अपने तोड़ मरोड़ से भरे हुए लेख में योगेंद्र यादव, जिन्हें पहले पोलिटिकल साइंस में अपने काम के लिए जाना जाता था, ने अपनी बौद्धिकता की चरम सीमा से आगे जाते हुए कहा है कि राम मंदिर कुछ अन्य महत्वपूर्ण प्रस्तावों के साथ भारत में सेक्युलर पॉलिटिक्स की परीक्षा होगा। मैं दंग रह गई जब मैंने यह हैडलाइन पढ़ी, और इस लेख को पढ़ने का निश्चय केवल इसके लिए किया कि कहीं यह क्लिकबेट न हो। और वह नहीं था! एक समय ‘पोलिटिकल साइंटिस्ट’ कहे जाने वाले व्यक्ति ने सच में ऐसा कहा था।
लेकिन इस पर दोबारा सोचने पर, एक ऐसे व्यक्ति के तौर पर जिसे अकादमिक दुनिया को अंदर से जानने का मौका मिला है, मुझे आश्चर्य नहीं होता कि योगेंद्र यादव को ऐसा विश्वास है कि हिन्दुओं और राम मंदिर के पक्ष में कोई भी फैसला सेक्युलर नहीं होगा। उनकी बौद्धिक धोखेबाजी यहीं नहीं रूकती। उनकी राय है कि एनआरसी और यूसीसी (यूनिफॉर्म सिविल कोड), केंद्रीय मतांतरण विरोधी कानून और नागरिकता संशोधन विधेयक जैसे कानूनों को को भी ‘ग्रेडेड रिस्पांस’ (सधी प्रतिक्रिया) मिलनी चाहिए न कि एकमत समर्थन।
उनकी स्थिति से पता चलता है कि नेहरूवादी सेक्युलरिज़्म में दो परेशानियाँ हैं। एक, कोई भी निर्णय जो बहुसंख्यक समुदाय की भावनाओं का पक्ष दूर-दूर तक ले (जरूरी नहीं कि अल्पसंख्यकों का अपमान कर के) वह सेक्युलर नहीं हो सकता। दूसरा, भारत की विज़न एक बहस तक सीमित है जहाँ अल्पसंख्यकों की भावनाएँ कैनवास का इकलौता रंग हैं; हर तर्क या तो उनके खिलाफ है या उनके पक्ष में। मैं ऐसी दृष्टि के खिलाफ हूँ, क्योंकि मैं भी अल्पसंख्यकों की तरह मिट्टी की बेटी हूँ, और मैं भी अपनी राय और अधिकार रखने के लायक हूँ।
राम मंदिर: हिन्दू अभिव्यक्ति, मुस्लिमों का अपमान नहीं है
राम मंदिर के पक्ष में कोई भी फैसला केवल एक कारण के चलते माइनॉरिटी विरोधी रूप में बेशक नहीं देखा जाना चाहिए, और योगेंद्र यादव ऐसा कर के गलती कर रहे हैं। अयोध्या मुस्लिमों के मक्का की तरह है। यह एएसआई की रिपोर्ट में स्थापित हो चुका है कि वहाँ पर पहले एक भव्य हिन्दू मंदिर था और उसे तोड़कर ही मस्जिद बनाई गई। किसी भी श्रद्धालु समुदाय की तरह हिन्दू मंदिर का पुनर्निर्माण चाहते हैं अब, जब देश राजशाही और अधिनायकवादी शासन से आज़ाद है। हिन्दुओं के पक्ष में निर्णय मुस्लिमों के खिलाफ नहीं होगा, क्योंकि मुस्लिमों में से एक प्रेरित तबका ही इस मुद्दे का इस्तेमाल भावनाएँ भड़काने में कर रहा है। क्षेत्र में छोटी मुस्लिम जनसंख्या के साथ स्थानीय मुस्लिम समुदाय से कभी मस्जिद के लिए होहल्ला नहीं रहा। राम मंदिर के लिए आवाज़, दूसरी ओर, बहुंसख्यक समुदाय के पूरे सामाजिक-सांस्कृतिक मेल में से आती रही है, भारत के भीतर भी और बाहर भी।
दुर्भाग्यपूर्ण रूप से सैकड़ों सालों तक बहुंसख्यकों की कंडीशनिंग के चलते उन्हें लगता है कि अपनी सांस्कृतिक प्रथाओं की कोई अभिव्यक्ति अल्पसंख्यकों का अपमान है। लेकिन यह तुलना गलत है। भारत बहुंसख्यक और अल्पसंख्यक दोनों समुदायों का है। यह किसी एक का अधिक और दूसरे का कम नहीं है। अतः इसका कोई कारण नहीं है कि बहुंसख्यकों को अपने होने भर से शर्मिंदा होना पड़े।
योगेंद्र यादव के लिए अल्पसंख्यकों के खिलाफ और उनके पक्ष में
भारत एक विभिन्नता वाला देश है जिसे सदियों से एक सूत्र में “एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति” पिरोता है। ऐसे देश में कोई सेक्युलरिज़्म के विचार को एक ही रंग में कैसे पेंट कर सकता है और बहुसंख्यकों के गुणों को क्रूर और सेक्युलरता के खिलाफ बता सकता है?
तीनों ही प्रस्ताव यूसीसी (यूनिफॉर्म सिविल कोड), केंद्रीय मतांतरण विरोधी कानून और नागरिकता संशोधन विधेयक अल्पसंख्यकों के खिलाफ बताए जा रहे हैं उनके द्वारा जिनके छिपे हित सामाजिक अस्थिरता, डेमोग्राफिक असंतुलन, सीमा पार घुसपैठ से जुड़े हुए हैं। इसके उलट ये तीनों ही प्रस्ताव देश के सेक्युलर परिचय को संरक्षित करते हैं।
- यूसीसी सभी समुदायों पर प्रभाव डालता है, उन्हें फायदा पहुँचाता है और उनके बीच वैमनस्य को दबाता है। यह किसी भी एक समुदाय के पक्ष या विपक्ष में नहीं है।
- मतांतरण विरोधी कानून किसी भी समुदाय से जबरिया मतांतरण पर रोक लगाएगा, जो एवंजेलिस्म और पैसे के लालच से होता है। यूसीसी की तरह यह भी सब पर लागू होगा। इसे अल्पसंख्यकों के खिलाफ बताने वाला ऐसे निर्णय की ओर इशारा कर रहा है जो अल्पसंख्यकों को असहज कर के छोड़ेगा।
- नागरिकता संशोधन विधेयक हिन्दुओं, सिखों, बौद्धों, जैनों, पारसियों या ईसाइयों को अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान से आने पर शरण और भारत की नागरिकता देगा। इससे भी भारत के अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर कोई आँच नहीं आएगी।
भारत में सेक्युलरिज़्म ने समय-समय पर परीक्षा दी है और लम्बे समय तक हमले झेले हैं। यह किसी एक फैसले का मोहताज नहीं है। लेकिन यह साफ है कि योगेंद्र यादव जैसे कई सारे ‘बौद्धिक धोखेबाज’ और ‘संदिग्ध विश्लेषकों’ का खुलासा हो चुका है। जो केवल एक हिन्दू-समर्थक फैसले की आहट भर से आहत हैं।
समय आ गया है कि पोलिटिकल साइंटिस्ट का ढोंग करने वाले प्रोपेगंडाबाजों को मान लेना चाहिए कि बहुंसख्यकों की प्रकृति ही सेक्युलर मानी जाती है। अनगिनत पंथों में फैले हुए हिन्दू धर्म ने हमेशा आस्था, विचारधारा, पंथ और मान्यताओं के लिए छतरी का काम किया है। जबकि नव-सेक्युलरिज़्म एक भंगुर सिद्धांत है, प्रोपेगंडा और दोहरेपन की अवधारणाओं की दया पर खड़ा हुआ, वह आस्थाओं के बीच की बहुंसख्यकों की संस्कृति है, जो उन्हें स्वीकार करने और गले लगाने का धैर्य देती है।
(मूलतः अंग्रेजी में प्रकाशित इस लेख का हिन्दू अनुवाद मृणाल प्रेम स्वरूप श्रीवास्तव ने किया है।)