Saturday, April 20, 2024
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लोकतंत्र का लहसुन: रावण से रा.टू होने तक मायावती का मनुवादी होना ज़रूरी है

नया नेता नए 'वाद' को लोकसभा चुनावों के 15 दिन पहले नहीं गढ़ सकता। उसके लिए ये मौका डेस्पेरेशन वाला हो जाता है। तब वह बोल देता है कि मायावती मनुवादी है। उसे यह साबित नहीं करना है, क्योंकि साबित करने की ज़रूरत नहीं है। ज़रूरत इसलिए नहीं है क्योंकि दलितों की स्थिति में कोई खास सुधार हुआ नहीं है।

मनुस्मृति उन लोगों ने तो बिल्कुल ही नहीं पढ़ी है जो A4 साइज पेपर पर मनुस्मृति लिखवा कर, मोटे काले बॉर्डर में प्रिंट लेकर, किसी भी किताब की जिल्द पर चिपका देते हैं, और उसमें आग लगा देते हैं। पढ़ना तो छोड़िए, एक सर्वेक्षण करा लिया जाए कि कितने घरों में यह किताब है जिसके नाम पर इस ‘वाद’ का मवाद बह रहा है, तो पता चलेगा कि यह ग्रंथ न तो प्रचलन में, न ही लोग इसके हिसाब से चलते हैं। 

साथ ही, स्मृति होने के कारण, और इस्लामी आतंकियों के पूर्वजों, यानी इस्लामी आक्रांताओं, द्वारा हमारी संस्कृति के निशान मिटाने हेतु तमाम पुस्तकालयों, ग्रंथागारों में आग लगाने के बाद, जो बचा है उसमें से दर्जनों श्लोक गायब हैं। दूसरी बात यह भी है कि लोग श्लोक वाले महाकाव्य, शास्त्र या ग्रंथों के श्लोकों को पढ़ते या समझते वक्त सबसे बड़ी गलती यह करते हैं कि उसके ऊपर और नीचे के श्लोकों से संदर्भ हटा कर, उसे सिर्फ एक श्लोक के तौर पर देखते हैं। 

यह बात एक सामान्य बुद्धि का व्यक्ति जानता है कि ‘रॉबर्ट ने चाकू उठा लिया, और गुस्ताव की तरफ देखने लगा’ में रॉबर्ट एक दरिंदा ही नजर आएगा, जबकि उससे पहले की दो लाइनों में गुस्ताव ने चाकू निकाल कर रॉबर्ट पर हमला करने की कोशिश की थी, और चाकू नीचे गिर गया था, जिसे रॉबर्ट ने आत्मरक्षा के लिए उठाया। इसके बाद पता चले कि फिल्म की शूटिंग चल रही थी। इसीलिए, संदर्भ बहुत ज़रूरी होते हैं। इसीलिए, जब भी आप पर कोई मनुस्मृति की बातें कहे तो श्लोक माँगिए, पन्ने माँगिए, उससे ऊपर और नीचे के संदर्भ माँगिए, उस समय के समाज का ब्यौरा माँगिए, उस समय किसका राज्य था यह माँगिए, और इन सारी चीज़ों के संदर्भ में श्लोक को समझने की कोशिश कीजिए। 

रावण, मायावती और लालू से लेकर अखिलेश और तमाम लाल सलाम वाले लम्पट पार्टियों तक, संदर्भ हटा दिया जाता है, कल्पना को सत्य की तरह इतनी बार बोला जाता है, बुद्धिजीवियों से इतनी बार बुलवाया जाता है कि आम जनता बिना शोध किए, बिना मेहनत किए, उसे सच मानकर अप्रैल 2018 में आंदोलन कर देती है और आंदोलन में बारह लोगों की जान ले लेती है। उसे न तो मनुस्मृति से कुछ लेना देना है, न ही इस बात से कि सरकार ने कभी भी आरक्षण हटाने की बात नहीं की थी। 

इसी तरीके से नए लोगों का जनाधार बनता है। इसके पीछे के व्यवस्थित इंतजाम इतने व्यापक होते हैं, कि आग लगाने की मशाल के पेट्रोल से लेकर, आग लगने के बाद हुई हिंसा के पैमाने को इस बात के सबूत मानने तक कि आंदोलन कितना सफल रहा, किसको क्या और कैसे कहना है, सब तय होता है। हिंसा ज़ायज ठहरा दी जाती है, क्योंकि तंत्र में शब्दों के धार से हमला करना एक अपेक्षित गुण माना जाता है। ऐसे ही आंदोलनों की नाजायज़ औलादें, लाशों पर पैर रख कर संसद तक पहुँचती है। ऐसी भीड़ें ही इन नाजायज़ बच्चों को जनती है जो बाद में इन्हीं के लिए बने संसाधनों को पत्थर से बने पर्स में, और पार्कों के पिलर पर बने हाथियों में खपा देते हैं। 

हज़ार के नोटों की मालाएँ याद हैं न आपको? दलित के गले में वो माला, नकली नोटों की भी हो, तो भी बहुत बड़ा संदेश देती है। वो दलितों के रीढ़ों के कशेरुकों को अपनी एड़ियों से चकनाचूर करके आगे बढ़ने वाली उस महाशक्ति का उदाहरण बनती है जो बताती है कि सर्वहारा की क्रांति का नेता रॉल्स रॉयस से चलता है, और दलितों की नेत्री भारत के सबसे अमीर नेताओं में से एक हो जाती है। 

समस्या ऐसे नेताओं की अमीरी नहीं है, समस्या यह है कि तुमने उन दलितों के लिए क्या किया? उत्तर प्रदेश और बिहार में समाजिक न्याय के मसीहाओं ने इन समाजों के लिए क्या किया है, इसका पता इसी से चलता है कि कॉन्ग्रेस जैसी पार्टियाँ आज भी ‘गरीबी हटाओ’ के वैरिएशन वाले नारे लेकर ही चल रही है। लालू की फैलाई बर्बादी और माया-मुलायम के राज में व्याप्त गुंडई से नेताओं के पेट तो इतने भर गए कि छींके तो नाक से सोने का चावल निकल आए, लेकिन गरीब के लिए आज भी एक वक्त चावल खाना एक लग्ज़री है। 

इन्होंने बहुत लहरिया लूटा, दशकों तक लूटा, बदल-बदल कर लूटा, कह-कह कर लूटा और अपने आप को अपने राज्यों में इन जातियों का एक मात्र मसीहा बताकर लूटा। लेकिन पावर, या सत्ता, समाज को हर 25-30 साल में रीसायकल करता है। एक पीढ़ी निकल जाती है, दूसरी पीढ़ी बाप के बनाए राज-पाट को जनाधार की बुनियाद पर नहीं, अपने बेटे या बेटी होने के बुनियाद पर उत्तराधिकार में पाती है। 

यहाँ एक सोशल डिसकनेक्ट पैदा होता है। अंग्रेज़ी शब्द इसलिए कह रहा हूँ कि आप मुझे गम्भीरता से लें। हें, हें , हें… ये जो डिसकनेक्ट है, जहाँ जनता आपके बाप को जानती है इसलिए आपको भी मानती है, वो ट्रान्जिशन वाले दौर में, जब बाप की उम्र ढलती है, और बेटे-भतीजों में सत्ता के एकाधिकार को लेकर ठनती है, प्रबल होकर दिखती है। फिर अखिलेश रूठ जाता है, तेज प्रताप लालू राबड़ी पार्टी की घोषणा कर देता है, मायावती बुआ बन जाती है…

ये जो ट्रान्जिशन का दौर होता है, ये वो साल होते हैं जब क्षत्रप के किले में दरार के लिए पहली चोट अपना ख़ून ही करता है। फिर दूसरी पीढ़ी का कोई रावण इस अवसर को भाँप कर, अपने आप को लालू-मुलायम-कांशीराम की तरह देखने लगता है। उसका मोडस ऑपरेंडाय, यानी कार्यशैली, पुरानी ज़रूर होती है लेकिन बेहतर संसाधनों के प्रयोग से वो बहुत तेज़ी से उभरता है।

अब वो स्वयं को एक आशा की तरह बेचने लगता है; वो आंदोलन कराता है; जेल जाता है; बीमार हो जाता है; बड़े नेताओं को अकारण ही भारत की सारी समस्याओं का जड़ मान लेता है। वो हर जगह एक ही बात, बार-बार बोलता है, और मीडिया का एक हिस्सा उसे उम्मीद की तरह भुनाने लगता है। दो सौ लोगों की मोटरसायकिलों में तेल भरवा कर वो रैली निकालता है। ग़रीबों के सब्जी के ठेलों पर दलितों का उत्पात होता है, झूठी ख़बर पर आग लगाई जाती है, घरों में घुस कर निजी दुश्मनी के कारण आंदोलन की आड़ में गोली मारी जाती है। फिर एक नेता हिट हो जाता है।

ये नेता पुराने लोगों को खटकने लगता है। दोनों के लिए लड़ाई अस्तित्व की हो जाती है लेकिन गरियाने के लिए किताब तो एक ही है, नए शब्द तो बुद्धिजीवियों ने गढ़े ही नहीं! फिर नया रावण रा टू प्वाइंट ज़ीरो बनने के लिए उसी नेत्री को मनुवादी कह देता है जिसकी पूरी राजनीति खाली पन्नों की फ़ोटोकॉपी पर मनुस्मृति लिख कर जलाने से शुरु हुई। 

‘वाद’ एक ही है, ब्राह्मण ही शत्रु है जिसके पास खेत के नाम पर कट्ठों में ज़मीन है, और पुरोहित का काम करके दक्षिणा से मिले पैसों या अन्न से घर चलाने की जद्दोजहद, लेकिन घेरना तो है ही किसी को। प्रचलित शब्द भी ब्राह्मणवाद है क्योंकि यही बार-बार लिखा और बोला गया है। किसी ने न तो प्रतिशत निकाला, न उनकी सामाजिक स्थिति पता करने की कोशिश की, पाँच हजार सालों के पाप उनके नाम कर दिए गए, जबकि उस काल की किताबों में ऐसा एक वाक़या नहीं है जो यह साबित कर सके। 

यह बात गलत नहीं है कि दलितों की स्थिति बहुत खराब है, और सवर्णों द्वारा बहुत ही घटिया स्तर के भेदभाव हुए हैं, हो रहे हैं, लेकिन इसके नाम पर राजनीति चमकाने वालों ने जब ब्राह्मण वोटों के लिए, ब्राह्मणों को साधना शुरु किया तब समझ में आने लगा कि राजनीति का अपना रंग होता है, उसकी अपनी आइडेंटिटी होती है, जो विचारधारा, धर्म, जाति और निजी दुश्मनी से भी परे होती है। कितने दलित नेता ब्राह्मण जाति के लोगों से दूर हैं, और कितनी रैलियों में वो ब्राह्मणों को गालियाँ नहीं देते? 

इसीलिए लोकतंत्र में लहसुन का ज़ायक़ा आ जाता है। रावण जब रा.टू बनने निकलता है तो उसे पता है कि वोट कहाँ से आएँगे, और उसे यह भी पता है कि किसकी राजनीति पर उसे हमला करना है। उसके लिए नए विशेषण बनाने का समय नहीं होता। वो नए ‘वाद’ को लोकसभा चुनावों के पंद्रह दिन पहले नहीं गढ़ सकता। उसके लिए ये मौका डेस्पेरेशन वाला हो जाता है। और तब वह बोल देता है कि मायावती मनुवादी है। 

उसे यह साबित नहीं करना है, क्योंकि साबित करने की ज़रूरत नहीं है। ज़रूरत इसलिए नहीं है क्योंकि दलितों की स्थिति में कोई खास सुधार हुआ नहीं है। किसी भी दलित व्यक्ति को, जो सही मायनों में वंचित और पिछड़े हैं, बताने की आवश्यकता नहीं कि उसके जीवन में मायावती ने क्या बदलाव किए हैं। मायावती ने हाथी बनवाए, मुलायम पुत्र ने ज़मीन हथियाई और दलितों का जीवन वैसे ही चलता रहा, जैसे चलता रहा था। 

आशा बेचकर नेता बनना सबसे आसान है। इस उत्पाद को बेचना तब बेहद आसान हो जाता है जब लोगों में निराशा होती है। जब लोगों में निराशा होती है, और जब लोगों ने नेताओं को लगातार देख लिया हो, तो नई पीढ़ी यह सोचने लगती है कि किसी और को भी मौका देना चाहिए। यही वो ट्रान्जिशन का दौर होता है, जब सत्ताधीशों की नई पीढ़ी और वोटरों की नई पीढ़ी के बीच रावण भी अवतार लेकर किसी का भला करने की बात करने लगता है। 

आज मनुवाद फिर से चर्चा में है। मनुवाद का मतलब मनुवाद बोलने वालों को ठीक से पता नहीं, तो गाँव के ग़रीबों और वंचितों को क्या पता होगा। आप में से एक प्रतिशत भी लोग ऐसे नहीं होंगे जिनके घरों में मनुस्मृति रखी हो, और आपके पिता या दादा मनु की बात करते हों। फिर ये मनुवाद आता कहाँ से है? 

ये वहीं से आता है जहाँ से एकतरफ़ा संवाद के ज़रिए झूठों की उत्पत्ति होती है। अस्तित्व की लड़ाई करता व्यक्ति हर वो पैंतरा आज़माता है जिससे वो किसी भी तरह सत्ता पा सके। इसके लिए उसे फर्जी सेमिनार कराना पड़े, तो विलियम जोन्स सेमिनार कराता है और मैक्समूलर से लेकर तमाम तथाकथित विद्वानों की मदद से कल्पना को इतिहास बनाकर भारतीय जनता के लिए भारत के इतिहास के आधार पर रखकर चला जाता है। फिर एक बहुत बड़ी साज़िश के तहत आर्य और द्रविड़ पैदा होते हैं, फिर गोरे और काले चमड़ी के नाम पर नोआ और हैम की बातों के ज़रिए हमारे भीतर ज़हर भरा जाता है। 

इसलिए आपके फ़िल्मों में रहीम चाचा, फ़ादर दिस दैट हमेशा दरियादिल दिखते हैं, और ब्राह्मण हमेशा व्यभिचारी दिखाया जाता है, लाला हमेशा सूदखोर बताया जाता है। इस पूरे नैरेटिव में एक भी बार बदलाव नहीं आता, जबकि समाज में इसके उलट कुछ और ही चल रहा होता है। 

इसीलिए, लोकतंत्र में एक लहसुनतंत्र बनता है। इसकी कलियाँ एक साथ, बिना किसी गैप के, अपनी भीतरी सच को सफ़ेद लैमिनेशन से ढके, चिपकी एक बनी रहती हैं। ये सारे चोर, एक भाषा बोलते हैं। सारे लहसुन हर नैरेटिव में, हर भाषण में, हर रैली में, हर चर्चा में, हर पैनल डिस्कशन में, हर प्राइम टाइम में एक भाषा बोलते हैं। 

तब, सारे सामाजिक अपराध राजनैतिक हो जाते हैं। तब, सारे सामाजिक अपराध धार्मिक हो जाते हैं। तब सीट का झगड़ा बीफ का झगड़ा हो जाता है। तब, आतंकी भटके हुए नौजवान हो जाते हैं। तब, भीड़ हत्या के रिकॉर्ड से सिर्फ समुदाय विशेष के ही नाम निकाले जाते हैं। तब, किसी दलित की पिटाई के लिए हर सवर्ण ज़िम्मेदार हो जाता है। तब, कठुआ की पीड़िता के लिए पूरा हिन्दू समाज उत्तरदायी होता है, और गीता के बलात्कारियों पर चर्चा नहीं होती।

तब, सारी समस्या की जड़ में वो व्यक्ति हो जाता है जिसके होने का सच स्वीकारने पर दिक्कत है, लेकिन उसकी लिखी बातों के नाम पर मनुवाद फैलाकर लोग चुनाव जीत जाते हैं। तब दलितों की भीम आर्मी का रावण, दलितों की सबसे बड़ी नेत्री पर मनुवाद खींच कर फेंकता है और इकोसिस्टम लहालोट हो जाता है। 

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अजीत भारती
अजीत भारती
पूर्व सम्पादक (फ़रवरी 2021 तक), ऑपइंडिया हिन्दी

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