प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संकट के जुझ रहे श्रीलंका को हर तरह की मदद के साथ-साथ बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए अनुदान दिया है। भारतीय उच्चायोग ने शुक्रवार (27 मई 2022) को इसकी जानकारी साझा की। इससे पहले अपनी जापान यात्रा के दौरान राजधानी टोक्यो में 23 मई 2022 को कहा कि भारत और जापान संबंध बुद्ध का संबंध है, ज्ञान का संबंध और ध्यान का संबंध है। भगवान बुद्ध जयंती पर 16 मई को नेपाल में लुंबिनी की यात्रा में पीएम मोदी ने कहा कि भारत और नेपाल के रिश्ते सभ्यतागत और दोनों तरफ के लोगों के विश्वास पर टिका है। यह हिमालय की तरह अडिग है। इसे कोई हिला नहीं सकता।
दरअसल, नरेंद्र मोदी भारत के पहले प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने अपनी विदेश नीति में बुद्ध को एक मजबूत स्तंभ और सांस्कृतिक केंद्र के रूप में आक्रामक तरीके से प्रयोग करते हुए संबंधों को प्रगाढ़ करने की दिशा में काम किया। खासकर एशिया और यूरोप के 15 ऐसे देश हैं, जो बौद्ध धर्म के कारण भारत से खुद और आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और बंधुत्व के नाते जुड़ा महसूस करते हैं। प्राय: कुछ विशेष कालखंड को छोड़ दें तो इन देशों का भारत के साथ संबंध बहुत बेहतर रहे हैं।
हालाँकि, जवाहलाल नेहरू और मनमोहन सिंह की सरकार में भी बुद्ध को सांस्कृतिक टूल के रूप में इस्तेमाल किया गया। कॉन्ग्रेस सरकार ने इसे केंद्र में रखकर भारत के साथ पड़ोसी देशों की रिश्तों की नई परिभाषा गढ़ने की कोशिश नहीं की और ना ही सांस्कृतिक संबंधों को विकसित करने पर ध्यान दिया।
साल 2012 में संयुक्त राष्ट्र में मानवाधिकार हनन को लेकर श्रीलंका के खिलाफ मतदान करने के बाद उसे खुश करने के लिए यूपीए सरकार ने कपिलवस्तु में स्थित भगवान बुद्ध के अवशेष उनकी हड्डियों के टुकड़े) को वहाँ भेज दिया था। हालाँकि, इस मामले में मोदी सरकार की नीति तुष्टिकरण वाली नहीं है। वे भगवान बुद्ध और बौद्ध धर्म को पड़ोसी देशों के साथ रिश्तों की बुनावट में एक खाँचे के रूप में इस्तेमाल रहे हैं।
नेपाल, भूटान, म्यांमार, श्रीलंका, तिब्बत (अब चीन का हिस्सा), वियतनाम, सिंगापुर, थाइलैंड, कंबोडिया, लाओस, जापान, ताइवान, चीन, दक्षिण कोरिया और उत्तर कोरिया ऐसे देश हैं, जहाँ बौद्ध धर्म मुख्य धर्म है। बौद्ध धर्म के प्रभुत्व वाले देशों में रुस (जहाँ के के पाँच प्रांतों में इसकी बड़ी आबादी है), इंडोनेशिया, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका आदि प्रमुख हैं। इनमें से अधिकांश देश भारत के पड़ोसी हैं, जो किसी न किसी रूप में भारत को सीधे तौर पर प्रभावित करते हैं।
भगवान गौतम बुद्ध का जन्म नेपाल के लुंबिनी में हुआ था, लेकिन उन्हें ज्ञान की प्राप्ति भारत के बोध गया में हुई। भारत में ही उन्होंने जगह-जगह जाकर अपने बुद्धत्व का प्रचार-प्रसार किया। सम्राट अशोक जैसे राजा बौद्ध धर्म में दीक्षित हुए और इसे यूरेशिया (एशिया और यूरोप का कुछ हिस्सा) तक फैलाया। दुनिया का बौद्ध अनुयायियों अपने जीवन में एक बार चार बौद्ध तीर्थस्थलों बोध गया, सारनाथ, लुम्बनी और कुशीनगर दर्शन-पूजन जरूर करना चाहता है।
इन देशों के साथ भारत के प्राचीन काल से ही बेहतर संबंध रहे हैं। लेकिन पिछले कुछ दशकों से विदेश नीति में अस्पष्टता और दूरदर्शिता में कमी के कारण भारत इन पड़ोसी देशों के साथ मधुर संबंध नहीं रहे। लेकिन, प्रधानमंत्री मोदी ने इन देशों के साथ भारत के बंधन के डोर बुद्ध को अपनाया और एक पड़ोसी और सांस्कृतिक तौर पर जुड़े राष्ट्र की तरह खड़ा रहा।
भारत की कूटनीति में बुद्धनीति
प्रधानमंत्री बनने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सबसे पहले एक बौद्ध भूटान की यात्रा की थी। उनकी यह यात्रा कई मायनों में महत्वपूर्ण थी। उन्होंने पड़ोसी देशों को बताने की कोशिश की थी कि भारत अपने बौद्ध विरासत को भूला नहीं है और ना ही उससे अलग हुआ है। भारत को बुद्ध से जोड़ना एशिया के अधिकांश देशों के साथ स्वत: जुड़ाव है। इसके लिए विशेष कूटनीतिक अभियान की भी जरूरत नहीं है, क्योंकि यह जुड़ाव हितों पर आधारित न होकर सांस्कृतिक और आध्यात्मिक रूप से है।
गुजरात के मुख्यमंत्री रहने के दौरान भी प्रधानमंत्री मोदी ने बौद्ध विरासतों को संजोने का काम बड़े पैमाने पर किया और गुजरात को अंतरराष्ट्रीय पटल पर लाकर एक समृद्ध राज्य के रूप में खड़ा किया। गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने इस सांस्कृतिक तार को जोड़ते हुए जापान सहित कई देशों से राज्य में निवेश का आमंत्रित किया।
आज उसी बुद्ध को भारत श्रीलंका, जापान, नेपाल के साथ संबंधों को अटूट बनाने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। कूटनीति का भाषा में इसके लिए ‘बुद्ध नीति’ या ‘बुद्ध पॉलिसी’ कहा जा रहा है। इसी पॉलिसी के अंतर्गत पीएम मोदी ने नेशनल म्यूजियम में बुद्ध गैलरी खोलने का निर्णय लिया। इसमें भगवान बुद्ध के जीवन दर्शन और यात्रा वृतांत का विवरण रहेगा।
पीएम मोदी की बुद्धनीति के कारण पड़ोसी बौद्ध देशों की जनता अपने आपको भारत से जुड़ा महसूस करती है। इससे भारत विरोधी तत्वों को वहाँ से दूर रखने में भारत को मदद मिलती है। वहाँ की जनता में भारत के प्रति एक अपनापन सा महसूस होता है, जिससे वहाँ की सरकार चाहकर भी जनभावनाओं की अनदेखी नहीं कर पाती। नेपाल और श्रीलंका इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। नेपाल में वामपंथी सरकार और श्रीलंका की महिंदा राजपक्षे की चीन की तरफ झुकाव रहा, लेकिन जनता ही वहाँ सरकार ही बदल दी। इन देशों के नई सरकारों में भारत के प्रति अलग नजरिया है।
कोविड महामारी के दौरान पिछले साल पीएम मोदी ने कहा था, “आज भगवान बुद्ध और भी प्रासंगिक हो गए हैं। भारत ने दिखाया है कि कैसे हम उनके रास्ते पर चलकर बड़ी से बड़ी चुनौतियों का सामना कर सकते हैं। देश एक-दूसरे से हाथ मिला रहे हैं और बुद्ध के मूल्यों को लेकर एक-दूसरे की ताकत बन रहे हैं।” दरअसल, इस महामारी के दौरान पीएम मोदी ने देशों से एक दूसरे का सहयोग करने का आह्वान किया था। इस दौरान भारत ने अपने पड़ोसी देशों को टीका से लेकर हर तरह से मदद की थी।
सांस्कृतिक विकास और संबंधों के जुड़ाव के साथ-साथ यह व्यापार और उद्योग को बढ़ावा देने में एक महत्वपूर्ण कारक है। भारत में कई बौद्ध स्थल हैं, जहाँ पड़ोसी देशों के साथ-साथ दुनिया भर से लाखों बौद्ध भारत आते हैं। इससे ना सिर्फ सांस्कृतिक विरासत का फैलाव होता है, बल्कि पर्यटन का भी विकास होता है। इन स्थानों पर इंफ्रास्ट्रक्चर को मजबूत बनाने की कोशिश की जाती है। इससे पड़ोसी देशों के साथ नए तरह के व्यापारिक संबंध विकसित होते हैं।
यही कारण है कि प्रधानमंत्री मंत्री ने विकास को सांस्कृतिक विकास से जोड़ते हुए बुद्धनीति का अनुसरण किया और दक्षिण एशिया के साथ-साथ अन्य बौद्ध देशों के साथ अपने संबंधों को नई ऊँचाइयों पर पहुँचाने का प्रयास किया। पीएम मोदी का यह प्रयास लगातार जारी है। इन देशों के साथ भारत के संबंधों को शाश्वत बनाने के लिए सम्राट अशोक के बाद प्रधानमंत्री पीएम ने एक बड़ी पहल की है।
नेपाल से सभ्यतागत संबंध
भारत से थोड़ा दूर होकर चीन से नजदीकी बढ़ाते नेपाल में बुद्ध पूर्णिमा के दिन भगवान बुद्ध के जन्मस्थान लुंबिनी में पीएम मोदी ने लगभग एक अरब रुपए की लागत से एक साल में बनकर तैयार होने वाले भारतीय बौद्ध केंद्र का उद्घाटन किया। प्रधानमंत्री ने नेपाल को एक तरह से संदेश देने की कोशिश की कि भारत-नेपाल के रिश्ते सिर्फ व्यापारिक और राजनीतिक नहीं, ये सदियों पुराने आपसी विश्वास पर टिके हैं। इससे पीएम मोदी ने एक संदेश देने की कोशिश की कि भगवान बुद्ध के जन्मस्थान को लेकर भारत और नेपाल के बीच अब कोई विवाद नहीं रहा। नेपाल का हमेशा से दावा रहा है कि बुद्ध का जन्म नेपाल में हुआ है, जबकि भारत अपना यहाँ दावा करता रहा है।
शायद इस कूटनीति का प्रभाव भी बेहतर रहा और भारत ने कई परियोजनाओं को लेकर द्विपक्षीय समझौते किए। इनमें अरुण 4 परियोजना के विकास और कार्यान्वयन के लिए SJVN लिमिटेड और नेपाल विद्युत प्राधिकरण (NEA), काठमांडू विश्वविद्यालय (केयू) और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान-मद्रास (IIT-M) के बीच संयुक्त स्तर पर मास्टर डिग्री कार्यक्रम के लिए समझौते शामिल हैं। इसके साथ बौद्ध अध्ययन के लिए समझौता, भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद (ICCR) की कठमांडू में चेयर की स्थापना आदि का समझौता किया गया है। इस तरह दोनों देश एक बार फिर नजदीक आने की कोशिश कर रहे हैं।
इतना ही नहीं, सांस्कृतिक विकास के साथ-साथ पीएम मोदी इसे सामरिक टूल के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं। नेपाल यात्रा के दौरान भव्य स्वागत और वहाँ के लोगों का दिल जीतने के बाद पीएम मोदी स्वदेश लौट आए। उसके अगले ही दिन विदेश मंत्रालय में अपर सचिव नवीन श्रीवास्तव को नेपाल का उच्चायुक्त नियुक्त कर काठमांडू भेज दिया गया। श्रीवास्तव में लद्दाख में चीन सेना के गतिरोध के दौरान बातचीत करने वाली टीम के हिस्सा थे और इन्हें चीन के मामलों का विशेषज्ञ माना जाता है।
श्रीलंका में बौद्ध विरासत के संरक्षण के लिए सहयोग
आर्थिक संकट से जुझ रहे भारत के दक्षिण में हिंद महासागर में स्थित द्वीपीय देश श्रीलंका को भी भारत ने कई तरह से राहत देने की कोशिश की है। भारत ने श्रीलंका में ना सिर्फ खाद्यान्न, दवा और आपतकालीन वस्तुओं भेजीं, बल्कि कई पैकेज की देकर उसे वित्तीय संकट से उबारने की कोशिश की। भारत की मदद पर श्रीलंका और सरकार एवं जनता भारत का बार-बार आभार व्यक्त कर चुकी है।
इसी पिछले साल सितंबर में पीएम मोदी ने श्रीलंका में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए $15 मिलियन (लगभग 117 करोड़ रुपए) की अनुदान की घोषणा की थी। इसके एक हिस्से का उपयोग वहाँ बौद्ध मठों के निर्माण और नवीनीकरण में किया जाएगा। कुछ हिस्से का उपयोग बौद्ध विद्वानों और भिक्षुओं की शिक्षा में किया जाएगा। वहीं, अनुदान का एक हिस्सा बौद्ध विरासत, संग्रहालयों और पुरातात्विक सहयोग के विकास और ‘बुद्ध के अवशेषों के पारस्परिक प्रदर्शनी’ पर भी इस्तेमाल किया जाएगा।
पिछले साल भगवान बुद्ध का धातु अवशेष 141 साल बाद श्रीलंका से भारत आया था। इसे श्रीलंकन एयरलाइंस विमान में अलग सीट पर रखकर लाया गया था। इससे पहले यह अवशेष वर्ष 1880 में भारत से ही श्रीलंका गया था। मूर्ति पूजा से पहले इसी की पूजा की जाती है।
बौद्ध देशों का भारत के साथ संबंधों को लेकर श्रीलंका के एक प्रसिद्ध बौद्ध नेता दामेंदा पोरागे ने कहना है, “यह सिर्फ दोस्ती नहीं है, हम खून का रिश्ता साझा करते हैं। बौद्ध धर्म सेतु है। श्रीलंका 25 सदियों से बौद्ध देश रहा है।”
बुद्ध के विरासत पर चीन के दावे का काट
पड़ोसी देशों के साथ संबंधों को बेहतर करने की भारत की ‘लुक ईस्ट पॉलिसी’ (पूर्व की ओर देखो नीति) को पीएम मोदी ने बुद्धनीति से बदल दिया है। दरअसल, चीन ने पड़ोसी देशों पर प्रभाव स्थापित करने और खुद को बौद्ध धर्म के सबसे बड़े संरक्षक के रूप में दिखाने की कोशिश शुरू की थी। बुद्ध की विरासत को वह हथियाने की कोशिश करता रहा है। इसके पीछे सामरिक, राजनीतिक, व्यापारिक और धार्मिक कारण थे।
पहली बात तो बौद्ध तिब्बत पर चीन के जबरन कब्जे के बाद पड़ोसी बौद्ध देश चीन को लेकर सशंकित हो उठे थे। तिब्बत से जब दलाई लामा ने 1950 के दशक में भागकर भारत में शरण ली तो बौद्ध देशों को भारत पर अधिक भरोसा जमा। इस भरोसे को कम करने और पड़ोसी देशों के व्यापार और रिश्तों को बढ़ाने के लिए चीन ने भगवान बुद्ध को एक राजनीतिक अस्त्र के रूप में इस्तेमाल किया।
इसमें बर्मा, नेपाल, पाकिस्तान, भूटान आदि को शामिल करते हुए चीन ने वन बेल्ट वन रोड (OBOR) जैसी अपनी महत्वाकांक्षी परियोजना शुरू की। हालाँकि, जब भूटान के साथ चीन का सीमा विवाद हुआ और भूटान के पक्ष में चीन के खिलाफ भारत मजबूती से खड़ा हुआ तो इस OBOR परियोजना को लेकर सशंकित होने लगे। नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका में सहयोग के नाम पर कर्ज के जाल में फँसाकर वहाँ आर्थिक संकट उत्पन्न करने में चीन का हाथ है और ये देश अब महसूस करने लगे हैं।
दरअसल, बौद्ध धर्म को राजनीतिक अस्त्र के रूप में इस्तेमाल करते हुए अपने OBOR के लिए प्लेटफॉर्म बनाना चीन ने 2006 में ही शुरू कर दिया था। इस साल उसने अपने प्रांत होंगजाउ में पहले विश्व बौद्ध सम्मेलन का आयोजन कर सभी बौद्ध देशों को आमंत्रित कर उनके साथ संबंध बढ़ाने की कोशिश शुरू कर दी थी। हालाँकि, 2011 और 2012 में भारत ने इसी तरह के सम्मेलन किए, लेकिन उसमें स्पष्टता की कमी थी।
पीएम मोदी ने दक्षिण एशिया की कूटनीति का महामंत्र बुद्ध को अच्छी तरह समझा और विश्व के हर मंच का बहुत सलीके से इस्तेमाल किया। उन्होंने पर्यावरण संरक्षण से लेकर आतंकवाद के निपटारे में बुद्ध के सिद्धांतों की बात की। हर विदेशी राजनेता के साथ बुद्ध से जुड़ी विरासत को साझा किया और बौद्ध भारत के विश्वगुरु होने की ओर इंगित किया।
रणनीतिकारों का मानना है कि पीएम मोदी का बुद्धनीति चीन को जवाब देने का ही तरीका है, ताकि दक्षिण एशिया में चीन के दबदबे को कम किया जा सके। इसके साथ ही भारत को आध्यात्मिक तौर पर राष्ट्र के रूप में स्थापित कर मानवता के कल्याण में उसके योगदान को सहर्ष स्वीकार कराया जा सके।
पीएम मोदी जानते हैं कि जो बौद्ध धर्म को कंट्रोल करेगा, वही एशिया सहित विश्व को कंट्रोल करेगा। यही कारण है कि पीएम मोदी नेपाल, श्रीलंका, भूटान, बर्मा, जापान या मंगोलिया की यात्रा हो, हर जगह वे बौद्ध मंदिरों में गए वहाँ भगवान बुद्ध के दर्शन किए और भारत के साथ उनके जुड़ाव को कूटनीतिक रूप में साधा।