मीडिया हिप्पोक्रेसी आखिर क्या है? इसका जवाब आपको इन दिनों सोशल मीडिया पर बहुत अच्छे से देखने को मिलेगा। बकरीद आ रही है और हर वामपंथी अपनी गंगा-जमुनी तहजीब की आड़ लेकर यहाँ पर एक अलग ही स्तर की लड़ाई लड़ रहा है।
ये लड़ाई उन लोगों के ख़िलाफ़ है जो बकरीद को लेकर सवाल उठाते हैं। ये लड़ाई उन लोगों के ख़िलाफ़ है जो बकरीद के मौके पर कुर्बानी की जगह कोई सवाब का काम करने को कहते हैं। ये लड़ाई उन लोगों के भी खिलाफ है जो सोचते हैं कि उनके अपील करते रहने से एक दिन कट्टरपंथियों का हृदय परिवर्तन हो जाएगा और वह इस त्योहार को मनाने के लिए कोई अन्य तरीका ढूँढ निकालेंगे।
पिछले कुछ समय से बकरीद ट्विटर पर एक बड़ी चर्चा का विषय रहा है। कई लोगों ने इस पर ट्वीट किया है। इनमें कुछ ऐसे बुद्धिजीवि हैं जिन्होंने कुर्बानी न करने की माँग को हिंदुत्व की माँग बता दिया। कुछ ऐसे भी हैं जिन्होंने बिना कुछ कहे ये दर्शा दिया कि इस देश में मुस्लिम समुदाय को उनका त्योहार शांति से मनाने ही नहीं दिया जाता।
हम बात कर रहे हैं रेडियो जगत के सुप्रसिद्ध नाम- आरजे सायमा की। आरजे सायमा, जो अपने शो में अक्सर हमें इंसानियत, हर किसी से प्रेम और एक-दूसरे की मदद करने की बातें कहानियों की जरिए अपनी मधुर आवाज में सुनाती हैं और जिनसे सैंकड़ों लोग प्रभावित होते हैं। उन्होंने ही ट्विटर पर बकरीद को लेकर लिखा है कि ये बहुत शर्मनाक बात है कि एक समुदाय के लोगों को उनका त्योहार शांति से नहीं मनाने दिया जा रहा।
हाँ-हाँ! आप इस बात को हास्यास्पद समझ सकते हैं कि सायमा जैसा इंसान इन दिनों बकरीद के त्योहार को ‘शांति’ से मनाने देने की अपील कर रहा है। शायद, शांति शब्द का इस्तेमाल करते हुए वह यहाँ पर सिर्फ़ इंसानी जुबान पर लगाम की गुहार लगा रही है। उनकी अपील से ऐसा बिलकुल नहीं लगता कि उनका पशुओं की चीखों से कोई सरोकार है।
वे लिखती हैं,”ये बहुत शर्मनाक है कि आप एक समुदाय को उनका त्योहार शांति, खुशी और उल्लास के साथ मनाने देना नहीं चाहते। मैं इसको कोई तूल नहीं देती। ये मजाक तुम पर नहीं है। तुम ही मजाक हो।”
It’s shameful that you don’t let a community celebrate a festival in peace, with joy and happiness! And I give a s*** about your trolling. The joke is not on you, YOU are the joke. #Baqreed
— Sayema (@_sayema) July 26, 2020
अब सायमा के इस ट्वीट पर कई प्रतिक्रियाएँ आईं हैं। कुछ कट्टरपंथियों की। तो कुछ ऐसे लोगों की जो बकरीद पर कुर्बानी रोकने की गुहार लगा रहे हैं, लेकिन सायमा की मधुर आवाज के भी फैन हैं। एक यूजर उन्हें लिखता है, “सायमा मैं तुम्हारा प्रशंसक रहा हूँ। तुम रेडियो पर श्रेष्ठ से भी ऊपर हो। लेकिन तुम्हारे समुदाय के लोग जैसे एकतरफा ट्वीट करते हैं ये बेहद निराशाजनक है। कोई तुम्हें तुम्हारा त्योहार मनाने से नहीं रोक रहा। इसलिए चिल्लाना बंद करो।”
आरजे सायमा इसी ट्वीट के जवाब में लिखती हैं कि जब आप सोशल मीडिया पर #Bakralivesmatter जैसा हैशटैग हर रोज देखते हैं तो ये निश्चित तौर पर चिंता का विषय हो जाता है।
जिस हैशटैग का हवाला देते हुए आरजे सायमा अपने ट्वीट को जस्टिफाई कर रही हैं, उसमें ऐसा क्या है? उस हैशटैग में लोग कुर्बानी के बिना बकरीद मनाने की अपील कर रहे हैं। या ये बता रहे हैं कि हर साल एक त्योहार के नाम पर कितने बकरे काट दिए जा रहे हैं। लेकिन पेटा जैसा कोई संगठन इसके लिए आवाज नहीं उठा रहा और कट्टरपंथी भी नहीं सुधर रहे।
इस हैशटैग के अंतर्गत कुछ लोग मार्मिक तस्वीरें शेयर कर रहे हैं जिसमें माँ और बच्चे के जरिए ये समझाने की कोशिश हो रही हैं कि पशुओं के भीतर भावनाएँ होती है, वो भी मातृत्व प्रेम समझते हैं… आखिर इसमें गलत क्या है? सायमा भी तो अपने शो में यही सब संदेश देती हैं। फिर उन्हें इस हैशटैग से क्या दिक्कत है। क्या समझ लिया जाए कि जो बातें वो सिखाती हैं वो सिर्फ़ आम दिनों में खुद के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए होती हैं। या फिर ये समझ लिया जाए कि आरजे सायमा की सोच भी कट्टरपंथियों की सोच से इतर नही है।
If hypocrisy had another name..it wud be @_sayema pic.twitter.com/k4nn8SkH12
— Sidharth (@sidharth98) July 26, 2020
आखिर हैशटैग में दिक्कत क्या है। जिन्हें लगता है कुर्बानी गलत है वो केवल प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल कर अपनी राय ही तो रख रहे हैं। मानना है मानिए नहीं मानना मत मानिए। अपने पाखंडी रवैये की पोल तो मत खोलिए।
जो इवन डेज में आपको दिवाली-होली पर पॉल्यूशन और पानी पर ज्ञान देने के लिए उकसाता है, जबकि ऑड दिनों में ये कहलवाता है कि बकरीद को शांति से मनाने दिया जाए। दिवाली पर सायमा जैसों को फौरन उन लोगों की चिंता सता जाती है जिन्हें धुएँ से परेशानी होती है। क्या उनका विवेक उन्हें उन लोगों के लिए आवाज उठाने को नहीं बोलता जिन्हें खून से भरी नालियाँ देखकर घबराहट शुरू हो सकती हैं।
भगवान के नाम पर या बीमारों का ख्याल करते हुए हिंदू मुमकिन है एक दिन बिलकुल पटाखे जलाना छोड़ दें। लेकिन क्या यही अपेक्षा या ऐसा ही त्याग दूसरे समुदाय के लोगों से हिन्दू कर सकते हैं? खुद सोचिए, क्या शरीर से निकाला गया खून शांति का प्रतीक होता है? नहीं। उसे हिंसा का चिह्न ही मानते हैं। फिर आप उसे युद्ध के नाम पर बहाइए या फिर त्योहार के नाम पर।
आज ये बात भी हम मानते हैं कि आम दिनों में लोगों ने इसे अपना स्वाद बना लिया है। फिर चाहे वो हिंदू हो या कोई पंडित। इसके लिए अलग से टिप्पणी करने की आवश्यकता नहीं है या वीडियोज और तथ्य डालकर प्रमाण देने की जरूरत नहीं है।
हम ये बात जानते हैं कि हिंदुओं में भी अधिकाँश लोग मांसाहारी भोजन खाते हैं। लेकिन हमें ये भी पता है कि इसके पीछे क्या कारण है। वो त्योहार के नाम पर इतनी बर्बरता नहीं दिखाते। आज #bakralivesmatter हैशटैग में कई वीडियोज, कई तथ्य, कई स्क्रीनशॉट आपको ऐसे देखने को मिलेंगे, जो ये साबित करने के लिए डाले जा रहे हैं कि जो खुद मांसाहार खाते हैं वो बकरीद पर भावुक होकर सिर्फ़ इस्लाम को ट्रोल कर रहे हैं।
लेकिन, ये बात समझने की आवश्यकता है कि आम दिनों में मांसाहार खाने वाले लोगों के पीछे भौगोलिक परिस्थितियाँ, इतिहास में अदला-बदली की गई संस्कृतियाँ या फिर आर्थिक मजबूरियाँ उत्तरदायी होती हैं। हाँ! आज के परिप्रेक्ष्य में ये सारा मामला व्यापार और स्टेटस पर जरूर आ टिका है। मगर, क्या कभी किसी ने सुना है कि कोई हिंदू इस तरह के तर्क दे रहा हो कि उसने कई सैकड़ों पशुओं को इसलिए काट दिया क्योंकि उसे गरीबों को भोजन देना था? शायद कभी नहीं। क्योंकि जो आर्थिक रूप से मजबूत इंसान है वो किसी का पेट भरकर पुण्य कमाने के लिए ऐसी हिंसा को विकल्प ही नहीं मानता।
आरजे सायमा या फिर उनके अन्य कट्टरपंथी समर्थकों को हम किसी भी रूप में मांसाहारी भोजन करने से नहीं रोक रहे। हमारा ये उद्देश्य बिलकुल भी नहीं हैं। हमें मालूम है देश की अर्थव्यवस्था में मीट का निर्यात एक महत्वपूर्ण कारक है। हम ये भी मानते हैं कि आखिर इंसान की प्रवृति यही है कि जो गले से नीचे उतर जाए और पेट में जाकर पच जाए वही उसे मील लगने लगता है, तो फिर वह सेवन क्यों न करे।
लेकिन, हम ये जरूर पूछते हैं कि किसी त्योहार के नाम पर करोड़ों पशुओं का एक साथ मारना कहाँ तक उचित है? कहाँ तक उचित है पूरे साल बच्चों को इंसानियत के नाम पर ढकोसलों से भरी बातें सिखाना और एक दिन छूरी लेकर उन्हें ये दिखाना कि एक चलता-फिरता जीव त्योहार के नाम पर काटा जा सकता है… इसमें कुछ गलत नहीं है। क्या औचित्य है ऐसी धारणाओं का जो हमारे भीतर ऐसी मानसिकता पैदा करे कि एक जीव को मारकर दूसरे जीव का पेट भरा जाएगा?
आरजे सायमा को त्योहार पर शांति चाहिए ताकि वे इसे खुशी से मना पाएँ। हम पूछते हैं क्या उन्हें किसी ने रोका है। खुद सोचिए अगर आज पूरी दुनिया इस त्योहार पर दी जाने वाली कुर्बानी के विरोध पर आ खड़ा हो और कोई कानून या फरमान निकाला जाए, तब भी तो एक तबका ऐसा होगा जो अपने अस्तित्व का खतरा बताकर आजादी माँगने लगेगा। शाहीन बाग ऐसे निराधार बातों पर हुए प्रदर्शनों का सबसे हालिया उदहारण है ही।