कल का मद्रास और आज का चेन्नई। चेन्नई का मरीना बीच। बीच पर कई शख्सियतों की प्रतिमा लगी हुई है। एक आदमकद प्रतिमा दो बच्चों के साथ है। बच्चों के कंधों पर हाथ रखे जो शख्स खड़ा है वह है, के. कामराज। यानी कुमारास्वामी कामराज।
तमिल नेता कामराज के बारे में आप गूगल करेंगे तो ढेर सारी चीजें उपलब्ध हैं। गुलाम भारत से लेकर आजाद भारत की उनकी राजनीतिक-सामाजिक यात्रा की तमाम बातें। इन सारी सूचनाओं में जो बात सामान्य है, वह है हर किसी ने कामराज को एक ही चश्मे से देखा है। खासकर, उनके उस फॉर्मूले को जिसे ‘कामराज प्लान’ कहते हैं। मौत के 45 साल बाद भी सियासत में कामराज अपनी उसी योजना की वजह से प्रासंगिक बने हुए हैं।
इस योजना के दोबारा मूल्यांकन का इससे बेहतर वक्त नहीं हो सकता। मार्च में मध्य प्रदेश में कॉन्ग्रेस ने भविष्य की उम्मीदों को खोया है। अब राजस्थान में उसको तिलांजलि दी है। युवा नेतृत्व के नाम पर वह राहुल और प्रियंका गॉंधी से इतर किसी को मजबूत होते नहीं देखना चाहती। संगठन की मजबूती का मतलब वह परिवार की मजबूती से अलग नहीं तलाश पाती। जबकि इस पारिवारिक नेतृत्व ने ही उसे अपने सबसे बुरे दौर में पहुॅंचाया है।
क्या कॉन्ग्रेस कामराज प्लान की वजह से यहॉं तक पहुॅंची है? इस योजना में उसकी बीमारी का इलाज छिपा है? यह योजना कागज पर कुछ और जबकि असल में परिवार के लिए चुनौती दिखने वालों को ठिकाने लगाने की दवा है? जवाब तलाशने से पहले कामराज की यात्रा पर नजर डाल लेते हैं।
कौन थे कामराज?
15 जुलाई 1903 को तमिलनाडु के विरूधुनगर में कामराज का जन्म हुआ था। असल नाम कामाक्षी कुमारस्वामी नाडर था। पर बाद में कामराज के नाम से ही जाने गए। आजादी के आंदोलन के दौरान कई बार गिरफ्तार हुए और करीब 10 साल जेल में गुजारे। 1954 में मद्रास के मुख्यमंत्री चुने गए। लेकिन लोगों को आश्चर्य तब हुआ जब अपनी कैबिनेट में धुर विरोधी सी. सुब्रमण्यम और एम. भक्त वत्सलम को भी शामिल कर लिया। कुछ-कुछ नेहरू की पहली कैबिनेट जैसा ही। वे तीन बार तब के मद्रास और आज के तमिलनाडु के मुख्यमंत्री चुने गए।
पहली साख उस योजना से कमाई जिसकी आज पूरे भारत में खूब चर्चा होती है। मिड डे मील। कामराज ने मिड डे मील, फ्री यूनीफॉर्म जैसी योजनाओं से स्कूली शिक्षा-व्यवस्था में कमाल कर दिया। उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि कोई भी गॉंव बिना प्राथमिक स्कूल के न रहे। कक्षा 11वीं तक मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा लागू की। तमिल में बच्चों को शिक्षा मिले इसकी व्यवस्था की।
इसका ही असर था कि अंग्रेजों के जमाने में राज्य की साक्षरता 7 फीसदी के करीब थी, वह बढ़कर 37 फीसदी हो गई। इसी योगदान के प्रति कृतज्ञता जताने के लिए मरीना बीच पर बच्चों के साथ उनकी प्रतिमा लगी है।
गौर करने वाली बात यह है कि खुद कामराज की पढ़ाई छठी में छूट गई थी। शायद वही टीस रही होगी कि उन्होंने अपने प्रदेश के हर बच्चे तक शिक्षा पहुॅंचाने को अपना मकसद बना लिया था।
नेहरू की नजर
चकवर्ती राजगोपालाचारी पहले भारतीय गवर्नर जनरल थे। तमिलनाडु से ही आते थे। कॉन्ग्रेस में नेहरू विरोधी माने जाते थे। कामराज ने गृह राज्य में ही उनकी सियासत को ठिकाने लगा दिया। फिर आया 1962। चीन-भारत का युद्ध हुआ। इसके परिणामों ने कॉन्ग्रेस और नेहरू दोनों की छवि को नुकसान पहुँचाया। नेहरू उधेड़बुन में थे।
उनकी उम्मीदों का दीया हैदराबाद की पार्टी मीटिंग में जला। कामराज ने उनसे कहा कि वे मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर प्रदेश कॉन्ग्रेस का अध्यक्ष बनना चाहते हैं। पहले तो नेहरू के कुछ पल्ले नहीं पड़ा। जब कामराज ने विस्तार से अपनी योजना के बारे में बताया तो नेहरू को यह भा गया। उनसे कहा कि राष्ट्रीय स्तर पर इसका खाका तैयार कर मिलो।
इस्तीफों वाला प्लान
कामराज ने प्लान तैयार कर नेहरू को सौंपा। अगस्त 1963 में कॉन्ग्रेस वर्किंग कमेटी ने इसे पास कर दिया। नतीजतन नेहरू की कैबिनेट के 6 सदस्यों और 6 कॉन्ग्रेसी मुख्यमंत्रियों को इस्तीफे देने पड़े। वजह इन्हें संगठन में दायित्व देकर उसे मजबूती प्रदान करना था।
2 अक्टूबर 1963 को कामराज ने भी सीएम पद से इस्तीफा दे दिया। नेहरू कैबिनेट से जिनकी विदाई हुई उनमें लाल बहादुर शास्त्री, मोरारजी देसाई, जगजीवन राम जैसे नाम थे।
भारतीय राजनीति में इसे ही ‘कामराज प्लान’ के नाम से जाना जाता है।
पहला किंगमेकर
सीएम पद से इस्तीफे के बाद कामराज कॉन्ग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष चुन लिए गए। मई 1964 में नेहरू का निधन हो गया और कामराज की परीक्षा की असली घड़ी आई। दो दावेदार थे शास्त्री और मोरारजी। शास्त्री नेहरू खेमे के माने जाते थे। सो सर्वसम्मति की बात कह कामराज ने मोराराजी के दावे को खारिज कर दिया और शास्त्री पीएम चुन लिए गए।
फिर आया जनवरी 1966। शास्त्री की मौत हो गई। कामराज के सामने फिर से वही चुनौती। दावेदार वही मोरारजी। इस बार सर्वसम्मति की बात पर नहीं माने। वोटिंग के लिए अड़ गए। कामराज ने इंदिरा गॉंधी के पक्ष में लॉबिंग की और बाजी उनके हाथ ही लगी।
पसंद के दो पीएम बना कामराज ने देश के पहले किंगमेकर की छवि बनाई।
सूरज ढलान पर
इंदिरा गॉंधी जब पीएम चुनी गईं तब उनके विरोधी उन्हें ‘गूँगी गुड़िया’ कहते थे। गूॅंगी गुड़िया को कुर्सी पर बिठाना कामराज के राजनीतिक जीवन का आखिरी सफल दाँव था। इसके बाद उनका सूरज ढलने लगा। पटकथा गूँगी गुड़िया ने ही लिखी। 1967 के आम चुनावों में कई राज्यों में कॉन्ग्रेस की हार हुई। खुद कामराज भी हारे।
इंदिरा ने दबाव बनाया कि चुनाव हारने वाले नेता पद छोड़ें। कामराज को पार्टी अध्यक्ष पद से जाना पड़ा। अब वे इंदिरा का विकल्प मोरारजी में देख रहे थे। मोरारजी तो बाद में कॉन्ग्रेस छोड़ जनता पार्टी की सरकार का मुखिया बनने में कामयाब रहे, लेकिन कामराज फिर कभी कामयाब नहीं हुए। यहॉं तक कि पार्टी तोड़ना भी कारगर नहीं रहा।
लेकिन 1966 के उनके सफल प्लान ने यह तय कर दिया था कि अब नेहरू-गॉधी परिवार से इतर कॉन्ग्रेस का कोई भविष्य नहीं होगा। 2 अक्टूबर 1975 को कामराज ने अंतिम सॉंसे ली।
इंदिरा ने भी अगले साल भारत रत्न देकर ‘एहसान’ चुका दिए।
फैमिली प्लान
राजनीति में जब भी कोई राजनीतिक पार्टी ढलान पर होती है तो कामराज प्लान की चर्चा होती है। खुद यूपीए 2 के दौरान कॉन्ग्रेस ने भी इस पर चर्चा की थी। 2019 के आम चुनावों के बाद भी इस पर बात हुई। लेकिन, कुछ तथ्य ऐसे भी हैं, जिनसे इस प्लान के मकसद को लेकर सवाल उठते हैं।
आज भी कॉन्ग्रेस की वेबसाइट पर इस प्लान के लिए लिखा गया है, “कामराज ने नेहरू को एक प्लान सुझाया जिसमें कहा गया कि कॉन्ग्रेस के वरिष्ठ नेताओं को सरकार में अपने पद छोड़कर पार्टी के लिए काम करना चाहिए।”
लेकिन दिवंगत पत्रकार कुलदीप नैयर अपनी आत्मकथा बियॉन्ड द लाइन्स में इस प्लान के छिपे एजेंडे की ओर इशारा करते हैं। उन्होंने लाल बहादुर शास्त्री का जिक्र करते हुए लिखा है, “मैंने शास्त्री से पूछा कि नेहरू के प्रति इतने वफादार होने के बावजूद उन्हें क्यों निशाना बनाया गया था। उन्होंने जवाब दिया कि पंडितजी को मजबूरी में ऐसा करना पड़ा था, ताकि यह न लगे कि अपने आलोचकों से पीछा छुड़ाने के लिए ही उन्होंने कामराज प्लान रचा था।”
शायद यही कारण था कि बाद में नेहरू ने शास्त्री को बिना विभाग का मंत्री बना दिया और वे उनकी डिप्टी की हैसियत से काम भी करने लगे थे। नेहरू के जिस उत्तराधिकार को लेकर कुछ समय पहले तक कॉन्ग्रेस में कलह के आसार दिख रहे थे, वो इस योजना की वजह से अचानक सुलझ गई। तमिलनाडु प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी मॉंगने वाले कामराज को पूरी पार्टी ही चलाने के लिए मिल गई।
बताते हैं कि 13 जनवरी 1966 की रात दिल्ली के 4, जंतर मंतर रोड बंगले पर एक बैठक हुई थी। इस बैठक में कामराज पर पीएम बनने के लिए दबाव बनाया गया। लेकिन कामराज ने इस सुझाव को यह कहकर ठुकरा दिया कि वे हिंदी और अंग्रेजी नहीं जानते।
गौर करने वाली बात यह है कि जो शख्स 1966 में नेहरू की बेटी को पीएम बनाने के लिए भाषा को बाध्यता बता अपनी दावेदारी खारिज कर देता है, वही व्यक्ति 1963 में इसी बाधा के साथ देश के कोने-कोने में मौजूद कॉन्ग्रेस का अध्यक्ष बनने और संगठन चलाने के लिए मुफीद था।
नैयर ने अपनी आत्मकथा में लिखा भी है, “चीन पर अपनी नीति को लेकर नेहरू कई प्रमुख कैबिनेट मंत्रियों की कटु आलोचना से आहत महसूस कर रहे थे। तभी कामराज ने सुझाव दिया कि कैबिनेट के सदस्यों को संगठन का काम कर पार्टी को मजबूत करना चाहिए। मेरी अपनी सूचना थी कि यह नेहरू का विचार था और कामराज इसे अभिव्यक्त कर रहे थे।”
इलाज या बीमारी
कामराज प्लान कागज पर बेहद साफ-सुथरा है। इसने नेहरू के उत्तराधिकार को लेकर कॉन्ग्रेस में किसी तरह की कलह को झटके से खत्म कर दिया। उनके विरोधियों को करीने से किनारे लगा दिया।
लेकिन, यही वह प्लान था जिसने कॉन्ग्रेस के भीतर आंतरिक लोकतंत्र का ढाँचा भी कमजोर किया। यह सुनिश्चित किया कि पार्टी पर परिवार की पकड़ इतनी मजबूत हो कि कोई उसे चुनौती न दे सके। यह दूसरी बात है कि बाद में इसके शिकार खुद कामराज भी हो गए।
इसमें कोई शक नहीं कि नेहरू-गाँधी परिवार से इतर आजाद भारत में जितने भी कॉन्ग्रेस अध्यक्ष हुए उनमें कामराज सबसे ताकतवर रहे। लेकिन इंदिरा की ताजपोशी के बाद कॉन्ग्रेस अध्यक्षों के आप नाम याद करिए परिवार से बाहर का कोई व्यक्ति याद नहीं आएगा। सीताराम केसरी की चर्चा होती भी है तो अलग वजहों से, जबकि कामराज के बाद भी नेहरू-गाँधी परिवार से अलग सात लोग इस जिम्मेदारी को सँभाल चुके हैं।
कामराज प्लान से ही परिवार ने वो ताकत हासिल की कि वह देश को 10 साल तक कठपुतली पीएम के हवाले कर दे। इसकी वजह से ही परिवार मौका मिलने पर राजस्थान को अशोक गहलोत के हवाले कर देता है, जबकि यह तथ्य सार्वजनिक है कि 2013 के विधानसभा चुनावों में करारी शिकस्त के बाद गहलोत ने खुद को प्रदेश की सियासत से अलग कर लिया था। उस मुश्किल वक्त सचिन पायलट ने संघर्ष किया। 2014 के आम चुनावों में प्रदेश में कॉन्ग्रेस का खाता नहीं खुला फिर भी वे लगातार लगे रहे। इसके नतीजे 2018 के विधानसभा चुनाव में दिखे। पर उनकी दावेदारी किनारे कर दी गई।
इसी तरह मध्य प्रदेश में खुद को छिंदवाड़ा तक सीमित रखने वाले कमलनाथ को ज्योतिरादित्य सिंधिया पर वरीयता दी गई। आखिरकार परिवार जानता है कि इनको कमान देने पर ‘युवराज’ के लिए चुनौती खड़ी हो जाएगी।
कॉन्ग्रेस जब भी कामराज प्लान को झाड़ने-पोंछने की बात करती है तो उसका एक ही उद्देश्य होता है। हर उस आवाज को कुचलना जो परिवार के लिए भविष्य में चुनौती बने।