Tuesday, March 19, 2024
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सियासत होय जब ‘हिंसा’ की, उद्योग-धंधा कहाँ से होय: क्या अडानी-ममता मुलाकात से ही बदल जाएगा बंगाल में निवेश का माहौल

ममता बनर्जी का गौतम अडानी से मिलना और राज्य में निवेश की बात करना अपनी राजनीति में उनकी निराशा का परिचायक है। उनका प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को राज्य के इन्वेस्टमेंट समिट के उद्घाटन के लिए आमंत्रित करना भी यह साबित करता है कि वे जल्दी में हैं।

उद्योगपति गौतम अडानी और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की मुलाकात हुई है। इसको लेकर अडानी ने ट्वीट करते हुए कहा, “पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से मुलाकात कर ख़ुशी हुई। उनके साथ राज्य में निवेश की संभावनाओं पर विमर्श किया। मैं अप्रैल 2022 में बंगाल ग्लोबल बिज़नेस समिट में उपस्थिति रहने की आशा करता हूँ।” 

एक उद्योगपति के लिए किसी राज्य के मुख्यमंत्री के साथ मुलाकात कर उस राज्य में निवेश की संभावनाएँ तलाशने का काम आम बात है। पर जब मुलाकात पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और उद्योगपति गौतम अडानी के बीच हो तो उसे आम कैसे कहा जा सकता है? कारण है; गौतम अडानी वही उद्योगपति हैं जिन्हें ममता बनर्जी पिछले कई वर्षों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का न केवल मित्र बताती रही हैं, बल्कि लगातार यह आरोप भी लगाती रही हैं कि प्रधानमंत्री मोदी जो भी करते हैं वो सब कुछ अडानी और अंबानी को फायदा पहुँचाने के लिए करते हैं। यह बात और है कि मुख्यमंत्री बनर्जी रिलायंस के अंबानी के साथ भी पहले मुलाकात कर चुकी हैं और उन्हें राज्य में निवेश के लिए आमंत्रित भी कर चुकी हैं।

प्रश्न उठता है कि अचानक ऐसा क्या बदला कि जिस अडानी और अंबानी पर ममता बनर्जी, उनके समर्थक और पूरा लेफ्ट-लिबरल इकोसिस्टम वर्षों से भारत को खरीद लेने का आरोप लगाता रहा है, उन्हीं के साथ भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी को तथाकथित तौर पर हराने की क्षमता रखने वाली एकमात्र नेता ममता बनर्जी न केवल मुलाकात कर रही हैं बल्कि अपने राज्य में निवेश के लिए आमंत्रित भी कर रही हैं? अचानक क्या बदल गया कि जिन नरेंद्र मोदी को ममता बनर्जी अपना प्रधानमंत्री तक मानने से इनकार करती रहीं, उन्हीं नरेंद्र मोदी को अपने राज्य में इन्वेस्टमेंट समिट का उद्घाटन करने के लिए चार महीने पहले ही राजी कर लेती हैं?

इसे लेकर राजनीतिक के जानकारों द्वारा तरह-तरह की अटकलें लगाए जाने की संभावना है और ऐसा होगा भी। यह प्रश्न उठेगा कि बात-बात पर राजनीतिक मतभेदों को व्यक्तिगत बनाने वाली ममता बनर्जी में इतना तेज बदलाव क्यों और कैसे आया? हाल ही में अपने दिल्ली प्रवास के दौरान प्रधानमंत्री से मुलाकात के बाद बनर्जी का कहना था कि राजनीतिक दृष्टिकोण और मतभेद अपनी जगह पर केंद्र और राज्य सरकार को मिलकर काम करने की आवश्यकता है। यही बात प्रधानमंत्री मोदी न केवल हमेशा से कहते आए हैं बल्कि वे इसका अक्षरशः पालन भी करते रहे हैं। इसके ठीक उलट बनर्जी ने राजनीतिक मतभेदों को न केवल व्यक्तिगत बनाया, बल्कि केंद्र-राज्य संबंधों के मामले में उनका आचरण निम्नस्तरीय रहा है। कुछ महीने पहले की बात है जब पश्चिम बंगाल में आए तूफान के बाद प्रधानमंत्री ने राज्य का दौरा किया था तब उनके साथ मुख्यमंत्री बनर्जी और उनके सचिव ने जो व्यवहार किया था उसकी मिसाल स्वतंत्र भारत के इतिहास में नहीं मिलती। 

तो इस बदलाव का कारण क्या है? कुछ राजनीतिक पंडितों ने तो यहाँ तक कहना शुरू कर दिया है कि प्रधानमंत्री मोदी और मुख्यमंत्री बनर्जी के बीच कोई गुप्त समझौता हो गया है। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि उस तथाकथित समझौते के बाद से ही ममता बनर्जी का कॉन्ग्रेस पर आक्रमण तीव्र हुआ है। इस तरह की बातें होंगी। अनुमान भी लगाए जाएँगे। किसी निष्कर्ष पर पहुँचने की जल्दी में राजनीतिक पंडित अपनी परिकल्पना प्रतिपादित करेंगे। पर मुझे लगता है कि ममता बनर्जी को आखिर पश्चिम बंगाल की आर्थिक स्थिति की सच्चाई का सामना करना पड़ रहा है। ऐसा नहीं है कि उन्हें राज्य की आर्थिक स्थिति का एहसास पहले नहीं था। उन्हें इसका एहसास पहले से था पर एक राजनीतिक दृष्टिकोण रखने के बाद जैसे वामपंथी इस विषय पर कुछ करने की स्थिति में नहीं थे, उसी तरह ममता बनर्जी भी अधिक कुछ करने की स्थिति में नहीं हैं। उन्होंने शायद अब यह स्वीकार करना शुरू कर दिया है कि राज्य में जिस तरह का राजनीतिक वातावरण उन्होंने पिछले बारह-तेरह वर्षों में तैयार किया है, उसकी सहायता से चुनाव तो जीते जा सकते हैं पर एक समृद्ध राज्य नहीं बनाया जा सकता।

ऐसा प्रतीत होता है कि देर से ही सही, यह सच ममता बनर्जी की समझ में आने लगा है। वामपंथियों ने अपने तीन दशक से अधिक के शासनकाल में राज्य में उद्योगों की जो हालत की थी वह किसी से छिपा नहीं है। अपनी नीतियों के कारण राज्य से उद्योगों को बाहर करने के बावजूद वामपंथियों ने कृषि आधारित गँवई अर्थव्यवस्था के लिए कुछ इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा किया था ताकि उनका गँवई वोट बैंक उनके साथ रहे। ममता बनर्जी के आने के बाद उद्योगों में या उनमें निवेश को लेकर कोई बदलाव तो नहीं आया पर वाम सरकार का बनाया ये इंफ्रास्ट्रक्चर अब लगातार क्षतिग्रस्त हो रहा है। यह ममता बनर्जी के लिए चिंता का विषय होना चाहिए। शायद यही कारण है कि वे अचानक नींद से जागी हैं और इस दिशा में कुछ प्रयास करते हुए दिखना चाहती हैं।

प्रश्न यह है कि इन प्रयासों का वांछित फल मिलेगा? यह ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर समय देगा पर प्रश्न महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि पिछले बारह-तेरह वर्षों में ममता बनर्जी और उनकी पार्टी ने जिस राजनीतिक माहौल की सृष्टि की है वह रत्ती भर भी औद्योगिक निवेश के लिए सहायक नहीं है। चार दशक से अधिक समय से उद्योगों के राज्य से निकलकर बाहर चले जाने का परिणाम यह हुआ है कि राज्य की अफसरशाही और नौकरशाही को उद्योग और निवेश जैसे शब्द सुनने की आदत नहीं है। उन्हें उद्योगों के लिए अन्य राज्यों में बनाई जाने वाली योजनाओं और उनके क्रियान्वयन का अनुभव नहीं है। वे इस बात से वाकिफ नहीं हैं कि पिछले चार दशकों में भारत के अन्य राज्यों में क्या बदलाव हुए हैं और उन बदलाव को हासिल करने के लिए क्या-क्या करना पड़ता है। इसके ऊपर राज्य की वर्तमान राजनीति ने स्थिति और खराब कर दी है।

ऐसे में दो महत्वपूर्ण प्रश्न उठते हैं। पहला, ये कि जिस राजनीतिक वातावरण की सृष्टि पिछले लगभग डेढ़ दशक में हुई है उसे अर्थव्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए तुरंत बदलना संभव है? दूसरा, यह कि क्या ममता बनर्जी सही समय पर जागी हैं?

राज्य में जिस राजनीतिक वातावरण की सृष्टि हुई है उसका एक नमूना विधानसभा चुनाव परिणाम के बाद पूरे देश ने देखा। जो कुछ हुआ वह उस राजनीतिक विचारधारा द्वारा किया जाता है, जिसका लोकतांत्रिक राजनीति में विश्वास न के बराबर होता है। यह उस राजनीतिक दल द्वारा किया जाता है, जिसके नेतृत्व का एक समय के बाद उसी राजनीति पर से नियंत्रण जाता रहता है जिसे उस नेतृत्व ने खुद प्रोत्साहन दिया हो। ऐसे में राज्य की वर्तमान राजनीति निवेश के लिए तुरंत उचित वातावरण तैयार कर पाएगी, इसकी संभावना बहुत कम है। इसके ऊपर सबसे बड़ी बात यह है कि समस्या केवल राज्य के राजनीतिक वातावरण से ही नहीं, राज्य की ब्यूरोक्रेसी से भी है। दोनों में गंभीर सुधार की आवश्यकता है।

लोग कहेंगे कि ममता बनर्जी सही समय पर जागी हैं, पर लगता है उन्होंने देर कर दी है। ज्योति बसु के मुख्यमंत्री पद छोड़ने के बाद जब बुद्धदेब भट्टाचार्य राज्य के मुख्यमंत्री बने तब उन्हें भी अचानक उद्योगों की याद आई। मुख्य कारण था राज्य में व्याप्त बेरोजगारी और एक बड़े वर्क फोर्स द्वारा उठाया जा रहा सवाल। इसके अलावा एक और कारण था और वह था ममता बनर्जी और उनकी पार्टी द्वारा राज्य में राजनीतिक बदलाव लाने की मुहिम की शुरुआत। भट्टाचार्य अपने प्रयासों में कुछ हद तक सफल रहे थे और राज्य में आईटी सेक्टर में कुछ निवेश आया था। पर जब इन प्रयासों को अगले स्तर पर ले जाने का समय आया तब तक ममता बनर्जी और उनकी पार्टी ने उनका ही नहीं, राज्य में उद्योगों को वापस लाने की कोशिशों का प्रचंड विरोध करना शुरू कर दिया था। नतीजा सबके सामने है। कुछ वैसी ही स्थिति आज बनी है और लगता है ममता बनर्जी इसलिए जागी हैं क्योंकि भाजपा ने उन्हें चुनौती देना आरंभ कर दिया है।

ममता बनर्जी का गौतम अडानी से मिलना और राज्य में निवेश की बात करना अपनी राजनीति में उनकी निराशा का परिचायक है। उनका प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को राज्य के इन्वेस्टमेंट समिट के उद्घाटन के लिए आमंत्रित करना भी यह साबित करता है कि वे जल्दी में हैं। अब इसे डेस्पेरशन कहें या राष्ट्रीय राजनीति में अपनी महत्वाकांक्षा को फलित होते हुए देखने की उनकी इच्छा, वे भले भूल जाएँ कि उन्होंने पहले क्या कहा और किया पर मोदी और भाजपा समर्थकों के लिए उनके राजनीतिक आचरण को भुलाना आसान न होगा। सत्ता में वापस आने के लिए उन्होंने जो राजनीतिक प्रपंच किए, अडानी, मोदी और गुजरात के प्रति उनका आचरण इतनी जल्दी भुला पाना लोगों के लिए संभव न होगा। प्रधानमंत्री मोदी के लिए सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास केवल एक नारा नहीं है, पर यह बात ममता बनर्जी समझेंगी और स्वीकार करेंगी, इसकी संभावना बहुत कम है। 

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