। ऐसे में फेसबुक के साथ हमारी ये लड़ाई में कई उतार-चढ़ाव आ रहे हैं। इनका अब तक कोई समाधान नहीं निकला है। कारण बहुत तुच्छ और मोटिवेटिड हैं। ऐसा लगता है मानो कोई अदृश्य हाथ है जिसने न केवल ऑपइंडिया की रीच को कम किया हो बल्कि जानबूझकर कमियाँ खोजीं जो उनके मनमाने स्टैंडर्ड के ख़िलाफ़ निकलें और वह उनका इस्तेमाल उन्हें रोकने के लिए करें जिनसे वह सहमत नहीं थे।

फेसबुक ने जिन पोस्टों पर नाराजगी जताई, उनमें से एक रिपोर्ट थी जिसमें विस्तृत रूप से बताया गया था कि पश्चिम बंगाल में भाजपा कार्यकर्ताओं की बेरहमी से हत्या की जा रही थी, जो कि हाल ही में देखी गई राजनीतिक हिंसा का सबसे बुरा रूप थी। आप पूछते हैं ऐसा क्यों हुआ? ठीक है, लेकिन फेसबुक तो पहले ही ‘इंस्टैंट आर्टिकल’ को डिसेबल कर चुका है। अब पता नहीं उन्हें ये पोस्ट पसंद नहीं आया या इसके पीछे राजनीतिक या अन्य कारण था, लेकिन इस बार उन्होंने इस एक्शन की वजह हमारी फीचर इमेज को बताई।

फेकबुक द्वारा हटाया गया पोस्ट

अब फेसबुक ने एक ऐसी रिपोर्ट को क्यों डिलीट किया जिसमें भाजपा कार्यकर्ता का शव पेड़ से लटका मिला था? क्यों फेसबुक को ऐसा लगता है कि ये खबर उनकी कम्युनिटी गाइडलाइन्स के विरुद्ध है? ऐसा इसलिए, क्योंकि उन्हें लगता है कि आर्टिकल की तस्वीर “हिंसा को बढ़ावा देती है और उसका महिमामंडन करती है।” मगर, जी नहीं। ऐसा नहीं था। खबर में इस्तेमाल की गई तस्वीर एक प्रतीकात्मक तस्वीर थी न कि वास्तविक घटना और वास्तविक पीड़ित की। उसका कोई चेहरा ही नहीं था। न ही हिंसा का जश्न मनाया जा रहा था। वह सिर्फ हिंसक घटना की एक रिपोर्ट थी।

इस लगातार उठा-पटक के बीच हमें फेसबुक से सिर्फ एक लिंक मिला जिसमें शुरू में ही मनमाने दिशा निर्देशों का जिक्र शामिल था। ये रोबोटिक रिस्पांस दिखाता है कि आखिर फेसबुक अपने उन उपभोक्ताओं का कितना ध्यान रखते हैं जो उनके राजनीति मत की ओर झुकने से मना कर देता है।

फेसबुक, ऑपइंडिया के अंग्रेजी पेज को भी निशाना बना रहा है। क्यों? क्योंकि फैक्टचेकर जो फेसबुक से जुड़े हैं उन्होंने तय किया है कि वह ऑपइंडिया को चुप कराएँगे। फेसबुक और उनके फैक्टचेकर मिलकर, ऐसे इमेल जिन्हें पढ़ा जाए तो लगता है कि किसी 13 साल के नौ सिखिए ने उन्हें लिखा हो, के साथ उन लोगों को सता रहे हैं जो उनके साथ मेल नहीं खाते।

मामले को बद्तर बनाने के लिए, भले ही हम फेसबुक के सामने बेनिफिट ऑफ डाउट रखें, तो भी उनके पास ऐसा कोई तंत्र नहीं है कि पब्लिशर फेसबुक तक डायरेक्ट पहुँच सके। जब ये ऐसी हरकत करते हैं तो पब्लिशर को क्या करना चाहिए, इनसे भीख माँगे या इनके हाथ जोड़ें ये समझाने के लिए कि आखिर ये गलत क्यों थे।

कई मीटिंगो, ईमेल और बातचीत के बाद, जहाँ हमने फेसबुक से यह सुनिश्चित करने का आग्रह किया कि एक ऐसा तंत्र हो जहाँ प्रकाशक राजनीतिक रूप से प्रेरित और पक्षपाती ‘तथ्य-जाँचकर्ताओं’ के बजाय फेसबुक पर ही शिकायत कर सके। हमारी रिक्वेस्ट बहरे कानों में पड़ी।

फिर भी, जंग चल रही है। ये उतार-चढ़ाव हो रहे हैं और जब भी हम उचित समझेंगे, हम मामले को अधिकारियों तक पहुँचाएँगे, लेकिन अब हम जो गहराई से जानते हैं, वह यह है कि यह अब हमारे बनाम उनके (फेसबुक) बीच की लड़ाई बन गई है। शायद यह हमेशा से था, लेकिन जैसे-जैसे हम ऊपर चढ़ते हैं, अहसास और मजबूत होता जाता है। हमें लगता है कि जिस ताकत का सामना हमें करना पड़ रहा है, वह लगभग हर हफ्ते हम पर पूरे जोर के साथ हमला बोलती है।

इन सबके के चलने के बीच, एक बेवकूफ ने वीडियो पर हमें ‘बास्टर्ड’ कहा। इस बीच मुझे सुझाव दिया गया कि शायद NCW से संपर्क करना उचित प्रक्रिया होगी। आखिर तमाम झूठों के आधार पर ऐसी गालियाँ खुलेआम वीडियो में दी जा रही है। हालाँकि, निजीतौर पर, मुझे नहीं लगता हमें ऐसा करना चाहिए। NCW उन महिलाओं के लिए काम करती है जो वाकई प्रभावित होती हैं। महिलाएँ जिनके साथ घरेलू हिंसा होती हैं, महिलाएँ जिन्हें डराया जाता है, महिलाएँ जिन्हें बेदखल किया जाता है आदि। मैं, निजीतौर पर और ऑपइंडिया एक संस्थान के तौर पर, हमेशा इन संस्थानों के गलत इस्तेमाल के ख़िलाफ़ हैं।

हम लड़ेंगे। लेकिन हम अपनी मर्यादा के साथ लड़ेंगे और अपने सम्मान को बरकरार रखेंगे।

कहने के लिए और भी बहुत कुछ है, लेकिन शायद यह समय रुकने का है इससे पहले कि एक पत्र का जो मतलब होता है उसकी जगह वह अंतहीन शेखी न बन जाए।

अगले माह तक।

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नोट: मूल लेख इस लिंक पर क्लिक करके पढ़ें।

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Nupur J Sharma
Nupur J Sharma
Editor-in-Chief, OpIndia.

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