वैसे तो अभी राजनीति की प्रयोगशाला कहलाने वाले बिहार में चुनाव हैं, लेकिन कॉन्ग्रेस के वादों की राजनीति फ़िलहाल उत्तर प्रदेश में चल रही है। ऐसा नहीं है कि राहुल-प्रियंका ने जो शुरू किया है, वो कोई पहली घटना है। ऐसी परंपरा कॉन्ग्रेसी परिवार में राहुल-प्रियंका की दादी के दौर से ही चलती आ रही है।
इसे याद करना हो तो इंदिरा गाँधी के दौर यानी 1980 के वक्त की यूपी की राजनीति को याद करना होगा। उस समय वहाँ जनता पार्टी की सरकार थी और मुख्यमंत्री बनारसी दास हुआ करते थे।
कुशीनगर जनपद, देवरिया जिले का हिस्सा था और यहीं नारायणपुर गाँव में बसकाली नाम की एक स्त्री अपने 8 साल के पोते जयप्रकाश और 6 साल की पोती सोनकलिया के साथ रहती थी। इन बच्चों के पिता की मृत्यु हो चुकी थी और इनकी माता बच्चों को दादी के पास छोड़कर जा चुकी थी।
जैसे-तैसे गरीबी में जीवनयापन करते इस परिवार का दुर्भाग्य ने अभी पीछा नहीं छोड़ा था। एक दिन बस से कुचले जाने से बसकाली की मौत हो गई और दोनों बच्चे अनाथ रह गए। ग्रामीणों ने जब परिवार की ऐसी दुर्दशा देखी तो कम से कम सरकार से कुछ मुआवजा ही मिल जाए, इस माँग के साथ हाटा-कप्तानपुर मार्ग को जाम करके बैठ गए।
जाम हटवाने के लिए ग्रामीणों पर लाठी चार्ज हुआ और गाँव में पीएससी तैनात कर दी गई। कॉन्ग्रेस के लिए ये अच्छा अवसर था। ग्रामीणों पर हुई बर्बरता के लिए अख़बारों के पन्ने रंगे जाने लगे। नारायणपुर काण्ड के नाम से विख्यात हुई ये घटना चुनावी मुद्दा बन गई। इसके असर से बनारसी दास की सरकार 17 फ़रवरी 1980 को बर्खास्त कर दी गई। इसी हलचल के दौरान इंदिरा गाँधी नारायणपुर पहुँच गई।
ग्रामीणों को सांत्वना देते हुए उन्होंने वादा किया कि अनाथ हो चुके बच्चों को वो गोद लेंगी और उनकी शिक्षा इत्यादि का इंतजाम किया जाएगा। खूब तालियाँ बजीं। कुल 113 दिनों के राष्ट्रपति शासन के बाद राज्य में कॉन्ग्रेस की सरकार बनी और राजा मांडा, यानी वीपी सिंह मुख्यमंत्री हुए। बोफोर्स घोटालों का आरोप राजीव गाँधी पर लगाने से पहले वो कॉन्ग्रेसी ही थे।
सरकार बनने के बाद कॉन्ग्रेसी सरकार बहादुर को वादे कहाँ याद रहते? इंदिरा गाँधी भी अपना वादा भूल गई। अनाथ बच्चे जैसे-तैसे पलते रहे। उनकी जमीनें लोगों ने हथिया ली। थोड़े साल बाद दोनों बच्चों में से एक जयप्रकाश की डूबने से मौत हो गई।
सोनकलिया अभी भी जीवित है। वो अपने परिवार के साथ एक झोपड़े में, गरीबी में ही जीवन बिताती है। इंदिरा गाँधी या उसके बाद के कॉन्ग्रेसी नेताओं में से किसी ने जीतने के बाद उसे मुआवजा दिलवाने या उसकी कोई मदद करना जरूरी नहीं समझा। गिद्धों के झुण्ड की तरह वो लाश नोंचने के बाद अगले शिकार की तलाश में उड़ चुके थे।
हाल का हाथरस कांड देखकर भी नेताओं के वादे और उनका टूटना याद आता है। जनभावनाओं को सुलगाने और दूसरी सभी ऐसी घटनाएँ (जिनमें से कुछ तो कॉन्ग्रेस शासित राज्यों में हुई हैं) उन्हें भुलाकर, किसी एक घटना को राष्ट्रीय स्तर की बहस और विपक्ष की सरकार द्वारा जनता का शोषण बताना कॉन्ग्रेस की पुरानी परंपरा रही है। बाकी उनके किए वादे कितनी जल्दी टूटते हैं, ये तो बिहार चुनावों के बीतने तक दिख ही जाएगा!