अयोध्या में 5 अगस्त 2020 को भव्य श्रीराम मंदिर का भूमिपूजन हुआ। यह केवल एक मंदिर की नींव नहीं है। यह इस्लामिक आक्रांताओं के उन गुंबदों के ढहने की शुरुआत है जो उन्होंने हथियारों के बल पर गढ़े थे। जिन्हें वामपंथियों ने आजाद भारत में अपने प्रपंचों से सींचा था।
इसका रास्ता बीते साल सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने खोला था। यदि आपको वह वक्त ध्यान हो तो याद आएगा कि फैसला आने से जो लोग कह रहे थे कि सुप्रीम कोर्ट जो भी निर्णय देगा वह उन्हें मान्य होगा, वे फैसला आने के चंद मिनट के भीतर ही बदल गए थे। याद करिए सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील जफरयाब जिलानी से लेकर असदुद्दीन ओवैसी और कमाल फारूकी जैसों के सुर बदल गए। लिबरल गिरोह को फैसला वीएचपी को पुरस्कार देने जैसा लगने लगा था। का लेख
असल में, सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई के दौरान ही दूसरा पक्ष जिरह की बाजी हार गया था। अपने दावे के पक्ष में कोई सबूत पेश नहीं कर पाए थे। शीर्ष अदालत ने अपने फैसले में कहा भी है कि सुन्नी वक्फ बोर्ड ऐसे सबूत पेश नहीं कर पाया जिससे विवादित जमीन पर उनका हक साबित हो सके। दूसरे पक्ष को यह भी पता था कि पुरातात्विक सबूत उनके खिलाफ हैं। चाहे 1822 में सरकार को भेजी गई फैजाबाद अदालत के मुलाजिम हफीजुल्ला की रिपोर्ट हो या उस जमाने के दस्तावेज, सब इस बात की चुगली कर रहे थे कि मंदिर तोड़कर बाबर के सिपहसलार ने मस्जिद बनवाई थी। अंग्रेजों की अदालत में भी वे कानूनी लड़ाई हार थे।
दरअसल, उनके बदले सुर उस साजिश का हिस्सा थे जो वामपंथी इतिहासकारों, तुष्टिकरण की राजनीति के उस्तादों की शह पर अयोध्या मामले को लटकाने के लिए आजादी के बाद से ही रचा जा रहा था। अब यह प्रपंच रचा रहा है कि अयोध्या के उत्साह में बहुसंख्यक उस गुनाह को भूल जाएँ जो मथुरा-काशी में अक्रांताओं ने किया।
कोशिश हो रही है ‘यह तो पहली झॉंकी है, मथुरा-काशी बाकी है’ की आवाज को दबाने की। इसकी शुरुआत उसी दिन हो गई थी जब यह खबर सामने आई कि सुन्नी वक्फ बोर्ड अपने दावे से पीछे हटने को राजी है और इसके लिए उसकी तीन शर्तें हैं। इन शर्तों का लब्बोलुबाब यह था कि मस्जिद के लिए दूसरे मजहब को नई जमीन मिले, बहुसंख्यक हिंदुओं के टैक्स से आए पैसे को सरकार मस्जिदों पर खर्च करें और अयोध्या के अलावा हिंदू अपने किसी भी ऐसे पवित्र स्थल पर दावा न कर सकें जिन्हें आक्रांताओं ने हथियार के जोर पर तबाह किया। कब्जा किया।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले से उन्हें मस्जिद के लिए पॉंच एकड़ जमीन मिल गई है। वे शोर केवल इसलिए मचा रहे कि बहुसंख्यक समाज मथुरा-काशी में अपना हक न मॉंगे। यानी, मथुरा-काशी पर हिंदुओं का दावा दफन करने की साजिश चुपचाप रची जा रही है। आजाद भारत में मथुरा-काशी को मुक्त कराने की लड़ाई अयोध्या के साथ ही बनी थी। यह दूसरी बात है कि अयोध्या इस लड़ाई का केंद्र रहा। इसलिए, उनका पहला
आज भले सुप्रीम कोर्ट के फैसले से अयोध्या पर उनके प्रपंच का गुम्बद ढह गया है। लेकिन बाबरी मस्जिद बनाने के बाद से अयोध्या का करीब 500 साल का इतिहास जोर, छल और प्रपंच का ही गवाह रहा। हथियारों का जोर, जिसके दम पर एक मुगल शासक का प्यादा अपनी वफादारी साबित करने के लिए मंदिर ध्वस्त कर मस्जिद बनाता है। वामपंथी इतिहासकारों का छल, जो आजाद भारत में राम को कल्पना साबित करने पर तुला रहा। कॉन्ग्रेस का धर्मनिरपेक्षता का प्रपंच, जिसके तहत उसके नेता ने कभी राम की मूर्ति हटानी चाही तो कभी बाबरी मस्जिद को फिर से बनाने खम ठोंका। इन सबके बीच, विवादित जमीन पर अस्पताल, संग्रहालय, स्कूल बनाने के विचारों का प्रपंच भी।
अयोध्या विवाद लिबरलों, वामपंथियों और खास मजहब वालों की जिद की नींव पर ही बुलंद था। वरना, सुलह के मौके तो अतीत में कई बार मिले थे। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अधिकारी रहे केके मुहम्मद तो कई मौकों पर कहा था कि मजहब के लोगों को अयोध्या, मथुरा और काशी हिंदुओं को सौंप देना चाहिए ताकि हिंदू भी अक्रांताओं द्वारा रौंदे गए अपने शेष 39,997 स्थानों पर दावे से पीछे हट जाएँ।
मुहम्मद वही शख्स हैं, जिन्होंने सबसे पहले बताया था कि अयोध्या में खुदाई से इस बात के सबूत मिले हैं कि मंदिर तोड़ कर बाबरी मस्जिद बनाई गई थी। अपनी किताब ‘मैं हूॅं भारतीय’ में वे लिखते हैं, “समुदाय के एक व्यक्ति के लिए मक्का-मदीना जितना महत्वपूर्ण है, उतना ही महत्वपूर्ण एक हिंदू के लिए अयोध्या है। मक्का-मदीना अन्य धर्मावलंबियों के हाथ पड़े तो… समुदाय वाले इसकी कल्पना नहीं कर सकते। लेकिन, हिंदुओं के बहुसंख्यक होने पर भी उनका पुण्यतीर्थ अन्य धर्मावलंबियों के अधीन हो गया। मजहब के प्रवाचक मुहम्मद नबी से अयोध्या का कोई संबंध नहीं है। सहावी से, खुलफाउराशीदी से संबंध नहीं। ताबिउ, औलिया और सलफुस्सालीहिन से भी कुछ रिश्ता नहीं। मुगल संस्थापक बाबर से मात्र इसका संबंध है। इस तरह की एक मस्जिद के लिए क्यों जिद्दी हो जाते हैं?”
लेकिन, मजहब के लोगों ने उनकी नहीं सुनी। अटल बिहारी वाजपेयी ने तो 1986 में बंबई की एक सार्वजनिक सभा में कहा था कि समुदाय यदि स्वेच्छा से सारा ढाँचा हिंदुओं को सौंप दे तो इस पूरे विवाद का हल निकल जाएगा। लेकिन, उनकी भी नहीं सुनी गई। 1822 में फैजाबाद अदालत का मुलाजिम हफीजुल्ला सरकार को एक रिपोर्ट भेजता है। उसमें कहता है कि राम के जन्मस्थान पर बाबर ने एक मस्जिद बनाई। लेकिन, मजहब के लोग पीछे नहीं हटे।
17 मार्च 1886 को फैजाबाद का जिला जज कर्नल एफईए कैमियर अपने फैसले में लिखता है कि मस्जिद हिंदुओं के पवित्र स्थान पर बनी है। वह 356 साल पुरानी गलती को सुधारने से इनकार कर यथास्थिति बनाए रखने का आदेश देता है। लेकिन, मजहब के लोगों का बड़ा दिल इस फैसले के बाद भी नहीं दिखा। उलटे, 1912 में बहुसंख्यकों की भावनाओं को भड़काने के लिए अयोध्या में गौहत्या की जाती है, जबकि म्यूनिसिपल कानून के तहत 1906 में ही अयोध्या में गौहत्या पर पाबंदी लगा दी गई थी।
2010 में इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला आता है। विवादित गुंबद राम का जन्मस्थान माना जाता है, फिर भी जमीन के तीन टुकड़े कर दिए जाते हैं। अदालत में पेश भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की रिपोर्ट से यह प्रमाणित हो गया था कि बाबरी मस्जिद से पहले उस जगह मंदिर था। लेकिन, मजहब के लोग तब भी पीछे नहीं हटे। उन्होंने तो सुप्रीम कोर्ट में भी साक्ष्यों को झुठलाने के लिए तमाम हथकंडे अपनाए।
ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि एक खास किस्म की सांप्रदायिकता और कट्टरता को गंगा-जमुनी तहजीब के तले छिपाने की कोशिश तो नहीं हो रही? कहीं, फिर से तो आपकी मान्यताओं और विश्वास को छलने की साजिश तो नहीं रची जा रही? इसलिए, सचेत रहें। अयोध्या के उत्साह में इस कदर न डूबें कि मथुरा-काशी याद न रहे। वैसे भी इनकी विश्वसनीयता का कोई भरोसा नहीं है।