हाल ही में दिल्ली पुलिस द्वारा कन्हैया कुमार पर देशद्रोह मामले में चार्जशीट दाख़िल की गई है। ये मामला 2016 का है, जब जेएनयू में कन्हैया कुमार के नेतृत्व में “भारत तेरे टुकडे होंगे” जैसी नारेबाज़ी की गई थी।
इस मामले के तूल पकड़ने पर जेएनयू समेत देश भर में माहौल गरमा गया था। ये लाज़मी था, आखिर देश के इतने प्रतिष्ठित शैक्षिक संस्थान में जहाँ हर साल कई पीएचडीधारी बुद्धिजीवी निकलते हैं, वहाँ ऐसी घटना का होना बिल्कुल भी अपेक्षित नहीं था। विचारधाराओं पर बहस अपनी धरातल पर ठीक है, लेकिन देशविरोधी नारेबाज़ी करना किसी भी राष्ट्रवादी व्यक्ति की भावनाओं को ठेस पहुँचाना है।
इस मामले पर जब कन्हैया कुमार की गिरफ़्तारी हुई तो जेएनयू में जैसे हड़कंप मच गया, वहाँ के छात्र क्लासरूम छोड़कर धरने पर बैठ गए। इन लोगों को कई विपक्षी दल के नेताओं का समर्थन मिला, जिनमें राहुल गाँधी का नाम शामिल था, राहुल इन धरने पर बैठे लोगों के समर्थन में जेएनयू भी पहुँचे थे। लेकिन, अब हैरान करने वाली बात ये है कि कन्हैया समेत सभी आरोपितों के ख़िलाफ़ चार्जशीट आने के बाद राहुल की किसी भी प्रकार की कोई प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिली है।
राहुल के इस चुप्पी पर सवाल ये उठता है, जब 2016 मे वो जेएनयू की भीड़ से मिलने पहुँचे थे, तो अब आरोपितों के प्रति उनकी सहानुभूति कहाँ चली गई? ऐसा भी नहीं है कि जिस दिन जेएनयू मामले पर चार्जशीट दायर की गई, उस दिन वो सोशल मीडिया पर एक्टिव न हुए हों। 14 जनवरी को उन्होंने पूरे देश को पोंगल के त्यौहार की शुभकामनाएँ भी दी और साथ ही में उन्होंने प्रधानमंत्री को कोटलर अवार्ड को लेकर प्रधानमंत्री पर तंज भी कसा।
लेकिन जेएनयू मामले पर उनका किसी भी प्रकार का कोई बयान सामने नहीं आया हैं, अब इसे लोकसभा चुनावों का असर भी कहा जा सकता है और राहुल के अवसरवादी होने का सबूत भी। कोई पार्टी या कोई नेता जिसके लिए कुर्सी से बढ़कर कुछ भी न हो, वो अपनी ज़मीन तैयार करने के लिए बिना सोचे-समझे किसी के भी समर्थन में खड़ा तो हो जाता है, लेकिन चुनावों के आते ही उन्हीं मामलों पर चुप्पी साध लेता है, ताकि किसी भूल से मतदाताओं की सोच पर नकारात्मक असर न पड़े।