कॉन्ग्रेस के लिए अभी तक स्थायी अध्यक्ष न चुन पाना अब उनकी पार्टी के अस्तित्व के लिए खतरा बन सकती है। संडे गार्जियन की रिपोर्ट के अनुसार अगर कॉन्ग्रेस, चुनाव आयोग को संतोषजनक स्पष्टीकरण देने में विफल रहती है कि वह पिछले साल राहुल गाँधी के इस्तीफे के बाद स्थायी अध्यक्ष का चुनाव क्यों नहीं कर पाई है, तो पार्टी को निलंबन या अयोग्यता का सामना करना पड़ सकता है।
बता दें कि 2019 के आम चुनावों में हार के बाद राहुल गाँधी ने अध्यक्ष के पद से इस्तीफा दे दिया था। इसके बाद कॉन्ग्रेस कार्य समिति द्वारा सोनिया गाँधी को अंतरिम अध्यक्ष बनाया गया था। सोमवार को बतौर अंतरिम अध्यक्ष उनका साल भर पूरा हो जाएगा।
पार्टी का दावा है कि कोरोना वायरस महामारी के कारण नए प्रमुख का चुनाव करने की प्रक्रिया को स्थगित कर दिया गया है और सामान्य स्थिति बहाल होते ही चुनाव आयोग के प्रावधानों का अनुपालन करने का आश्वासन दिया गया है।
चुनाव आयोग प्राय: पार्टी के आंतरिक मुद्दों में हस्तक्षेप करने से दूर रहता है। हालाँकि, अगर वह चाहे तो किसी भी राजनीतिक पार्टी के खिलाफ नियमों और विनियमों का पालन करने में विफल रहने के लिए कार्रवाई शुरू कर सकता है। चुनाव आयोग सिंबल ऑर्डर के तहत चुनाव चिह्न को भी फ्रीज कर सकता है।
राजनीतिक दल, जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 29 (A), उप-खंड (V) द्वारा शासित होते हैं। इसकी शुरुआत 1989 में हुई। कॉन्ग्रेस सहित प्रत्येक राजनीतिक दल को खुद को फिर से पंजीकृत करना होगा, और भारत के संविधान के प्रति अपनी निष्ठा दिखाने और नियत समय पर होने वाले चुनावों में भाग लेने के लिए सहमत होना होगा।
हालाँकि अनिवार्य अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए कोई नियम नहीं हैं। चुनाव आयोग समय-समय पर इस मामले पर निर्देश दे सकता है। चुनाव आयोग अब जाँच कर सकता है कि क्या कॉन्ग्रेस संगठन में पद खाली होने के बाद एक निश्चित अवधि के भीतर नए अध्यक्ष के चुनाव के संबंध में कोई विशेष प्रावधान है। आयोग पार्टी को इस निर्धारित समय सीमा के भीतर आंतरिक चुनाव कराने का आदेश दे सकता है।
ग्रैंड-ओल्ड-पार्टी के लिए चिंता का विषय यह है कि पार्टी के भीतर संकट और अधिक गहरा जाने की संभावना है। अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गाँधी को हाल ही में गंगा राम अस्पताल में कुछ स्वास्थ्य जटिलताओं के कारण भर्ती कराया गया था। यदि वह अपनी वार्षिक मेडिकल चेकअप के लिए विदेश जाने का फैसला करती है, तो पार्टी को उनकी जगह किसी और को चुनने की आवश्यकता हो सकती है, खासकर अगर राहुल गाँधी कार्यभार सँभालने के लिए अनिच्छुक हैं। पार्टी का अध्यक्ष केवल ऑल इंडिया कॉन्ग्रेस कमिटी द्वारा ही चुना जा सकता है।
इस बीच, पार्टी के वरिष्ठ नेताओं सहित पार्टी कैडर की माँग है कि AICC को जल्द से जल्द संगठनात्मक पदों पर नियुक्ति की जाए। साथ ही वे कॉन्ग्रेस संसदीय बोर्ड की विधिवत निर्वाचित कार्यसमिति के साथ, व्यापक आधार रखने वाले नेताओं को प्रतिनिधित्व प्रदान करने की भी माँग कर रहे हैं।
इन दिनों चूँकि कई पावर सेंटर्स उभरे हैं, इसलिए कॉन्ग्रेस पार्टी वर्तमान में भाजपा के दाँव-पेंच को लेकर काफी अतिसंवेदनशील और सतर्क है। कॉन्ग्रेस नेताओं का मानना है कि संगठन की वर्तमान स्थिति नेतृत्वहीन और दिशाहीन है।
मध्य प्रदेश में इस साल की शुरुआत में पार्टी की सरकार गिर गई थी। वहीं राजस्थान सरकार संकट का सामना कर रही है। ऐसी भी रिपोर्टें हैं, जो बताती हैं कि छत्तीसगढ़ सरकार भी मध्यप्रदेश की तरह गिर सकती है। झारखंड में गठबंधन की सरकार को भी अपना भविष्य खतरे में नजर आ रहा है। वहीं भाजपा, कॉन्ग्रेस के भीतर चल रहे ड्रामे पर करीब से नजर रखे हुए है और बदली परिस्थितियों का लाभ उठाने का इंतजार कर रही है।
कॉन्ग्रेस पार्टी के पास प्रमुख मुद्दों में से एक राहुल गाँधी की अस्पष्टता है। एक ओर उन्होंने कथित तौर पर यह स्पष्ट कर दिया है कि वह पार्टी प्रमुख के रूप में वापस नहीं लौटना चाहते हैं, वहीं दूसरी ओर, जब उनके करीबी सहयोगी उनकी बहाली की माँग उठाते हैं, तो वह चुप रहना पसंद करते हैं।
इसके अलावा, सोनिया गाँधी का स्वास्थ्य उन्हें अध्यक्ष के रूप में सक्रिय रहने की अनुमति नहीं देता है। इसलिए, पार्टी को संगठन के हित में जल्द से जल्द उन्हें जिम्मेदारियों से मुक्त करना पड़ सकता है। हालाँकि, प्रमुख चिंताओं में से एक यह है कि उसके लंबे कार्यकाल ने निर्णय लेने की प्रक्रिया को केंद्रीकृत कर दिया है। पार्टी के ज्यादातर फैसले वे बिना किसी परामर्श प्रक्रिया के खुद ही लेती हैं।
जब से सोनिया गाँधी ने पार्टी की बागडोर सँभाली, वह सर्वोच्च नेता रही हैं। वह यूपीए शासन के दौरान राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की संयोजक भी थीं। कुछ का मानना है कि अधिकार और शक्ति का इस तरह एक हाथों में होने से पार्टी को नुकसान हुआ है। इसके अलावा, दलित-मुस्लिमों की तरफ झुकाव ने पार्टी को कमजोर कर दिया है।
पार्टी के वरिष्ठ नेता अब इस विचार में हैं कि एक बार राहुल गाँधी के निर्णय के बाद, पार्टी को संगठनात्मक चुनाव के जरिए गैर-गाँधी का चयन करना चाहिए। कुछ समय के लिए कमलनाथ या भूपिंदर सिंह हुड्डा जैसे को प्रमुख बनाया जा सकता है। युवा नेता चुनाव में भाग लेकर पार्टी के भीतर अपनी हैसियत का अंदाजा लगा सकेंगे। इन चुनावी बाधाओं को जीतने वाले नेताओं को भविष्य के नेताओं के रूप में चुना जा सकता है।