जिसने बड़ी मात्रा में ईंट-पत्थर घरों, मस्जिदों और ऊँचे मकानों की छतों पर सजा कर रख दिए हों, जिसने पेट्रोल खरीदकर, काँच की बोतलें इकट्ठा कर पेट्रोल बम बनाकर तैयार कर लिए हों, जिसने तेजाब खरीदकर बोतलों में जमा कर लिया हो, जिसने अपनी रक्षा के लिए हथियारों को सहेजकर रख लिया हो, जिसने अपने कीमती सामानों को सुरक्षित स्थान पर पहुँचा दिया हो, जिसने हिंदुओं की संपत्ती को अपने निशाने पर ले लिया हो, जिसने हमले को अंजाम देने के लिए ऊँची इमारतों का चयन कर लिया हो, जिसने हिंदुओं के घरों को निशाना बनाने के लिए बड़ी गुलेल तैयार कर ली हो, जिसने स्कूलों से अपने बच्चों को पहले ही सुरक्षित निकाल लिया हो और जिसने कानों-कान अपने लोगों को हमला करने का संदेश दे दिया हो… आख़िर वही समुदाय दिल्ली दंगों का पीड़ित कैसे हो सकता है? इतने सारे ‘जिसने’ वाले सवाल उठना लाज़मी है, क्योंकि जिस समुदाय ने हिदुओं के खिलाफ़ महीनों तक साजिश रची और तैयारी की हो वही समुदाय आज अपने को पीड़त साबित करने पर तुला हुआ है।
खुद को पीड़ित दिखाने की कला भी देखिए साहब! संतरों को सड़क पर फैला दिया जाता है, रेहड़ी में खुद ही आग लगा दी जाती है। किराए की दुकान से अपने कीमती सामान को निकालकर उसे आग के हवाले कर दिया जाता है। बीमा कंपनी का लाभ लेने के लिए शोरूम से बाईकों को पहले ही निकालकर उसमें खुद ही तोड़फोड़ की जाती है, और पीड़ित दिखाने के लिए शोरूम से एक काउंटर बाहर निकालकर उसमें आग लगा दी जाती है। हद तो तब हो गई कि जब अपनी ही भीड़ की चपेट में आने से जिस भाईजान की जान चली गई, उसकी लाश को 24 घंटे घर के अंदर रखा जाता है और फ़िर जैसै ही केजरीवालल सरकार मृतकों के लिए मुआवजे का ऐलान करती है, वैसे ही उस लाश को निकाकर पोस्टमॉर्टम के लिए भेज दिया जाता है।
आश्चर्य इस बात का कि जो दिल्ली दंगों में दंगाइयों का चेहरा बना, वही मुस्लिम समुदाय सबसे पहले मीडिया के सामने आकर झूठ के आँसू दिखाते हुए अपने को पीड़ित प्रदर्शित करता है। इसमें ग़ौर करने वाली बात ये है कि सीएए विरोध के नाम पर की गई हिंदू विरोधी हिंसा में छोटे से लेकर बड़े तक, जवान से लेकर बूढ़े तक और महिलाओं से लेकर बच्चों तक हर कोई शामिल था। इसे देखकर आप अंदाजा लगा सकते हैं कि यह लड़ाई एक दिन या सीएए विरोध की नहीं बल्कि गजवा-ए-हिंद के सपने को साकार करने की है।
खैर, अब आपको याद दिलाते हैं, दिल्ली हिंसा में असली पीड़ितों का दर्द और सच्ची कहानी, जो किसी न किसी रूप में मुस्लिमों की साजिश का तो शिकार हुए ही, साथ ही हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई के मीडिया रचित शोर में अपने माल के साथ अपनी जान से भी हाथ धो बैठे।
1. बलिदानी रतनलाल– अपने घर से अपने परिवार की नहीं बल्कि उस समाज की रक्षा करने के लिए निकलते हैं, जो इस देश के वासी हैं, लेकिन दुखद उसी समुदाय का वह शिकार हो गए और गाँव में होली से पहले तिरंगे में लिपटकर पहुँचते हैं।
2. आईबी कॉन्स्टेबल अंकित शर्मा– जिन्हें दंगाई घर लौटते समय ताहिर हुसैन के घर में खींच लेते हैं और 400 बार चाकुओं से प्रहार कर उन्हें मौत की नींद सुला दिया जाता है। इसके बाद उनकी लाश को मस्जिद से नाले में फेंक दिया जाता है।
3. राहुल ठाकुर– जो अपने घर से बाहर निकल कर बस यह देखने के लिए जाते हैं कि आख़िर ये हंगामा किस बात का हो रहा है और इसी बीच दंगाई उन्हें पेट में गोली मार देते हैं। यह सब तीन मिनट के अंदर होता है। इसके बाद घर की चौखट पर बैठी बेटे का इंतजार कर रही माँ को राहुल नहीं बल्कि उनकी लाश मिलती है।
4. आलोक तिवारी– जो घर से खाना खाकर टहलने के लिए बाहर की ओर निकलते हैं और दंगाई भीड़ का शिकार हो जाते हैं। दो छोटे-छोटे बच्चों के साथ इंतजार कर रही पत्नी को पति आलोक तिवारी नहीं बल्कि उनकी लाश मिलती है और इसी के साथ उसके जीवन में अँधेरा सा छा जाता है।
5. इंजीनियर राहुल सोलंकी– जो घर से आ रही आवाजों को सुनकर निकलते हैं, लेकिन दोबारा अपने घर वापस नहीं लौट पाते… क्योंकि दंगाई उनकी गर्दन में गोली मारकर हत्या कर देते हैं।
6. दिलबर नेगी– जो उत्तराखंड से जीवन यापन करने के लिए दिल्ली आकर एक दुकान में नौकरी करते हैं, लेकिन अफसोस दंगाइयों की भीड़ उनके हाथ-पैर काटकर उन्हें आग के हवाले कर देती है। परिवार को शव उस हालत में मिलता है, जिसका अंतिम संस्कार भी न किया जा सके। दिलबर सेना में जाकर देश की सेवा करना चाहते थे, उनका यह सपना अधूरा रह गया।
7- विवेक उर्फ विक्की– दुकान के अंदर बैठे विवेक के सिर में दंगाई ड्रिल घुसा देते हैं। इस घटना के बाद से पाँच बहनों के बीच इकलौते भाई विवेक आज भी अस्पताल में जिंदगी और मौत से जंग लड़ रहे हैं।
8. श्याम चाय वाले– दुकान पर बैठे ग्राहकों का इंतजार कर रहे थे, तभी दंगाइयों की भीड़ आती है, दुकान में लूटपाट करती है और उसे आग के हवाले कर देती है। आज भी श्याम अपने परिवार का पेट पालने के लिए दर-दर भीख माँगते फिर रहे हैं।
9- अनूप सिंह– बाहर हो रहे शोर-शराबे को सुन घर से बाहर निकलते हैं। इसी बीच ताहिर हुसैन के छत से चली गोली सीधे अनूप सिंह की गर्दन में जाकर लगती है। आज भी इलाज जारी है।
10- अंकित पॉल– हर दिन की तरह उस दिन भी दुकान पर बैठे थे। तभी दंगाइयों की भीड़ आती है और उन्हीं की आँखों के सामने पहले दुकान फिर गोदाम और ऑफिस में लूटपाट करती है। फिर सब कुछ आग के हवाले कर देती है। चंद घटों के अंदर अंकित की जीवन भर की कमाई ख़ाक हो जाती है।
यह उन पीड़ितों की कहानी है, जो दिल्ली दंगों की योजना और अपने ऊपर होने वाले हमलों से बिल्कुल अनजान थे। इसके बाद भी, जिन लोगों ने हिंदुओं पर हमला करने की महीनों पहले योजना बनाई और उसे अंजाम भी दिया, वही आज नकली आँसू बहाकर मीडिया के सामने खुद को दंगा पीड़ित बताते हुए घूम रहे हैं। आश्चर्य इस बात का है कि मुस्लिम दंगाइयों को मीडिया का एक बड़ा तबका पीड़ित बता भी रहे हैं और दिखा भी रहे हैं।