जिस दिन का हिंदुओं को दशकों से इंतजार था वह करीब आ गया है। 5 अगस्त को अयोध्या में भव्य श्रीराम मंदिर निर्माण के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भूमि पूजन में शिरकत करेंगे। पीएम बनने के बाद यह उनकी पहली अयोध्या यात्रा होगी।
रिपोर्टों के मुताबिक भूमि पूजन के दौरान श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के अध्यक्ष महंत नृत्य गोपाल दास लगभग 40 किलो चॉंदी की श्रीराम शिला समर्पित करेंगे। पीएम मोदी इस शिला का पूजन कर स्थापित करेंगे।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने भले इस दिन की राह खोली हो, लेकिन यह एक झटके में मुमकिन नहीं हुआ। इस दिन के लिए कई बलिदान हुए। कइयों ने अपनी पूरी जिंदगी झोंक दी। ये सब उस वक्त हुआ जब आजाद भारत में भी सत्ताधारी दल अयोध्या आंदोलन को कुचल देना चाहते थे।
यहॉं तक कि पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भी रामलला को गर्भगृह से बेदखल करने पर अमादा थे। वरिष्ठ पत्रकार हेमंत शर्मा ने अपनी किताब ‘युद्ध में अयोध्या’ में विस्तार से इस घटना का ब्यौरा दिया है। नेहरू के मॅंसूबों को केरल के रहने वाले आईसीएस अधिकारी केकेके नायर, जो उस समय फैजाबाद के जिलाधिकारी थे ने विफल कर दिया था।
हेमंत शर्मा लिखते हैं, “उत्तर प्रदेश के कुछ मुस्लिम नेताओं और देवबंद के उलेमाओं ने नेहरू को तार भेजकर उनका ध्यान अयोध्या की ओर दिलाया। नेहरू ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत और राज्य के गृह मंत्री लाल बहादुर शास्त्री को तत्काल मस्जिद से मूर्तियों को हटाने के निर्देश दिए। लगातर केंद्र से संदेश लखनऊ आते और वैसे ही तार लखनऊ से फैजाबाद भेजे जाते कि मूर्तियॉं तुरंत हटाई जाएँ। 24 और 25 दिसंबर 1949 को लखनऊ में इस मुद्दे पर दिन भर उच्च स्तरीय बैठक होती रही। तय किया गया कि मूर्तियों को गर्भगृह से बाहर ले जाकर राम चबूतरे पर रखा जाएगा। पर फैजाबाद के सिटी मजिस्ट्रेट केकेके नायर इस बात पर अड़े रहे कि मूर्ति हटाने की घोषणा से मात्र से खून-खराबा होगा।”
उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्य सचिव भगवान सहाय ने इस संबंध में फैजाबाद के तत्कालीन जिलाधिकारी केकेके नायर को 23 दिसंबर को निर्देश दिए। जवाब में 26 दिसंबर को नायर ने लिखा, “मैं आज भी इसकी कल्पना नहीं कर पा रहा कि मूर्ति को वहॉं से कैसे हटाया जाए। यदि इस कार्य को धार्मिक रीति के अनुसार किया जाना है तो मुझे कोई ऐसा योग्य हिंदू पुजारी नहीं मिलेगा, जो इस काम के लिए अपने जीवन और मोक्ष को दॉंव पर लगाने का इच्छुक हो। यदि ऐसा किसी भी तरह या किसी के द्वारा भी किया जाना है तो इसके परिणामस्वरुप हिंदुओं के सभी वर्गों के विरोध का सामना सरकार को करना पड़ सकता है। मुझे स्पष्ट रूप से बताया जाना चाहिए कि क्या सरकार उस स्थिति का सामना करने के लिए तैयार है।”
इससे पहले की इस पर सरकार कोई प्रतिक्रिया देती अगले ही दिन नायर ने मुख्य सचिव को फिर एक चिट्ठी दाग दी। इस बार उन्होंने लिखा, “यदि सरकार किसी भी कीमत पर मूर्ति हटाने का फैसला लेती है तो मैं अनुरोध करूँगा कि मुझे कार्यमुक्त किया जाए और मेरा कार्यभार किसी ऐसे अधिकारी को दिया जाए, जिसे इस समाधान में वह अच्छाई दिखती हो जो मुझे दिखाई नहीं देती। जहॉं तक मेरा सवाल है मेरा विवेक मुझे ऐसा करने की इजाजत नहीं देता।”
नायर की चिट्ठियों से राज्य सरकार दबाव में आ गई। घबराए सहाय ने उन्हें फोन कर कहा कि वे मौके पर जैसा ठीक समझें करें। लेकिन, नेहरू लगातार अपनी चिंता जताते रहे। जब नायर सरकार की सुनने को तैयार नहीं थे तो नेहरू ने 26 नवंबर 1949 को पंत को एक तार भेजता। इसमें कहा, “अयोध्या में हुई घटनाओं से मैं परेशान हूँ। मैं गंभीरतापूवर्क उम्मीद करता हूँ कि आप इस विषय पर व्यक्तिगत रूप से ध्यान देंगे। वहॉं आपत्तिजनक उदाहरण रखे जा रहे हैं जिनके परिणाम घातक होंगे।”
मूर्तियॉं तो नहीं हटीं। पर नेहरू के प्रयास जारी रहे। 15 फरवरी 1950 को उन्होंने पंत को एक पत्र लिख अयोध्या के हालात पर जानकारी मॉंगी। साथ ही कश्मीर पर इसके कारण पड़ने वाले हालात को लेकर चिंता जताई। 5 मार्च 1950 को किशोरीलाल को लिखे पत्र में नेहरू ने कहा, “उत्तर प्रदेश सरकार ने हिम्मत से काम लिया, लेकिन जो हुआ वो कम था। फैजाबाद के अधिकारियों ने या तो बदमाशी की या फिर हालात को रोकने के लिए कोई कदम नहीं उठाया।”
यहॉं तक कि नेहरू अयोध्या भी जाना चाहते थे। पर पंत उन्हें टालते गए। यहॉं यह जानना जरूरी है कि पंत को नेहरू पसंद नहीं करते थे। पंत देश के पहले गृह मंत्री सरदार वल्लभाई पटेल के करीबी माने जाते थे। लिहाजा, नेहरू ने पटेल से भी पंत पर दबाव डलवाने की कोशिश की। 9 जनवरी 1950 को पटेल ने इस संबंध में पंत को पत्र भी लिखा। लेकिन, उन्होंने मूर्तियॉं हटाने के लिए कोई निर्देश देने की बजाए मुख्यमंत्री पंत की ओर से उठाए गए कदमों की तारीफ की। साथ ही इस समस्या के लिए अपनी पार्टी में बढ़ती गुटबंदी को भी जिम्मेदार ठहराया।
शर्मा ने अपनी किताब में जिन घटनाओं और चिट्ठियों का जिक्र किया है, उनसे जाहिर होता है कि नेहरू मूर्तियॉं हटाकर धर्मनिरपेक्ष दिखना चाहते थे। लेकिन, नायर के अड़ने और पंत तथा पटेल के नरम रुख अपनाने के कारण वे अपने इस मंसूबे में कामयाब नहीं हो पाए।