Monday, December 23, 2024
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दरबारियों सोनिया जी के बेटे पर कुछ तो रहम करो, थू-थू करवाकर बता रहे हो ‘मास्टरस्ट्रोक’: रायबरेली की जीत से भी नहीं धुलेगा ये दाग

राहुल गाँधी को कॉन्ग्रेसी उन नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध खड़ा करना चाहते हैं जो कि दो बार पानी पार्टी को केंद्र की सत्ता और साथ ही अनेकों राज्यों में सता में ला चुके हैं। पीएम मोदी के पार्टी के शीर्ष पर होने के दौरान ही यह एक ऐसी जिताऊ मशीन बन गई है जो कि 24x7 संगठन मजबूत करने में जुटी रहती है।

कॉन्ग्रेस नेता राहुल गाँधी ने उत्तर प्रदेश की रायबरेली लोकसभा सीट से नामांकन दाखिल कर दिया है। उनके रायबरेली लड़ने का निर्णय शुक्रवार (3 मई, 2024) को कॉन्ग्रेस ने सार्वजनिक किया। राहुल ने इसी के साथ अपनी पुरानी सीट अमेठी को छोड़ दिया जहाँ से वह 2019 में स्मृति ईरानी के हाथों हार गए थे। उनके इस निर्णय पर कहा जा रहा है कि राहुल गाँधी हार से डरे हुए हैं तो वहीं उनकी पार्टी के नेता इसे मास्टरस्ट्रोक बताने में जुटे हैं।

राहुल गाँधी के रायबरेली से पर्चा भरते समय माँ सोनिया गाँधी, बहन प्रियंका गाँधी और कॉन्ग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे मौजूद रहे। राहुल गाँधी यहाँ भाजपा के दिनेश प्रताप सिंह से मुकाबला करेंगे। अक्सर कॉन्ग्रेस समर्थक मीडिया और विपक्षी दल पीएम मोदी के बराबर में राहुल गाँधी को खड़ा करते हैं। वह राहुल गाँधी को पीएम मोदी के विकल्प के तौर पर पेश करते हैं। जबकि असल सच्चाई इस बात से कोसों दूर है, यह उनके अमेठी छोड़ने के निर्णय ने और पुख्ता कर दी है।

दरअसल, कॉन्ग्रेस और उसके समर्थकों को यह बात समझनी होगी कि राहुल गाँधी को पीएम मोदी के समकक्ष खड़ा करने से ही वह उनके बराबर राजनीतिक कौशल और परिपक्वता नहीं पा जाएँगे। इसके लिए उन्हें बड़ा नेता बनना और बड़े नेता वाला सन्देश देना होगा। कॉन्ग्रेस जैसी पुरानी और बड़ी पार्टी के दो शीर्ष नेताओं में से एक होने के नाते राहुल गाँधी को वायनाड और रायबरेली जैसी तुलनात्मक रूप से सेफ सीट चुनने के बजाय अमेठी का किला ही बचाना चाहिए था। इससे कार्यकर्ताओं में सन्देश जाता कि पार्टी चुनाव से पहले ही हार नहीं मान रही।

राहुल ने ऐसा नहीं किया। राहुल के इस कृत्य से कॉन्ग्रेस के कार्यकर्ताओं का मनोबल टूटा है। अमेठी में कॉन्ग्रेस पर विश्वास करने वाले कार्यकर्ता भी अब सोचने को मजबूर हैं कि आखिर एक हार के बाद ही राहुल गाँधी इतना भयभीत हो गए कि उन्होंने अमेठी से मुंह मोड़ लिया। इसका असर मात्र अमेठी ही नहीं बल्कि बाकी जगह के कॉन्ग्रेस के कार्यकर्ताओं पर भी पड़ा है। उनके मन में भी यह बात आई होगी कि उनका नेता स्वयं ही बड़ी लड़ाई करने से बच रहा है।

राहुल गाँधी को कॉन्ग्रेसी उन नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध खड़ा करना चाहते हैं जो कि दो बार पानी पार्टी को केंद्र की सत्ता और साथ ही अनेकों राज्यों में सता में ला चुके हैं। पीएम मोदी के पार्टी के शीर्ष पर होने के दौरान ही यह एक ऐसी जिताऊ मशीन बन गई है जो कि 24×7 संगठन मजबूत करने में जुटी रहती है।

दूसरी तरफ राहुल गाँधी हैं जो कि अपनी पार्टी को केंद्र की सत्ता में लाना दूर, उसके लोकसभा में सीटो के आँकड़े को 60 के पार नहीं ले जा पाए हैं। राज्यों में हार का तो उनके नाम रिकॉर्ड है ही। वह मोदी सरकार की कैबिनेट में एक महिला मंत्री से चुनाव नहीं लड़ पा रहे हैं और सीट छोड़ कर सेफ सीट की तलाश में दक्षिण से लकर उत्तर भारत की यात्रा कर रहे हैं।

अमेठी से राहुल गाँधी चुनाव लड़ कर यदि हार भी जाते तो कम से कम यह कहा जाता कि उन्होंने लड़ाई लड़ने में कसर नहीं छोड़ी। लेकिन खुद लड़ाई लड़ना छोडिए, राहुल और कॉन्ग्रेस अमेठी से किशोरी लाल शर्मा को प्रत्याशी बनाया है। इसे राजनीतिक विश्लेषक चुनावी केकवॉक की तरह देख रहे हैं। स्मृति ईरानी की जीत की संभावनाएँ अब और पुख्ता हो गई हैं। ऐसे में राहुल गाँधी कार्यकर्ताओं को विश्वास देने और मनोबल बढ़ाने में तो विफल ही रहे हैं, वह लड़ने लायक एक उम्मीदवार भी नहीं दे पाए।

राहुल गाँधी ने जो भी किया हो, उनको बचाने के लिए हमेशा एक फ़ौज खड़ी रहती है। कॉन्ग्रेस के प्रवक्ता-नेता लगातार यह साबित करने में लगे रहते हैं कि राहुल गाँधी एक सफल राजनेता भले ही पार्टी इतिहास अपने इतिहास के सबसे निचले स्तर पर आ गई हो। राहुल गाँधी के अमेठी छोड़ने को फैसले को भी अब दरबारी एक मास्टरस्ट्रोक साबित करने में जुट गए हैं। इसके लिए कॉन्ग्रेस के मीडिया प्रमुख जयराम रमेश और प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत ने बीड़ा उठाया है। राहुल गाँधी को शतरंज का बड़ा खिलाड़ी बताया जा रहा है।

सुप्रिया श्रीनेत ने मास्टरस्ट्रोक का यह आधार अपने ट्वीट में बताया है। उन्होंने लिखा है-

• रायबरेली सिर्फ़ सोनिया जी की नहीं, ख़ुद इंदिरा गांधी जी की सीट रही है. यह विरासत नहीं ज़िम्मेदारी है, कर्तव्य है।

• रही बात गांधी परिवार के गढ़ की, तो अमेठी-रायबरेली ही नहीं, उत्तर से दक्षिण तक पूरा देश गांधी परिवार का गढ़ है। राहुल गांधी तो तीन बार उत्तरप्रदेश से और एक बार केरल से सांसद बन गये, लेकिन मोदी जी विंध्याचल से नीचे जाकर चुनाव लड़ने की हिम्मत क्यों नहीं जुटा पाये?

• एक बात और साफ़ है कि कांग्रेस परिवार लाखों कार्यकर्ताओं की अपेक्षाओं उनकी आकांक्षाओं का परिवार है। कांग्रेस का एक साधारण कार्यकर्ता ही बड़े बड़ों पर भारी है। कल एक मूर्धन्य पत्रकार अमेठी के किसी कार्यकर्ता से व्यंग में कह रही थी कि “आप लोगों का नंबर कब आएगा टिकट मिलने का”? लीजिए, आ गया!

• प्रियंका जी धुआँधार प्रचार कर रही हैं और अकेली नरेंद्र मोदी पर भारी पड़ रही हैं। इसको देखते हुए ज़रूरी था कि उन्हें सिर्फ़ अपने चुनाव तक सीमित ना रखा जाए। प्रियंका जी तो कोई भी उपचुनाव लड़कर सदन पहुँच जायेंगी।

• आज स्मृति ईरानी की सिर्फ़ यही पहचान है कि वो राहुल गांधी के ख़िलाफ़ अमेठी से चुनाव लड़ती हैं। अब स्मृति ईरानी से वो शोहरत भी छिन गई।

• अब बजाय व्यर्थ की बयानबाज़ी के, स्मृति ईरानी स्थानीय विकास के बारे में जवाब दें, जो बंद किए अस्पताल, स्टील प्लांट और IIIT हैं – उसपर जवाब देना होगा। • शतरंज की कुछ चालें बाक़ी हैं, थोड़ा इंतज़ार कीजिए।

हालाँकि, कॉन्ग्रेस के प्रवक्ता अपनी नेतागीरी की तकाजे में कितना भी मास्टरस्ट्रोक बताने की कोशिश करें असल में राहुल के इस कदम से यह सिद्ध हुआ है कि वह स्मृति ईरानी के खिलाफ नहीं लड़ सकते। इससे पार्टी का चुनाव के पहले ही हथियार डालने वाला रूप भी सामने आ गया है। राहुल गाँधी कभी डरो मत के नारे दिया करते थे, वह खुद ही अपनी परम्परागत सीट से चुनाव लड़ने से डर गए हैं। अब इसे चाहे मास्टरस्ट्रोक बताया जाए चाहे शतरंज की चाल, माना इसे राजनीतिक हार ही जाएगा।

और समस्या सिर्फ यहीं नहीं खत्म होती कि राहुल गाँधी अमेठी छोड़ रायबरेली लड़ने पहुँचे हैं। असल में समस्या रायबरेली से ही शुरू होती है। रायबरेली कॉन्ग्रेस का गढ़ माना जाता रहा है। 2019 के चुनाव में सोनिया गाँधी को यहाँ दिनेश प्रताप सिंह के विरुद्ध लगभग 2 लाख वोटों से जीत मिली थी।

थोड़ी देर के लिए मान लिया जाए कि बिल्ली के भाग से छींका फूटा, राहुल गाँधी किसी तरह रायबरेली से जीतने में कामयाब भी रहते हैं पर इससे वह दाग नहीं धुलेगा जो बताता है कि उनमें अमेठी के मैदान में अब स्मृति ईरानी का मुकाबला करने की हिम्मत नहीं है।

लिहाजा उनके इस फैसले ने पहले से ही हताश निराश, देश भर के कॉन्ग्रेस कार्यकर्ताओं के मनोबल को और दुर्बल काम किया है। रायबरेली और वायनाड, दोनों ही सीटों पर जीत हासिल करके भी इस मनोबल को गर्त से बाहर नहीं निकाला जा सकता। बल्कि दोनों सीटों पर जीत कॉन्ग्रेस के लिए आगे कुआँ-पीछे खाई वाली स्थिति लेकर आएगा।

यदि वह वायनाड सीट छोड़ते हैं तो केरल में उनकी पार्टी को नुकसान होगा। कॉन्ग्रेस केरल में वैसे ही विपक्ष में है और पिछले विधानसभा चुनाव में सत्ता का ट्रेंड तोड़ने में विफल रही है। राहुल गाँधी यदि वायनाड छोड़ते हैं तो उन पर केरल में मुस्लिम वोटरों को भी अनदेखा करने का आरोप लगेगा। वायनाड में मुस्लिम वोटरों का उनकी जीत में बड़ा योगदान रहता है।

इसी के साथ वायनाड सीट छोड़ने पर यह सन्देश जाएगा कि राहुल गाँधी इस सीट को मात्र यूज एंड थ्रो के लिए उपयोग किया है। दूसरी तरफ रायबरेली की सीट छोड़ने पर और बड़ी समस्या का सामना उन्हें करना होगा। यदि वह रायबरेली सीट छोड़ते हैं तो एक तो उन पर अमेठी के बाद रायबरेली के वोटरों और कॉन्ग्रेस कार्यकर्ताओं को धोखा देने का आरोप लगेगा और साथ ही पार्टी के साथ से यह सीट भी जा सकती है। इसके अलावा जो लोग अभी रायबरेली में उनके लड़ने को लेकर कर्तव्य निभाना बता रहे हैं वह तब इसका भी जवाब नहीं दे पाएँगे।

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