Saturday, April 27, 2024
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‘वह PM बने रहने के काबिल नहीं’: इंदिरा गाँधी के लिए एक कॉन्ग्रेसी ने डायरी में लिखा, 9 महीने बाद नेहरू की बेटी ने बना ली अपनी ‘जी हुजूर’ कॉन्ग्रेस

कहीं न कहीं नेहरू बिलकुल क्लियर थे कि इंदिरा को तैयार कर अपना राजनीतिक वारिस तैयार किया जा सकता है। यहीं से वंशवाद की जो बेल उन्होंने लगाई वो अभी तक बीच में आए कुछ खर-पतवारों को छाँटते हुए फल-फूल रही है।

इंदिरा गाँधी, भारतीय राजनीति में एक ऐसा नाम जिन्होंने ‘जी हुजूरी‘ को ही कॉन्ग्रेस में आगे बढ़ने का पर्याय बना दिया। 19 नवंबर 1917 को जन्मीं इस महिला ने देश की पहली और अब तक कि एकमात्र महिला प्रधानमंत्री के तौर पर आपातकाल जैसे फैसले लिए। जिसने पुराने कॉन्ग्रेस को फुस्स कर एक ऐसी कॉन्ग्रेस खड़ी कर ली जहाँ उनके चाटुकारों ने ‘इण्डिया इज इंदिरा एंड इंदिरा इज इण्डिया’ कहने में भी संकोच नहीं किया।

नेहरू की किंगमेकर बनने की ख्वाहिश

बात वहीं से शुरू करते हैं जहाँ से प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के मन में कॉन्ग्रेस पर अधिपत्य का खयाल आया। सरदार पटेल की मृत्यु के बाद नेहरू ने कॉन्ग्रेस संगठन को भी अपनी गिरफ्त में ले लिया। राजनीतिक इतिहास की गलियारों में यह बात खुलेआम कही जाती है कि कहीं न कहीं नेहरू बिलकुल क्लियर थे कि इंदिरा को तैयार कर अपना राजनीतिक वारिस तैयार किया जा सकता है। यहीं से वंशवाद की जो बेल उन्होंने लगाई वो अभी तक बीच में आए कुछ खर-पतवारों को छाँटते हुए फल-फूल रही है।

नेहरू साथ में युवा इंदिरा गाँधी

उस दौर की घटनाओं का कुलदीप नैयर सहित कई पत्रकारों, राजनीतिक इतिहासकारों ने विस्तार से अपनी किताबों में जिक्र किया है। हिंदुस्तान टाइम्स के पूर्व संपादक दुर्गादास ने अपनी किताब, ‘इंडिया फ्रॉम कर्जन टू नेहरू एंड आफ्टर’ में इस घटना का विस्तृत वर्णन करते हुए लिखा है कि कैसे नेहरू ने योजना बनाकर सबसे पहले कॉन्ग्रेस वर्किंग कमेटी में इंदिरा गाँधी को शामिल करवाया और साल भर के अंदर ही सर्वोच्च पद यानी कॉन्ग्रेस अध्यक्ष के पद पर काबिज करा दिया। फिर ये ‘गूँगी गुड़िया’ ज्यादा दिन तक गूँगी न रही, पिता की छत्रछाया में सभी राजनीतिक दाँव-पेंच सीखती रही।

फिर 12 नवंबर 1969 का वह दिन भी आया जिस दिन इंदिरा गाँधी को कॉन्ग्रेस पार्टी ने बाहर निकाल दिया। इंदिरा गाँधी के खिलाफ यह आरोप था कि उन्होंने पार्टी अनुशासन को भंग किया है। कॉन्ग्रेस में जड़ जमाए सिंडिकेट से इस अपमान का बदला लेने के लिए इंदिरा ने न केवल नई कॉन्ग्रेस बना डाली बल्कि आने वाले समय में इसे ही असली कॉन्ग्रेस साबित कर दिया। यह उनकी राजनीतिक चतुराई ही है कि उन्होंने ना केवल कॉन्ग्रेस के सिंडिकेट को ठिकाने लगाया बल्कि प्रधानमंत्री के अपने पद को बरकरार रखते हुए अपनी सरकार भी बचाई।

दरअसल, उस दौर में कॉन्ग्रेस पर सिंडिकेट का दबदबा था। जो नेहरू की मौत के बाद पूरी पार्टी पर हावी हो गया था। जिनको नहीं पता उनकी जानकारी के लिए बता दूँ कि कॉन्ग्रेस के अंदर सिंडिकेट उन नेताओं का एक ताकतवर गुट था, जो गैर हिंदी भाषी थे और नेहरू की मौत के बाद लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गाँधी को पहली बार प्रधानमंत्री बनाने के पीछे भी इन्हीं नेताओं का हाथ था। ज्यादातर नेता दक्षिण भारत के थे और इनकी अगुवाई कर रहे थे के कामराज।

सिंडिकेट इंदिरा को पीएम पद से हटाने की बना रहा था योजना

कायदे से इस सियासी खेल की शुरुआत एक साल पहले ही हो चुकी थी जब कॉन्ग्रेस सिंडिकेट के सदस्यों ने इंदिरा को प्रधानमंत्री के पद से हटाने के लिए कमर कस ली थी। इंदिरा गाँधी को कॉन्ग्रेस सिंडिकेट ने ही 1966 में प्रधानमंत्री बनाया था, लेकिन तब ना तो उन्हें कोई खास राजनीतिक अनुभव था और ना ही संगठन में उनकी मजबूत पकड़ थी। 1967 के चुनावों ने उन्हें काफी हद तक राहत दी। उन्होंने अपनी सरकार पर कुछ हद तक पकड़ बना ली थी। लेकिन इसी सिंडिकेट के दवाब में इंदिरा को मोरारजी देसाई को फाइनेंस मिनिस्टर बनाना पड़ा था।

यहाँ संक्षेप में आपको यह भी बता दूँ कि इसी सिंडिकेट ने मोरारजी देसाई के पहले लाल बहादुर शास्त्री को देश का पीएम चुना था और दूसरी बार सिंडिकेट ने ही इंदिरा गाँधी को चुना, हालाँकि इस बार उनको मोरारजी देसाई और इंदिरा के बीच वोटिंग करवानी पड़ गई और इंदिरा ने बाजी मार ली जो उनके संगठन पर पकड़ बना लेने को भी दिखाता था।

इंदिरा गाँधी, सिंडिकेट के नेता के कामराज और मोरारजी देसाई के साथ

थोड़ा पीछे लौटते हैं, यह दौर है 1968-69 का, इस दौरान सिंडिकेट के सदस्यों ने इंदिरा गाँधी को गद्दी से उतारने की योजना बनानी शुरू कर दी थी। 12 मार्च 1969 को कॉन्ग्रेस अध्यक्ष एस निजलिंगप्पा ने अपनी डायरी में लिखा, मुझे ऐसा नहीं लगता कि वह (इंदिरा गाँधी) प्रधानमंत्री के रूप में बने रहने के काबिल हैं। शायद बहुत जल्दी मुकाबला होगा। 25 मार्च को उन्होंने लिखा कि मोरारजी देसाई ने उनसे प्रधानमंत्री को हटाए जाने की जरूरत पर चर्चा की।

इस तरह से कॉन्ग्रेस में जिस टकराव की भूमिका बहुत पहले से बनाई जा रही थी, वो मई 1969 में तत्कालीन राष्ट्रपति जाकिर हुसैन की मृत्यु से अचानक आ गई। सिंडिकेट के लोग राष्ट्रपति के पद पर अपने किसी आदमी को बिठाना चाहते थे। इंदिरा के विरोध के बाद भी सिंडिकेट के प्रमुख सदस्य नीलम संजीव रेड्डी को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार मनोनीत कर दिया गया। अब इंदिरा को लग गया कि उन्हें खुलकर सामने आना ही होगा। अब ‘गूँगी गुड़िया’ बने रहने से काम नहीं चलेगा। उन्होंने पहले तो मोरारजी देसाई से वित्त मंत्रालय छीना। फिर 14 प्रमुख बैंकों के राष्ट्रीयकरण की घोषणा कर दी। इसके बाद राजाओं के दिए जा रहे प्रिवीपर्स (जिन राजाओं ने भारत की सम्प्रभुता स्वीकार की थी उन्हें पेंशन के रूप में एक राशि दी जाती थी) को बंद करते ही जनता के बीच उनकी लोकप्रियता आसमान छूने लगी।

जनता को सम्बोधित करते हुए

राष्ट्रपति जाकिर हुसैन के निधन से मिला मौका

इंदिरा अब रोजमर्रा के कामों में भी सिंडिकेट का दखल पसंद नहीं कर रही थीं। वो सिंडिकेट को किनारे लगाने के अवसर तलाशने लगीं। ऐसे में इंदिरा गाँधी को भाग्य से एक मौका मिला, अपना कार्यकाल पूरा करने से पहले ही भारत के राष्ट्रपति डॉ. जाकिर हुसैन की मौत हो गई। वीवी गिरी उस वक्त वाइस प्रेसीडेंट थे, उनको कार्यवाहक राष्ट्रपति बना दिया गया। सिंडिकेट चाहता था कि उनके बीच के ही नेता नीलम संजीव रेड्डी को प्रेसीडेंट बना दिया जाए, जबकि वो पहले से लोकसभाध्यक्ष थे।

इंदिरा को ये डर था कि कहीं सिंडिकेट की पसंद का राष्ट्रपति बन गया तो कल को उन्हें ही सत्ता से हटाकर मोरारजी की ताजपोशी की जा सकती है। ऐसे में उन्होंने जगजीवन राम का नाम कॉन्ग्रेस वर्किंग कमेटी की मीटिंग में रखते हुए महात्मा गाँधी के उस जन्मशती वर्ष में दलित को सर्वोच्च अधिकार देने के सपने की याद दिलाकर माहौल अपने पक्ष में करना चाहा। लेकिन सिंडिकेट के आगे इंदिरा को मुँह की खानी पड़ी और नीलम संजीव रेड्डी को कॉन्ग्रेस का ऑफीशियल प्रेसीडेंट कैंडिडेट बना दिया गया। इधर वीवी गिरी प्रेसीडेंट की पोस्ट के लिए निर्दलीय ही खड़े हो गए।

इंदिरा खुलकर मैदान में आ गईं

माना तो यह भी जाता है कि गिरी को खड़ा करने में परदे के पीछे से इंदिरा ही थीं। जिन्हें वामदलों, डीएमके, अकाली दल और मुस्लिम लीग का समर्थन हासिल था। इंदिरा चाहती थीं कि वीवी गिरी को समर्थन दिया जाए लेकिन कैसे ये उनकी समझ में नहीं आ रहा था। इसका मौका कॉन्ग्रेस अध्यक्ष निजलिंगप्पा ने खुद ही दे दिया। उन्होंने नीलम संजीव रेड्डी की जीत सुनिश्चित करने के लिए जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी के नेताओं से मुलाकात की। बस अब तो इंदिरा ने खुलकर सिंडिकेट के नेताओं पर वार किया कि वो रेड्डी की जीत के लिए सांप्रदायिक और प्रतिक्रियावादियों से मिलकर उन्हें सत्ता से हटाने की साजिश कर रहे हैं।

अंतरात्मा की आवाज पर वोट की अपील

इंदिरा गाँधी ने अपनी चाल चली और बतौर लोकसभा में कॉन्ग्रेस सदस्यों का नेता होने के कारण कॉन्ग्रेस सदस्यों के लिए व्हिप जारी करने से साफ मना कर दिया। उन्होंने कॉन्ग्रेस के सदस्यों से अंतरात्मा की आवाज पर वोट करने को कहा। कुल 163 कॉन्ग्रेसी सासंदों ने गिरी को वोट दिया और कॉन्ग्रेस शासित 12 राज्यों में से 11 राज्यों में बहुमत भी गिरी को मिला। इस प्रकार वीवी गिरी 20 अगस्त को बहुत कम वोटों से चुन लिए गए। इधर जीत वीवी गिरी की हुई और उधर अपनी ही पार्टी के कैंडिडेट को हराकर इंदिरा भी जीत गईं।

सिंडिकेट के नेताओं के साथ

अब इंदिरा के निशाने पर सिंडिकेट के नेता थे। उनके इशारे पर ही कॉन्ग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष निजलिंगप्पा के खिलाफ सिग्नेचर कैम्पेन शुरू हो गया, इधर इंदिरा अलग-अलग राज्यों के दौरे पर जाकर संगठन पर अपनी पकड़ बनाने के लिए कॉन्ग्रेसियों को अपने पक्ष में लामबंद करने लगीं। इंदिरा के समर्थकों ने स्पेशल कॉन्ग्रेस सेशन बुलाने की माँग की ताकि नया प्रेसीडेंट चुना जा सके, उनको भरोसा हो चला था कि सिंडिकेट के लोगों के पास जनसमर्थन नहीं है। निजलिंगप्पा ने पीएम को खुला खत लिखकर पार्टी की इंटरनल डेमोक्रेसी को खत्म करने का आरोप लगाया, साथ में इंदिरा के दो करीबियों फखरुद्दीन अली अहमद और सी सुब्रामण्यिम को एआईसीसी से निकाल बाहर किया। बदले में इंदिरा ने निजलिंगप्पा की बुलाई मीटिंग्स में हिस्सा लेना बंद कर दिया।

अब कॉन्ग्रेस खुले तौर बँटी दिखने लगी थी। 1 नवम्बर, 1969 को कॉन्ग्रेस वर्किंग कमेटी की दो जगहों पर मीटिंग हुईं। एक पीएम आवास में और दूसरी कॉन्ग्रेस के जंतर-मंतर रोड कार्यालय में। कॉन्ग्रेस कार्यालय में हुई मीटिंग में इंदिरा गाँधी को पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से निकाल दिया गया और संसदीय दल से कहा गया कि वो अपना नया नेता चुन लें। कहते हैं कि इंदिरा को पार्टी से निकालने वाली सिंडिकेट की चाल काफी अखर गई थी। उनको इस बात का अंदाजा नहीं था कि पार्टी का कोई भी नेता उनके खिलाफ इस हद तक जा सकता है कि उन्हें अपने पिता की पार्टी से ही निकाल दे। कॉन्ग्रेस ने पहले तो इंदिरा गाँधी पर व्यक्तिगत हितों को ऊपर रखने का आरोप लगाया और फिर 12 नवंबर 1969 को उन्हें अनुशासनहीनता के आरोप में पार्टी से ही निकाल दिया।

शक्ति प्रदर्शन रहा कामयाब

हालाँकि, यह भी कहा जाता है कि इंदिरा को इस बात का अंदेशा हो गया था कि सिंडिकेट अब क्या करने वाला है। तभी उन्होंने भी दोनों सदनों के संसद सदस्यों की तत्काल मीटिंग बुला ली। अखिल भारतीय कॉन्ग्रेस कमेटी के 705 सदस्यों में 446 ने इंदिरा गाँधी खेमे यानि कॉन्ग्रेस (आऱ) के मीटिंग में हिस्सा लिया। दोनों सदनों के 429 कॉन्ग्रेसी सांसदों में 310 प्रधानमंत्री इंदिरा के गुट में शामिल हो गए। इसमें 220 लोकसभा सांसद थे। कॉन्ग्रेस (आर) को लोकसभा में बहुमत साबित करने के लिए 45 सांसद कम पड़ रहे थे।

इस तरह कॉन्ग्रेस दो भागों में बँट गई, खुद इंदिरा ने ही पार्टी के दो टुकड़े कर दिए। इंदिरा की पार्टी का नाम रखा गया कॉन्ग्रेस (आर— Requisition ) और दूसरी पार्टी का नाम रखा गया कॉन्ग्रेस (ओ-Organisation)। लेकिन समस्या यहीं समाप्त नहीं हुई। इससे इंदिरा गाँधी की पार्टी पर बहुमत का संकट आ गया। हालाँकि, इंदिरा ने आसानी से सीपीआई और डीएमके की मदद से समर्थन हासिल कर कॉन्ग्रेस (ओ) के अविश्वास प्रस्ताव को गिरा दिया।

इस तरह से इंदिरा को सिंडीकेट से मुक्ति मिल गई। इस घटना के बाद एस निजलिंगप्पा ने एक्टिव पॉलिटिक्स से संन्यास ले लिया और समाजसेवा के कार्यों से जुड़े गए। सबसे दिलचस्प बात यह थी कि 12 नवंबर को इंदिरा गाँधी को पार्टी से निकाला जाता है और 19 नवम्बर को उनका जन्मदिन था।

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रवि अग्रहरि
रवि अग्रहरि
अपने बारे में का बताएँ गुरु, बस बनारसी हूँ, इसी में महादेव की कृपा है! बाकी राजनीति, कला, इतिहास, संस्कृति, फ़िल्म, मनोविज्ञान से लेकर ज्ञान-विज्ञान की किसी भी नामचीन परम्परा का विशेषज्ञ नहीं हूँ!

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