‘दोनों तरफ के लोग हैं’, ‘मरने वाले दोनों तरफ से हैं’, ‘पत्थरबाजी में इधर के भी थे, उधर के भी थे’, हमें यह भी सोचना चाहिए कि ये जो चंद लोग हैं, चाहे हिन्दू हों, या मुस्लिम’, ‘आपको देखना होगा कि सड़क पर दो गुट हैं’ आदि कविताएँ और साहित्य पूरा लिखा जा रहा है। लिखना भी चाहिए, क्योंकि इस देश में इतिहास तभी से शुरू होता है, जब एक खास समुदाय पर खरोंच आती है।
हमारी सामूहिक याददाश्त इतनी कमजोर है कि हम इस ‘दंगा साहित्य’ के कवियों से ये सवाल नहीं पूछ पाते कि ‘दोनों तरफ के लोगों के आने से पहले जो तीन महीने से ‘एकतरफा हमला’ चला है, वो कहाँ गया? हम यह भूल जाते हैं कि पिछले कुछ सालों से विशुद्ध मजहबी कारणों से मरने वाले हमेशा एक ही तरफ के रहे हैं, चाहे वो कासगंज का चंदन गुप्ता हो, कमलेश तिवारी हो, भारत यादव हो, अंकित सक्सेना हो, प्रशांत पुजारी हो, ध्रुव त्यागी हो, या फिर लोहरदगा के नीरज प्रजापति…
पत्थरबाज़ी दोनों तरफ से हुई? कश्मीर में ‘दूसरा तरफ’ कौन सा तरफ था? शाहीन बाग में दूसरा तरफ कौन सा तरफ था? जामिया नगर में, लखनऊ के परिवर्तन चौक पर, बशीरघाट में, अलीगढ़ में, बिजनौर में, मेरठ में, अहमदाबाद में… ये दूसरी तरफ से पत्थरबाज़ी कौन कर रहा था, कहाँ से आ रहे थे पत्थर?
ये जो चंद लोग हैं, ‘चाहे हिन्दू हो या मुस्लिम’ वाला राग कर्णप्रिय और मानवीय जरूर है, लेकिन ये ढोंग है। ‘ये जो चंद लोग हैं’ या फिर पूरी विचारधारा, पूरा समुदाय फर्जी कारण की डफली बजाता सड़क पर उतर जाता है, क्योंकि संविधान में विरोध की आजादी है! और वो विरोध दसियों लोगों की हत्या और सैकड़ों के घायल होने के रूप में प्रतिफलित होती है।
‘चाहे हिन्दू’ ही पहले लिखा जाता है, जबकि पहले तो एक ही उन्मादी भीड़ उतरी है हर बार। पहले गोधरा में 59 हिन्दुओं को जिंदा जलाया गया, जो कि चर्चा से गायब है। उसका हिसाब कौन करेगा? ट्रेन की बॉगी में बैठे कारसेवकों ने किस पर पत्थर फेंका था? उन 59 हिन्दुओं की बात कोई क्यों नहीं करता?
‘या मुस्लिम’? जी नहीं, अंतिम दिन कुछ हिन्दू पत्थर फेंकने लगे, तो इसका मतलब यह नहीं है कि पहले दिन से हिन्दू पत्थर फेंक रहा था। पहले दिन से अंतिम दिन तक एक ही भीड़ पत्थर फेंकती दिखी, आग लगाती दिखी, जान लेती दिखी, कट्टे चलाती दिखी…
तीन महीने बाद अगर किसी के घर में मजहबी भीड़ घुस जाएगी तो प्रतिकार न सिर्फ स्वभाविक है, बल्कि अत्यावश्यक भी। प्रतिकार को हमला बताया जा रहा है। ‘हिन्दू’ और ‘मुस्लिम’ को एक ही पंक्ति में लिख कर बराबर किया जा रहा है। एक के अपराध के लदे पलड़े के बराबर में उसे रखने की कोशिश दिख रही है जो नगण्य है।
इस नैरेटिव से बचिए और पूछिए कि जिसकी गली में हिन्दू की लाश जला कर पहुँचा दी गई, उसने तीन महीने से किसका क्या बिगाड़ा था। ‘दंगा साहित्य’ के कवियों से पूछिए कि आज जो ‘दोनों तरफ के थे’, ‘इधर के भी, उधर के भी’ की ज्ञानवृष्टि हो रही है, वो तीन महीने के 89 दिनों तक कहाँ थी, जो आज 90वें दिन को निकली है?
यही ट्रैप है, जिसमें आप हमेशा फँसा दिए जाते हैं। अंतिम दिन की बात को पिछले हर दिन की तरह बताया जाता है। कश्मीरी हिन्दुओं के पलायन की बात होती है, नरसंहार गायब कर दिया गया है चर्चा से। गोधरा दंगों की बात होती है, 59 कारसेवकों की नृशंस हत्या पर कहीं बात नहीं होती।
ऐसे नहीं चलेगा। आज किसी कपिल मिश्रा को आतंकवादी कहा जा रहा है, विकिपीडिया पर सबसे ऊपर लिखा जा रहा है कि ‘भड़काऊ भाषण’ दिया था। अमानतुल्लाह की बातें नहीं होती जिसके भड़काऊ भाषणों का घाव नासूर बन कर शाहीन बाग में रिस रहा है। आप पुरानी बात मत भूलिए, वरना रामजन्मभूमि का इतिहास 1528 से ही बताया जाता रहेगा।
और मैं कौन हूँ? मैं दंगा फैलाने वाला कह दिया जाऊँगा क्योंकि मैंने भगवा रंग का कुर्ता पहना हुआ है, मेरे स्कार्फ पर ‘राधे-राधे’ लिखा हुआ है और मेरे हाथ में रुद्राक्ष है।
बस इतना ही काफी है। लेकिन हाँ, दिल्ली ही नहीं, पूरे देशभर में एक ख़ास भीड़ के लोगों द्वारा की गई हर हिंसा को आप झुठला नहीं सकते। क्योंकि रामचंद्र गुहा और रोमिला थापर जैसे फिक्शन राइटर्स उपन्यासकारों की काल्पनिक कहानियों को हर गली में मौजूद कैमरा रिकॉर्ड कर रहा है।