आज से महीने भर पहले राजस्थान से लेकर दिल्ली तक सबकी जुबान पर कोरोना से लड़ने के लिए राजस्थान के भीलवाड़ा मॉडल की सफलता के चर्चे थे। लेकिन पिछले कुछ सप्ताह से, जब से जयपुर के रामगंज और जोधपुर का नागौरी गेट, अजमेर का दरगाह बाजार क्षेत्र और कोटा का घंटाघर कोरोना वायरस का एपिसेंटर बना है, सियासत के लोग भीलवाड़ा मॉडल की चर्चा करना भूल गए हैं।
प्रशासन सोच नहीं पा रहा है कि आखिर इन क्षेत्रों में कौन सा मॉडल लागू किया जाए, कि कोरोना संक्रमण की बढ़ती संख्या को नियंत्रण में लाया जा सके।
विपक्षी दल के स्थानीय और केंद्रीय स्तर के नेता लगातार अशोक गहलोत सरकार पर तुष्टिकरण के आरोप लगा रहे हैं। राज्यपाल से हस्तक्षेप करने का आग्रह कर रहे हैं। वे सभी जोर देकर कह रहे हैं कि इन क्षेत्रों में कोरोना वायरस का संक्रमण रोकना है तो सख्ती से लॉकडाउन का पालन करवाएँ।
केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत ने पिछले दिनों पत्रकारों से वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से बातचीत में गहलोत सरकार पर सीधे आरोप लगाए कि गहलोत राजनैतिक मजबूरियों को छोड़े और जयपुर तथा जोधपुर में पूर्णबंदी का सख्ती से पालन करवाएँ। उन्होंने यहाँ तक कहा कि इसके लिए जरूरत पड़ने पर केंद्रीय रिजर्व बल लगाए जाएँ। लेकिन क्या यह संभव है….?
भीलवाड़ा मॉडल का श्रेय लेने के लिए तो मुख्यमंत्री से लेकर पार्टी अध्यक्षा और शीर्ष पदाधिकारियों ने ट्विटर से लेकर पत्रकार वार्ताओं में खूब बातें की, लेकिन जब से जयपुर, जोधपुर, कोटा और अजमेर में विशेष क्षेत्रों में जिस तेजी से कोरोना संक्रमण का प्रसार हुआ, उसके बाद सरकार और स्थानीय प्रशासन के हाथ-पॉंव फूल रहे हैं। उन्हें भीलवाड़ा मॉडल कहीं दिखाई नहीं दे रहा है।
लेकिन इसका नतीजा यह हो रहा है कि राजस्थान में अब तक (6 मई 2020) आए कुल 3317 मामलों में से लगभग 75 फीसदी से ज्यादा संक्रमित व्यक्ति एक ही समुदाय से हैं।
26 मार्च तक जयपुर में कोरोना वायरस का एक मामला था। ओमान से आए एक व्यक्ति की गैर जिम्मेदाराना व्यवहार ने पूरे जयपुर को एक महीने पीछे धकेल दिया है। जयपुर रेड जोन में है। लगभग पूरा जयपुर शहर गैर जिम्मेदार लोगों की लापरवाही को भुगत रहा है। शहर खामोश है। सड़कें सूनी हैं। ज्यादातर क्षेत्रों में कर्फ्यू जैसे हालात हैं। और यह होना ही था।
कर्फ्यू और लगातार कथित निगरानी के बावजूद जयपुर में संक्रमण बढ़ते गए और यह देश के उन शहरों में शामिल हो गया जहाँ संक्रमण के सर्वाधिक मामले हैं। सात मई शाम तक जयपुर में 1100 से ज्यादा सक्रिय मामले थे। इनमें भी नब्बे प्रतिशत से ज्यादा संक्रमित व्यक्ति एक ही समुदाय से हैं।
यही स्थिति जोधपुर की है। यहाँ शहर के परकोटे के भीतर नागौरी गेट, उदयमंदिर, जालोरी गेट और खांडा पलसा क्षेत्र में कोरोना के खतरनाक संक्रमण के कारण कर्फ्यू लगाया गया है। ये सभी क्षेत्र मुस्लिम बाहुल्य हैं और जनसंख्या के लिहाज से बहुत घने हैं। जोधपुर में कोरोना संक्रमण का प्रसार जमात के लोगों से शुरू हुआ और आज जोधपुर प्रदेश का दूसरा ऐसा जिला है, जहाँ सबसे ज्यादा कोरोना के मरीज हैं।
इन सभी क्षेत्रों में कर्फ्यू के बावजूद कोरोना संक्रमण बढ़ रहा है। यह खुद मुख्यमंत्री का क्षेत्र है। लेकिन स्थानीय लोग दबी जुबान में कहते हैं कि प्रशासन अगर सख्ती नहीं बरतेगा तो पूरा जोधपुर शहर मौत के मुहाने पर पहुँच जाएगा। लेकिन प्रशासन सियासत की और सियासत तुष्टिकरण की सीमा रेखा में बँधा है।
अजमेर और कोटा भी तुष्टिकरण की नीति का कोरोना फल साबित हो रहा है। कोरोना संक्रमण के दौर के काफी दिनों बाद अजमेर का नंबर आया। भीलवाड़ा के कर्फ्यू के माहौल में से कुछ व्यवस्था कर निकला एक सेल्समैन नावेद ने अजमेर को कोरोना भेंट किया। वह पहले अजमेर पहुँचा और अपने परिवार के पाँच लोगों को कोरोना भेंट किया।
कोरोना की यह भेंट अजमेर का दरगाह बाजार, केसरगंज, मुस्लिम मोची मोहल्ला और दरगाह बाजार के आसपास की कॉलोनियों, बाजारों में बँटती गई। फिर कर्फ्यू के बावजूद मेल-मिलाप से इन क्षेत्रों में कोरोना ने जमकर लुत्फ उठाया। प्रशासन ने कर्फ्यू ठोका। लेकिन हालात वही ढाक के तीन पात।
कर्फ्यू के बावजूद कोरोना संक्रमण के मरीज बढ़ रहे हैं। अप्रैल के पहले हफ्ते में यहाँ तीस से चालीस केस थे, जो अब बढ़कर 187 हो गए हैं। इनमें 90 फीसदी से ज्यादा मरीज एक ही समुदाय से हैं।
आइए अब कोरोना संक्रमण से सबसे ज्यादा प्रभावित कोटा चलते हैं। कोरोना संक्रमण और उसे रोकने के उपाय पूरे राजस्थान में एक ही ट्रेंड पर चल रहे हैं। कोटा इससे अलग कैसे हो सकता है। यहाँ भी कोरोना का संक्रमण लेकर आने वाला पहला व्यक्ति जयपुर जमात से जुड़ा एक ड्राइवर था। फिर क्या… शहर के परकोटे के भीतर घंटाघर, मकबरा, पाटनपोल, कैथुनीपोल जैसे मुस्लिम क्षेत्रों में कोरोना मेहमान बनकर बैठ गया।
प्रशासन और सरकार की अपीलों को एक तरफ रख मेल-मिलाप चलता रहा। 5-6 अप्रैल को आए पहले केस के बाद कोटा में अब तक (सात मई 2020) 223 मामले आ चुके हैं। इनमें भी नब्बे फीसदी मामले एक ही समुदाय से हैं। अप्रैल के शुरू में एक दिन ऐसा भी था जब कोटा कलेक्टर ने प्रेस वार्ता में घोषणा कर दी थी कि जिला पूरी तरह कोरोना मुक्त है। लेकिन उसके तीसरे चौथे दिन ही एक साथ पाँच मामले सामने आ गए।
इन चारों प्रमुख शहरों में आखिरकार भीलवाड़ा मॉडल अपनी रफ्तार क्यों नहीं पकड़ पाया। उसने इन शहरों में क्यों दम तोड़ दिया। प्रशासन, सरकार, चिकित्साकर्मी, पुलिसकर्मी, स्वच्छताकर्मी सभी तो वहीं हैं। फिर…?
दो वजह हैं, जो साफ-साफ नजर आती हैं। लेकिन संभव है सियासत जानबूझकर आँखें मूँदे हुए है। भीलवाड़ा की आबादी का मूल स्वरूप और इन क्षेत्रों की आबादी के मूल स्वरूप और सियासती तुष्टिकरण के रंग में गहरा फर्क है। अगर भीलवाड़ा मॉडल यहाँ दम तोड़ रहा है तो उसका कारण स्पष्ट है। इन क्षेत्रों की आबादी का मूल स्वरूप, उनका गैरजिम्मेदाराना व्यवहार और सियासत की तुष्टिकरण की मजबूरी।
इन चारों ही शहरों के स्थानीय पत्रकार मानते हैं कि समुदाय विशेष के क्षेत्र होने की वजह से सरकार लॉकडाउन और कर्फ्यू का सख्ती से पालन करवाने में पूरी तरह विफल रही है। राजस्थान में विपक्षी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष से लेकर पार्टी के स्थानीय और केंद्रीय नेता भी गहलोत सरकार से कोरोना नियंत्रण के लिए तुष्टिकरण की नीति को छोड़कर सख्ती से लॉकडाउन की पालना के लिए कह चुके हैं। लेकिन सरकार का कहना है कि वह लॉकडाउन की पालना में न धर्म देखती है और न जाति।
कितनी अच्छी बात है। लेकिन सवाल खड़ा होता है, फिर क्यों इन चारों शहरों में भीलवाड़ा मॉडल की साँसे फूल रही हैं? क्यों वह तुष्टिकरण की सीमा रेखा को लाँघने की हिम्मत नहीं दिखा पा रहा है?
तुष्टिकरण भारत की राजनीति के लिए कोई चीज नहीं है। हाँ, इसके प्रकटन का समय अलग-अलग होता है। यह प्रकटन इस दौर में राजस्थान में हो रहा है। इसलिए कोरोना जैसी महामारी से लड़ने के दौरान जब प्रशासन पर सियासत हावी हो और सियासत के गले में तुष्टिकरण की माला पड़ी हो तो फिर चाहे भीलवाड़ा मॉडल हो या वुहान मॉडल, वह लफ्फाजियों में ही दम तोड़ देता है।