पिछले करीब एक वर्ष में कोरोना के खिलाफ देश की लड़ाई में वैक्सीन और वैक्सीनेशन एक ऐसा विषय रहा जिस पर बहस, विमर्श और दुष्प्रचार आवश्यकता से अधिक हुआ। जिस पर राष्ट्र के संघीय ढाँचे से सम्बंधित राजनीति, शासन प्रणाली, नेतृत्व क्षमता, अनावश्यक प्रश्न और प्रोपेगेंडा ने लगभग पूरे देश को उलझाए रखा। विशेषज्ञों के क्षेत्रों में गैर विशेषज्ञों के अति ज्ञान से लेकर बेवकूफी तक के दर्शन हुए। वैज्ञानिकों की बातों को तमाम लोग अवैज्ञानिक तरीके से काटते नजर आए।
विशेषज्ञों द्वारा लिए गए चिकित्सा और स्वास्थ्य सम्बन्धी निर्णयों पर गैर विशेषज्ञ से लेकर पढ़े-लिखे बेवकूफ प्रश्न करते बरामद हुए। सरकार द्वारा गठित समितियों के निर्णयों को किसी एक व्यक्ति पर थोपने की कोशिश की गई। तमाम विषयों पर राज्य सरकारों के नेतृत्व पेंडुलम की तरह झूलते नज़र आए। महामारी काल में भी विपक्ष की राजनीति को बिना किसी हिचक के विरोध की राजनीति में बदलते देखा गया। प्रोपेगेंडा के अलग स्तर दिखाई दिए।
‘सरकार वैक्सीन को इतनी जल्दी क्यों लाना चाहती है’ या ‘हम वैक्सीन को लेकर इतने जल्दी में क्यों हैं’, जैसे प्रश्न से शुरू होकर ‘सरकार ने हमारे बच्चों की वैक्सीन विदेशों को क्यों बेंच दी’, तक की दूरी तय करने में कुछ व्यक्तियों, संस्थाओं, बुद्धिजीवियों, मीडियाकर्मियों और राजनेताओं को छह महीने भी नहीं लगे। ‘हम देश में बनी वैक्सीन नहीं लगवाएँगे’ से शुरू होकर ‘मोदी जी हमें वैक्सीन नहीं दे रहे हैं’ तक की दूरी बमुश्किल पाँच महीने में तय कर ली गई।
‘मोदी जी वैक्सीन बनाने वाले अपने कैपिटलिस्ट मित्रों को फायदा पहुँचाने के लिए देश की गरीब जनता के साथ धोखा कर रहे हैं’ से लेकर ‘मोदी जी ने हमारी वैक्सीन पहले देशवासियों को क्यों नहीं दी’, तक पहुँचने में नेताओं को ढाई महीने भी नहीं लगे। ‘विदेशी वैक्सीन निर्माताओं से राज्य सरकारें खुद वैक्सीन खरीदेंगी’ कहने से लेकर ‘हमारे राज्य विदेशी वैक्सीन निर्माताओं के सामने वैक्सीन के लिए लड़ रहे हैं, ये क्या अच्छा लगता है?’ कहने में डेढ़ महीने नहीं लगे। ‘राज्य सरकारों को अपने निर्णय लेने का अधिकार मिले’ से ‘केंद्र सरकार सब कुछ वापस अपने हाथ में ले’ कहने में विपक्षी मुख्यमंत्रियों को एक महीना भी नहीं लगा।
आवश्यकता थी प्रधानमंत्री के बोलने की इसलिए वे बोले। आवश्यकता इसलिए थी कि राज्य सरकारें केंद्र के वैक्सीनेशन प्रोग्राम के विरोध में सुप्रीम कोर्ट तक जाने से लेकर वैक्सीन की कमी के लिए केंद्र सरकार को दोषी बताने तक, सब कुछ आजमा चुकी पर वैक्सीनेशन को लेकर उनकी अपनी जिम्मेदारियों की बात कहीं नहीं हो रही थी। जब केंद्र सरकार ने इस विषय में राज्य सरकारों को वैक्सीन खरीदने और वैक्सीनेशन प्रोग्राम खुद लागू करने का अधिकार दिया तब इन्होने उसे सहर्ष स्वीकार किया था। भारतीय वैक्सीन निर्माताओं द्वारा राज्य सरकारों को वैक्सीन की कोट की गई कीमत को लेकर भी प्रश्न उठाए गए। प्रश्न यह था कि ये वैक्सीन निर्माता केंद्र सरकार से जो दाम ले रहे हैं उसी दाम में वैक्सीन राज्य सरकारों को क्यों नहीं मिलनी चाहिए? यह बात और है कि दिल्ली में अधिकतर वैक्सीन निजी अस्पतालों में लगाईं गई, जहाँ ऐसी कीमतें वसूल की गई जो खरीद मूल्य से बहुत अधिक थी। पंजाब सरकार ने तो बाकायदा नियम बनाकर वैक्सीन निजी अस्पतालों को मुनाफे में बेंची और इसके विरुद्ध शोर मचाए जाने पर अस्पतालों से वैक्सीन वापस ले ली।
विपक्षी नेताओं, केंद्र सरकार विरोधी मीडिया, इकोसिस्टम और कार्टूनों तक ने वैक्सीन के विरुद्ध एक माहौल बनाया। उसी का असर है कि तमाम ग्रामीण और शहरी इलाकों में वैक्सीन के प्रति आज भी एक तरह का डर है। छत्तीसगढ़ के स्वास्थ्य मंत्री, समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव और कई कॉन्ग्रेसी नेता वैक्सीन के प्रति भ्रम फैलाते नज़र आए। साथ ही एक इकोसिस्टम ने विदेशी वैक्सीन की एंट्री को मँजूरी के लिए माहौल तैयार करने की कोशिश की, बिना यह सोचे कि केंद्र सरकार पहले से ही विदेशी निर्माताओं और उनके भारतीय सहभागियों के संपर्क में थी। जब सरकार ने विदेशी वैक्सीन के आयात की इजाजत दी तो एक तरह से राज्य सरकारों और इस इकोसिस्टम की बाँछें खिल गई।
राज्य सरकारों ने शायद यह अनुमान लगाया था कि दुनिया भर के वैक्सीन निर्माता बहुत बड़े स्टॉक लेकर बैठे हैं और ये ग्लोबल टेंडर फ्लोट करके उनसे बिड मँगवा कर वैक्सीन खरीद लेंगे। पर बीस दिन में ही निर्णयों को लेकर स्वतंत्रता की उनकी यह माँग जब उन पर भारी पड़ने लगी तब यह कसमसाहट भी शुरू हो गई कि कैसे केंद्र को सब कुछ वापस अपने हाथ में लेने के लिए माहौल बनाया जाए। इन सरकारों की सोच दर्शाती है कि विषय को लेकर उनकी समझ और तैयारी किस स्तर की थी।
अब जबकि केंद्र सरकार ने वैक्सीन की खरीद और राज्य सरकारों को मुहैया कराने की जिम्मेदारी खुद ले ली है, वैक्सीनेशन प्रोग्राम के सुचारु रूप से वापस पटरी पर आने की संभावना है। राज्य सरकारें अपनी भूमिका वैसे ही निभाएँगी जैसा उन्हें निभाना चाहिए? क्या अब राज्य सरकारों को या विपक्ष को केंद्र सरकार, उसके स्वास्थ्य मंत्रालय या प्रधानमंत्री से शिकायत नहीं रहेगी? इस प्रश्न का उत्तर समय देगा।
केंद्र सरकार के इस निर्णय को लेकर जिस तरह से क्रेडिट लेने और देने की होड़ मची हुई है, वह दर्शाता है कि ऐसे निर्णयों को या ऐसी घोषणा का विपक्ष या मोदी विरोधियों के लिए क्या महत्व है। वैसे भी, अभी तो घोषणा को चौबीस घंटे भी नहीं हुए हैं। ऐसे में विपक्ष की असली प्रतिक्रियाएँ जानने के लिए उसे थोड़ा और समय देना आवश्यक है। अभी तो विरोध के नए तरीके खोजे जा रहे होंगे। नया स्क्रीनप्ले लिखा जा रहा होगा। उसके क्रियान्वन को लेकर ब्रेन स्टॉर्मिंग की जाएगी और फिर पता चलेगा कि देशवासियों के हितों के लिए चिंतित लोग उन हितों की रक्षा में क्या करते हैं।
वैसे जाते-जाते मेरा भी एक प्रश्न है; ये अदार पूनावाला को धमकी किसने दी थी?