भारत में मुगलों को महान साबित करने के लिए वामपंथियों ने भारत के पूरे ताने-बाने को ही उधेड़ कर रख दिया। ये वामपंथी दरअसल, कौन थे/हैं और किस उद्देश्य से ऐसा करते रहे, ये अलग शोध का विषय है। इन वामपंथियों ने भारतीय खानपान से लेकर वास्तुकला तक को इस तरह पेश किया, जैसे मुगल भारत में नहीं आते तो 21वीं सदी में भी यहाँ के लोग जंगली की भाँति जीवन जी रहे होते।
पिछले दिनों ट्विटर पर किसी ब्लॉगर का एक वीडियो वायरल हो रहा था, जिसमें वह महिला अमृतसरी कुलचे बारे में बता रही थी। वीडियो में महिला कह रही है कि कुलचे मुगलों के समय से है और शाहजहाँ को यह इतना पसंद था कि उसने अपने खानसामे को कहा था कि उसे नाश्ते और खाने में कुलचे ही दिए जाएँ।
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— Savitri Mumukshu – सावित्री मुमुक्षु (@MumukshuSavitri) July 21, 2022
Hindus have been enjoying stuffed Parathas centuries before the Mughals existed. The Manasollasa by Chalukya King Someshvara 3 (r. 1127-1138) calls them Mandakas, where wheat flour & ghee dough balls, were stuffed, rolled out, & then baked on live charcoal or in a clay pan. https://t.co/tH1ybpDZXp pic.twitter.com/V3k3dizaD8
इसी तरह अकबर को अकबर को खुश करने के लिए कुल्फी बनाया गया था। ये किसी इतिहासकार ने नहीं बताया कि अकबर कुल्फी से खुश होगा, ये किस खामसामे को कैसे पता चला। आधुनिक दरबारी इतिहासकारों ने यहाँ तक लिख दिया है कि कुल्फी जमाने के लिए बर्फ को हिमाचल के चूर चंद्र धार (पता नहीं, ये कहाँ है। गूगल इसकी कोई जानकारी नहीं दे रहा।) से बर्फ मँगाए जाते थे और उसे लाने के लिए घुड़सवारों के बीच रेस रखी गई थी।
इसी तरह यह भी बताया जाता है कि 14वीं शताब्दी में मोहम्मद बिन तुगलक के शासन में समोसा भारत में आया। चूँकि इब्नबतूता को दरबार में खाने के दौरान समोसा परोसा गया तो उसने अपनी किताब में इसका जिक्र कर दिया। अब उसके किताब में जिक्र है तो वामपंथियों को लग गया कि यह मोहम्मद बिन तुगलक का ही खोजा हुआ होगा। इसी तरह पराँठे और ना जाने किन-किन चीजों को मुगलों का शोध और खोज बताकर प्रचारित किया गया।
वामपंथी इतिहासकारों ने मुगलों के प्रति आम भारतीय जनमानस में सहानुभूति पैदा के लिए यहाँ तक लिख दिया कि बाबर सोमवार, गुरुवार और शुक्रवार को नहीं पीता था। इन दिनों वह क्यों नहीं पीता था, इसका स्पष्ट वर्णन नहीं है। इसी तरह अकबर गंगाजल और जहाँगीर यमुना के पानी के बिना रह नहीं सकते थे। उनका खाना भी इन्हीं नदियों के पानी से बनता था।
हो सकता है कि ये बात सच हो, लेकिन इसके पीछे ये वजह नहीं हो सकती है कि इन्हें गंगा और यमुना से असीम प्रेम था। ये हो सकता है कि उस दौर में इन नदियों का पानी इतना निर्मल और स्वच्छ होता था कि वे इसका पीने के लिए इस्तेमाल करते होंगे। हिंदू धर्मशास्त्रों में तो इन नदियों के पानी में आयुर्वेदिक गुणों के कारण इन्हें माँ का दर्जा दिया गया है। इसका मतलब ये नहीं है कि मुगल भी उन्हें माँ की तरह मानते हुए इनसे प्रेम करते थे।
इसी तरह वामपंथियों ने भारत के लोगों के मन में ठूँस ठूँस कर घुसाया कि मुगल शासन में जो प्रशासनिक सुधार हुए, इसके कारण भारत उस दौर में प्रगति के पथ पर रहा। इसमें भी बंदोबस्ती के सिवाए कोई खास और महत्वपूर्ण सुधार नहीं देते। बंदोबस्ती और मालगुजारी भी अकबर के शासन में एक हिंदू टोडरमल द्वारा लागू की गई थी। टोडरमल पहले शेरशाह सूरी के अंतर्गत काम करता था और उसने शेरशाह के कहने पर वर्तमान पाकिस्तान में रोहतास किले का निर्माण कराया था। यह बिहार के रोहतासगढ़ किले का नकल था।
इसी तरह दिल्ली का लाल किला, आगरा का ताजमहल, हुमायूँ का मकबरा, कुतुब मीनार आदि का ऐसे प्रचार-प्रसार किया गया मानो इनके अलावा भारत में कोई धरोहर हैं ही नहीं। अगर भारत में कुछ देखने लायक है तो वो भी मुगलों की ही देन है। वामपंथियों ने मुगलों के स्थापत्य कला के नाम पर ऐसा स्वांग रचा कि लगा उसके आगे हर कला-कौशल फीका-फीका सा लगने लगा।
अगर हम UNESCO की विश्व धरोहरों की सूची में शामिल भारतीय सांस्कृतिक विरासतों की सूची देखें तो हकीकत का पता चल जाएगा। वर्तमान में सांस्कृतिक विरासत के अंतर्गत भारत के 40 धरोहरों को UNESCO ने सूचीबद्ध किया है, जिनमें सिर्फ 5 मुगलों के शासन काल में बने बताए जाते हैं। इनमें भी ताजमहल, कुतुब मीनार और लाल किला के निर्माण को लेकर विवाद है।
UNESCO में सूचीबद्ध मुगलों की कथित इन इमारतों में आगरा का किला, फतेहपुर सिकरी, हुमायूँ का मकबरा, लाल किला और ताजमहल शामिल है। बाकी सांस्कृतिक विरासत हिंदू और बौद्ध धर्मों से जुड़े हैं। इनमें से कुछ ऐसे हैं, जो ईसा के जन्म के पूर्व के भी बताए जाते हैं। वहीं, सैकड़ों हिंदू-बौद्ध-जैन विरासत और धरोहर ऐसे हैं, जिन्हें इस सूची शामिल कराने के लिए सरकार की ओर से कभी प्रयास ही नहीं हुआ।
वामपंथी और धूर्त इतिहासकारों ने मुगलों के गुणगान में एक से बढ़कर एक कहानियाँ रचीं, जिनका स्पष्ट एवं मान्य प्रमाण नहीं है। मुगलों को हिंदुओं के प्रति सहिष्णु और अकबर को महान तक बता दिया गया, जबकि अकबर के मेवाड़ हमले के दौरान 20 हजार आम लोगों का कत्ल हुआ और 10 हजार के करीब क्षत्रिय योद्धा मारे गए थे। इसी दौरान 10,000 हिंदू स्त्रियों को जौहर के लिए मजबूर होना पड़ा था। अकबर ने कहा था जो भी काफिर दिखे उसे मौत के घाट उतार दो।
मुगल शासन काल में धार्मिक अत्याचार, उत्पीड़न और जजिया कर से हिंदू त्राहिमाम कर रहे थे। उस दौरान प्राकृतिक आपदाओं के बारे में भी कई जगह वर्णन मिलता है, लेकिन कहीं भी यह जिक्र नहीं मिलता कि मुगल शासकों ने प्रजा को राहत देने के लिए कर में कटौती, नहरों-तालाबों का निर्माण किया हो। किसी तरह के रोजगार के अवसर उपलब्ध कराए जाने का भी उल्लेख नहीं है, जिससे प्रजा का भरण-पोषण हो सके।
जब 1660 ईस्वी के आसपास देश में भीषण अकाल पड़ा, उस वक्त महाराणा प्रताप के पोते और महाराणा अमर सिंह के बेटे महाराणा राज सिंह ने राजसमंद झील का निर्माण कराया था। इस तरह की प्राकृतिक आपदा से बचने के लिए तैयारी की गई और अकाल के दौरान लोगों को राजसमंद झील के निर्माण में काम देकर उनके पालन-पोषण का प्रबंध किया गया।
इसी तरह अंग्रेजों के शासन के दौरान अकालग्रस्त जोधपुर में उम्मेद पैलेस का निर्माण करवा कर लोगों को प्रत्यक्ष रोजगार दिया गया। मध्य प्रदेश के कोरिया जिले के राजा की कहानी भी कुछ ऐसी ही हैं, जिन्होंने दुर्भिक्ष के दिनों में महल का निर्माण शुरू कराया, ताकि लोगों को रोजगार मिल सके।
ऐसी अनेकों कहानियाँ और घटनाएँ हैं, जो वामपंथी और धूर्त इतिहासकारों के लिए महत्वपूर्ण नहीं हैं। उन्हें बस मुगलों का गुणगान करना था और वे इस गुणगान में इतना खोए कि देश की संस्कृति, विरासत, परंपरा, खानपान और पहनावा तक भूल गए और याद रहा तो सिर्फ मुगल और जो दिखा वो मुगलों का दिया हुआ। यही भारत के इतिहासकारों की कहानी है।