बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी या काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में एक आंदोलन चल रहा है। इस आंदोलन की लोगों को खबर भी नहीं है, क्योंकि काशी दिल्ली में नहीं है और उसे जवाहरलाल नेहरू या उनके खानदान के चिरागों ने नहीं बनवाया था। काशी से खबरें तो चलीं लेकिन उन खबरों से वह मूल मुद्दा गायब था, जिसके कारण वहाँ के छात्र धरना और प्रदर्शन कर रहे हैं।
मुद्दा यह है कि काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में, जो कि AMU की तर्ज पर ‘अल्पसंख्यक’ या ‘मजहबी’ सीमाओं में बँधा नहीं है, एक फैकल्टी या संकाय है जिसका नाम है संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय। इसके अलावा इसी विश्वविद्यालय में लगभग हर विषय से जुड़े संकाय और विभाग हैं, जिसमें उनकी समुचित शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था है।
यहाँ सिर्फ इस फैकल्टी के एक विभाग को छोड़ कर किसी भी दूसरे विभाग या संकाय में शिक्षकों या विद्यार्थियों के लिए किसी भी तरह की मनाही नहीं। फिर सवाल यह है कि किसी एक विभाग में भी यह मनाही क्यों है कि वहाँ हिन्दुओं या हिन्दुओं के अंग-प्रत्यंगों (सनातनी, आर्यसमाजी, जैन, बौद्ध, सिक्ख आदि) के अलावा किसी का भी प्रवेश वर्जित है?
वहाँ के छात्र उसका कारण बताते हैं। कारण यह है कि यह विभाग उन विषयों के अध्ययन-अध्यापन के लिए बना है जो हिन्दू धर्म से जुड़े कर्मकांड से ले कर उसके वैज्ञानिक पक्ष एवम् सनातन हिन्दू परम्पराओं, वेद, वेदांग, ज्योतिष की व्याख्या और निष्पादन की पूरी धार्मिक प्रक्रिया आदि पर आधारित है। यहाँ से निकले हुए बच्चे हिन्दू आस्था के केन्द्रों में, वहाँ के मंदिरों में पुरोहित बनते हैं, समाज में कर्मकांड, पूजा-पाठ आदि से ले कर तिथि-पंचांग की समुचित व्याख्या करते हैं और हिन्दू धर्म की केन्द्रीय बातों में अगाध श्रद्धा रखते हैं।
अब प्रश्न आता है कि कोई समुदाय विशेष वाला वेद-वेदांग क्यों नहीं पढ़ा सकता? उत्तर यह है कि यह विभाग सिर्फ वेद-वेदांग के लिए ही नहीं है, यह विभाग पूरे विश्व में हिन्दू धर्म से जुड़ी हर बात, हर सवाल का जवाब देने हेतु उत्तरदायी है। यह धर्म विज्ञान से जुड़ी व्यवस्था है और यहाँ के द्वारों पर शिव और पार्वती की मूर्ति है जिसे प्रणाम किए बगैर शिक्षक या विद्यार्थी घुसते तक नहीं। एक तरह से विश्वविद्यालय परिसर में यह एक मंदिर है, जहाँ प्रविष्ट होने से ले कर बैठने, पढ़ने, सुनने और बोलने तक के लिए तय नियम हैं जो कि हिन्दू धर्म के प्रति श्रद्धा न रखने वालों के लिए नहीं है।
जिसे वेद पढ़ना है, वो कहीं और जा कर पढ़े और बाँचे। उसमें समस्या नहीं है। BHU के ही कला संकाय के अंतर्गत संस्कृत भाषा पढ़ाने के लिए संस्कृत विभाग में मजहब विशेष के प्रोफेसरों की नियुक्ति को लेकर किसी भी तरह की वर्जना नहीं है। संस्कृत एक भाषा है, जिसे कोई भी सीख सकता है, पढ़ सकता है, पढ़ा सकता है। संस्कृत धर्म नहीं है, लेकिन हिन्दू धर्म है, और उसकी एक विशिष्ट तरीके से पढ़ाई होती है, तो वहाँ सेकुलर होने के नाम पर यह मिलावट अनुचित है।
आप इसे इस आलोक में समझिए कि मस्जिदों में अजान देने, कुरान की शिक्षा देने, मदरसों में शरीयत पढ़ाने या मुल्ला-मौलवी-इमाम बनाने की शिक्षा देने की जगह में किसी हिन्दू प्रोफेसर को भेजा जाए। क्या इस देश में ऐसी व्यवस्था है जहाँ इस्लामी मजहबी तरीकों को समाज में बाँचने वाले मौलवियों को तैयार करने की शिक्षा हिन्दू दे रहा हो?
बीएचयू की स्थापना के समय इस संकाय के लिए शिलापट्ट पर नियम लिखे गए थे जिसमें लिखा हुआ है कि ‘यह भवन सिर्फ हिन्दुओं और हिन्दुओं के अंग-प्रत्यंगों’ के प्रयोग के लिए है। मूल भावना बस यही थी कि जिसकी श्रद्धा होगी, वही अपने श्रद्धा की पूर्णता में, न कि सिर्फ विषय ज्ञान के आधार पर, शिव-पार्वती की मूर्तियों को प्रणाम करते हुए अध्ययन-अध्यापन की शुरुआत करेगा और हिन्दू धार्मिक परम्पराओं के हर निर्दिष्ट नियम को मानते हुए शिक्षण काल को पूरा करेगा।
अब सवाल यह है कि जो मजहब विशेष से है, उसकी श्रद्धा हिन्दू धर्म में कैसे हो जाएगी? अगर वह मूर्तियों को प्रणाम करने लगे तो वो बुतशिकन से बुतपरस्त हो जाएगा और अपने ही मजहब से नकार दिया जाएगा। जिसकी परवरिश एक तय तरीके से हुई है, वो अचानक से उस संकाय में प्रोफेसर बना दिया जाए जो पूरे विश्व में हिन्दू धर्म और आस्था पर उठते सवालों या शंकाओं का निवारण करता है? आप मुझे एक उदाहरण दिखा दीजिए कि किसी इस्लामी संस्थान में हिन्दू प्रोफेसर शरीयत पढ़ाकर मौलवी तैयार कर रहा हो!
साथ ही, मतलब इससे भी नहीं है कि कौन क्या कर रहा है, मतलब इससे है कि बीएचयू में आए जेएनयू वाले उपकुलपति कह रहे हैं कि वो आज के समय के हिसाब से चलेंगे और बीएचयू को सेकुलर तरीके से चलाएँगे। किसी उपकुलपति के सेकुलर शब्द की समझ इतनी संकीर्ण हो सकती है, यह देख कर ही पता चलता है कि वहाँ के विद्यार्थियों में विरोध की भावना क्यों है।
क्या सेकुलरिज्म के नाम पर मजहब विशेष के लिए झटका मांस खाने का आदेश दे दिया जाए? या फिर, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का नाम काशी मु##म विश्वविद्यालय इसलिए कर दिया जाए कि सौ साल से ‘हिन्दू’ रहा नाम में, अगले सौ साल ‘मु#म’ रहने दो, समाज में अच्छा संदेश जाएगा? सेकुलर की व्याख्या यह नहीं है कि दूसरे धर्म में दख़लंदाज़ी की जाए, बल्कि सेकुलर की व्याख्या यह है कि हर धर्म, मजहब, रिलीजन की अपनी मान्यताएँ हैं जिनका हर दूसरे धर्म, मजहब, रिलीजन के लोग सम्मान करें।
इस वीसी के लिए, जबरदस्ती से संदेश देने की कुलबुलाहट ही सेकुलरिज्म है। वीसी ‘आज के समय’ से चलने की बात करते हुए बीएचयू के संविधान को परे रख कर चलने लगे हैं। कुछ बच्चे कह रहे हैं कि वीसी राकेश भटनागर स्वयं को सरकार मानते हैं। हमारे रिपोर्टर ने जब बीएचयू जा कर छात्र-छात्राओं और प्रोफेसरों से बात की तो पता चला कि डॉ. फिरोज खान की नियुक्ति अतिविशिष्ट तरीके से हुई है।
इनके साथ के जो अभ्यर्थी थे, जिनके बारे में बाकी शिक्षकों का दावा है कि बेहतर थे, उन्हें दस में से शून्य और दो की बीच ही अंक दिए गए, जबकि डॉ. फिरोज खान की हिन्दू धर्म, वेद-वेदांग की व्याख्या की क्षमता इतनी बेहतरीन थी कि उन्हें दस में दस अंक मिले। अब, जब किसी को दस में दस मिलते हैं, तो जाहिर सी बात है कि वो विलक्षण प्रतिभा का धनी होगा।
जब इस पर बवाल हुआ तो स्थानीय मीडिया ने इसे सहजता से ‘वो बनाम हिन्दू’ वाले मोड में मोड़ दिया कि फिरोज खान को ये श्लोक याद हैं, वो तो भजन भी गाते हैं, उनके पिता ये बजाते थे, और उनको संस्कृत के ज्ञान है आदि। बात यह है कि इस संकाय में ही संस्कृत विभाग है और उसमें मजहब विशेष के प्रोफेसर के होने पर किसी को आपत्ति नहीं है, बात यह है कि आज ये पहला प्रोफेसर उस दूसरे विभाग में घुसाया जा रहा है, जो कि सिर्फ हिन्दुओं के लिए है, फिर कल को वहाँ का डीन, विभागाध्यक्ष कोई मजहब विशेष से बनेगा, और बाद में पता चलेगा कि रामनवमी मनाने के नए तरीके में अजान देना भी एक आवश्यक क्रिया है।
प्रश्न यह नहीं है कि फिरोज खान से दिक्कत क्या है, प्रश्न यह है कि धर्म विज्ञान संकाय में फिरोज खान की जरूरत क्या है? ये जबरदस्ती हो ही क्यों रही है? क्या देश में सेकुलरिज्म के नाम पर कम मिलावट हो रही है जो हिन्दू आस्था के मूल पर ही चोट की जा रही है? एक तरफ इस्लाम है, और उसके समर्थक हैं, जिन्हें हलाल तंत्र पर ही विश्वास है कि वो अब चश्मा भी हलाल ही पहन रहे हैं, और दूसरी तरफ मंदिर तोड़ कर मस्जिद बनाने के बाद, जब आज के दौर में वैसी तोड़-फोड़ संभव नहीं तो इस तरह की घुसपैठ कराई जा रही है ताकि धर्म के केन्द्र ही प्रदूषित कर दिया जाए!
यहाँ सेकुलर भावुकता दिखाने की जरूरत नहीं है। यहाँ इससे भी मतलब नहीं कि मुल्ला, मौलवी और इमाम कैसे बनाए जाते हैं, हलाल तंत्र में एक भी दूसरे मजहब का होना उस वस्तु को हराम कर देता है, मतलब इससे है कि क्या सेकुलरिज्म के नाम पर काशी विश्वनाथ मंदिर में कोई मुल्ला शिव का अभिषेक करवाएगा? क्या सेकुलरिज्म के नाम पर गायत्री मंत्र की जगह मंदिरों से अजान भी पढ़वाई जाए?
ये बेहूदगी हो ही कैसे रही है? इस पर चर्चा क्यों हो रही है कि हिन्दू धर्म विज्ञान संकाय में इस ख़ास मजहब का जाएगा ही तो क्या हो जाएगा? मंदिरों से अजान पढ़ने और गंगा घाट पर आरती की जगह इसी समुदाय के दस हजार लोगों को नमाज पढ़ने से भी कुछ नहीं होगा, क्योंकि आपकी मति भ्रष्ट हो चुकी है। आपके लिए ‘क्या हो जाएगा’ एक क्षणिक प्रश्न है जहाँ शिवलिंग पर मजहब विशेष द्वारा आयतें पढ़ते हुए जलाभिषेक किसी पत्थर पर कुछ बोलते हुए पानी डालने जैसा ही है। आपके लिए ‘यार नमाज ही तो पढ़ रहा है, किसी के कुछ पढ़ने से क्या हो जाएगा’ बहुत सामान्य बात है लेकिन हिन्दू धर्म विज्ञान आप जैसे मूढमतियों और कूढ़मगजों के लिए नहीं है, इसलिए इस पर चर्चा करना बेकार है।
प्रश्न यह नहीं है कि ‘क्या हो जाएगा’, प्रश्न यह है कि ‘क्यों होगा ऐसा, आवश्यकता क्या है?’ क्या तय नियमों के हिसाब से न चलने की कोई मजबूरी है या फिर वीसी का जेएनयू वाला वामपंथी मिजाज हिलोरें मार रहा है कि जहाँ जाओ उसे बर्बाद करने की पूरी कोशिश करो? इसी संकाय के एक छात्र ने अपने विभागाध्यक्ष के बारे में बताया कि फिरोज खान को यहाँ घुसाने के पीछे की सारी सेटिंग प्रोफेसर उमाकांत चतुर्वेदी की है जिनके बारे में पैसे ले कर नियुक्तियॉं करने की बातें प्रचलित हैं। साथ ही, डॉ. फिरोज खान उसी जयपुर कैम्पस से आते हैं, जहाँ चतुर्वेदी पाँच साल कार्यरत थे। चतुर्वेदी जी के छात्र बताते हैं कि वो 15 मिनट की बातचीत में आपको अपनी धनलोलुपता का परिचय दे देंगे। इस पर पूरी बात यहाँ इस ग्राउंड रिपोर्ट में पढ़ें।
मामले को ऐसे भावुक रंग दिया जा रहा है कि एक दूसरे समुदाय से संस्कृत पढ़ाना चाह रहा है, भजन गाता है और लोग इसे बेमतलब का ‘हिन्दू-मु##म’ रंग दे रहे हैं। लेकिन ऐसा मानने वाले बस कमरे में बैठ कर ऐसा मान रहे हैं। उन्होंने उन छात्रों से बात नहीं कि जो बार-बार कह रहे हैं कि हर जगह संस्कृत के शिक्षक मु##न हैं, और भाषा या भाषा विज्ञान पढ़ाने वालों के मजहब से किसी को कोई आपत्ति नहीं लेकिन जहाँ बात धर्म की है, वहाँ सौ सालों की परंपरा और नियम में यह मिलावट क्यों की जा रही है?
शिक्षा सिर्फ किताब और कलम ही नहीं है। शिक्षा कमरे में बैठ कर, श्यामपट्ट पर खरिया रगड़ते शिक्षक की बातें रटना ही नहीं है। अध्ययन और अध्यापन के मायने संदर्भ में बदलते रहते हैं। यहाँ संदर्भ यह है कि यह संकाय सिर्फ भाषाई शिक्षा का केन्द्र नहीं है, यह धार्मिक आस्था का मसला है जिसे आप कुतर्कों से झुठला नहीं सकते। इसे आप फर्जी ‘हिन्दू-मु##न’ और ‘सर्वसमावेशन’ के नाम पर सामान्यीकृत नहीं कर सकते।
यहाँ के छात्र-छात्राएँ हिन्दुओं की परम्पराओं, कर्मकांडों, ज्योतिष विद्या, धार्मिक अनुष्ठानों और धर्म विवेचना, धर्मग्रंथों की व्याख्या आदि कार्यों के लिए बाह्य समाज में जाते हैं और इस सनातन धर्म के लिए कवच सदृश हैं। अगर आज इसकी जड़ में ही मिलावटी पोषण दिया जा रहा है, तो बहुत ज्यादा समय नहीं लगेगा कि बगल के काशी विश्वनाथ मंदिर में इसी सेकुलरिज्म के नाम पर लाउडस्पीकर से ‘अल्लाहु अकबर’ की आवाज आएगी।