फरवरी के दौरान दिल्ली में हुआ, अगस्त में ठीक वही बेंगलुरु में हुआ। 11 अगस्त की रात जब बेंगलुरु जल रहा था तब भारत की धर्म निरपेक्ष आबादी उर्दू शायर को याद कर रही थी। निशाने पर था कॉन्ग्रेस विधायक। इस पार्टी ने सालों मेहनत करके धर्म निरपेक्ष आबादी से जो रिश्ता बनाया था। वह पल भर में समाप्त हो गया। वह भी एक किसी ऐसी चीज़ के लिए जो उन्होंने (कॉन्ग्रेस विधायक) ने की भी नहीं। लेकिन भीड़ के लिए उससे मिलता-जुलता ही बहुत है।
सच्चाई यही है कि भीड़ के लिए एक नास्तिक किसी दूसरे की तुलना में कहीं बेहतर है। आखिर यह कहाँ तक जा सकता है? लेकिन दूसरों के अपराध की सज़ा एक नास्तिक को देने के लिए किस दर्जे तक टकराव की ज़रूरत है। बेंगलुरु यह बहुत अच्छे से जानता है लेकिन शायद बेंगलुरु को यह याद नहीं है। बात साल 2007 की है जब सद्दाम हुसैन को फाँसी दी जाने वाली थी। सद्दाम हुसैन एक निर्दयी तानाशाह, जिसे मानवता पर किए गए अपराधों की सज़ा मिलने वाली थी।
लेकिन उस इलाके में और भी कई निर्दयी तानाशाह हैं (कभी सोचा है क्यों?)
खैर आप ईराक युद्ध और सद्दाम हुसैन की फाँसी के बारे में कुछ भी सोचते हों। लेकिन मेरा ऐसा मानना है कि हम एक बात से ज़रूर सहमत हो सकते हैं। भारत वहाँ पर हुए विवादों के बाद बने हालातों के लिए किसी भी सूरत में ज़िम्मेदार नहीं था। कम से कम बेंगलुरु के आम लोगों को छोड़ कर। लेकिन फिर भी बेंगलुरु की सड़कों पर कुछ लोग उतरे और उन्होंने सद्दाम हुसैन की फाँसी का विरोध किया। विरोध में निकाली गई इस रैली के मुखिया थे कॉन्ग्रेस नेता और पूर्व मंत्री सीके शरीफ़। बहुत जल्द रैली में शामिल भीड़ हिंसक हुई, उनका पुलिस से टकराव हुआ। दुकानें और गाड़ियाँ जलाई जाने लगीं।
अब कुछ सुना-सुना सा लग रहा होगा?
अब कुछ रोचक सा सामने आया है। यह लेख लिखने से पहले मैंने उस घटना के बारे में पुख्ता होने के लिए गूगल पर खोजबीन की। यह बहुत मुश्किल नहीं होना चाहिए ना? एक मेट्रोपोलिटन शहर में हुए दंगों के बारे में जानकारी मिलना कैसे मुश्किल हो सकता है। सही तो है? जी नहीं! बिलकुल गलत है। मेरी हैरानी की कल्पना करिए जब मैंने उस घटना के बारे में गूगल पर खोजने की कोशिश की।
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यह रिपोर्ट The Reuters द्वारा 21 जनवरी 2007 को प्रकाशित की गई थी। जिसमें घटना के बारे में कुछ इस तरह जानकारी दी गई है। “हिंसा की घटना तब हुई जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता प्रदर्शन करने के लिए आगे आए।” इसके बाद संप्रदाय विशेष की दुकानों को एक-एक करके निशाना बनाया गया। रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि हिंसा की घटनाएँ इसलिए भी बढ़ी क्योंकि राज्य में भारतीय जनता पार्टी और एक स्थानीय राजनीतिक दल का प्रभाव है।
इस कवरेज की शैली और व्याख्या का एक दशक से ज़्यादा का समय गुज़र जाने के बाद भी नहीं बदली। The Reuters की रिपोर्ट के भीतर यह भी बताया गया था कि 21 जनवरी की हिंसा के पहले क्या हुआ था। रिपोर्ट में यह लिखा था, “शुक्रवार को सद्दाम हुसैन की फाँसी के विरोध में संप्रदाय विशेष के हज़ारों प्रदर्शनकारी इकट्ठा हुए। उनका पुलिस से टकराव हुआ और उसके बाद शहर की दुकानें और वाहन जला दिए गए।”
लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद 19 जनवरी को प्रकाशित उस रिपोर्ट में “संप्रदाय विशेष के कार्यकर्ताओं” को आरोपित बताने वाला शीर्षक नहीं नज़र आया। यहाँ तक कि 19 जनवरी के दिन हुई उस घटना की कोई स्पष्ट रिपोर्ट तक नहीं नज़र आई। इसके अलावा किसी दिग्गज मीडिया समूह ने भी 19 जनवरी की घटना पर कोई रिपोर्ट तैयार नहीं की थी। जबकि इस घटना में कॉन्ग्रेस नेता सीके शरीफ़ का नाम सामने आया था। मुझे अपनी याद्दाश्त और ज़हन पर शक था फिर भी मैंने गूगल पर खोजबीन करना जारी रखा। अंततः Daijiworld नाम की वेबसाइट पर 19 जनवरी साल 2007 की घटना की जानकारी मिली।
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देश के इतने बड़े शहर में हुई घटना के बारे में केवल इतनी ही जानकारी मिली। जिसके अंत में लिखा था ‘अभी और जानकारी मिलना बाकी है’। बेंगलुरु में हुई हिंसा के बारे में इंटरनेट पर इससे ज़्यादा कुछ और मौजूद नहीं है। अगर आपको इस बारे में गूगल पर कुछ मिले तो ज़रूर बताइए। शैली लगभग एक जैसी ही थी। जिन मीडिया समूहों ने जनवरी 2007 के दौरान हुई हिंसा की घटना पर रिपोर्ट प्रकाशित की है। उन्होंने भी इसके लिए हिंदू कार्यकर्ताओं को ज़िम्मेदार ठहराया है।
The Reuters की रिपोर्ट में अक्सर शुरुआत करने वाले को छिपा दिया जाता है। फ्रंटलाइन में प्रकाशित इस रिपोर्ट में साफ़ देखा जा सकता है कि भारतीय जनता पार्टी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ताओं की तस्वीर लगाई गई है। इसके अलावा उन्हें ही हिंसा के लिए ज़िम्मेदार ठहराया गया है। इस लेख के भीतर कहीं छिपा कर लिखा गया है “19 जनवरी को हिंसा की पहली घटना हुई। जब पूर्व कॉन्ग्रेस नेता सीके शरीफ़ ने सद्दाम हुसैन की फाँसी का विरोध करने के लिए भीड़ एकत्रित की।
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ठीक इससे मिलती जुलती रिपोर्ट द टेलीग्राफ ने भी प्रकाशित की।
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अब सवाल यह उठता है कि 19 जनवरी को हुई हिंसा की सीधी कवरेज कहाँ है? अगर यह आपको मिलती है तो मैं उसे ज़रूर पढ़ना पसंद करूँगा। क्या भारतीय मीडिया ऐसी घटनाओं पर रिपोर्ट करने के पहले “हिंदू एंगल” खोजती है। असल मायनों में यही है धर्म निरपेक्षता कि हिंदुओं को चिल्ला-चिल्ला कर दोषी ठहराओ। अगर संप्रदाय विशेष के किसी व्यक्ति ने कुछ गलत किया है तब दोनों समुदायों को दोषी कहो। ऐसा करके लोग अपनी रिपोर्टिंग चमकाते रहते हैं। उसके बाद धीरे-धीरे लोग ऐसी घटनाओं का एक पहलू भूल ही जाएँगे।
ऐसा सिर्फ भारत की छोटी बड़ी घटनाओं के मामले में नहीं होता है। न्यूयॉर्क टाइम्स की एलेन बैरी का ट्वीट देखा जा सकता है।
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ठीक ऐसे ही एनसीईआरटी ने गोधरा में जलाए गए 59 हिंदुओं की घटना का उल्लेख ही ख़त्म कर दिया है। इसके बाद वह सीधे साल 2002 में हुए गुजरात दंगों का ज़िक्र करते हैं जिसे वह “संप्रदाय विशेष विरोधी दंगा” बताते हैं। यह प्रचार इतना प्रभावी था कि न्यूयॉर्क टाइम की पत्रकार ने मोदी सरकार पर इस घटना को छिपाने का आरोप लगा दिया। वहीं एनसीईआरटी ने इसका ज़िक्र “गुजरात दंगों” के नाम से किया है।
क्या आपको ऐसा लगता है कि इस तरह की करतूत सोशल मीडिया के दौर में नहीं की जा सकती है? फिर से सोचिए, दिल्ली दंगों के बारे में याद करिए। जहाँ एक तरफ दक्षिणपंथी विचारधारा के लोग सोशल मीडिया पर बहस में उलझे हुए थे। वहीं दूसरी तरह वामपंथी मानसिकता के लोग विकिपीडिया पर इस बारे में एक लेख साझा करने की तैयारी में होंगे। जिसमें दंगे और हिंसा के लिए हिंदुओं को दोषी ठहरा रहे होंगे।
आज से ठीक 10 साल बाद सोशल मीडिया पर उठा यह गुस्सा लगभग सभी भूल जाएँगे। लोगों को 11 अगस्त 2020 को क्या हुआ था इस बारे में सही जानकारी इकट्ठा करने के लिए अच्छी भली मेहनत करनी पड़ेगी। उसके बावजूद सही नतीजे मिले या न मिलें इसका कुछ भरोसा नहीं। ठीक वैसे ही जैसे मुझे साल 2007 की बेंगलुरु में हुई घटना के बारे में जानने के लिए संघर्ष करना पड़ा।
यह अभी से ही शुरू भी हो गया है। बेंगलुरु हिंसा से संबंधित रिपोर्ट्स को धुँधला करना शुरू कर दिया गया है। यह तभी से ही शुरू हो गया था जब तमाम मीडिया समूहों ने मानव शृंखला बना कर मंदिर को बचाने वाली घटना का महिमामंडन करना शुरू कर दिया। यह एक रिपोर्ट में जिसमें पत्रकारों पर दंगाइयों और पुलिस कर्मियों द्वारा हमले की बात कही गई है। इसके अलावा एक और रिपोर्ट है जिसमें कॉन्ग्रेस नेता के प्रति लोगों का गुस्सा दिखाया गया है। घटना को दो दिन भी नहीं हुए हैं और झूठी नैरेटिव फैलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है। सोच कर देखिये आज से 10 साल बाद बेंगलुरु में हुए दंगों को हमारे सामने किस तरह पेश किया जाएगा।