अंदरूनी लड़ाई की वजह से राजस्थान की कॉन्ग्रेस सरकार पर खतरा मंडरा रहा है। इससे पार पाने के प्रयासों में उसने अपनी राजनीति में राज्यपाल को भी खींच लिया है। कभी उन्हें राजभवन के घेराव की धमकी देती है तो कभी प्रधानमंत्री से उनकी शिकायत करने की बात।
इस बीच, केंद्रीय कानून मंत्री रहे कॉन्ग्रेस के तीन नेताओं ने राजस्थान के राज्यपाल कलराज मिश्र को एक पत्र भी लिखा है। पत्र में संवैधानिक मर्यादा की दुहाई देने के साथ-साथ यह भी चेतावनी दी गई है कि यदि फैसला कॉन्ग्रेस के मनमाफिक नहीं रहा तो इसके नतीजे गलत हो सकते हैं।
वैसे मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने जिस दिन पहली बार राज्यपाल पर दबाव बनाने की कोशिश की थी उसी दिन राजभवन ने बिंदुवार सभी सवालों के जवाब दे उन्हें बैकफुट पर धकेल दिया था। बावजूद इसके अपने ही विधायकों की मारी कॉन्ग्रेस ने राज्यपाल को राजनीति में खींचने की कोशिश नहीं बंद की है।
Congress’ Salman Khurshid, Ashwani Kr & Kapil Sibal write to Rajasthan Gov over proposal to convene Assembly Session. Letter reads ‘Any deviation from constitutional position in current circumstances would be an avoidable negation of your office & create a constitutional crisis.’ pic.twitter.com/LGv0BZ1G09
— ANI (@ANI) July 27, 2020
दिलचस्प यह है कि संविधान, नैतिकता वगैरह की दुहाई देने वाली कॉन्ग्रेस का इतिहास इस मामले में बेहद दागदार रहा है। जवाहर लाल नेहरू से लेकर सोनिया गॉंधी तक, सबके लिए गवर्नर कठपुतली जैसे ही रहे। उनका इस्तेमाल पर्दे के पीछे से राज्यों में सत्ता हथियाने के लिए किया गया।
पहले चुनाव के बाद से ही शुरू हुआ सिलसिला
राज्यपाल का इस्तेमाल आज़ादी के बाद हुए पहले आम चुनाव से ही शुरू हो गया था। साल 1952 के दौरान केंद्र में जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व की कॉन्ग्रेस सरकार थी। तत्कालीन मद्रास में संयुक्त मोर्चे की सरकार के पास ज़्यादा विधायक थे। लेकिन फिर भी उन्हें सरकार बनाने का न्यौता नहीं दिया गया।
कॉन्ग्रेस के नेता सी. राजगोपालाचारी को सरकार बनाने का प्रस्ताव भेजा गया। सबसे हैरानी की बात यह थी कि उस समय वह खुद विधायक भी नहीं थे। यह पहला मौक़ा था जब संवैधानिक पद पर बैठे एक व्यक्ति का राजनीतिक हित के लिए इस्तेमाल किया गया।
दूसरी बार भी नेहरू
संयोग से इस तरह का दूसरा मौक़ा भी जवाहर लाल नेहरू के कार्यकाल में ही आया। बात है साल 1957 की जब देश में पहली बार किसी राज्य के भीतर वामपंथी सरकार चुनाव जीत कर आई थी। इस सरकार के मुखिया थे ईएमएस नम्बूदरीपाद, जिन्होंने केरल में पहली बार कम्युनिस्ट सरकार की नींव रखी।
लेकिन कॉन्ग्रेस ने यहाँ भी अलग तरह का दाँव खेला। राज्य में मुक्ति संग्राम शुरू हुआ और कॉन्ग्रेस पार्टी ने इसे आधार बना कर 2 साल के भीतर सरकार गिरवा दी। हालाँकि केरल की पहली सरकार का विरोध बहुत बड़े पैमाने पर हुआ था लेकिन कॉन्ग्रेस ने उस सरकार को गिराने के लिए असंवैधानिक तरीका चुना। क्षेत्रीय स्तर पर यह पहला चुनाव था जब कॉन्ग्रेस ने सत्ता गँवाई थी। इसके बाद नेहरू के नेतृत्व वाली सरकार ने संवैधानिक पद का राजनीतिक हित के लिए इस्तेमाल किया।
तीसरा कारनामा हरियाणा से
हरियाणा में 1979 में देवीलाल की अगुवाई में लोकदल की सरकार चुन कर आई। इसके कुछ समय बाद जीडी तापसे हरियाणा के राज्यपाल बनाए गए। 1982 में भजनलाल बिश्नोई ने देवीलाल के विधायकों से संपर्क किया। संपर्क के बाद वह विधायकों से संबंध बनाने में भी कामयाब रहे, नतीजा यह निकला एक बार फिर राज्यपाल अहम भूमिका में आए।
जीडी तापसे ने भजनलाल को सरकार बनाने का प्रस्ताव दे दिया। देवीलाल को इस बात की भनक लगी तो वह नाराज हो गए। अपने सारे विधायकों को समेटना शुरू किया लेकिन तब तक राज्यपाल के हिस्से की बातें तय हो चुकी थीं। अंत में मौके का इस्तेमाल करते हुए भजनलाल सरकार बनाने में कामयाब हुए।
इंदिरा भी नहीं रही अछूती
आंध्र प्रदेश में 1983 में एनटी रामाराव की सरकार चुन कर आई थी। यह आंध्र प्रदेश की पहली गैर कॉन्ग्रेसी सरकार थी। उस दौरान ठाकुर रामलाल राज्यपाल थे। तेलुगू देशम पार्टी के नेता और तत्कालीन मुख्यमंत्री एनटी रामाराव को अपनी हार्ट सर्जरी के लिए विदेश जाना पड़ा।
उस वक्त भी केंद्र में कॉन्ग्रेस की सरकार थी और इंदिरा गाँधी के हाथों में बागडोर थी। राज्यपाल रामलाल ने केंद्र सरकार में वित्त मंत्री एन भास्कर राव को राज्य का मुख्यमंत्री बना दिया। इस फैसले का देश और प्रदेश दोनों की राजनीति पर गहरा प्रभाव पड़ा।
अपने इलाज से वापसी के बाद एनटी रामाराव बदलाव इतने बड़े पैमाने पर हुआ राजनीतिक बदलाव देख कर बहुत गुस्सा हुए। उन्होंने इस फैसले को असंवैधानिक करार देते हुए इसका खूब विरोध किया। नतीजतन केंद्र सरकार को भी कुछ फैसले लेने पड़े। शंकर दयाल शर्मा आंध्र प्रदेश के राज्यपाल बनाए गए। इसके बाद उन्होंने राज्य की सत्ता दोबारा एनटी रामाराव को सौंपी।
अब चलते हैं कर्नाटक
राज्यपाल को आगे रखते हुए सरकार अस्थिर करने की अगली कहानी भी अस्सी के दशक की है। इस कहानी में भी कॉन्ग्रेस की भूमिका किसी से छुपी नहीं थी। साल 1983 में जनता पार्टी के रामकृष्ण हेगड़े राज्य के मुख्यमंत्री बने। कर्नाटक में पहली बार जनता पार्टी की सरकार चुन कर आई थी, इस सरकार ने अपने 5 साल पूरे किए और दोबारा सत्ता में आई।
इसके बाद आया टेलीफ़ोन टेपिंग मामला जिसकी वजह से रामकृष्ण हेगड़े को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा था। इसके बाद कर्नाटक के मुख्यमंत्री का पद सँभाला एस आर बोम्मई ने। उस वक्त राज्यपाल थे पी वेंकटसुबैया। अचानक एक दिन उन्होंने 1989 में सरकार को बर्ख़ास्त कर दिया। उनका कहना था कि सरकार के पास बहुमत नहीं है, मामला देश की सबसे बड़ी अदालत तक पहुँचा।
यहाँ बोम्मई जीते और सर्वोच्च न्यायालय ने उनके पक्ष में फैसला सुनाते हुए एक बड़ी बात कही। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा “सरकार के पास बहुमत नहीं है तो इसका निर्णय केवल विधानसभा सदन में हो सकता है।” इस आदेश के बाद कॉन्ग्रेस सरकार की भरपूर किरकिरी हुई और बोम्मई एक बार फिर राज्य के मुख्यमंत्री बने।
झारखंड की त्रिशंकु सरकार
इसके बाद आता है साल 2005 का सबसे चर्चित मामला। जिसमें राज्यपाल द्वारा लिए गए फ़ैसलों से कॉन्ग्रेस सरकार की जमकर किरकिरी हुई थी। झारखंड में त्रिशंकु विधानसभा बनी, उस वक्त झारखंड के राज्यपाल थे सैयद सिब्ते रज़ी। उन्होंने शिबू सोरेन के नेतृत्व वाली त्रिशंकु सरकार को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई। जल्दी-जल्दी में लिए गए इस फैसले की सभी ने भारी कीमत चुकाई, शिबू सोरेन बहुमत साबित नहीं कर पाए। जिसकी वजह से उन्हें 9 दिन के भीतर ही पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा। इस फैसले की भी पूरे देश में आलोचना हुई, यूपीए सरकार पर खूब आरोप लगे। इसके बाद एनडीए ने सरकार बनाने का दवा पेश किया, अंत में अर्जुन मुंडा की अगुवाई में झारखंड के भीतर एनडीए ने सरकार बनाई।
साल 2009, एक बार फिर कर्नाटक
इस तरह का एक और मौक़ा देखने को मिला था साल 2009 में। कॉन्ग्रेस की सरकार में मंत्री रह चुके हंसराज भारद्वाज को कर्नाटक का राज्यपाल बनाया गया। उन्होंने अपनी पूर्व पार्टी के प्रति पूरी निष्ठा दिखाते हुए तत्कालीन भाजपा सरकार को बर्ख़ास्त कर दिया था। इस निर्णय की भी पूरे देश में आलोचना हुई, उस वक्त बीएस येदुरप्पा राज्य के मुख्यमंत्री थे। संवैधानिक पद पर बैठे हंसराज राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप पर उतर आए। उन्होंने भाजपा सरकार पर गलत तरीके से सत्ता हासिल करने का आरोप लगाया था।