भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस एक नया राजनीतिक पैंतरा लेकर आई है। कॉन्ग्रेस लगभग 5 लाख ‘सोशल मीडिया वॉरियर्स’ तैनात करेगी। लेकिन इस ख़बर के सामने आते ही मज़बूत सवाल खड़ा होता है, क्या राजनीतिक ज़मीन पर लड़खड़ाती कॉन्ग्रेस को ऐसे फैसलों की ज़रूरत है? हाल-फ़िलहाल की राजनीति का सबसे सरल सवाल है कि देश के कितने राज्यों में कॉन्ग्रेस की सरकार बची है। इसका जवाब कोई भी आम इंसान अपनी ऊँगलियों पर गिन सकता है। आखिर अस्तित्व के लिहाज़ से सबसे पुराना राजनीतिक दल नाकामी के इस पड़ाव पर पहुँचा कैसे?
इस समझने के लिए 2019 के आम चुनावों में कॉन्ग्रेस के ‘वोट शेयर’ पर गौर करिए। 2014 के आम चुनाव में कॉन्ग्रेस को 44 सीटें हासिल हुई थीं और 2019 के आम चुनाव में 52। 2014 की तुलना में 2019 के दौरान सीटों की संख्या में भले नाममात्र का इज़ाफा हुआ हो, लेकिन दोनों चुनावों के दौरान कॉन्ग्रेस का वोट शेयर लगभग 19 से 20 फ़ीसदी के बीच ही रहा। 2009 के आम चुनावों में कॉन्ग्रेस को 28 फ़ीसदी वोट मिले थे और इस आँकड़ें के आधार पर एक बात स्पष्ट हो जाती है। अगर आज की तारीख में भी चुनाव होते हैं और वोट शेयर 8-10 फ़ीसदी बढ़ता है (जिसकी कोई उम्मीद नहीं दिखती) फिर भी कॉन्ग्रेस के लिए स्थिति संतोषजनक नहीं होगी।
यह तो आम चुनावों की बात हो गई, कुछ विधानसभा चुनावों की ओर भी गौर कर लेते हैं, शुरुआत बिहार विधानसभा चुनाव 2020 से! यह चुनाव एक लिहाज़ से हर राजनीतिक दल के लिए नया था, महामारी के बाद होने वाला पहला चुनाव! रैलियों में सीमित भीड़, चुनाव आयोग के हिस्से की चुनौतियाँ, ऑनलाइन जनसभा और जनसंपर्क। यानी क्षेत्रीय दल से लेकर राष्ट्रीय दल तक, सभी के सामने कई चुनौतियों का स्वरूप एक जैसा था। जिस बिहार विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी 74 सीटें जीत कर दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी। ठीक उसी चुनाव में कॉन्ग्रेस महज़ 19 सीटों पर सिमट कर रह गई।
2019 में हुआ महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव का नज़ारा भी कॉन्ग्रेस के लिए कुछ अलग नहीं था। आज भले महाराष्ट्र में शिवसेना, एनसीपी और कॉन्ग्रेस की गठबंधन सरकार है, लेकिन इस चुनाव में भी कॉन्ग्रेस का प्रदर्शन औसत से भी बदतर था। जहाँ 100 से अधिक सीटें हासिल करके भाजपा राज्य की इकलौती सबसे बड़ी पार्टी साबित हुई थी, वहीं कॉन्ग्रेस सिर्फ 44 सीटों पर सिमट कर रह गई थी। ठीक यही स्थिति बनी झारखंड के विधानसभा चुनावों में जिसमें कॉन्ग्रेस को सिर्फ 16 सीटें हासिल हुई थीं।
इसके अलावा एक और ऐसा चुनाव है, जो फ़िलहाल लोगों के ज़ेहन में शायद उतना ताज़ा नहीं होगा लेकिन असल मायनों में इस विधानसभा चुनाव ने कॉन्ग्रेस की ज़मीन को कहीं ज़्यादा खोखला किया था। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2017 जब समाजवादी पार्टी और कॉन्ग्रेस के ‘युवा नरेश’ ने साथ चुनाव लड़ा और नतीजा ये रहा कि अखिलेश यादव से एक साल बड़े और राहुल गाँधी से एक साल छोटे आदित्यनाथ मुख्यमंत्री चुने गए। इस चुनाव में भाजपा को तीन चौथाई बहुमात हासिल हुआ था और सपा-कॉन्ग्रेस गठबंधन को सिर्फ 50 से अधिक सीटें हासिल हुई थीं।
यह तो फिर भी आँकड़ों के आधार पर पेश की गई दलीलें हैं। इसके बाद आती हैं वो दलीलें जो तार्किक हैं और प्रासंगिक भी हैं! जितना आसान कॉन्ग्रेस शासित राज्यों को ऊँगलियों पर गिनना है, ठीक उतना ही आसान इस दल की गलतियाँ पहचानना भी है। इसकी सबसे बड़ी दो मिसाल हैं, संगठन के भीतर ‘युवा बनाम बुजुर्ग’ और ‘अध्यक्ष एक खोज’। 2018 के मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावों के नतीजों के बाद कमलनाथ मुख्यमंत्री चुने गए। एक साल तक सरकार किसी तरह चली, लेकिन फिर शुरू हुआ कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीच बयानबाज़ी का दौर। सिंधिया बगावती हुए और कॉन्ग्रेस की सरकार गिर गई। भले सब कुछ सही होने के अनेक दावे किए गए हों, लेकिन इस राजनीतिक उलटफेर ने कॉन्ग्रेस की बड़े पैमाने पर किरकिरी कराई।
कुछ ही समय बाद ठीक ऐसी ही सूरत की राजनीतिक अदावत नज़र आई राजस्थान कॉन्ग्रेस में। अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच भी इतनी तीखी बयानबाज़ी हुई कि कोई सरकार के सत्ता में बने रहने को लेकर आशावादी नहीं था। कई दिनों तक चले इस सियासी खींचतान में भी कॉन्ग्रेस की बल भर किरकिरी हुई। कॉन्ग्रेस की चुनौतियाँ यहीं ख़त्म नहीं होती। वरिष्ठ और तजुर्बेकार नेताओं की सूची के बावजूद उसे पूर्णकालिक अध्यक्ष नहीं मिला है।
जमीन के साथ पहचान की संकट से जूझ रही कॉन्ग्रेस जब तक इन समस्याओं का समाधान नहीं तलाशती, सोशल मीडिया वॉरियर्स जैसे फैसलों से शायद ही उसका भला हो!