किसी झूठ को एक बार कहिए। आपकी पिटाई हो सकती है, निंदा तो होगी ही। उसी झूठ को 10 बार कहिए। आपकी निंदा तो होगी, लेकिन कुछ लोग होंगे जो आपके झूठ को सच मानने लगेंगे। अब उसी झूठ को किसी जिहादी या कम्युनिस्ट की तर्ज पर 100 या हजार बार बोलिए। समाज में वह झूठ तो सच के तौर पर स्थापित होगा ही, बहुत छोटा तबका ही ऐसा होगा जो व्यभिचारी वामपंथियों का चाल समझ उनको नकार दे, पूरी तरह।
इस ख्याल के साथ जरा टिकरी बॉर्डर पर किसानों के नाम पर पिकनिक मना रहे धूर्तों के समूह में एक लड़की के साथ हुए बलात्कार की खबर को जोड़िए। पहली बात तो आप यह पाएँगे कि तथाकथित बुद्धिजीवियों, लिबरलों-सेकुलरों इत्यादि की सोशल मीडिया वॉल से ये खबर सिरे से गायब है। दूसरी बात, जहाँ ये खबर छपी भी है, वहाँ इन दरिंदो को अब तक ‘किसान’ के नाम से ही संबोधित किया जा रहा है। तीसरे, पूरी बेशर्मी से यह कहा जा रहा है कि ये तो भाजपा ने अपने सोशल मीडिया को खबर दी है प्लांट करने को और किसानों ने (ध्यान दीजिए) तो पहले ही आरोपितों के टेंट उखाड़ दिए हैं, खुद उन्होंने रिपोर्ट करवाई है, इत्यादि-इत्यादि। मजे की बात देखिए कि बलात्कारों को आदतन डिफेंड करनेवाले वामपंथी इस बार भी वही कर रहे हैं।
इधर, इनका एक चला है- ह्वाट्सएप यूनिवर्सिटी और आईटी सेल। यह इनके सबसे बड़े खिलाड़ी रवीश पांडेजी की देन है और जब वही अनाहूत, अनायास, अनियंत्रित कुछ भी बकते हैं तो चमचों की क्या बात? ‘कौन जात कुमार’ हों या उनके लगुए-भगुए, बिल्कुल अब्राहमिक मजहबों के पैगंबर सरीखा व्यवहार करते हैं। खाता न बही, जो उन्होंने कहा, वही सही। उसके खिलाफ जहाँ किसी ने तर्क दिए, तथ्य दिए, वह आइटी सेल वाला हो गया/गई।
आईटीसेल की क्या संघटना होती है, ट्विटर या फेसबुक (कुल मिलाकर सोशल मीडिया) कैसे काम करता है, इम्प्रेसन क्या होता है, रीच क्या होता है, ऑर्गेनिक और पेड पहुँच क्या होती है, ट्रेंड कैसे करवाया जाता है (जी, करवाया भी जाता है और यह प्रोफेशनल तरीके से होता है), या कैसे होता है, खुद ट्विटर या फेसबुक की नीति क्या है, अलगॉरिद्म क्या है, यह अगर आप इनके बौद्धिक माता-पिताओं से पूछ दें, तो वे जाहिल आसमानी गप्प सुना देंगे, फिर चेलों की क्या बिसात?
ऊपर के ये तीनों अनुच्छेद आपको पढ़वाने का मकसद यही है कि आप नैरेटिव-निर्माण या अवधारणा-निर्मिति के इस खेल को समझ सकें। ये वही खेल है, जिसमें एक बरखा ‘राडिया” दत्त श्मशान में बैठकर ‘लाइव’ होती है, तो राणा अयूब और आरफा खानम व अरुंधती ‘सुजैन’ राय जैसों के जरिए न्यूयॉर्क टाइम्स से लेकर सीएनएन, बीबीसी और वाशिंगटन पोस्ट तक में सामूहिक चिताओं की ड्रोन से ली गई तस्वीरें, ऑक्सीजन के लिए होता हाहाकार और मरते हुए लोगों की फोटो एक साथ नुमायाँ होने लगती हैं। अगर आप उस वक्त टीवी खोलें और अखबार पढ़ें तो लगेगा कि भारत पूरी तरह अफरातफरी और अराजकता से दो-चार है, जिसके जिम्मेदार केवल और केवल पीएम नरेंद्र मोदी हैं। यह होता है नैरेटिव-निर्माण, यह होती है अवधारणा-निर्मिति।
आज भी नैरेटिव क्या है? यह कि कम्युनिस्ट वे होते हैं, जो समाज की बराबरी के लिए काम करते हैं, दुनिया में सबके हको-हुकूक का झंडा बुलंद करते हैं, धर्मनिरपेक्ष समाज की स्थापना करते हैं, वगैरह-वगैरह। यह नैरेटिव ठीक उसी तरह का है, जैसे इस देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस देश को आधुनिक, विकासमान और महान बनाने का काम किया, जबकि इस देश में भ्रष्टाचार का विष-वृक्ष बोनेवाले, निर्लज्ज वंशवाद के संस्थापक, हमारे राष्ट्र को हिंदू-विरोध में फिर से इस्लामिक बनाने की ओर धकेलने वाले नेहरू ही थे।
उसी तरह का एक और नैरेटिव है कि नक्सली दरअसल गरीबी से लड़नेवाले आदिवासी-वंचित, शोषित-पीड़ित आदि-इत्यादि हैं। उसी तरह कम्युनिस्टों ने एक और नैरेटिव यह बनाया है कि वे बहुत पढ़े-लिखे, बल्कि इस दुनिया के एकमात्र पढ़े-लिखे लोग और जमात के प्रतिनिधि हैं, जो गलती से इस दीन-हीन देश को सौभाग्य पहुँचाने आ गए हैं। वे सत्य के अंतिम प्रतिनिधि हैं।
अब देखिए सच क्या है? सच यह है कि कपटी कम्युनिस्टों ने हमेशा इस देश को बाँटने का काम किया है। तोड़ने का काम किया है। झूठ को, कोरे-सफेद झूठ को स्थापित किया है। कूड़े की तरह लिखे कुछ को भी विश्व-साहित्य का महान तत्व निरूपित किया है।
शुरुआत के लिए यही देखें कि वामपंथी उपन्यासकारों (रोमिला, इरफान से लेकर बिपन चंद्र और मुखर्जी तक) ने यह बात बारहाँ हम सबको बताई कि आर्यों ने बाहर से आकर इस देश के ‘मूलनिवासियों’ के साथ धोखाधड़ी की। हालाँकि, ये सभी द्वितीयक शोध या भाषा संबंधी उलटबांसी का परिणाम है, किसी भी उपन्यासकार ने पुरातत्व या प्राथमिक शोध की मदद लेने की जहमत नहीं उठाई।
अब पूरी दुनिया में वह मिथ ध्वस्त हो चुका है, लेकिन आपके पाठ्यपुस्तकों में वही कूड़ा फैलाया जा रहा है, आपकी कई पीढ़ियों को तो उसी जूठन से लाद दिया गया। व्यभिचारी वामपंथियों ने अपने कूड़ा-लेखन की मदद से रामायण और महाभारत को मिथक बना दिया, पुराणों को इतिहास-बाह्य करार दिया, हम शुतुरमुर्ग हिंदू पागलों की तरह अपने राम और कृष्ण का ही ‘प्रमाण’ लेने लगे। आत्मघाती जो हैं।
उन्होंने सरस्वती नदी की गाथा को कल्पित सिद्ध कर दिया, पूरी सभ्यता को ही 4000 वर्षों में कसने लगे, अपने यूरोपीय आकाओं की मदद से, जिनका उच्छिष्ट खाकर ये कपटी कम्युनिस्ट और कॉन्ग्रेसी जीवित रहे, इस देश को लूटते रहे, अब, आप तमाम सबूत इनके मुँह पर मारते रहिए, इनका झूठ दानवाकार बन आपके ही मुँह पर अट्टहास करता रहेगा। आप सुनौली से लेकर हरियाणा और मध्य प्रदेश में हजारों वर्ष पुरानी सभ्यता के चिह्न लेकर बैठे रहिए। नैरेटिव तो यही है कि आर्य हमलावर थे, उन्होंने बहुजनों पर अत्याचार किए।
दिल्ली में छेड़खानी का विरोध करने पर मुसलमान-परिवार ने पड़ोसियों के साथ मिलकर ध्रुव त्यागी और उनके बेटे पर हमला किया। ध्रुव की मौत हुई, तथाकथित मीडिया, चिंतक, गंगा-जमनी तहजीब के पैरोकार वगैरह की चुप्पी याद कीजिए, केजरीवाल के मुँह में जमा दही देखिए और अख़लाक़ का मसला याद कीजिए। कश्मीर से कैराना और बरेली से बदायूँ देख लीजिए। कुंभ पर नक्सलियों की चीत्कार याद कीजिए और हैदराबाद में हो रहे जुम्मे की नमाज़ को देखिए। बंगाल में कट रहे हिंदुओं को देखिए और इस देश के तथाकथित पीपल्स इंटेलेक्चुअल की चुप्पी और झूठ देखिए। यही है नैरेटिव-निर्माण।
अभी भी आप सोशल मीडिया या मीडिया को देखिए तो पाएँगे कि मोदी के कट्टर समर्थक भी इन नैरेटिव के जाल में फँसकर उनकी निंदा कर रहे हैं, भले ही एक डिस्क्लेमर लगा दें कि वे अंधभक्त नहीं हैं, सजग आलोचना कर रहे हैं। हालाँकि, वह ये भूल जाते हैं सजग आलोचना के चक्कर में वे कॉन्ग्रेसी-कौमी जाल में फँसकर अपने नेतृत्व पर ही सवाल उठा रहे हैं। संकट की घड़ी में वे टूलकिट वालों के ही नैरेटिव में फँस जा रहे हैं।
एक अंतिम उदाहरण से अपनी बात खत्म करूँगा। स्वरा भास्कर हों या उनकी तरह का कोई भी लेफ्टिस्ट, वह हमास जैसे आतंकी संगठन का झंडा गर्व से उठाता है, इजरायल को आतंकी देश बताता है, लेकिन अफगानिस्तान में 80 बच्चियाँ हलाक कर दी गईं, इस पर वे कुछ नहीं बोलते। यहाँ तक कि अपने रेपिस्ट को भी वे बचाते हैं।
हिंदुओं को सत्यनिष्ठा की इतनी हुड़क है कि वे राम मंदिर बनवाने वाले, कश्मीर से अनुच्छेद 370 खत्म करने वाले, तीन तलाक को मिटाने वाले, सीएए लागू करने और एनआरसी की राह बनानेवाले मोदी की भी ‘सजग औऱ स्वस्थ आलोचना’ का लोभ संवरण नहीं कर पाते, जबकि यह वक्त चट्टानी एकता के साथ अपने नेता के साथ खड़े रहने का है। विरोध के लिए मोदी के पास लोगों की कमी थोड़े न है?