जब ट्वॉयलेट पेपर खत्म हो जाता है तो आप ढूँढते हैं कि वो कहाँ रखा हुआ है। इसी क्रम में जब स्क्रॉल वेबसाइट पर यह देखने पहुँचा कि क्या इन्होंने ममता बनर्जी के बंगाल में हो रहे चुनावी हिंसा पर कुछ लिखा है? तो, कुछ नहीं मिला।
आज हम समय के उसी मोड़ पर खड़े हैं जहाँ इस्लामी आक्रांताओं ने एक बार फिर रूप बदल लिया है, और गायों का झुंड हमारी तरफ छोड़ दिया है क्योंकि वो जानते हैं कि वाजपेयी जी की भाजपा इन गायों को प्रणाम कर के, उनके सींगों में झुनझुने बाँधने में व्यस्त हो जाती।
बीबीसी हिन्दी वालो, विकल्प है तुम्हारे पास: वेश्यावृति की ईमानदारी या पत्रकारिता के नाम पर वैचारिक दोगलापन, चुन लो। कारण जो भी हो, लेकिन जब आप वेश्यालय की ओर रुख़ करते हैं तो आपको पता होता है कि आपको वहाँ क्या मिलेगा। बीबीसी के साथ ऐसा नहीं है।
पूरा लेख रेटरिक यानी गाल बजाने जैसा है जिसमें वही पाँच साल पुरानी बातें हैं जिन्हें लिख कर भारत का छद्म-बुद्धिजीवी गिरोह भी बोर हो चुका है: मोदी नफरत फैलाता है, समाज को बाँट रहा है, सरकार पूर्णतः विफल रही है... ब्ला, ब्ला ब्ला...
ये मेरा ही तो रूप है जो बसों में उस पर गिर जाता है, जो गर्ल्स हॉस्टल की खिड़कियों की सीध में अपने लिंग पर हाथ फेरता है। वो मैं ही तो होता हूँ जो अपनी किसी जान-पहचान की बच्ची को चॉकलेट देकर कहीं ले जाता हूँ, और उसके साथ हैवानियत दिखाने के बाद उसकी हत्या भी कर देता हूँ।
ये चम्पक लेफ़्ट-लिबरल इको सिस्टम जितना चिल्ला ले कि मोदी ने तो कॉन्ग्रेस की योजनाओं का नाम बदल दिया, लेकिन सत्य यही है कि योजना का सिर्फ नाम ही नहीं बदला, उस पर काम भी किया, और करोड़ों ज़िंदगियों को उन छोटी सुविधाओं से छुआ, बेहतरी दी, जो साउथ और नॉर्थ ब्लॉक में बैठे लोगों के लिए नगण्य या इन्सिग्निफिकेंट थीं।
साल के दो दिनों को छोड़ दिया जाए, वो भी कॉन्ग्रेस के कार्यकाल के, तो राजीव गाँधी सिख हत्याकांड से लेकर, क्वात्रोची, एंडरसन, शाहबानो, रामजन्मभूमि, बोफ़ोर्स, भोपाल गैस कांड आदि के लिए हमेशा चर्चा में बने रहते हैं।
गाय की मौत पर इकट्ठा होने वाले संवेदनशील गाँव उस बच्चे को पहली ही बार बहकने पर, इकट्ठा होकर क्यों नहीं समझाने आया कि बेटा, हथियार मत उठाओ? तब आपके गाँव की संवेदना और नैतिकता कहाँ थी! और आप एक गाय को बीच में ले आते हैं? क्या गाय ने किसी पर ग्रेनेड फेंका था