नागरिकता संशोधन क़ानून लागू होने के साथ ही तीन पड़ोसी इस्लामिक देशों के पीड़ित अल्पसंख्यकों को भारतीय नागरिकता मिलने की राह साफ़ हो गई। ऐसी स्थिति में यूपीएससी की तैयारी करने वाला एक आदर्श छात्र क्या करेगा? आदर्श छोड़िए, एक सामान्य छात्र क्या करेगा, जो किसी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहा हो? वो इस क़ानून की प्रति डाउनलोड करेगा, उसे बार-बार पढ़ेगा और समझेगा कि इस क़ानून का मतलब क्या है, ये लाया क्यों गया है और इसके लागू होने के बाद क्या होगा? कुछ छात्र नोट्स बनाएँगे कि इस क़ानून के मुख्य बिंदु क्या हैं? कुछेक दूसरों को समझाएँगे और आपस में इस पर चर्चा करेंगे।
अब मैं आपको दूसरी स्थिति बताता हूँ। यूपीएससी की तैयारी करने वाला और सरकारी अधिकारी बनने के स्वप्न देखने वाला एक छात्र इस क़ानून के लागू होते ही अपना देशी कट्टा निकाल कर दंगा करता है, आगजनी करता है और पुलिस पर गोली चलाता है। इसके बाद वह अपने साथियों के साथ मोहित नामक पुलिसकर्मी पर हमला कर देता है। चूँकि वह गोली चलाता है और उसके साथी मोहित की जान लेने को उतारू हो जाते हैं, पुलिसकर्मी मोहित आत्मरक्षा में गोली चलाता है, जो उस यूपीएससी के छात्र को लगती है। उसके दोस्त उसे उठा कर वहाँ से भागते हैं। बाद में उसे मृत घोषित कर दिया जाता है।
पहले पैराग्राफ में जिन यूपीएससी छात्रों की बात की गई है, उन्हें मीडिया पूछता तक नहीं। वहीं दूसरे केस में यूपीएससी का जो छात्र है, वो मीडिया के लिए ‘हीरो’ बन जाता है, एक ‘शहीद’ बन जाता है, जो भविष्य में आईएएस अधिकारी बन कर शायद देश की तस्वीर ही बदल देता। उसकी बहन का बयान मीडिया में चलाया जाता है, जिसमें वो पुलिसवालों को ‘जालिम’ और ‘आतंकवादी’ बताती हैं। उसके पिता के बयान को प्रमुखता दी जाती है, जो अपने बेटे की ‘मेहनत’ की दाद देते हैं। मीडिया इस बात को प्रचारित करता है कि कैसे वो दिन-रात पढ़ता ही रहता था।
देशी कट्टा लहराते हुए पुलिसवालों से मुठभेड़ करने वाला यूपीएससी का ‘मेहनती छात्र’ सिर्फ़ मीडिया ही नहीं बल्कि राजनीति में भी छा जाता है। कॉन्ग्रेस महासचिव प्रियंका गाँधी उसके परिजनों से मिलने जाती हैं और पुलिस व सरकार को कोसती हैं। यह सब क्यों? ये सब इसीलिए, क्योंकि उसका नाम सुलेमान था। और जिस पुलिस ने गोली चलाई, वो ‘योगी आदित्यनाथ की पुलिस’ थी। सरकारें आती-जाती रहती हैं लेकिन पुलिस अपनी ड्यूटी निभाती रहती है लेकिन घायल मोहित की इतनी ही ग़लती है कि यूपी की जनता ने योगी को सीएम की कुर्सी पर बिठाया है।
ये घटना बिजनौर की है। सुलेमान ने पुलिस पर गोली चलाई, जो कॉन्स्टेबल मोहित के पेट में लगी। गुंडों ने सब-इंस्पेक्टर आशीष का पिस्टल भी छीन लिया था। कोई रास्ता न देखते हुए आत्मरक्षा में मोहित को फायर करना पड़ा और सुलेमान मारा गया। आशीष और मोहित की जान जाती तो शायद ही मीडिया या विपक्षी नेता उनके परिजनों को पूछने भी आते, लेकिन चूँकि मरने वाला सुलेमान था, इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि वो कैसे मरा, किन परिस्थितियों में मोहित ने गोली चलाई और मरने से पहले सुलेमान ने क्या किया था? वो देशी कट्टा लहराते हुए घूम रहा था, अपने दंगाई साथियों के साथ आगजनी में लगा था, पुलिसकर्मियों की जान लेने को उतारू था और उसने पुलिस पर गोली चलाई- यह सब माफ़ है। क्यों? क्योंकि उसका नाम सुलेमान है।
इस घटना को देखते हुए रामलीला मैदान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा कही गई बात प्रासंगिक लगने लगती है, जिसमें उन्होंने दिल्ली पुलिस के साथ हिंसा करने वालों को समझाया था। रविवार (दिसंबर 22, 2019) को पीएम मोदी ने दंगाइयों को सन्देश देते हुए कहा था:
“जिन पुलिसवालों पर आप पत्थर बरसा रहे हैं, उन्हें जख्मी करके आपको क्या मिलेगा? मत भूलिए, आजादी के बाद 33 हजार से ज्यादा पुलिसवालों ने शांति के लिए, आपकी सुरक्षा के लिए अपना बलिदान दिया है। जब कोई संकट आता है, कोई मुश्किल आती है, तो पुलिस ये नहीं पूछती कि आपका धर्म क्या है।”
पीएम ने पूछा था कि पुलिस पर पत्थर बरसाने से क्या मिलेगा? दिल्ली में ऐसे ही एक ‘नवयुवक’ को वक़्फ़ बोर्ड ने नौकरी दी है। उत्तर प्रदेश में हिंसा करते हुए मारे गए ऐसे ही लोगों के घरों पर नेताओं व मीडियाकर्मियों का ताँता लगा हुआ है। घायल मोहित के घर कितने नेता गए? मोहित के परिजनों से कितने मीडिया वालों ने बातचीत की? ऐसे-ऐसे कई मोहित हैं, जिन्होंने इस सीएए विरोध प्रदर्शन के दौरान दंगाइयों का सामना किया। पुलिस से पिस्टल छीन लेने का मतलब है कि पुलिस उपद्रवियों को आम नागरिक समझते हुए उनके साथ नरमी बरत रही थी। इस नरमी का ग़लत फ़ायदा उठा कर पुलिस पर ही गोली चलाई गई।
अब जरा मीडिया के प्रोपेगेंडा पर एक नज़र डाल लें। शुरुआत करने के लिए ‘द क्विंट’ से ज़्यादा अच्छा क्या रहेगा? इस प्रोपेगेंडा पोर्टल ने बताया कि कैसे ‘बेचारे’ सुलेमान ने ‘कंट्री मेड पिस्टल’ से एक छोटा सा फायर किया, और इससे पुलिसकर्मी मोहित को छोटी सी गोली लग गई। पुलिस के उस बयान को ज्यादा हाइलाइट किया गया, जिसमें आत्मरक्षा में गोली चलाए जाने की बात कही गई। देखिए:
इसके बाद शेखर गुप्ता के ‘द प्रिंट’ ने एक क़दम और आगे बढ़ते हुए ‘यूपीएससी छात्र’ सुलेमान के माता-पिता और बहन के बयानों को हाइलाइट करते हुए दिखाया कि कैसे पुलिस ने ही उसे मार डाला। ‘द प्रिंट’ की एकतरफा पत्रकारिता का एक नमूना देखिए:
‘स्क्रॉल’ ने सुलेमान की उम्र दिखाई, जैसे कि वह कोई दुधमुँहा बच्चा हो, जिसने ‘दूधपीलाई’ की जगह ग़लती से बन्दूक पकड़ ली और उससे गोली चल गई। उसने लिखा कि ऐसा ‘पाया गया है’ कि सिविल सर्विस की तैयारी करने वाले सुलेमान की मौत एक पुलिस कॉन्स्टेबल की गोली से हुई। इसे आप यहाँ देखें:
मेनस्ट्रीम मीडिया ने भी इसी नैरेटिव को आगे बढ़ाया। इंडिया टुडे:
ऐसे मामलों में भला ‘इंडियन एक्सप्रेस’ कैसे पीछे रहता? उसने सुलेमान की माँ की रोती हुई फोटो लगा कर पुलिस की ‘पहली स्वीकारोक्ति’ को हेडलाइन में जगह दी। इसे ऐसे पेश किया गया जैसे पुलिस ने कोई बहुत बड़ी ग़लती कर दी हो। ये देखिए:
मीडिया के लिए यह सब नया नहीं है क्योंकि आतंकवादियों के मारे जाने के बाद उसके ‘अदर साइड’ को दिखाने और उसके ‘बेचारे’ माँ-बाप का इंटरव्यू लेने के लिए पत्रकारों की भीड़ उमड़ती है। अब यही ट्रेंड हर जगह चल पड़ा है, जिससे समाज के एक वर्ग को काफ़ी ‘प्रोत्साहन’ भी मिला है। वो हमेशा ‘पीड़ित’ ही रहेंगे, भले ही वो ख़ून कर दें या रेप कर लें। वो हमेशा सहानुभूति के पात्र रहेंगे, विपक्षी नेताओं के लिए, मीडिया के लिए और बुद्धिजीवियों के एक बड़े वर्ग के लिए भी। ऐसा ही सुलेमान के मामले में भी हुआ। मोहित खतरे से बाहर हैं या नहीं, किस हॉस्पिटल में हैं और उन्हें हुए नुकसान का स्तर क्या था, इससे किसी को मतलब नहीं।
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