सितंबर 1962 की बात है। शहर था ऑक्सफोर्ड, जहाँ मिसिसिपी विश्वविद्यालय में एक अश्वेत युवक, जेम्स मेरेडिथ, को प्रवेश देने पर श्वेत अमरीकियों ने दंगा शुरु कर दिया। तीन कारें जला दीं, पुलिस के जवानों पर हमला किया, एक फ्रांसीसी पत्रकार और एक अन्य शहरी इस हिंसा में मारे भी गए। मेरेडिथ जब अपने हॉस्टल में पहुँचा तो यूनिवर्सिटी के 2500 विद्यार्थियों और स्थानीय लोगों ने कैम्पस की मुख्य बिल्डिंग लिसियम को घेर लिया।
इस हिंसा को गवर्नर रॉस बर्नेट रोक नहीं पाए तो राष्ट्रपति जेएफ कैनेडी ने उनसे बात की और कहा कि हिंसा पर काबू करने के लिए उन्हें जो करना होगा, वो करेंगे। गवर्नर ने कहा कि मेरेडिथ को बाहर कर दिया जाए, तो हिंसा रुक जाएगी। राष्ट्रपति ने कहा कि जब तक हिंसा खत्म नहीं होगी बातचीत का सवाल ही नहीं उठता। गवर्नर नहीं चाहते थे कि फेडरल पुलिस उनके अधिकार क्षेत्र में आए, इनसे उनकी भद्द पिट जाती।
लेकिन राष्ट्रपति कैनेडी के लिए उस दंगे को रोकना जरूरी था जिसे ‘ओले मिस रायट्स’ के नाम से जाना जाता है। शहर की जनसंख्या लगभग 6000 थी, और दंगाई शहर जो नस्लभेदी रूप में सड़कों पर था, उसे रोकने के लिए राष्ट्रपति ने 30000 जवानों को भेज दिया। उसके बाद दंगा करने वाले लोगों को पकड़ा गया। दंगाई विद्यार्थी सर पर हाथ रख कर बाहर निकले, उन्हें अपराधियों की तरह ही देखा गया, वैसा ही व्यवहार किया गया।
रवीश कुमार ने कुछ दिन पहले हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के कैनेडी स्कूल के छात्रों द्वारा जामिया के दंगाई छात्रों पर पुलिस की कार्रवाई के विरोध का जिक्र करते हुए, अमेरिका के 19 विश्वविद्यालयों के कुल 400 छात्रों के समर्थन का जिक्र किया था। उन्होंने सोचा कि अमेरिका का नाम लेने से इन दंगाइयों को लेजिटिमेसी यानी स्वीकार्यता मिल जाएगी कि देखो भइया, अंग्रेजी बोलने वाले भी इनके समर्थन में हैं।
उपरोक्त सारी तसवीरें Getty Images से ली गई हैं जो कि ओले मिस दंगों के बाद की हैं
जिस कैनेडी स्कूल की बात करते हुए रवीश ने लिखा था, “बंदूक के साये में जामिया मिल्लिया के छात्र अपने दोनों हाथ ऊपर उठाए चले आ रहे हैं। जब भी यह दृश्य आँखों के सामने से फार्वर्ड होता था मेरे ज़हन में सारा इतिहास रिवाइंड होने लगता था। जब भी यह दृश्य धुंधला (ब्लर) होता था अतीत का इतिहास साफ (क्लीयर) हो जाता था। जब अतीत का इतिहास धुंधला होता था, सामने बन रहा इतिहास साफ दिखने लगता था। अगर आपने व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी से इतिहास की पढ़ाई नहीं की है तो मेरी बात आसानी से समझ जाएँगे। उम्मीद है हाथ ऊपर कर लाए गए छात्र ख़ुद को अपमान के जाल में फँसने नहीं देंगे और समझ सकेंगे कि यह भारतीय स्टेट का नया चेहरा है। और उस चेहरे से नकाब हटना शुरू हुआ है।”
अब मैं अमेरिकी राष्ट्रपति कैनेडी के शब्दों को इसी परिप्रेक्ष्य में, राष्ट्र के नाम में दिए गए संबोधन में उन्होंने जो कहा था, वो रखना चाहूँगा, “अमेरिकी नागरिक यूँ तो कानून से असहमत होने के लिए स्वतंत्र हैं, पर उसकी अवज्ञा के लिए नहीं।” सीधे शब्दों में कैनेडी ने वही बात कही, जो इसी सप्ताह मुख्य न्यायाधीश बोबड़े ने कहा था कि छात्र अगर हिंसा करते हैं तो पुलिस को अपना काम करना पड़ेगा। उन्होंने कहा कि छात्रों को दंगा करने का अधिकार नहीं है।
कुछ तस्वीरें रोमेंटिक लगती हैं, लेकिन होती नहीं
इसीलिए, संवेदनशील होने से पहले आपको यह देखना और समझना होगा कि जो आप देख रहे हैं, वो परिणाम है, या फिर शुरुआत। ‘हाथ उठा कर बाहर आते बच्चे’ इस प्रकरण की पहली तस्वीर नहीं है, वो इसकी आखिरी तस्वीर है। जंतर-मंतर पर शांति प्रदर्शन करने वाली भीड़ इस प्रकरण की पहली तस्वीर नहीं है, वो इस घटनाक्रम की अंतिम तस्वीर है।
इस पूरी घटना और दुर्घटना पर इमोशनल होने से पहले हमें इस पूरे तथाकथित विरोध प्रदर्शन की वो तस्वीरें भी देखनी पड़ेंगी जहाँ पुलिस आईसीयू में है, उनका सर फटा हुआ है, आँख कटी है, हाथ में कट्टे से चली गोली लगी है, पत्थरों का ढेर कहीं लगा हुआ है, जलती हुई बसें हैं, ‘हिन्दुओं से आजादी’ के नारे हैं, दीवारों पर इस्लामी शासन के ख़िलाफ़त की इबारत लिखी हुई है, और अपनी ही लाइब्रेरी को तोड़ते वो छात्र-छात्राएँ हैं जो पुलिस पर इस तोड़-फोड़ का जिम्मा डालना चाहते हैं।
इन तस्वीरों की पेशी किस अदालत में होगी? जब तुमने हिंसा कर ली, दुनिया के सामने नग्न हो गए, पीटे गए, भगाए गए, मजहबी उन्माद से सनी बातें पब्लिक में बाहर आ गईं, तब तुम ये बता रहे हो कि भारत धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है और संविधान का कौन सा आर्टिकल क्या कहता है? मैं ये कैसे मान लूँ कि आज जो तुम ‘हम तो छात्र हैं, हम तो शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे थे’ वो सत्य है? क्योंकि तस्वीरें और वीडियो में मैं देख पा रहा हूँ एक राजनैतिक कानून के विरोध में मजहब के वर्चस्व के नारे लगाए जा रहे हैं!
तुम हमें बता रहे हो कि हम ये मान लें कि ‘अल्लाहु अकबर’ का मतलब ‘गॉड इज ग्रेट’ होता है? इतने मासूम तो मत ही बनो। दंगा करते वक्त ये नारा उतना ही साम्प्रदायिक है जितना ‘हिन्दुओं से आजादी’ और ‘हिन्दुत्व की कब्र खुदेगी’ है। राजनैतिक विरोध में ‘नारा-ए-तकबीर’ और ‘ला इलाहा इल्लल्लाह’ की जगह कैसे बन जाती है?
अगर ये तस्वीरें जामिया के कैम्पस की हैं, तो हाथ उठाए बाहर आते विद्यार्थियों की तस्वीर बहुत सुकूनदायक हैं। ये बताता है कि दिल्ली पुलिस ने एक मजहबी उन्मादी भीड़ को न सिर्फ नियंत्रण में लिया, बल्कि उन्हें अपनी ही लाइब्रेरी या कैम्पस को आग के हवाले करने से बचा लिया। जिस भीड़ में कट्टे से गोलियाँ चल रही हों, जिस भीड़ में जामिया नगर के हार्डकोर अपराधी शामिल हों, जिस भीड़ ने बसों में आग लगाई हो, जो भीड़ छात्रों के साथ पत्थरबाजी कर रही हो, जो भीड़ कैम्पस में बचने के लिए घुस जाती है, वो भीड़ अपने फायदे के लिए लाइब्रेरी को बच्चों समेत आग लगाने से बाज आ जाती क्या?
लाइब्रेरी में बैठे बच्चों का हो सकता है कोई दोष न हो, लेकिन बाहरी लोग उसी लाइब्रेरी में घुस कर अगर उन्हें चाकू की नोक पर किडनैप कर लेते, तेल छिड़ककर वहाँ आगजनी करते तो, उसके बाद हुए नुकसान के लिए कौन जिम्मेदार होता? क्या यही वामपंथी लम्पट और यही रवीश कुमार यह नहीं कहते कि गेट पर मूक दर्शक बन कर परमिशन का इंतजार करती रही पुलिस, और एक लाइब्रेरी आग के हवाले कर दी गई? तब क्या यह न कहा जाता कि अमित शाह ने सीधा आदेश दिया होगा कि लाइब्रेरी को जल जाने दो क्योंकि फासिवादियों का पहला निशाना पुस्तकालय ही होते हैं?
इसलिए तस्वीरों को देखिए, और ध्यान से देखिए। उन तस्वीरों को भी देखिए (ऊपर गैलरी में) जब अमेरिकी पुलिस ने दंगाइयों को सर पर हाथ रखवा कर बाहर किया था ताकि एक अश्वेत नागरिक को विश्वविद्यालय में पढ़ने की स्वतंत्रता मिले। यहाँ तो विरोध के कारण भी बेकार हैं। कल जिस तरह से जामिया की छात्राओं का अल्पज्ञान और उनकी कल्पनाशीलता जंतर-मंतर के प्रदर्शन में नजर आई, उससे जाहिर है कि उन्होंने न तो इस नागरिकता संशोधन कानून 2019 को पढ़ा है, न ही उन्हें यह पता है कि NRC है क्या।
NRC की नियम और शर्तें किसने देखी हैं?
NRC पर रवीश से बात करते हुए एक छात्रा कहती है कि आप यह देखिए कि महिलाएँ शादी के बाद दूसरे घर में चली जाती हैं, उनके पास डॉक्यूमेंट नहीं होता, वो बदलवा नहीं पाती। इसलिए इसके आने से भारत की सारी महिलाएँ अवैध नागरिक साबित हो जाएँगीं। आप सोचिए कि पढ़े-लिखे लोगों के ज्ञान का स्तर इतना बेकार है तो क्यों न मेरे कैब का ड्राइवर आदिल अली मुझसे पूछेगा, “सर आप तो पत्रकार हैं, आप ही बताइए कि 1951 से 1988 के बीच जन्मे मुस्लिमों को ही नागरिक माना जाएगा, ये गलत है कि नहीं?”
वो ड्राइवर तो उतना पढ़ा लिखा नहीं है। इंटरनेट पर खोज नहीं सकता। लेकिन ये छात्राएँ आखिर किस आधार पर ऐसी बातें बना रही हैं, और रवीश कुमार माइक लिए आनंद पा रहे हैं कि देश की लड़कियाँ आज अन्याय के ख़िलाफ़ खड़ी हो गई हैं! दुर्भाग्य है कि वो देश की लड़कियों का प्रतिनिधित्व नहीं कर रहीं, वो एक अच्छे संस्थान से हैं और उस स्थान के सामूहिक ज्ञान पर प्रश्नचिह्न लगा रही हैं।
जब कोई, ऐसे कानून को ले कर विरोध करने लगे जो अभी अपने शुरुआती रूप में भी नहीं आया है, खुद ही उसके नियम और शर्तों का आविष्कार कर ले कि होगा तो यही, और ऐसे ही, फिर आप ऐसे लोगों को समझा नहीं सकते। ये लड़कियाँ या तमाम प्रदर्शनकारी, दंगाई और बुद्धिजीवी गिरोह किस आधार पर बोल रहा है, आग लगा रहा है, लेख लिख रहा है? असम वाले NRC का हालिया स्वरूप सुप्रीम कोर्ट के संरक्षण में सामने आया है।
आप जरा सोचिए कि भारत की आधी आबादी, लड़कियाँ और स्त्रियाँ, इस देश की अवैध नागरिक हो जाएँगी? ये कॉन्सपिरेसी थ्योरी तो समझ में आ रही थी कि NRC के जरिए मजहब विशेष को निकालने की साजिश हो रही है, लेकिन सारी औरतों को अवैध घोषित करके मोदी और शाह क्या पा जाएँगे? इतने मूर्ख हैं क्या हमारे प्रधानमंत्री और कैबिनेट?
प्रोपेगेंडा पोर्टल ‘द वायर’ ने तो बाकायदा ग्राफिक्स और चार्ट-वार्ट बना कर समझाया कि कैसे बीस करोड़ मुस्लिमों को एक झटके में अवैध बना दिया जाएगा। जाहिर-सी बात है कि जिनका विश्वास ‘वायर’ और रवीश जैसों में है, वो तो सच में परेशान हो जाएँगे कि बीस करोड़ लोगों को क्यों निकाला जा रहा है।
प्रधानमंत्री और गृहमंत्री, दोनों ने बार-बार यह आश्वासन दिया है कि लोग किसी भी तरह के बहकावे में न आएँ, लेकिन लोगों को भड़काने वाले अपने काम में लगे हुए हैं। कह रहे हैं कि नागरिकता कानून को NRC के साथ देखने की जरूरत है। अब ये लोग नागरिकता रजिस्टर भी खुद ही बना रहे हैं कि इसमें ऐसा होगा, वैसा होगा। जो ड्राफ्ट रूप में भी कहीं नहीं है, जिसका प्रयोग असम में सुप्रीम कोर्ट के कहने पर हुआ क्योंकि असम एक जनजातीय और अलग संस्कृति वाला इलाका है, जहाँ घुसपैठ से लोग परेशान थे, उसे पूरे भारत पर लागू करने की कल्पना के रूप में क्यों परोसा जा रहा है?
इस सरकार को कॉन्ग्रेस द्वारा लाए गए विधेयकों को, जिसके पक्ष में मनमोहन सिंह से ले कर सीताराम येचुरी तक बोल चुके हैं, उसे दोनों सदनों में बहुमत से पास करा लेने के बाद, हर बार इन्हीं नेताओं की पार्टियों द्वारा सुप्रीम कोर्ट में भी पास कराना पड़ता है। तीन जगह से अप्रूवल लेने के बाद, इसे यह कहा जाता है कि वो सब तो ठीक है, लेकिन लोग तो दंगे कर रहे हैं, उनका क्या।
एक लाइन में यह कह दिया जाता है कि सांसद तो मात्र 300 हैं भाजपा के, लेकिन असली आवाज तो उन्हीं लोगों की है जो दंगा कर रहे हैं। आखिर दंगा करने वाले कब से लोकतंत्र की सबसे बड़ी आवाज बन गए? विरोध प्रदर्शन का मतलब यह नहीं होता कि चूँकि विरोध हो रहा है तो जिस बात का विरोध हो रहा है, वो गलत है। आप खुद ही सोचिए कि इन दंगाइयों का तर्क और क्या है?
इन्होंने न तो नागरिकता कानून को पढ़ा है जो भारत के नागरिकों के लिए है ही नहीं, न ही NRC पर सरकार का कोई ड्राफ्ट उपलब्ध है जिसे निशाना बना कर ये लोग कुछ तार्किक बातें कर पाएँ, तो फिर इनके विरोध को बहुमत से चुनी हुई सरकार, और करोड़ों लोगों की सहमति (जिन्होंने भाजपा का मैनिफेस्टो पढ़ा, नेताओं के भाषण सुने और वोट दिया) कैसे छोटी पड़ जाएगी?
इसलिए, अंतिम तस्वीरों को मत देखिए। आप उन तस्वीरों को देखिए जो घटनाक्रम की हैं। आप उन तस्वीरों को देखिए जहाँ हिन्दुओं को कैलाश जाने के लिए कहा जा रहा है। आप उन आवाजों को सुनिए जो ‘हिन्दुओं से आजादी’ चाहते हैं, और उसके पीछे की उस विशाल भीड़ को देखिए जो एक आवाज में ‘आजादी’ चिल्ला कर सहमति दे रही होती है। बात यह नहीं है कि जामिया में कितने प्रतिशत छात्र गैरमुस्लिम हैं, बात यह है कि ‘हिन्दुओं से आजादी’ और ‘गलियों में निकलने का वक्त आ गया’ कहने वालों की भीड़ वहीं की है।
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