Sunday, September 15, 2024
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‘बिहारी’ के बाद अब ‘जाति’ वाली गाली सुनेंगे बिहार वाले: अगड़ा-पिछड़ा की राजनीति ने राज्य को बनाया नरक, जातिवाद बना रहा जिंदा लाश

महान कृष्ण भक्त मीराबाई के गुरू रैदास ने कहा है, "जात पांत के फेर मंहि, उरझि रहइ सब लोग। मानुषता कूं खात हइ, रैदास जात कर रोग॥" अर्थात, अज्ञानवश सभी लोग जाति-पाँति के चक्कर में उलझकर रह गए हैं। वे इस जातिवाद के चक्कर से नहीं निकले तो एक दिन जाति का यह रोग संपूर्ण मानवता को निगल जाएगा।

बिहार में हर तरफ हलचल है। शोर है। उथल-पुथल है। यह चुनाव की आहट है। बिहार में विधानसभा चुनाव में लगभग एक साल का वक्त है, लेकिन अभी से वातावरण में जातिवादी बारूद की गंध फैलनी शुरू हो गई है। जातिवादी के लिए कुख्यात राष्ट्रीय जनता दल (RJD) से लेकर जातिवाद की राजनीति करने वाले नेता तक अपनी तिकड़म भिड़ाने में लग गए हैं।

राजद के राज्यसभा सांसद मनोज झा द्वारा सदन में पढ़ा गया भयंकर जातिवादी कविता ‘ठाकुर का कुँआ’ से शुरू हुई आग, जनता दल (यूनाइटेड) यानी JDU नेता एवं बिहार सरकार में मंत्री अशोक चौधरी के बयान के बाद पूरी तरह लपटों में फैल चुकी है। अशोक चौधरी ने जिस तरह भूमिहार समाज पर निशाना साधा, वह एक सुनियोजित प्रक्रिया दिख रही है।

जहानाबाद में 29 अगस्त 2024 को अशोक चौधरी ने भूमिहार समाज पर निशाना साधते हुए कहा था कि जिन लोगों ने लोकसभा चुनाव में पार्टी का साथ नहीं दिया, पार्टी उनको जगह नहीं देगी। उन्होंने कहा था, “क्या नीतीश कुमार ने ऐसा किया कि जहाँ भूमिहारों का गाँव है वहाँ सड़क नहीं बनेगा? लेकिन जब अति पिछड़ा उम्मीदवार बनेगा तो कहेंगे कि वोट नहीं देंगे। क्यों नहीं देंगे?”

अशोक चौधरी यहीं नहीं रूके। उन्होंने आगे कहा, “हम जहानाबाद को नस-नस को जानते हैं। मेरे पिताजी यहाँ विधायक रहे हैं। हम भूमिहारों को भी बढ़िया से जानते हैं। मेरी बेटी का तो ब्याह ही भूमिहार से हुआ है तो और अच्छे से जानते हैं। नेता के साथ शिद्दत से रहना चाहिए। जो लोग चुनाव में दिल्ली-कलकत्ता घूम रहे थे, वो अगर चाह रहे हैं कि नेता के कंधे पर बैठकर विधानसभा चुनाव लड़ेंगे तो ये नहीं चलेगा।”

अशोक चौधरी के इस बयान के बाद बिहार में जातिवादी राजनीति की खुलेआम चर्चा होने लगी। अशोक चौधरी के बयान का ना सिर्फ विपक्षी दलों ने बल्कि उनकी पार्टी के सहयोगी दल के नेताओं ने आलोचना की। यहीं नहीं, जदयू तक में उनके बयान की भर्त्सना होने लगी। जदयू के एमएलसी नीरज कुमार ने कहा कि उन्हें इस तरह का बयान देने की हिम्मत कैसे हुई।

अशोक चौधरी के बयान पर पलटवार करते हुए सहयोगी दल भाजपा से बिहार में मंत्री एवं भूमिहार समाज से आने वाले विजय सिन्हा ने कहा, “भूमिहार एक जाति नहीं, एक कल्चर है। वह कल्चर भूमि से जुड़ने का, जमीन पर रहने का और जमीनी हकीकत जानने की ताकत आज भी किसी को है तो वह जो जमीन से जुड़ा है, उसी को है। जाति की राजनीति करने वाले ना जमात के हितैषी हैं और राष्ट्र के हितैषी हैं।”

ऐसा नहीं है कि बिहार में जाति की राजनीति की उबाल अशोक चौधऱी के बयान से आई है। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट के एससी-एसटी में क्रिमिलेयर को लेकर दिए गए बयान के बाद जातीय राजनीति को उभारने की कोशिश की जा रही है। भाजपा सरकार में शामिल केंद्रीय मंत्री चिराग पासवान अलग राह पर चल रहे हैं तो केंद्रीय मंत्री जीतनराम माँझी अलग राह पकड़े हुए हैं।

दरअसल, CJI डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली 7 सदस्यीय संविधान बेंच ने 1 अगस्त को अपने फैसले में कहा था कि राज्य SC-ST को दिए जाने वाले आरक्षण के भीतर ऐसी जातियों को ज्यादा तरजीह दे सकते हैं, जो आर्थिक-सामाजिक रूप से अधिक पिछड़ गई हैं। यानी सर्वोच्च न्यायालय ने कोटा में कोटा सिस्टम को अनुमति दे दी थी। लेकिन, बात इससे आगे की थी।

सुनवाई के दौरान जस्टिस BR गवई ने कहा कि यह राज्य सरकार का कर्तव्य है कि वह अधिक पिछड़ी जातियों को तरजीह दे। उन्होंने कहा कि SC-ST समुदाय में भी केवल कुछ ही लोग आरक्षण का लाभ उठा रहे हैं। उन्होंने कहा कि SC-ST आरक्षण में भी क्रीमी लेयर पहचानी जाए और जिन जातियों को लाभ मिल चुका है, उन्हें इससे बाहर कर दिया जाए।

उन्होंने अपनी टिप्पणी के दौरान स्पष्ट कहा, “मुझे यह कहने में कोई हिचकिचाहट नहीं है कि सेंट पॉल हाई स्कूल और सेंट स्टीफन कॉलेज में पढ़ने वाले बच्चे और देश के पिछड़े और दूरदराज के क्षेत्र के एक छोटे से गाँव में पढ़ने वाले बच्चे को एक ही श्रेणी में रखना संविधान में निहित समानता के सिद्धांत को नकार देगा।”

इस दौरान जस्टिस गवई ने एक उदाहरण देकर कहा कि आज के समय में एससी-एसटी कोटे में वर्गीकरण का विरोध करना ऐसा ही है जैसे ट्रेन के जनरल कोच में संघर्ष होता है कि जो पहले बाहर रहता है वह भीतर आने के लिए संघर्ष करता है और अंदर आने के बाद फिर हर संभव प्रयास करता है कि बाहर वाला अंदर न आ पाए।

जस्टिस विक्रम नाथ ने कहा कि क्रीमी लेयर का सिद्धांत अनुसूचित जातियों पर भी उसी तरह लागू होता है, जैसे यह अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) पर लागू होता है। मामले की सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार ने देश में दलित वर्ग के लिए आरक्षण का पुरजोर बचाव किया और कहा कि सरकार SC-ST आरक्षण के भीतर सब कैटेगरी के पक्ष में है।

सुप्रीम कोर्ट के इस बयान के बाद विपक्षी तो विपक्षी, सत्ताधारी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) के दो घटक दल आपस में भिड़ गए। एक लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के नेता चिराग पासवान सुप्रीम कोर्ट के विरोध में आ गए। उन्होंने कहा कि SC में क्रिमिलेयर लागू नहीं होनी चाहिए। जाहिर है कि वे जिस पासवान समाज से आते हैं, वह बिहार और आसपास के राज्यों में संपन्न जाति में गिनी जाति है।

वह अपने वर्ग के अन्य जाति समूहों से अधिक शिक्षित और संपन्न है। अगर इसमें क्रिमिलेयर सिस्टम लागू हो जाता है तो चिराग पासवान सहित उनके समाज के कई लोगों की को नौकरी एवं शिक्षा आरक्षण का लाभ छोड़ना पड़ जाएगा। ऐसे में सिर्फ अपनी जाति की राजनीति देखते हुए चिराग पासवान ने अपनी सरकार के स्टैंड के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट के निर्णय आलोचना शुरू कर दी।

हालाँकि, इस मामले में केंद्र सरकार ने अपना स्टैंड क्लियर कर दिया है कि वह एससी-एसटी में क्रिमिलेयर सिस्टम के पक्ष में नहीं है। इसके बावजूद चिराग पासवना केंद्र पर दबाव बनाने के लिए राजनीतिक पैंतरेबाजी शुरू कर दिए। कभी रूठने का दिखावा करने लगे तो कभी झारखंड और दिल्ली में अपनी पार्टी से उम्मीदवार उतारने का संकेत देकर दबाव की राजनीति करने लगे।

दूसरी तरफ, जीतनराम माँझी जैसे राजनेता भी हैं जो अपनी मुसहर जाति के उत्थान के लिए कोटेे में कोटा तथा क्रिमिलेयर सिस्टम की माँग कर रहे हैं। उनका मत स्पष्ट है कि जो समाज या व्यक्ति आगे निकल चुका है, उसे आरक्षण का लाभ छोड़कर इसे दूसरे लोगों को सौंप देना चाहिए। इसके लिए वे लगातार आवाज भी उठा रहे हैं। इस बात को लेकर माँझी और पासवान में तानातनी भी है।

दरअसल, चिराग पासवान बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में खुद को एकमात्र सक्षम नेता मान रहे हैं। इस बीच भाजपा के वरिष्ठ नेता एवं पूर्व केंद्रीय मंत्री संजय पासवान ने रविवार (1 सितंबर) को एक नई माँग करके पासवान की उम्मीदवारी के साथ-साथ तेजस्वी यादव के मुख्यमंत्री बनने के सपने की हवा निकाल दी। संजय पासवान ने कहा कि ओबीसी मुख्यमंत्री का समय समाप्त हुआ। अब दलित मुख्यमंत्री बनने का समय है।

संजय पासवान का कहना है कि कॉन्ग्रेस ने 12 जातियों को मुख्यमंत्री पद पर मौका दिया। अब बिहार  में राजग को भी नेतृत्व परिवर्तन कर दलितों को मौका देना चाहिए। वर्तमान राजनीति और समय की माँग है। राजग को नुकसान पहुँचाना उद्देश्य नहीं है, लेकिन वह समाज के हित की बात तो लोगों तक पहुँचाना चाहते हैं। उनके बेटे गुरु प्रकाश बिहार भाजपा के प्रदेश मंत्री एवं प्रवक्ता हैं।

ये सारा खेल बिहार की जातिवादी राजनीति की बिसात पर अपने-अपने मोहरे बैठाने के लिए है। बिहार में जातिगत सर्वे करवाकर राजद सुप्रीमो लालू यादव के बेटे तेजस्वी यादव पहले ही अपनी मंशा जता चुके हैं कि वे प्रदेश में किस तरह की राजनीतिक गोलबंदी करने की कोशिश कर रहे हैं। जदयू के साथ गठबंधन सरकार में जाति सर्वे कराने के बाद आनन-फानन में बिहार में 65 प्रतिशत आरक्षण लागू कर दिया गया।

हालाँकि, अदालत ने इसे 50 प्रतिशत की स्वीकृत सीमा से अधिक आरक्षण बताकर खारिज कर दिया। अब इसे इस आरक्षण को लागू करने के लिए के लिए धरना प्रदर्शन शुरू करने वाले हैं। उन्हें लगता है कि इस आरक्षण के नाम पर ओबीसी, एससी और एसटी समाज को राजद से जोड़ लेंगे। इससे पहले उनकी पार्टी के सांसद मनोज झा राज्यसभा में ‘ठाकुर का कुँआ’ कविता पढ़कर क्षत्रिय/राजपूत समाज के प्रति अपनी और पार्टी की मंशा जता चुके थे।

उस दौरान मनोज झा के बयान को लेकर देश भर में उनकी आलोचना हुई थी। हालाँकि, अपने बयान को सही साबित करने के लिए वे अपने मीडिया और अकादमी जगत के दोस्तों का सहारा लेकर उसे ह्वाइटवॉश करने की पूरी कोशिश किए। लेकिन, इस बयान ने राजद की अगली रणनीति के बारे में संकेत दे दिया था। यही राजनीति उनके पिता और बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू यादव ने भी शुरू की थी।

इसका परिणाम ये हुआ था कि बिहार में जगह-जगह नरसंहार होने शुरू हो गए थे। लोगों की लाशें गिरतीं और लालू यादव इसे राजनीतिक रंग देकर सत्ता की मलाई खाते रहे। इस उन्होंने 15 साल तक अपनी और अपनी पत्नी के रूप में बिहार की सत्ता संभाली और बिहार को इस बदहाली तक पहुँचा दिया। उनका कालखंड जंगलराज के रूप में आज भी बिहार के लिए एक काला अध्याय है, जिस पर आज भी कोई बात नहीं करना चाहता।

लालू यादव ने जातिवाद को राजनीति के रूप में इस्तेमाल करके और आगे चलकर इसे अपने बेटे को विरासत के रूप में सौंपकर लोकतंत्र को मजबूत नहीं, बल्कि कमजोर करने का प्रयास कर रहे हैं। लोकतंत्र एक वैचारिक उन्नति है, जिसमें शासन करने वाला सबको समान रूप से देखे और जो नीचे के पायदान पर रह गए हों, उन्होंने ऊपर उठाने की कोशिश करे।

यूनानी दार्शनिक अरस्तू ने भी कहा है कि शासन उन्हें ही करना चाहिए, जो सबसे अच्छा शासन करने में सक्षम हैं’। यानी जो राजधर्म समझते हों, लोगों में परस्पर भाईचारा और समाज में समन्वय विकसित करने वाला ही लोकतंत्र में सच्चा नायक होता है। रॉबर्ट डाहल ने भी कहा है, “किसी देश में स्थिर लोकतंत्र की संभावनाएँ बेहतर होती हैं, यदि उसके नागरिक और नेता लोकतांत्रिक विचारों, मूल्यों और प्रथाओं का दृढ़ता से समर्थन करते हैं।”

हालाँकि, राजद के नेताओं में इन लोकतांत्रिक मूल्यों को लेकर किसी तरह की प्रतिबद्धता नहीं दिखती है। शायद ऐसे ही लोगों को लेकर अमेरिकी राजनेता, वकील, राजनयिक, लेखक ज़ॉन ऐडम ने लगभग 250 वर्ष पहले था लोकतंत्री की सफलता पर सवाल खड़ा किया था। हालाँकि, भारत लोकतंत्र की जननी है और लिच्छवी जैसे क्षत्रिय गणराज्यों ने इसे पाल-पोषकर वटवृक्ष बनाया है, जिसके कारण आज यह विश्व के कई देशों की सत्ता प्रणाली है।

जॉन ऐडम ने कहा था, “मैं यह नहीं कहता कि लोकतंत्र समग्र रूप से और लंबे समय में राजतंत्र या अभिजाततंत्र से ज़्यादा हानिकारक रहा है। लोकतंत्र कभी भी अभिजाततंत्र या राजतंत्र जितना टिकाऊ नहीं रहा है और न ही हो सकता है। लेकिन, जब तक यह टिका रहता है, यह इन दोनों से ज़्यादा ख़ूनी होता है। याद रखें, लोकतंत्र कभी भी लंबे समय तक नहीं टिकता। यह जल्द ही बर्बाद हो जाता है, थक जाता है और खुद को मार डालता है। अभी तक ऐसा कोई लोकतंत्र नहीं आया जिसने आत्महत्या न की हो।”

जॉन एडम ने लोकतंत्र की आत्महत्या की बात ऐसे नहीं की है। लोकतंत्र कोई आदमी नहीं है, जो तनाव या अवसाद में आत्महत्या कर लेगा। दरअसल, यह राजनेताओं द्वारा लोकतंत्र में निभाए जा रहे आचार और विचार भी लोकतंत्र को सफल या आत्मघाती बनाता है। भारत का लोकतंत्र कितना सफल है, इसे इस कसौटी पर कसकर देखा जा सकता है कि जिस देश में लगभग 4000 जातियाँ हैं, वहाँ ‘जिसकी जितनी आबादी, उसकी उतनी भागीदारी’ कितनी उचित है।

लोकतंत्र प्रबुद्धता, समर्पण, त्याग एवं सेवा का संचालक है। इसमें अगर कोई भी नेता सर्वसमाज की बात करता है तो वह उसे मजबूत करने की बात करता है। अगर किसी जाति विशेष की बात करता है तो वह लोकतंत्र को आत्महत्या के लिए उकसाने जैसा काम करता है। नेताओं के विचार, आचरण और समर्पण पर ही लोकतंत्र की महिमा और उसकी स्थिति टिकी हुई है। ये कोई गुण राजद में नहीं है।

ऐसा नहीं है यह राजद, जदयू, हम, लोजपा रामविलास, सपा या कॉन्ग्रेस की ही बात है। अब तक सबसे नैतिकता का दावा करने वाली पार्टी भाजपा के नेता भी जातिवादी राजनीति से अलग नहीं हो पाते। चाहे वो सांसद महेश शर्मा का बयान हो या मध्य प्रदेश विधानसभा के प्रोटेम स्पीकर रहे रामेश्वर शर्मा का जातीय घृणा से भरा हुआ बयान हो या गुजरात के परषोतम रूपाला का बयान हो। ये सब राजनीति को कमतर करने वाले हैं।

महान कृष्ण भक्त मीराबाई के गुरू रैदास ने कहा है, “जात पांत के फेर मंहि, उरझि रहइ सब लोग। मानुषता कूं खात हइ, रैदास जात कर रोग॥” अर्थात, अज्ञानवश सभी लोग जाति-पाँति के चक्कर में उलझकर रह गए हैं। वे इस जातिवाद के चक्कर से नहीं निकले तो एक दिन जाति का यह रोग संपूर्ण मानवता को निगल जाएगा।

आज राजनीति में जाति को बाँटने की नहीं, बल्कि जाति को जोड़ने वाली राजनीति होनी चाहिए। अशोक चौधरी ने भूमिहार समाज या मनोज झा ने क्षत्रिय समाज को निशाना बनाया है, उसे स्वस्थ लोकतंत्र की संज्ञा नहीं दी जा सकती। राजद और तेजस्वी इस परिभाषा से अलग हैं, क्योंकि इसका आधार ही जातिवाद है। इसलिए तेजस्वी या राजद के मायावी जाल में अन्य नेताओं को फँसने से बचना चाहिए।

खासकर यह बिहार के लिए बहुत जरूरी है, क्योंकि बिहार इस देश में जातिवाद की सबसे अधिक मार झेल रहा है। यहाँ के युवा शिक्षा और रोजगार के लिए अन्य राज्यों में जाने के लिए विवश हैं। उन राज्यों में उनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता है। उनके साथ तिरस्कार की भावना प्रदर्शित की जाती है। ऐसे में बिहारी नेताओं को एकजुट होकर बिहार के विकास की संभावाएँ तलाशनी चाहिए।

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सुधीर गहलोत
सुधीर गहलोत
प्रकृति प्रेमी

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