नागरिकता संशोधन विधेयक (CAB) राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की मँजूरी के बाद बीते 12 दिसंबर को कानून यानी CAA बना था। लेकिन 30 जनवरी के केंद्र महात्मा गॉंधी और नाथूराम गोडसे पर सियासत गरम नवंबर के अंत में ही हो गई थी। CAA ने गॉंधी को लेकर बहस को और गरमा दिया। जहाँ समर्थकों का कहना है कि CAA के जरिए मोदी सरकार ने गॉंधी के वादे को पूरा किया है, वहीं विरोधी इसे गॉंधी के विचारों की हत्या के तौर पर पेश कर रहे हैं। हिंसक प्रदर्शनों के बाद CAA विरोधियों ने गॉंधी के पोस्टर भी थाम लिए हैं। खासकर, कट्टर मजहबी मंसूबे उजागर होने के बाद से दिल्ली के शाहीन बाग में प्रदर्शनकारी कैमरों को देखते ही गॉंधी से लेकर आंबेडकर तक के पोस्टर लहराने लगते हैं।
तो क्या इनके लिए गॉंधी प्रतीक से ज्यादा कुछ भी नहीं?
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के सह सरकार्यवाह मनमोहन वैद्य ने ‘साहित्य अमृत’ पत्रिका के गॉंधी विशेषांक में एक लेख लिखा है। शीर्षक है ‘संघ और गॉंधीजी के संबंध’। इसमें वैद्य ने निहित स्वार्थों के लिए गॉंधी के इस्तेमाल की ओर इशारा करते हुए कहा है कि उनके नाम को भुनाने के लिए ऐसे लोग गोडसे (नाथूराम) का नाम बार-बार लेते हैं, जिन लोगों का गॉंधीजी के आचरण, विचारों और नीतियों से कोई सरोकार नहीं है।
वैसे हिंदुओं के प्रति घृणा से भरे मजहबी कट्टरपंथियों के लिए गॉंधी के प्रति नफरत नई नहीं है। इनके करतूतों को हवा देने या उस पर चुप्पी साध लेने की कॉन्ग्रेस की आदत भी पुरानी है। जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल रहे जगमोहन ने अपनी किताब कश्मीर: समस्या और समाधान में एक घटना का विस्तार से जिक्र किया है। इससे आप इस बात को भली-भॉंति समझ सकते हैं।
जगमोहन ने लिखा है कि 1988 में 2 अक्टूबर को यानी गॉंधी जयंती पर श्रीनगर हाई कोर्ट में राष्ट्रपिता की प्रतिमा स्थापित की जानी थी। देश के मुख्य न्यायाधीश आरएस पाठक को प्रतिमा की स्थापना करनी थी। कुछ मुस्लिम वकीलों ने इसका विरोध किया। अव्यवस्था फैलाने की धमकी दी। सरकार झुक गई और कार्यक्रम स्थगित कर दिया गया। गौर करने वाली बात यह है कि यह वही वक्त था जब कश्मीर में कट्टरपंथ और देश विरोधी भावनाएँ गहरे पैठ रही थी। इसकी परिणति हमने 1990 में हिंदुओं के नरसंहार और उनके पलायन के रूप में देखी।
जगमोहन के अनुसार गॉंधी की प्रतिमा स्थापित करने का विरोध कर रहे वकीलों का अगुआ मुहम्मद शफी बट्ट था। शफी बट्ट नेशनल कॉन्फ्रेंस से जुड़ा था। फारूक अब्दुल्ला की पार्टी नेशनल कॉन्फ्रेंस ने इस घटना के अगले ही साल 1989 में हुए आम चुनावों में शफी बट्ट को श्रीनगर से उम्मीदवार भी बनाया और वह निर्विरोध चुन भी लिया गया। हाई कोर्ट में गॉंधी की प्रतिमा लगाए जाने के विरोध पर सियासी फायदे के लिए कॉन्ग्रेस ने भी चुप्पी साध ली। उस वक्त वह सत्ता में साझेदार भी थी। इसका नतीजा क्या निकला? जैसा कि जगमोहन लिखते हैं- धर्मनिरपेक्ष देश के एक धर्मनिरपेक्ष राज्य की अदालत में गॉंधी की प्रतिमा स्थापित नहीं हो पाई।
अमेरिकी इतिहासकार ग्रेनविल ऑस्टिन ने भारतीय संविधान पर बेहद मशहूर किताब लिखी है, जिसका हिंदी अनुवाद भारतीय संविधान:राष्ट्र की आधारशिला के नाम से उपलब्ध है। ऑस्टिन ने लिखा है कि कॉन्ग्रेस कभी गॉंधीवादी थी ही नहीं। नेहरू के हवाले से उन्होंने लिखा है कि कॉन्ग्रेस ने समाज के गॉंधीवादी दृष्टिकोण को ‘अंगीकार’ करने की बात तो दूर उस पर ‘कभी विचार’ तक नहीं किया। ऑस्टिन लिखते हैं- गॉंधी का प्रभाव बहुत व्यापक था। उनकी यह उपलब्धि भी बहुत महती थी कि उन्होंने गॉंव और किसान को भारतीय राजनीति के केंद्र में स्थापित कर दिया था। लेकिन इन सबके बावजूद गॉंधी स्वयं अपनी पार्टी को अपने जीवन आदर्श या शासन आदर्श में दीक्षित नहीं कर सके। चूॅंकि कॉन्ग्रेस ने गॉंधी के बुनियादी आदर्श को स्वीकार ही नहीं किया था, इसलिए उससे यह उम्मीद करना शायद अनुचित था कि वह गॉंधी द्वारा विचारित संस्थाओं को गढ़ने में रुचि लेगी।
जाहिर है, गॉंधी न कभी कट्टरपंथियों के आदर्श रहे और न उनका तुष्टिकरण करने वाली कॉन्ग्रेस के लिए। गोडसे ने भले 30 जनवरी 1948 को गोली मार गॉंधी के शरीर से प्राण निकाले थे, कॉन्ग्रेस ने तो जीते-जी उनके आदर्शों का पिंडदान कर दिया था। कट्टरपंथियों ने तो ‘मेरी लाश पर देश का विभाजन होगा’ कहने वाले गॉंधी के जिंदा रहते ही मजहब के नाम पर बॅंटवारा कर लिया था।