श्री अमिताभ बच्चन जी का एक गीत बहुत लोकप्रिय हुआ था जिसमें वो जुम्मे के दिन चुम्मा देने के लिए नायिका को याद दिलाते हैं। ये बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति है और जुम्मे को हमेशा के लिए भारतीय जनमानस के भीतर चुम्मे के साथ लॉक कर दिया श्री बच्चन ने। लेकिन कालांतर में जब से लिबरलों के हाथ ट्विटर नामक उस्तरा लगा है, इन लोगों ने जुम्मे के दिन को भारत के अलग-अलग जगहों में हिंसा करने के लिए फर्जी नैरेटिव का अतिप्रज्जवलनशील इंधन देकर भीड़ों को उकसाया है।
चाँदनी चौक इलाके में, हौज काजी नामक जगह है जहाँ हाल ही में दुर्गा मंदिर को तोड़ा गया, मूर्तियाँ उखाड़ी गईं, और कुछ लोगों के अनुसार मूर्ति पर पेशाब भी किया गया। ‘अल्लाहु अकबर’ के नारे लगे और भीड़ ने इन्हीं लिबरलों की फर्जी कहानीकारी को सत्य मान कर मंदिर तबाह कर दिया। बाद में इन्हीं रक्तपिपासु लिबरपंथियों ने यह नैरेटिव बनाया कि वो विवाद तो पार्किंग का था, साम्प्रदायिक नहीं।
स्वराज्य की पत्रकार स्वाति गोयल ने जब लोगों से बातचीत की तो एक जाहिद नाम के व्यक्ति ने जो बात कही वो साबित करती है कि इन लिबरपंथियों ने कितनी जानें कट्टरपंथियों को उकसा कर ले ली हैं। जाहिद ने कहा, “पूरे देश में मुस्लिमों की हर जगह भीड़ हत्या हो रही है और हमारा समुदाय ऐसे ही चुप नहीं बैठेगा।” ये जो मंदिर टूटा, उसके लिए जो भीड़ इकट्ठी हुई, वो किसी पार्किंग विवाद के नाम पर नहीं आई थी, उस गली में यह बात फैलाई गई कि एक मुस्लिम को मार दिया गया है क्योंकि उसने ‘जय श्री राम’ नहीं बोला।
ये शक्ति है नैरेटिव की। जिस प्रभाव की बात करते यह गिरोह और पत्रकारिता का समुदाय विशेष थकता नहीं है कि गौरक्षकों द्वारा छिट-पुट हिंसा की घटनाएँ इसलिए हो रही हैं क्योंकि इन अपराधियों को लगता है कि पावर में उनका अपना आदमी है। अगर यह बात सच भी मान ली जाए, तो क्या यही कपटी विचारक समाज को यह बताएँगे कि उनके द्वारा हर झूठ को, रैंडम अफवाहों को, छिट-पुट आपराधिक घटनाओं को मोमो के स्टॉलों की तरह हर नुक्कड़ पर होता हुआ बता देना क्या हिन्दुओं की हत्या नहीं करवा रहा? क्या ये धूर्त पत्रकार और लिबरल गिरोह हिन्दुओं की भीड़ हत्या का रक्त अपने हाथों पर लेगा या फिर ‘लहू मुँह लग गया’ गा कर एन्ज्वॉय करेगा?
‘जय श्री राम न कहने पर युवक की पिटाई‘ की खबरें खूब उछाली जा रही हैं। और जैसे-जैसे इन खबरों को ये गिरोह हवा देकर, साम्प्रदायिकता के मामले में संवेदनशील होने का दावा करते हुए शेयर करता है, इन दोगले विचारकों का लक्ष्य संवेदना नहीं, हिंसा होती है कि कहीं कोई ‘शांतिप्रिय’ जुम्मे की नमाज के बाद भीड़ बना कर निकले और किसी पर हमला करे।
क्योंकि आंदोलन तो वही सफल कहे जाते हैं जब दलितों की एक भीड़ इस अफवाह पर इकट्ठा होती है कि मोदी आरक्षण हटा रहा है और आगजनी, हिंसा और तोड़फोड़ के साथ 8 लोग मार दिए जाते हैं। वैसे ही इस नैरेटिव के बल पर सत्ता से दूर बैठा पत्रकार और पद्म पुरस्कारों को अपनी बपौती मानने वाले गैंग के सदस्य, चाहते हैं कि खूब साम्प्रदायिक माहौल हो, तनाव फैले और फिर यही लोग ट्विटर पर भारत की कानून व्यवस्था पर लेक्चर दें।
आप इन चम्पकों की कार्यशैली पर ध्यान दीजिए। एक सामाजिक अपराध कहीं हुआ, ये गिरोह सक्रिय हो जाता है। सबसे पहले यह गिरोह सूक्ष्मदर्शी से देखता है कि शिकार कौन है। अगर मतलब का शिकार, यानी मजहब विशेष से या दलित नहीं है, तो ये गालिब की शायरी से लेकर समुद्र के सामने डूबते सूरज की लालिमा पर कविता से लेकर पाउट वाली सेल्फी और बारिश की बूँदों पर कविताएँ करने लगता है।
अगर शिकार कथित अल्पसंख्यक या दलित है, तो अपराधी के नाम में पहचान ढूँढी जाती है। समुदाय विशेष वाले ने आने ही समुदाय के शख्स को मारा, तो ये मुन्नी बेगम की ग़ज़लें गाने लगते हैं। दलित ने दलित को मारा, तो ये भारतीय नारी किस-किस से, कितनी बार, और कब-कब सेक्स करे, इस चर्चा में लीन हो जाते हैं। अगर मरने वाले का नाम पता हो, लेकिन मारने वाले का नहीं, तो आँख मूँद कर आरएसएस से लेकर मोदी तक को इसकी जिम्मेदारी दे दी जाती है और इन विचारधाराओं के समर्थक इसी में व्यस्त हो जाते हैं कि ‘नहीं, हमने नहीं किया।’ ऐसा इतनी बार हुआ है कि हमें हालिया घटनाओं की लिस्ट बनानी पड़ी, जहाँ हिन्दुओं को हेट क्राइम का भागीदार बना दिया गया, जबकि मसला कुछ और ही था।
उसके बाद आता है वो मसला जब अपराधी सवर्ण हो, हिन्दू हो। ऐसे अपराधों का धर्म या मजहब से कोई मतलब न भी हो, तो भी अपराधी के किसी खास धर्म से होने के कारण ही उसे मजहबी घृणा के अपराध या हेट क्राइम के रूप में दिखाने के लिए ट्वीट पर ट्वीट, लेख पर लेख, और पोस्ट पर पोस्ट इस तरह से किए जाते हैं जैसे दिल्ली के प्रॉप्रटी डीलर ‘रूम ही रूम’ और ‘फ्लोर ही फ्लोर’ का दावा करते रहते हैं। फिर इनका गिरोह संगठित रूप से बताता है कि भारत का शांतिप्रिय डरा हुआ है और उस पर बहुसंख्यक अत्याचार कर रहे हैं।
जुम्मे की नमाज के बाद, झारखंड में कथित तौर पर चोरी करते पकड़े जाने पर तबरेज की भीड़ हत्या के विरोध में सूरत में इस्लामी भीड़ जमा हो जाती है, जिसे प्रशासन ने प्रदर्शन की अनुमति नहीं दी थी। ये भीड़ इसी कथित मॉब लिंचिंग को परम सत्य मान कर पुलिस पर पत्थर फेंकती है, दंगा करती है, उत्पात मचाती है और पाँच पुलिस वालों को घायल करने के साथ आगजनी से वाहनों को नुकसान पहुँचाती है।
मजहब विशेष के दो लड़के, आपस में ही ‘जय श्री राम’ बुलवाने का विडियो बना लेते हैं, और फिर लिबरलों को चरमसुख की सामग्री मिल जाती है। वो ‘आह अल्पसंख्यक, हाय अल्पसंख्यक’ करते हुए बताने लगते हैं कि एक धार्मिक नारे को हथियार बनाया जा रहा है, और देश का शांतिप्रिय डरा हुआ है। अरे भाई, शांतिप्रिय क्या खाक डरेगा! पचास घटनाएँ तो 2016 के बाद से दिन और समय के साथ गिना दूँगा, जहाँ इनके तथाकथित मजहबी उसूलों ने लोगों की जानें ले लीं, दंगे करवाए, हिंसा की और समाज में खौफ का माहौल बनाया।
‘डर का माहौल’ जानना है आपको? कैराना याद है? मेरठ के प्रह्लादनगर की दीवारें देखी हैं? कश्मीर याद है? ‘डर का माहौल’ यह है कि हिन्दू अपनी बेटी को स्कूल नहीं भेज पाता क्योंकि समुदाय विशेष के इलाके में उस बच्ची पर फब्तियाँ कसी जाती हैं। लोग अपने दीवारों पर ‘यह मकान बिकाऊ है’ लिख कर क्यों जा रहे हैं? वो क्या प्रेम का माहौल है कि जुम्मे को आकर कोई चुम्मा दे जाएगा?
ये लिबरल गिरोह ‘डर का माहौल‘ बोल कर जस्टिफाई करता है। ये बताता है कि अगर कट्टरपंथी बम बाँध कर खुद को उड़ा न दे तो बेचारा क्या करे! ये बताता है कि फलाँ आतंकी का बाप हेडमास्टर था! ये बताता है कि अहमद डार को सेना के अफसर ने उठक-बैठक कराई थी, तो उसने आरडीएक्स से भरी गाड़ी पुलवामा में भिड़ा दी। ये लिबरल हैं हमारे देश के जो न सिर्फ मजहब विशेष के लोगों को भड़काते हैं, बल्कि ये सुनिश्चित करते हैं कि वो अपराध करने के बाद भी सजा न पाए। सजा पाए, तो उसे मानवीय बताने की कोशिश की जाती है।
असली अपराधी तो यही गिरोह है जो संवेदनशीलता की आड़ में दंगाई बना बैठा है। चाहे ‘जय श्री राम’ कहलवाने की घटनाएँ हों, या भीड़ हत्या, जिसका कारण मजहब न रहा हो, ये गिरोह उसमें मजहब डालता है, माहौल बनाता है, उकसाता है, और दंगे कराता है।
हम तो रिपोर्ट करते हैं कि फलाँ इलाके में ये घटना हो गई। जबकि वो घटना सच होती है, फिर भी यह कहा जाता है कि ऑपइंडिया घृणा बाँट रहा है। हम तो नैरेटिव नहीं बनाते, हम तो बस रिपोर्ट करते हैं कि फलाँ आदमी ने फलाँ अपराध किया। ये तो तथ्य हैं। लेकिन लोगों को इससे भी समस्या है कि हम खबरें ही क्यों करते हैं। तो क्या करें, ये बताएँ कि वो नमाज पढ़ रहा है और लोगों से तीन बार गले मिल रहा है? अगर वो एक बच्ची का रेप करेगा तो बिलकुल लिखा जाएगा कि फलाँ आदमी ने रेप किया। अगर मजहब विशेष गाय काटेगा ताकि हर्ष विहार में तनाव फैले, तो बिलकुल लिखा जाएगा कि इमरान ने गाय काटी।
लेकिन ये गिरोह चाहता है कि ऐसी रिपोर्ट ही न की जाए। कठुआ वाले रेप पर ये जरूर कहो कि हिन्दुओं ने मंदिर में रेप किया, लेकिन गाजियाबाद में मौलवी मदरसे में रेप करे तो वहाँ ‘समुदाय विशेष’ लिखो, या बेहतर है कि रिपोर्ट ही न करो। क्यों? क्यों रिपोर्ट न करें? क्या हम इंतजार करें कि ये धूर्त लिबरल जो नैरेटिव चलाएगा तब हम भी तख्ती लेकर मोमबत्ती निकाल कर खड़े हो जाएँ?
ये दोगलापन नहीं चलेगा। तुम्हारे नैरेटिव से लोगों की जानें जा रही हैं, मंदिर तोड़े जा रहे हैं, हिन्दुओं को काटा जा रहा है और तुम इस पर अश्लील हँसी हँसते हो। तुम्हारे नैरेटिव से दंगाई सड़कों पर घूमता है क्योंकि सरकारें इस हिंसक भीड़ को पुलिसिया प्रक्रिया से इसलिए मुक्त कर देती हैं ताकि इनका विश्वास जीत सके। हम समझते हैं ये प्रेशर टैक्टिक। हम समझते हैं तुम्हारी ओपिनियन मार्केटिंग। हम समझते हैं तुम्हारा दोगलापन।
यही कारण है कि तुम्हारी हर नैरेटिव पर मुखरता से, बिना लाग लपेट के, रॉ फॉर्म में रिपोर्टिंग की जाएगी। समुदाय विशेष के शब्दों के पीछे की बेहूदगी खत्म होगी और इस भीड़ को लिबरलों के प्रोटेक्शन से मुक्त किया जाएगा।
सत्ता से तो तुम दूर हो चुके हो लेकिन फकफकाना बंद नहीं हुआ है। इसलिए सस्ते इंटरनेट का सहारा लेकर, व्हाट्सएप्प यूनिवर्सिटी के माध्यम से गलत सूचनाओं के द्वारा, भीड़ों को उकसाना जब तक जारी रहेगा, हम तुम्हारी नग्नता लोगों को बताते रहेंगे।
तुम्हारे पिया मिलन की रात तो मोदी के दोबारा चुने जाने पर भी नहीं आ पाई, जब तुमने सोचा था कि मोदी आएगा तो हिन्दू सड़कों पर तलवार लिए दौड़ेंगे, दंगे होंगे। वैसा हुआ नहीं तो पाँच सालों तक तुमने खूब कोशिश की कि दंगें फैलें, गैरभाजपा शासित प्रदेशों में हुई हत्याओं का ठीकरा, दंगों का भार भी मोदी के सर पर फेंका, समुदाय विशेष को बताते रहे कि तुम्हारे समुदाय को सताया जा रहा है, मारा जा रहा है।
तुमने ये सब बस इसलिए किया और आज भी कर रहे हो ताकि एक भयंकर-सी आग फैले और किसी कोने में तुम्हारा पिया मिलन हो सके। वो पिया मिलन तो हो नहीं पा रहा, और तुम्हारे भीतर की फ्रस्ट्रेशन बढ़ती जा रही है। ये अभी और बढ़ेगा क्योंकि तुम्हारे एकाधिकार वाले क्षेत्र में और लोग भी आ गए हैं जिन्हें लिखना भी आता है, बोलना भी आता है, और समुदाय विशेष का खुलकर जिक्र करना भी आता है।