Thursday, May 2, 2024
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यूपीए है ही नहीं… विपक्षी एकता की मृगमरीचिका में खुद को राष्ट्रीय नेता साबित करने में लगीं ममता, लगाएँगी कॉन्ग्रेस को पलीता

राहुल गाँधी को प्रधानमंत्री के रूप में देखने की सोनिया गाँधी की महत्वाकांक्षा ने यदि कॉन्ग्रेस के अंदर कोई नया नेतृत्व पनपने नहीं दिया तो फिर ममता बनर्जी को उसी भूमिका में कैसे स्वीकार कर सकती है?

“क्या ममता बनर्जी को पता नहीं कि यूपीए क्या है? मुझे लगता है उनके पागलपन की शुरुआत हो गई है। उन्हें लगता है सारा भारत ममता-ममता का जाप कर रहा है लेकिन भारत का अर्थ बंगाल नहीं है और बंगाल का अर्थ भारत नहीं है। पिछले (विधानसभा) चुनावों की उनकी रणनीति का धीरे-धीरे खुलासा हो रहा है।” यह किसी भाजपा के नेता का वक्तव्य नहीं है। ऐसा कहना है पश्चिम बंगाल के कॉन्ग्रेसी नेता अधीर रंजन चौधरी का। पिछले लगभग एक महीने से चौधरी ममता बनर्जी और उनकी कार्यशैली से इतने नाराज हैं कि उनेक विरोध में लगातार कुछ न कुछ कहते ही जा रहे हैं। उनकी यह प्रतिक्रिया ममता बनर्जी के उस बयान पर आई है जिसमें उन्होंने भाजपा के विरुद्ध विपक्ष की लड़ाई में यूपीए की भूमिका पर टिप्पणी करते हुए कहा कि; कौन सा यूपीए? यूपीए कुछ नहीं है।


वैसे तो देखने से लगेगा कि अधीर रंजन चौधरी की ओर से लगातार आ रही ऐसी प्रतिक्रिया कॉन्ग्रेस पार्टी के नेताओं द्वारा तृणमूल कॉन्ग्रेस में शामिल होने से आ रही है पर यदि थोड़ा और पीछे जाएँ तो पाएँगे कि उनकी ऐसी प्रतिक्रिया पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों के समय से ही आनी शुरू हो गई थी। खासकर तबसे जब किसी रणनीति के तहत कॉन्ग्रेस पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए पश्चिम बंगाल में अपना वोट ममता बनर्जी के पक्ष में ट्रांसफर करने का फैसला किया था। दल ने न केवल चुनाव प्रचार में ढिलाई बरती बल्कि प्रचार के शुरआती दिनों में ही अधीर रंजन चौधरी को लोकसभा में दल के नेता पद से हटाए जाने की बात भी फैली थी। इसके पीछे चौधरी द्वारा ममता बनर्जी की लगातार की जा रही आलोचना और विरोध को कारण बताया गया।

चौधरी की ऐसी प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी। आखिर, प्रदेश में ममता बनर्जी के विरुद्ध लड़ने वाला कॉन्ग्रेस पार्टी का सबसे बड़ा नेता अपने केंद्रीय नेतृत्व का चाहे जितना सम्मान करे पर खुद की खिसक रही राजनीतिक जमीन से होने वाली निराशा को व्यक्त होने से कैसे रोके? इसलिए चुनाव के दिनों से शुरू हुई ऐसी प्रतिक्रियाएँ बाद में कॉन्ग्रेस के नेताओं द्वारा तृणमूल कॉन्ग्रेस में शामिल होने से और जोर पकड़ती गईं।

अधीर रंजन चौधरी द्वारा दिए गए ये वक्तव्य क्या केवल राहुल गाँधी की विदेश यात्राओं या यूपीए पर आई ममता बनर्जी की टिप्पणियों की वजह से ही हैं? ऐसा लगता नहीं है। पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों के परिणाम से उत्साहित ममता बनर्जी द्वारा खुद के लिए राष्ट्रीय राजनीति में एक बड़ी भूमिका की तलाश निश्चित रूप से कॉन्ग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व के असहज होने का कारण बना है। स्वाभाविक है कि राहुल गाँधी को प्रधानमंत्री के रूप में देखने की सोनिया गाँधी की महत्वाकांक्षा ने यदि कॉन्ग्रेस के अंदर कोई नया नेतृत्व पनपने नहीं दिया तो फिर ममता बनर्जी को उसी भूमिका में कैसे स्वीकार कर सकती है? ऐसे में अधीर रंजन चौधरी के ये वक्तव्य केवल उनके वक्तव्य जान नहीं पड़ते। ये कॉन्ग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व के बोल भी हो सकते हैं।

जो बात कॉन्ग्रेस पार्टी को नागवार गुजरी है वो यह है कि ममता बनर्जी ने यूपीए के बारे में अपनी टिप्पणी मुंबई में शरद पवार के साथ मुलाक़ात के बाद दी है। बहुत पुरानी बात नहीं जब शिवसेना के संजय राउत द्वारा शरद पवार को यूपीए का अध्यक्ष बनाने की बात हो रही थी। यह बात और है कि महाराष्ट्र कॉन्ग्रेस के अध्यक्ष नाना पटोले ने इस प्रस्ताव को तुरंत ठुकराते हुए बयान दिया था कि यूपीए के अध्यक्ष पद का विषय किसी बहस का मुद्दा नहीं हो सकता और सोनिया गाँधी ही यूपीए की अध्यक्षा रहेंगी। बाद में पश्चिम बंगाल चुनाव परिणाम के बाद विपक्ष की एकता के नाम पर शरद पवार का नाम खारिज करके ममता बनर्जी के यूपीए को हेड करने की बात उछाली गई। शायद इस विषय पर कॉन्ग्रेस पार्टी की राय ही ऐसी थी कि आज ममता बनर्जी को खुद कहना पड़ा कि; यूपीए अब अस्तित्व में ही नहीं है।

भारतीय राजनीति में तीसरे मोर्चे की परिकल्पना कोई नई बात नहीं है। यह लगभग ढाई दशक से दी और ली जा रही है। जब इसकी बात होती है तब विपक्ष की तथाकथित एकता की खोज की जाती है। यह बात और है कि इस एकता की केवल परछाई नज़र आती है पर एकता कभी नज़र नहीं आती। विपक्ष की जिस एकता के सहारे ममता बनर्जी प्रधानमंत्री बनना चाहती है उसका कोई एक आधार दिखाई नहीं देता। राज्यों में शासन कर रहे राजनीतिक दलों को वर्तमान केंद्र सरकार और भारतीय जनता पार्टी से अलग-अलग समस्याएँ हैं। ऐसे में ममता बनर्जी एकता की परछाई के पीछे जाकर एकता को पकड़ लाएँगी, इसकी संभावना कम ही है। शरद पवार ने ममता बनर्जी को विश्वास दिलाने के लिए चाहे जो कहा हो पर विपक्ष के सारे दल उन्हें अपने नेता के रूप में स्वीकार करेंगे, इसकी संभावना दिखाई नहीं देती।

गठबंधन या तो तब चलता है जब गठबंधन में किसी एक दल के पास गठबंधन में भारी बहुमत हो या फिर नेतृत्व सबको लेकर चलने वाला हो। फिलहाल प्रस्तावित विपक्षी एकता और गठबंधन के लिए दो में से कोई एक बात भी दिखाई नहीं दे रही। ममता बनर्जी का लोकतांत्रिक राजनीति में विश्वास मीडिया के कागजों और विपक्षी एकता को लेकर अपनी विशफुल थिंकिंग ढो रहे तथाकथित धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों के कॉलम तक सीमित है। लोकतांत्रिक परंपराओं और मर्यादाओं के लिए उनके मन में कितना सम्मान है, यह देश ही नहीं विपक्षी दलों के नेता भी समझते हैं। इसके अलावा दो-ढाई वर्षों में राष्ट्रीय राजनीति में अपने दल को दलबदलू नेताओं के दम पर स्थापित कर लेना आसान नहीं है। कॉन्ग्रेस पार्टी लगातार नीचे जा रही है पर पूरे भारत में आज भी उसके पास अपना एक वोट बैंक है जिसके आस-पास पहुँचना तृणमूल कॉन्ग्रेस और ममता बनर्जी के लिए इतने कम समय में संभव नहीं है।

वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में कॉन्ग्रेस पार्टी की अपनी सीमाएँ हैं पर तृणमूल कॉन्ग्रेस की भी अपनी सीमाएँ हैं जिन्हें तोड़ पाना उसके लिए सरल न होगा। अधीर रंजन चौधरी और ममता बनर्जी के बीच वक्तव्यों की यह लड़ाई चाहे जितनी गंभीर हो, कॉन्ग्रेस पार्टी और उसके केंद्रीय नेतृत्व को पता है कि बिना उनके विपक्षी एकता की कल्पना तो संभव है पर एकता संभव नहीं है। इसके ऊपर राज्यों में शासन कर रहे अन्य दलों और उनके नेताओं की भी अपनी समस्याएँ और सीमाएँ हैं। यह सब देखते हुए यही कहा जा सकता है कि ममता बनर्जी यात्राएँ, बैठकें और प्रेस कांफ्रेंस वगैरह करती रहेंगी पर ये सब मिलकर अभी तक उन्हें विपक्षी एकता की परछाई से आगे ले जाते हुए नहीं दिख रहे।

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