Tuesday, November 19, 2024
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जिनकी रथ की धूल ने बदल दी राजनीति, जिनकी सांगठनिक अग्नि में तप कर निखरे नरेंद्र मोदी: 97 के हुए ‘भारत रत्न’ स्वयंसेवक

देश के पूर्व प्रधानमंत्री, भाजपा के पूर्व मुखिया और रामरथ यात्रा के नायक भारत रत्न लालकृष्ण आडवाणी शुक्रवार (8 नवम्बर, 2024) को 97 साल हो गए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उन्हें जन्मदिन की बधाई दी है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा है कि उनका यह जन्मदिन इस बार इसलिए विशेष हैं क्योंकि इसी साल उन्हें भारत रत्न दिया गया है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भारत के प्रमुख स्टेट्समेन में एक करार दिया है और कहा है कि उन्होंने देश के विकास के बड़ा योगदान दिया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ ही रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और बाकी नेताओं ने भी आडवाणी के जन्म दिन पर बधाई दी है।

लालकृष्ण आडवाणी भारत में राम मंदिर आंदोलन और भाजपा के प्रखर दक्षिणपंथी अवतार के लिए हमेशा ही जाने जाते रहेंगे। उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ मिलकर देश को कॉन्ग्रेस के अलावा एक राष्ट्रव्यापी मजबूत विकल्प दिया, जो कि वामपंथ जैसी विचारधारा 5 दशक में भी नहीं कर पाई थी।

लालकृष्ण आडवाणी का जीवन भी उत्तर चढ़ाव से भरा रहा है। वह अब उन कुछ गिने चुने नेताओं में से हैं जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया है और सावरकर तथा गाँधी जैसे महान लोगों के समय के साक्षी रहे हैं। लालकृष्ण आडवाणी के जीवन परिचय में फ़िल्में-किताबें, अध्यात्म और हिंदुत्व की राजनीति, सब कुछ रही है।

कराची में जन्म, अंग्रेजी शिक्षा, पड़ोसी पारसी

लालकृष्ण आडवाणी का जन्म 8 नवंबर, 1927 को सिंध (जो अब पाकिस्तान में है) के कराची शहर में हुआ था। उनके परिवार में उनके अलावा सिर्फ उनके माता-पिता और बहन ही थे। उनके जन्म के तुरंत बाद उनके परिवार ने जमशेद क्वार्टर्स (पारसी कॉलोनी) मोहल्ले में ‘लाल कॉटेज’ नाम का एकमंजिला बँगला बनवाया था। उसी मोहल्ले में कई समृद्ध पारसी समाज के लोग रहते थे।

सिंधी हिन्दुओं की आमिल शाखा से उनका परिवार ताल्लुक रखता था। आमिल समाज के बारे में बता दें कि ये लोग लोहानो वंश के 2 मुख्य भागों में से जुड़े थे जो वैश्य समुदाय से आते थे। मुस्लिम बादशाह भी अपने प्रशासकीय तंत्र में इनकी सहायता लेते थे।

ये लोग नानकपंथी होते थे और सिख धर्म से इनकी नजदीकी थी। आगे चल कर सिंध में सरकारी नौकरियों में भी इनका दबदबा रहा। लालकृष्ण के दादा धरमदास खूबचंद आडवाणी संस्कृत के विद्वान थे और एक सरकारी हाईस्कूल के प्रधानाध्यापक भी। उनके पिता किशिनचंद एक व्यापारी थे।

उनकी शिक्षा-दीक्षा ‘सेंट पैट्रिक्स हाईस्कूल फॉर बॉयज’ में हुई थी। एक ऐसे स्कूल में, जिसकी स्थापना सन् 1845 में आयरलैंड से आए कैथोलिक मिशनरियों ने की थी। वहाँ एक चर्च भी था। पाकिस्तान के राष्ट्रपति रहे परवेज मुशर्रफ भी उसी स्कूल से पढ़े थे। 1936-42 तक की अवधि लालकृष्ण आडवाणी के जीवन में इसी स्कूल में गुजरी। 

फिल्मों से प्रेम, किताबों का शौक

आपको ये जान कर सुखद आश्चर्य होगा कि लालकृष्ण आडवाणी बचपन में और युवावस्था में अंग्रेजी फ़िल्में देखा करते थे और खूब अंग्रेजी किताबें पढ़ते थे। सिनेमा और अंग्रेजी पुस्तकों से लालकृष्ण आडवाणी का लगाव उनके शुरुआती जीवन का एक विशेष हिस्सा है।

इसका जिक्र उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘मेरा देश, मेरा जीवन‘ में भी किया है। इसमें उन्होंने बताया है कि कैसे वो अपने 4 मामाओं में सबसे छोटे सुंदर मामा के साथ अक्सर फ़िल्में देखने निकल जाते थे। उन्होंने ‘फेंकेंस्टाइन’ नामक एक डरावनी फिल्म का जिक्र किया है, जो उन्होंने उस जमाने में देखी थी।

ये 1931 की एक हॉरर फिल्म थी, जिसे पेबी वेबलिंग के एक नाटक के आधार पर बनाई गई थी। ये नाटक मैरी शेली की 1818 में आए उपन्यास पर आधारित थी। इसी के नाम पर फिल्म का नाम भी रखा गया। ‘यूनिवर्सल स्टूइडियोज’ ने इस फिल्म का निर्माण किया, जिसके के रीमेक बन चुके हैं।

लालकृष्ण आडवाणी के जीवन में एक ऐसा समय भी आया जब उन्होंने 15 वर्षों तक 1942-56 के दौरान कोई फिल्म नहीं देखी। फिर वो जब मुंबई अपने सुंदर मामा के यहाँ गए तो उन्होंने ‘हाउस ऑफ वेक्स’ नामक फिल्म देखी। ये एक थ्रीडी फिल्म थी। ये भी एक मिस्ट्री हॉरर फिल्म थी।

लालकृष्ण आडवाणी का किताबों से प्रेम उनके कॉलेज पहुँचने के बाद चालू हुआ। आडवाणी ने 1942 हैदराबाद (पाकिस्तान) स्थित दयाराम गिदूमल कॉलेज में एडमिशन लिया। कॉलेज की लाइब्रेरी में वो पुस्तकें पढ़ने में समय व्यतीत करने लगे। उनकी रूचि विदेशी व्यवस्था में अधिक थी।

उन्होंने फ्रेंच लेखक जूल्स वर्न के सारे उपन्यास पढ़ डाले – ‘जर्नी टू द सेंटर ऑफ द अर्थ’, ‘ट्वेंटी थाउजेंड लीग्स अंडर द सी’, ‘अराउंड द वर्ल्ड इन 80 डेज’ इत्यादि किताबें पढ़ी हैं। इसके अलावा लालकृष्ण आडवाणी ने चार्ल्स डिकेंस का ‘अ टेल ऑफ टू सिटीज’ और एलेक्जेंडर ड्यूमा का ‘द थ्री मस्केटियर्स’ नामक उपन्यास भी पढ़ी थी। उनकी क्रिकेट में भी रूचि थी।

संघ ने बदली जीवन की दिशा

लालकृष्ण आडवाणी के राजनीति में आने की नीँव उसी दिन पड़ गई थी जब 14 वर्ष की आयु में ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) में शामिल हो गए थे। उनका RSS से जुड़ाव एक दोस्त के माध्यम से हुआ था। RSS के माध्यम से उनकी जान-पहचान पूर्णकालिक प्रांत प्रचारक राजपाल पुरी से हुई जो उनके मार्गदर्शन भी बने।

RSS में रहते हुए उन्हें द्विराष्ट्र वाले सिद्धांत के बारे में भी पता चला, जिसके तहत मुस्लिम नेता अपने लिए अलग इस्लामी मुल्क माँग रहे थे। विभाजन के बारे में सोच कर ही वो हैरान हो उठते थे। इसी दौरान उन्होंने छत्रपति शिवाजी महाराज, महाराणा प्रताप और गुरु गोविन्द सिंह के बारे में पुस्तकें पढ़ीं।

न लालकृष्ण आडवाणी ने राजपाल पुरी की सलाह के बाद वीर विनायक दामोदर सावरकर की 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम पर लिखी पुस्तक पढ़ी। नवंबर 1947 में ऐसा समय भी आया जब आडवणी सावरकर से उनके बम्बई स्थित आवास पर मिले और विभाजन को लेकर दोनों के बीच चर्चा हुई। RSS में रहते हुए ही उनका झुकाव लगातार राष्ट्रवाद की तरफ होता चला गया।

देश का बँटवारा और मुंबई में जीवन की फिर से शुरुआत

लालकृष्ण आडवाणी और उनका परिवार 1947 के बँटवारे में भारत चला आया। यहाँ वह मुंबई में आकर बसे। उनके पिता ने यहाँ फिर से व्यापार करना चालू किया जबकि आडवाणी इस दौरान संघ के कराची क्षेत्र के प्रचारक के तौर पर संगठन के काम में तल्लीन हो गए।

1947 से लेकर 1951 के के बीच लालकृष्ण आडवाणी राजस्थान के अलग-अलग हिस्सों में RSS का काम करते रहे। इसके बाद जब भारतीय जनसंघ की स्थापना हुई, तो वह उसके पहले कुछ सदस्यों में से एक थे। आडवाणी 1957 आते-आते पार्टी के महासचिव बन चुके थे और बाद में वह दिल्ली जनसंघ के अध्यक्ष भी बने।

इस दौरान उनकी नजदीकी अटल बिहारी वाजपेयी से बढ़ी। वह वाजपेयी और बाकी नेताओं को उनके संसदीय कामों में मदद करते थे। आडवाणी 1970 तक दिल्ली की राजनीति में सक्रिय रहे। वह यहाँ के स्थानीय निकाय के मुखिया भी रहे। 1970 में वह पहली बार दिल्ली से राज्यसभा पहुँचे। उन्हें इंदिरा गाँधी सरकार में आपातकाल के विरोध के चलते जेल में भी डाला गया।

1977 में जब देश में मोरारजी देसाई की जनता पार्टी की सरकार आई तो वह उसमें सूचना प्रसारण मामलों के कैबिनेट मंत्री बने। 1980 आते-आते जब स्पष्ट हो गया कि समाजवादी देश को कॉन्ग्रेस के सामने एक विकल्प नहीं दे सकते तो उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी के साथ मिल कर भाजपा की नीँव रखी।

RSS का प्रचारक बना हिंदुत्व का नायक

लालकृष्ण आडवाणी भाजपा के 1988 तक दो बार अध्यक्ष बन चुके थे। इसी दौरान देश में राम मंदिर आंदोलन तेज हो रहा था। अब तक सौम्य स्वभाव के माने जाने वाले लालकृष्ण आडवाणी ने इस मंदिर आंदोलन को समर्थन देने का फैसला लिया। उन्होंने इसके लिए रामरथ यात्रा का ऐलान किया।

यह यात्रा 25 सितम्बर को सोमनाथ से निकली थी और इसको अलग-अलग प्रदेशों से होते हुए 30 अक्टूबर, 1990 को अयोध्या पहुँचना था। उनका रामरथ जहाँ से गुजरता, उसकी धूल लोग माथे में लगाते। रथ के पीछे हिन्दुओं का रेला चलता। लोग एक ही बात रटते, “लाठी-गोली खाएँगे-मंदिर वहीं बनाएँगे।”

आडवाणी की इस रथ यात्रा का प्रभाव था कि पूरे देश से कारसेवक अयोध्या में जुटने लगे। कारसेवक इस बात पर अडिग थे कि मंदिर निर्माण तो होकर रहेगा चाहे तत्कालीन प्रदेश सरकार कितना भी जोर लगा ले। इसी कड़ी में 30 अक्टूबर, 1990 को अयोध्या में कारसेवकों पर गोली भी चली जिसमें कोठारी बन्धु समेत तमाम कारसेवक मारे गए।

एक कारसेवक ने मरते हुए अपने खून से सड़क पर ‘जय श्री राम’ लिखा। यात्रा शुरू होने के बाद एक ओर देश के करोड़ों हिन्दुओं की आस्था के सेवक आडवाणी खड़े थे तो दूसरी तरफ वीपी सिंह, मुलायम सिंह और लालू यादव जैसे नेता कैसे अधिकाधिक मुस्लिम वोट बटोरे जाएं इसके लिए आपस में ही होड़ कर रहे थे।

इस यात्रा को रोक कर बिहार के समस्तीपुर में लालू यादव ने रोक लिया। लालू यादव इस कदम के जरिए अपने आप को मुस्लिमों का मसीहा स्थापित करना चाहते थे। इसके साथ ही वह दिखाना चाहते थे कि वही एक ताकत हैं जो देश में हिंदुत्व के उभार को रोक सकते हैं।

रामरथ यात्रा ने मंदिर आंदोलन को घर-घर में बहस का मुद्दा बना दिया। आडवाणी को इस मामले में निर्विवाद तौर पर आंदोलन का राजनीतिक नेता मान लिया गया। आडवाणी ने भी बिना पीछे हटे हुए कहा कि मंदिर वहीं बनाएँगे, उसको कौन रोकेगा। उन्होंने साफ़ कर दिया कि देश की अदालतें तय नहीं करेंगी कि करोड़ों के आराध्य का जन्म कहाँ हुआ।

इस आंदोलन और रामरथ यात्रा के बाद देश की राजनीति में मार्क्सवाद, वामपंथ, समाजवाद, और कॉन्ग्रेस के अवसरवाद के बराबर में हिंदुत्व और दक्षिणपंथ का एक विकल्प खड़ा हो गया। आडवाणी ने इस हिंदुत्व को देश के पटल पर ऐसी शक्ति बना दिया जिसकी काट आज तक कॉन्ग्रेस जैसी पार्टियां नहीं खोज पाई।

उपप्रधानमंत्री, भारत रत्न और पार्टी का उदय

लालकृष्ण आडवाणी मात्र हिंदुत्व के नायक ही नहीं बल्कि देश की बड़ी राजनीतिक शख्सियतों में से भी एक हैं। आडवाणी देश के उप्रधानमंत्री रहे, गृह मंत्री रहे। भाजपा के अध्यक्ष रहे और साथ ही नरेन्द्र मोदी जैसे नेताओं को उनके ही सानिध्य में राजनीति की बारीकियाँ सीखने का मौक़ा मिला।

उनके सामने ही पार्टी अब तक 6 बार केंद्र में सत्तारूढ़ हो चुकी है। उनके ही सामने पार्टी का विस्तार 2 सीटों से लेकर 300 पार तक पहुँचा है। पार्टी गुजरात, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश जैसे हिंदी हार्टलैंड कहे जाने वाले राज्यों से निकल कर कर्नाटक और केरल जैसे राज्यों में विकल्प बनी है और उत्तर पूर्वी राज्यों में उसने कॉन्ग्रेस और वामदलों का सफाया कर दिया है।

AMU पर पैमाना सेट, पर ‘अल्पसंख्यक दर्जे’ पर फैसला सुप्रीम कोर्ट की नई बेंच करेगी: क्या है आर्टिकल 30A, विवाद कितना पुराना… जानिए सब कुछ

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) के अल्पसंख्यक दर्जे से संबंधित मामले में सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार (8 नवंबर) को 1967 में दिए अज़ीज़ बाशा बनाम भारत संघ के अपने फैसले को पलट दिया। इसमें कहा गया था कि क़ानून द्वारा बना कोई संस्थान अल्पसंख्यक संस्थान होने का दावा नहीं कर सकता। AMU अल्पसंख्यक संस्थान है या नहीं, इसका फैसला अब सुप्रीम कोर्ट की नियमित पीठ करेगी।

सुप्रीम कोर्ट के सात सदस्यीय संविधान पीठ ने यह फैसला 4:3 के बहुमत से सुनाया। इस पीठ की अध्यक्षता भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने की। पीठ में CJI चंद्रचूड़ के अलावा जस्टिस संजीव खन्ना, सूर्यकांत, जेबी पारदीवाला, दीपांकर दत्ता, मनोज मिश्रा और एससी शर्मा थे। जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस शर्मा की राय बहुमत से अलग थी।

अज़ीज़ बाशा मामले को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कोई संस्थान सिर्फ़ इसलिए अपना अल्पसंख्यक दर्जा नहीं खो देगा, क्योंकि उसे क़ानून द्वारा बनाया गया था। बहुमत ने कहा कि कोर्ट को यह जाँच करनी चाहिए कि विश्वविद्यालय की स्थापना किसने की और इसके पीछे ‘दिमाग’ किसका था।

सीजेआई के नेतृत्व वाली बहुमत ने कहा कि अगर वह जाँच अल्पसंख्यक समुदाय की ओर इशारा करती है तो संस्थान संविधान के अनुच्छेद 30 के अनुसार अल्पसंख्यक दर्जे का दावा कर सकता है। इस तथ्यात्मक निर्धारण के लिए संविधान पीठ ने मामले को एक नियमित पीठ को सौंप दिया। इस मामले में अब आगे की सुनवाई नियमित पीठ में होगी।

सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ इलाहाबाद हाई कोर्ट के साल 2006 के फैसले से उत्पन्न संदर्भ पर सुनवाई कर रही थी। उसमें कहा गया था कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है। सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने 1 फरवरी 2024 को इस मामले में अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। इससे पहले पीठ ने 8 दिनों तक इस मामले की सुनवाई की थी।

सुप्रीम कोर्ट के पीठ के बहुमत वाले पक्ष का तर्क

CJI की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की पीठ के बहुमत का फैसला CJI ने पढ़कर सुनाया। उन्होंने कहा कि यदि इसे केवल उन संस्थानों पर लागू किया जाए, जो संविधान लागू होने के बाद स्थापित किए गए थे तो इससे संविधान का अनुच्छेद 30 कमजोर हो जाएगा। ‘निगमन’ और ‘स्थापना’ शब्दों का परस्पर उपयोग नहीं किया जा सकता।

सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट का दृश्य (साभार: x/barandbench)

उन्होंने कहा कि केवल इसलिए कि AMU को शाही कानून द्वारा शामिल किया गया था, इसका मतलब यह नहीं है कि इसे अल्पसंख्यक द्वारा ‘स्थापित’ नहीं किया गया था। यह तर्क नहीं दिया जा सकता है कि विश्वविद्यालय की स्थापना संसद द्वारा की गई थी, क्योंकि क़ानून कहता है कि इसे विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए पारित किया गया था। इस तरह की औपचारिकता अनुच्छेद 30 के उद्देश्यों को विफल कर देगी।

बहुमत ने कहा कि औपचारिकता को वास्तविकता का रास्ता देना चाहिए। यह निर्धारित करने के लिए कि संस्थान की स्थापना किसने की, न्यायालय को संस्थान की उत्पत्ति का पता लगाना चाहिए और यह पहचानना चाहिए कि इसके पीछे ‘दिमाग’ किसका था। यह देखना होगा कि भूमि के लिए धन किसे मिला और क्या अल्पसंख्यक समुदाय ने मदद की।

CJI ने कहा कि यह जरूरी नहीं है कि संस्थान की स्थापना केवल अल्पसंख्यक समुदाय के लाभ के लिए की गई हो। यह साबित करना आवश्यक नहीं है कि प्रशासन अल्पसंख्यक के पास ही होना चाहिए। अल्पसंख्यक संस्थाएँ धर्मनिरपेक्ष शिक्षा पर जोर देना चाहती हैं और इसके लिए प्रशासन में अल्पसंख्यक सदस्यों की आवश्यकता नहीं है।

इस फैसले पर असहमति रखने वाले जजों का तर्क

पीठ में बहुमत के फैसले से तीन जजों ने अलग राय रखी। जस्टिस सूर्यकांत ने कहा कि अल्पसंख्यक अनुच्छेद 30 के तहत कोई संस्थान स्थापित कर सकते हैं, लेकिन इसके लिए उन्हें किसी क़ानून के साथ-साथ यूजीसी द्वारा भी मान्यता प्राप्त होनी चाहिए। अज़ीज़ बाशा और टीएमए पाई में 11 न्यायाधीशों की पीठ के फ़ैसले के बीच कोई टकराव नहीं है।

उन्होंने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 30(1) के तहत शैक्षणिक संस्थानों में विश्वविद्यालय भी शामिल हैं। अनुच्छेद 30 के तहत सुरक्षा पाने के लिए अल्पसंख्यक संस्थानों को अल्पसंख्यक द्वारा ‘स्थापित’ और ‘प्रशासित’ के संयुक्त अर्हता को पूरा करना होगा। किसी विश्वविद्यालय या संस्थान को शामिल करने वाले क़ानून के पीछे विधायी मंशा उसकी अल्पसंख्यक स्थिति तय करने के लिए आवश्यक होगी।

न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने साल 1981 में अंजुमन में पारित संदर्भ आदेश पर आपत्ति जताई, जिसमें मामले को सीधे 7 न्यायाधीशों की पीठ को भेजा गया था। हालाँकि, उन्होंने यह भी कहा कि तत्कालीन सीजेआई की अगुवाई वाली पीठ द्वारा साल 2019 में दिया गया संदर्भ विचारणीय है।

वहीं, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता ने स्पष्ट रूप से कहा कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है और यह अनुच्छेद 30 के अंतर्गत नहीं आता। उन्होंने यह भी कहा कि साल 1981 और साल 2019 में दिए गए संदर्भ अनावश्यक थे। वहीं, जस्टिस शर्मा ने भी कहा कि अल्पसंख्यक संस्थान को धर्मनिरपेक्ष शिक्षा का विकल्प भी देना चाहिए।

उन्होंने कहा कि अनुच्छेद 30 का सार अल्पसंख्यकों के लिए किसी भी तरह के तरजीही व्यवहार को रोकना और इस तरह सभी के लिए समान व्यवहार करना है। यह मान लेना कि देश के अल्पसंख्यकों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए सुरक्षित आश्रय की आवश्यकता है, गलत है। अल्पसंख्यक अब मुख्यधारा का हिस्सा हैं और समान अवसरों में भाग ले रहे हैं।

7 सदस्यीय बेंच का गठन और इलाहाबाद हाई कोर्ट के निर्णय के संदर्भ में सुनवाई

इस मामले में 7 सदस्यीय बेंच का गठन तत्कालीन CJI रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली 3 जजों की बेंच द्वारा 2019 में पारित संदर्भ आदेश के परिणामस्वरूप किया गया था। यह संदर्भ 2006 के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ अपील की सुनवाई के दौरान हुआ।

इसका मुख्य मुद्दा यह था कि ‘किसी शैक्षणिक संस्थान को अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान मानने के क्या संकेत हैं? क्या किसी संस्थान को अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान इसलिए माना जाएगा, क्योंकि वह किसी धार्मिक या भाषाई अल्पसंख्यक वर्ग के व्यक्ति द्वारा स्थापित किया गया है या उसका प्रशासन किसी धार्मिक या भाषाई अल्पसंख्यक वर्ग के व्यक्ति द्वारा किया जा रहा है?’

पीठ के समक्ष जो चार विचारणीय मुख्य पहलू थे:

(1) क्या एक विश्वविद्यालय, जो एक क़ानून (एएमयू अधिनियम 1920) द्वारा स्थापित और शासित है, अल्पसंख्यक का दर्जा दावा कर सकता है,

(2) एस अज़ीज़ बाशा बनाम भारत संघ (5 न्यायाधीशों की पीठ) में सुप्रीम कोर्ट के 1967 के फैसले की शुद्धता की जाँच, जिसने एएमयू की अल्पसंख्यक स्थिति को खारिज कर दिया था,

(3) एएमयू अधिनियम में 1981 के संशोधन की प्रकृति और शुद्धता, जिसने बाशा मामले में निर्णय के बाद विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक का दर्जा दिया,

(4) बाशा मामले के निर्णय पर भरोसा करके क्या साल 2006 में एएमयू बनाम मलय शुक्ला में इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा यह निष्कर्ष निकालना सही था कि एएमयू एक गैर-अल्पसंख्यक संस्थान होने के नाते मेडिकल पीजी पाठ्यक्रमों में मुस्लिम उम्मीदवारों के लिए 50% सीटें आरक्षित नहीं कर सकता है।

विवाद का इतिहास

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक दर्जे का विवाद लगभग 50 साल पुराना है। सन 1967 में सुप्रीम कोर्ट ने विश्वविद्यालय के संस्थापक अधिनियम में दो संशोधनों को चुनौती देने पर फ़ैसला सुनाया था। इसमें तर्क दिया गया था कि वे AMU की स्थापना करने वाले मुस्लिम समुदाय को अनुच्छेद 30 के तहत इसे प्रशासित करने के अधिकार से वंचित करते हैं।

इनमें से पहला संशोधन 1951 में किया गया, जिसके तहत यूनिवर्सिटी के सर्वोच्च शासी निकाय यूनिवर्सिटी कोर्ट में गैर-मुस्लिमों के सदस्य होने की अनुमति देता था। इसके साथ ही विश्वविद्यालय के लॉर्ड रेक्टर की जगह विजिटर को नियुक्त किया गया था, जो भारत के राष्ट्रपति थे। दूसरा संशोधन 1965 में करके AMU की कार्यकारी परिषद की शक्तियों का विस्तार किया गया था। यानी यूनिवर्सिटी कोर्ट अब सर्वोच्च शासी निकाय नहीं था।

एस अज़ीज़ बाशा बनाम भारत संघ 1967 मामले में सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि AMU की ना ही स्थापना और ना ही प्रशासन मुस्लिम अल्पसंख्यक द्वारा किया गया था। इसके बजाय यह यह केंद्रीय विधानमंडल (अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय अधिनियम 1920) के एक अधिनियम के माध्यम से अस्तित्व में आया था। इस फैसले का मुस्लिम समुदाय ने कड़ा विरोध किया।

तत्कालीन सरकार ने साल 1981 में एएमयू अधिनियम में संशोधन किया और कहा कि इसकी स्थापना मुस्लिम समुदाय द्वारा भारत में मुस्लिमों की सांस्कृतिक और शैक्षणिक उन्नति को बढ़ावा देने के लिए की गई थी। इसके बाद साल 2005 में AMU ने पहली बार स्नातकोत्तर चिकित्सा कार्यक्रमों में मुस्लिमों को 50 प्रतिशन आरक्षण दिया। इसके अगले साल AMU के फैसले को इलाहाबाद हाई कोर्ट में चुनौती दी गई।

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने विश्वविद्यालय के आदेश और 1981 के संशोधन, दोनों को रद्द कर दिया। हाई कोर्ट ने तर्क दिया कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी अज़ीज़ बाशा फैसले के अनुसार अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है। हाईकोर्ट के इस आदेश को तुरंत सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। यह चुनौती केंद्र की UPA सरकार ने दी थी।

हालाँकि, साल 2016 में केंद्र की मोदी सरकार ने यूपीए सरकार वाली इस अपील को वापस ले लिया। इसके बाद साल 2019 में सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ ने इसे सात जजों की बेंच को सौंप दिया। अब 7 जजों की बेंच ने बहुमत के आधार पर इस अजीज बाशा मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया।

क्या होता है अल्पसंख्यक दर्जा?

संविधान में साल 2006 में शामिल अनुच्छेद 15(5) के तहत अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों को अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए सीटें आरक्षित करने से छूट दी गई है। AMU का अल्पसंख्यक दर्जा न्यायालय में विचाराधीन है और साल 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने यथास्थिति बनाए रखने का निर्देश दिया था। इसलिए विश्वविद्यालय में एससी/एसटी कोटा लागू नहीं है।

केंद्र सरकार ने इस साल सुप्रीम कोर्ट के समक्ष तर्क दिया था कि अगर अलीगढ़ मु्स्लिम विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक संस्थान घोषित किया जाता है तो यह नौकरियों और सीटों में एससी/एसटी/ओबीसी/ईडब्ल्यूएस के लिए आरक्षण प्रदान नहीं करेगा। इसके विपरीत, यह मुस्लिमों को आरक्षण देगा, जो 50 प्रतिशत या उससे भी अधिक हो सकता है।

इसके साथ ही केंद्र सरकार ने यह भी तर्क दिया था कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का ‘प्रशासनिक ढाँचा’ वर्तमान व्यवस्था से बदल जाएगा। वर्तमान व्यवस्था के तहत विभिन्न क्षेत्रों के लोगों से मिलकर बनी कार्यकारी परिषद की सर्वोच्चता प्रदान है। साथ ही राष्ट्रीय महत्व का संस्थान होने के बावजूद AMU में अन्य ऐसे संस्थानों से अलग प्रवेश प्रक्रिया होगी।

केंद्र ने यह भी तर्क दिया कि एएमयू जैसे बड़े राष्ट्रीय संस्थान को अपनी धर्मनिरपेक्ष मूल को बनाए रखना चाहिए और राष्ट्र के व्यापक हित को सर्वप्रथम पूरा करना चाहिए। वहीं, AMU की ओर से कहा गया कि केंद्र का यह मानना ​भ्रामक है कि एएमयू का अल्पसंख्यक दर्जा सार्वजनिक हित के विपरीत होगा, क्योंकि इससे उन्हें अन्य वंचित समूहों के लिए सीटें आरक्षित करने से छूट मिल जाएगी।

क्या है संविधान का अनुच्छेद 30?

संविधान का अनुच्छेद 30 अल्पसंख्यक समुदाय के शिक्षण संस्थानों की स्थापना और उनके प्रबंधन के अधिकार से संबंधित है। यह अनुच्छेद अल्पसंख्यक समुदाय को अपनी भाषा, संस्कृति और धर्म की रक्षा एवं प्रसार के लिए शिक्षण संस्थान स्थापित करने और उसे चलाने का अधिकार प्रदान करता है। उन्हें अपने शिक्षण संस्थान में अपने धर्म एवं संस्कृति का शिक्षा देने का अधिकार होता है।

इस तरह अल्पसंख्यक समुदाय अपने संस्थान में प्रवेश, शिक्षा और परीक्षा को संचालित कर सकते हैं। इस तरह वे अपने संस्थान के नियम और कानून स्वयं तय कर सकते हैं। इसका प्रशासन भी उन्हीं के हाथ में होगा। अल्पसंख्यक समुदाय के शिक्षण संस्थानों को सरकार द्वरा मान्यता प्राप्त होना जरूरी है। अगर सरकार चाहे तो इन शिक्षण संस्थानों को वित्तीय सहायता भी प्रदान कर सकती है।

अनुच्छेद 30(1) में कहा गया है कि सभी अल्पसंख्यकों को, चाहे वे धर्म या भाषा के आधार पर हों, अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने और उनका प्रशासन करने का अधिकार होगा। वहीं, अनुच्छेद 30(1A) अल्पसंख्यक समूहों द्वारा स्थापित किसी भी शैक्षणिक संस्थान की संपत्ति के अधिग्रहण के लिए राशि के निर्धारण से संबंधित है।

अनुच्छेद 30(2) में कहा गया है कि सरकार को सहायता देते समय किसी भी शैक्षणिक संस्थान के साथ इस आधार पर भेदभाव नहीं करना चाहिए कि वह किसी अल्पसंख्यक के प्रबंधन के अधीन है, चाहे वह धर्म या भाषा के आधार पर हो। अनुच्छेद 29 भी अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा करता है और यह प्रावधान करता है कि कोई भी नागरिक/नागरिकों का वर्ग जिसकी अपनी अलग भाषा, लिपि या संस्कृति है, उसे उसे बनाए रखने का अधिकार है।

संविधान सभा में हुई थी बहस

दरअसल, 8 दिसंबर 1948 को संविधान सभा ने अपनी मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा देने ने की आवश्यकता पर बहस की। सभा के एक सदस्य ने इस अनुच्छेद के दायरे को भाषाई अल्पसंख्यकों तक सीमित करने के लिए एक संशोधन पेश किया। उन्होंने तर्क दिया कि एक धर्मनिरपेक्ष राज्य को धर्म के आधार पर अल्पसंख्यकों को मान्यता नहीं देनी चाहिए।

वहीं, सभा के एक अन्य सदस्य ने भाषाई अल्पसंख्यकों को उनकी भाषा और लिपि में प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने के मौलिक अधिकार की गारंटी देने का प्रस्ताव रखा। वह अल्पसंख्यक भाषाओं की स्थिति के बारे में चिंतित थे, यहाँ तक कि उन क्षेत्रों में भी जहाँ अल्पसंख्यकों की आबादी काफी अधिक थी। संविधान सभा ने प्रस्तावों को अस्वीकार कर दिया।

महिला को अगवा कर 4 लोग ले गए जंगल, कपड़े उतार किया शोषण, गला घोंट दफना दिया: योग शिक्षिका ने ‘साँस रोक’ मौत को दी मात, सारे गिरफ्तार

कर्नाटक के बेंगलुरु से एक हैरान करने वाली घटना प्रकाश में आई है। ऐसी घटना जिसे सुन आपको लगेगा ये हकीकत या फिल्म का सीन। दरअसल मामला देवनहल्ली के पास का है। यहाँ एक योगा टीचर का कुछ लोगों ने अपहरण किया और जंगल में ले जाकर उन्हें मारने की कोशिश की। अपहरणकर्ता अपने मंसूबों में कामयाब हो ही जाते अगर योगा टीचर सही समय पर अपनी सांस रोककर मरने की एक्टिंग नहीं करती।

मामला 23 अक्तूबर 2024 का है। पुलिस ने इस मामले में महिला, किशोर समेत आरोपितों को गिरफ्तार किया है। टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार, एक बिंदु नाम की महिला को शक था कि योगा टीचर की उसके पति के साथ नजदीकी है। ऐसे में उसने अपने दोस्त सतीश रेड्डी, जो जासूसी एजेंसी चलाता था, उसको महिला पर नजर रखने को कहा।

सतीश योगा सीखने के बहाने महिला के संपर्क में आया और फिर उससे बोला कि वो राइफल शूटिंग सेशन के लिए उसके घर के पास चले। योगी टीचर जैसे ही कार में गई, वहाँ तीन आदमी, एक लड़का भी आ गए। इसके बाद गाड़ी रुकी धनमित्तेनहल्ली, सिडलग हट्टा तालुक के एक जंगली इलाके में।

यहाँ इन सबने महिला को धमकाया, उसके कपड़े उतारे, उसका शोषण किया और फिर उसके केबल से गला घोंट उसे मारने का प्रयास किया। इसी दौरान महिला ने अपनी सांस रोक ली। अपहरणकर्ताओं को लगा कि वो मर गई है। उन्होंने एक गड्ढे में उसका शव डाल उसपर हल्की सी मिट्टी डाल दी।

जैसे ही आरोपित वहाँ से गए। महिला जगी। अपने ऊपर की मिट्टी हटाई और भागते हुए आकर अस्पताल में एडमिट हुई। शिकायत देने के बाद जाकर ये पूरा मामला खुला। पुलिस ने इस मामले में बिंदु नाम की महिला के अलावा उसके दोस्त सतीश रेड्डी (40), रमना (34), नागेंद्र रेड्डी (35), रविचंद्र (27) और एक नाबालिग लड़के को भी गिरफ्तार किया है। सतीश, रमना और नागेंद्र आंध्र प्रदेश के रहने वाले हैं, जबकि रविचंद्र और लड़का रायचूर जिले के रहने वाले हैं।

‘झूठा और बेईमान है जस्टिन ट्रूडो’: डोनाल्ड ट्रंप का पुराना पोस्ट वायरल, बोले मस्क- चुनाव में इनका सफाया होगा; ‘The Australian Today’ पर बैन से भी घिरा कनाडा

कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो शुरुआत से अपनी हरकतों के कारण घिरते आए हैं। 2018 में कभी ट्रंप ने उन्हें स्पष्ट रूप से बेईमान और झूठा कहा था और अब कनाडाई लोग भी सोशल मीडिया पर ऐसी बातें लिख रहे हैं। हाल में कनाडा ने ‘द ऑस्ट्रेलियन टुडे’ को अपने देश में बैन किया तो इस मीडिया आउटलेट ने भी ट्रुडो को लताड़ लगाई है।

दरअसल, द ऑस्ट्रेलियन टुडे ने हाल में विदेशी मंत्री एस जयशंकर और ऑस्ट्रेलियाई विदेशी मंत्री पेनी वोंग की प्रेस कॉन्फ्रेंस को दिखाया था जिसके बाद कनाडा ने उन्हें अपने देश में ब्लॉक कर दिया। इसके बाद द ऑस्ट्रेलिया टुडे के प्रबंध संपादक जितार्थ जय भारद्वाज ने इसकी कड़ी निंदा की। उन्होंने पूछा कि अगर कनाडा की समस्या भारत से है तो वो हमें निशाना बना रहा है।

उन्होंने कहा, “हमारा पब्लिकेशन आजाद मीडिया की वकालत करना जारी रखेगा। हम अपने समुदाय की ओर से दिखाई गई एकजुटता का महत्व समझते हैं। सूचना की स्वतंत्रता और दर्शकों के विविध दृष्टिकोणों तक पहुँचने के अधिकार को बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध हैं।”

बता दें कि सिर्फ ‘द ऑस्ट्रेलियन टुडे’ ने ही नहीं, विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रणधीर जायसवाल ने भी इस मामले पर तीखी प्रतिक्रिया दी है। उन्होंने कहा कि कनाडा की ऐसी कार्रवाई से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रति पाखंड की बू आती है।

वहीं, एक्स के मालिक एलन मस्क तो खुलेआम उनका विरोध कर रहे हैं। किसी ने एक ट्वीट में एलन मस्क से कहा कि वो अपने देश कनाडा में ट्रुडो से मुक्ति चाहते हैं तो एलन मस्क ने जवाब दिया कि चिंता न की जाए अगले चुनावों में ट्रुडो का सत्ता से हटना निश्चित है।

इसके अलावा डोनाल्ड ट्रंप के कुछ पुराने ट्वीट भी सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे हैं। अपने ट्वीट में उन्होंने बताया था कि किस तरह जी7 में ट्रुडो का रवैया अलग था और बाद में प्रेस कॉन्फ्रेंस के समय अलग। उन्होंने ट्रुडो को उस समय पोस्ट में बेईमान और बहुत धरा हुआ व्यक्ति बताया था।

हिमाचल प्रदेश में CM सुक्खू का समोसा पुलिस वालों ने खाया, हो गई CID जाँच: रिपोर्ट में कहा- ये सरकार विरोधी काम, 5 को नोटिस

हिमाचल प्रदेश में मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू के लिए लाए गए समोसे और केक पुलिसवालों के खाने पर विवाद हो गया है। CM सुक्खू को समोसे कौन खा गया, इसको लेकर CID जाँच हुई है जिसमें समोसे खाने को सरकार विरोधी काम बताया गया है मामले में 5 पुलिसकर्मियों को नोटिस भी दे दिया गया है। इन पर आगे कार्रवाई भी हो सकती है।

मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, हिमाचल प्रदेश में समोसा स्कैंडल का यह मामला 21 अक्टूबर, 2024 से चालू हुआ है। इस दिन CM सुक्खू को प्रदेश की CID के एक कायर्क्रम में शरीक होना था। वह इसके लिए CID मुख्यालय में पहुँचे थे। इस दौरान उनके खाने-पीने का इंतजाम भी किया जाना था।

CID मुख्यालय में IG रैंक के एक पुलिस अधिकारी ने CM सुक्खू के लिए नाश्ता लाने का आदेश एक SI को दिया था। उसने यह आदेश आगे एक ASI और कॉन्स्टेबल को दे दिया। दोनों मिलकर शिमला के रेडिसन ब्लू होटल से समोसे और केक के तीन डिब्बे लेकर आ गए।

इसके बाद यह समोसे CM सुक्खू को ना दिए जाकर पुलिस वालों में बाँट दिए गए। इससे बवाल हो गया। CM समेत बाकी VVIP को समोसे से वंचित रह जाना पड़ा। इसको लेकर CID की जाँच बैठा दी गई। CID ने जाँच पूरी करके अपनी रिपोर्ट सौंप दी है।

CID रिपोर्ट में बताया गया है कि समोसे और केक लाए जाने के बाद उन्हें दूसरे विभाग को दे दिया गया और जिन्होंने SI की मौजूदगी में इसे बाकी पुलिसकर्मियों में बाँट दिया लेकिन CM सुक्खू के सामने पेश नहीं किया। CID रिपोर्ट में कहा गया कि पुलिस वालों को बताया गया था कि CM के खाने के मेन्यु में समोसे शामिल नहीं हैं।

इसी के बाद यह गड़बड़ी हुई। मामले में अब पाँच पुलिस कर्मियों को नोटिस थमाया गया है और उनसे 10 दिन के भीतर जवाब देने को कहा गया है। CID की रिपोर्ट में समोसे की गड़बड़ी को सरकार और CID विरोधी काम बताया गया है। मामले में भाजपा ने कॉन्ग्रेस सरकार पर हमला बोला है।

भाजपा प्रवक्ता रणधीर शर्मा ने कहा है कि राज्य कॉन्ग्रेस सरकार जनता की समस्याओं को छोड़ कर, समोसा किसको मिले, इसकी चिंता कर रही है। उन्होंने कहा, “हिमाचल प्रदेश की जनता परेशान है और हंसी की बात तो ये है कि सरकार को मुख्यमंत्री के समोसे की चिंता है।”

रणधीर शर्मा ने आगे कहा, “ऐसा लगता है कि सरकार को किसी भी विकासात्मक कार्यों की चिंता नहीं है, केवल मात्र अपने खानपान की चिंता है… समोसे गलती से मुख्यमंत्री के बजाय उनके सुरक्षा कर्मचारियों के पास पहुंच गए। जिसकी CID जांच करवाई गई। जाँच में इस गलती को ‘सरकार विरोधी’ कृत्य करार दिया गया, यह अपने आप में ही एक बड़ा शब्द है।”

जिस किताब के कारण सलमान रुशदी की हत्या का जारी हुआ फतवा, उस पर भारत में प्रतिबंध का आदेश ही नहीं मौजूद: हाई कोर्ट ने ‘सैटेनिक वर्सेज’ के इम्पोर्ट से रोक हटाई

दिल्ली हाई कोर्ट ने कहा है कि लेखक सलमान रुश्दी की विवादास्पद पुस्तक ‘द सैटेनिक वर्सेज’ के आयात पर प्रतिबंध लगाने वाली सीमा शुल्क की अधिसूचना अस्तित्वहीन हो गई है। इसके साथ ही इसके आयात पर 36 सालों से लगा प्रतिबंध खत्म हो गया। केंद्रीय अप्रत्यक्ष कर एवं सीमा शुल्क बोर्ड ने कोर्ट को बताया कि प्रतिबंध वाली 1988 की इस अधिसूचना का अब कोई पता नहीं है।

न्यायमूर्ति रेखा पल्ली और न्यायमूर्ति सौरभ बनर्जी की पीठ ने 5 नवंबर को इस प्रतिबंध को चुनौती देने वाली याचिका में इसकी वैधता पर विचार करने से इनकार कर दिया। इसके बाद कोर्ट ने कहा, “अब हमारे पास यह मानने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं है कि ऐसी कोई अधिसूचना मौजूद नहीं है। इसलिए हम इसकी वैधता की जाँच नहीं कर सकते।”

इस अधिसूचना को साल 2019 में संदीपन खान नाम के व्यक्ति ने कोर्ट में चुनौती दी थी। उन्होंने न्यायालय को बताया कि वे पुस्तक पर प्रतिबंध होने के कारण इसे आयात नहीं कर पा रहे हैं। उन्होंने कहा कि अधिसूचना न तो किसी आधिकारिक वेबसाइट पर उपलब्ध है और न ही किसी प्राधिकरण के पास उपलब्ध है। संदीपन खान ने RTI के तहत केंद्रीय गृह मंत्रालय से इस संबंध में जवाब भी माँगा था।

गृह मंत्रालय ने जवाब में कहा था कि ‘द सैटेनिक वर्सेज’ (हिंदी में इसका अर्थ है- शैतानी आयतें) पर प्रतिबंध लगा है। इस मामले से केंद्र सरकार ने हाथ खींच लिए थे। गृह मंत्रालय ने आदेश के मुताबिक, सीमा शुल्क विभाग से भी याचिका का बचाव करने को कहा गया था। वहीं, केंद्रीय अप्रत्यक्ष कर एवं सीमा शुल्क के अधिकारी प्रतिबंध से संबंधित अधिसूचना कोर्ट में पेश नहीं कर पाए।

इसके बाद कोर्ट ने इसे अस्तित्वहीन मान लिया और खान को यह पुस्तक आयात करने की अनुमति दे दी। पीठ ने कहा, “याचिकाकर्ता उक्त पुस्तक के संबंध में कानून के अनुसार सभी कार्रवाई करने का हकदार होगा।” दिल्ली हाईकोर्ट के इस फैसले के बाद सैटेनिक वर्सेज के आयात पर 36 साल से लगा प्रतिबंध खत्म हो गया है। अब इसे कोई भी आयात कर सकता है।

बता दें कि साल 1988 में राजीव गाँधी के नेतृत्व वाली कॉन्ग्रेस सरकार ने मुस्लिम समुदाय की शिकायत पर इस पुस्तक के आयात पर प्रतिबंध लगा दिया था। मुस्लिमों का कहना था कि यह पुस्तक इस्लामी आस्था के खिलाफ है और यह किताब ईशनिंदा करती है। इस किताब पर सबसे पहले भारत ने ही प्रतिबंध लगाया था। माना जाता है कि कॉन्ग्रेस ने तुष्टिकरण की राजनीति के तहत ऐसा निर्णय लिया था।

इस किताब को बैन करने का आह्वान तत्कालीन कॉन्ग्रेस सांसद सैयद शहाबुद्दीन और खुर्शीद आलम खान (कॉन्ग्रेस नेता सलमान खुर्शीद के अब्बा) ने किया था। शहाबुद्दीन ने किताब के खिलाफ याचिका दायर कर इस पुस्तक को सार्वजनिक व्यवस्था के लिए खतरा बताया था। इसके बाद राजीव गाँधी की सरकार ने 26 सितंबर 1988 को ब्रिटेन में पहली बार पब्लिश इस किताब पर 10 दिनों के भीतर बैन लगा दिया। 

दिलचस्प बात ये है कि भारत ने कभी भी पुस्तक पर एकमुश्त प्रतिबंध नहीं लगाया। इसकी बजाए ‘सीमा शुल्क अधिनियम’ के तहत पुस्तक के आयात पर बैन लगाते हुए वित्त मंत्रालय के माध्यम से किताब को प्रतिबंधित कर दिया गया। इतना ही नहीं, कॉन्ग्रेस सरकार ने रुश्दी के भारत आने पर भी रोक लगा दी। हालाँकि, साल 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने इसे हटा दिया।

ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला खुमैनी ने सलमान रुश्दी की पुस्तक ‘द सेटेनिक वर्सेज’ को लेकर उनके खिलाफ 14 फरवरी 1989 को फतवा जारी किया था। उन पर 6 मिलियन डॉलर (लगभग 48 करोड़ रुपए) का इनाम घोषित किया था। फतवे के साढ़े 33 साल बाद 13 अगस्त 2022 को न्यूयॉर्क में हादी मतार नाम के संदिग्ध ने रुश्दी को कई बार चाकू मार कर उन्हें गंभीर रूप से घायल कर दिया था।

‘किसी भी अवैध निर्माण’ को ध्वस्त किया जाना चाहिए: योगी सरकार ने अतिक्रमणकारियों को भेजी गई नोटिस को कोर्ट में सही ठहराया, बहराइच हिंसा में थे शामिल

उत्तर प्रदेश सरकार ने इलाहाबाद हाई कोर्ट में हलफनामा देकर अतिक्रमणकारियों को दी गई नोटिस को उचित ठहराया और कहा कि ‘किसी भी ‘अवैध’ निर्माण को ध्वस्त किया जाना चाहिए। राज्य सरकार ने बहराइच हिंसा में 23 लोग को नोटिस जारी किया है। ये लोग 13 अक्टूबर की बहराइच में शामिल थे। अधिकारियों ने पाया कि ये लोग कुंडासर-महसी-नानपारा के किलोमीटर 38 पर अतिक्रमण किया है।

हलफनामे में कहा गया है कि कुंडासर-महसी-नानपारा एक बड़ी जिला सड़क (MDR) है। अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई इलाके के लोगों और परिवहन के लिए मेजर डिस्ट्रिक्ट रोड का उपयोग करने वाले लोगों के हित में है। सरकार ने कहा कि अतिक्रमणकारियों ने भवनों/मकानों का निर्माण उत्तर प्रदेश सड़क किनारे भूमि नियंत्रण नियम 1964 के नियम 7 का उल्लंघन करके किया गया है।

सरकार की ओर से यह हलफनामा देवी पाटन (गोंडा) लोक निर्माण विभाग (PWD) के मुख्य अभियंता अवधेश शर्मा चौरसिया ने 25 अक्टूबर को दायर किया। PWD की नोटिस में कहा गया है कि ये निर्माण अवैध हैं, क्योंकि इन्हें ग्रामीण क्षेत्रों में सड़क के केंद्रीय बिंदु से 60 फीट के भीतर बनाया गया है, जो कि स्वीकार्य नहीं है।

बता दें कि उत्तर प्रदेश सड़क किनारे भूमि नियंत्रण नियम 1964 के नियम 7 में कहा गया है कि भवन निर्माण लाइनों के भीतर भवनों का निर्माण नहीं किया जाएगा। यह नियम किसी भी प्रमुख जिला सड़क (एमडीआर) की केंद्र रेखा से 60 फीट, खुले एवं कृषि क्षेत्रों के लिए 60 फीट और शहरी एवं औद्योगिक क्षेत्रों के लिए 45 फीट निश्चित की गई है।

हलफनामे में आगे कहा गया है कि जिस सड़क के किनारे ‘अतिक्रमणकारियों’ द्वारा अवैध निर्माण किए गए हैं, उसे शुरू में अन्य जिला मार्ग (ODR) के रूप में अधिसूचित किया गया था। जून 2021 में इसे उत्तर प्रदेश सड़क किनारे भूमि नियंत्रण अधिनियम 1945 की धारा 3 के तहत प्रमुख जिला मार्ग (एमडीआर) के रूप में वर्गीकृत किया गया।

राज्य सरकार ने तर्क दिया कि कुंडासर-महसी-नानपारा मार्ग के किलोमीटर 38 के आसपास का क्षेत्र दुर्घटना संभावित क्षेत्र बन गया है, क्योंकि यहाँ चल रहे निर्माण ने पहले से सीधी सड़क को तीव्र मोड़ में बदल दिया है। सरकार ने कहा कि प्रमुख जिला सड़क (एमडीआर) के केंद्र से निर्धारित दूरी के भीतर किया गया कोई भी निर्माण अवैध है और उसे ध्वस्त किया जाना चाहिए।

सरकार ने बताया कि इस सड़क पर अतिक्रमित क्षेत्रों का निरीक्षण एवं सीमांकन करने के लिए 14 सदस्यीय समिति का गठन किया गया था। निरीक्षण के दौरान समिति ने पाया कि किलोमीटर 38 के पास निर्माण के कारण सड़क ‘S’ वक्र बन गया है। इससे दृश्यता कम हो गई है और वहाँ लगातार दुर्घटनाएँ हो रही हैं। निरीक्षण रिपोर्ट में ऐसी 24 इमारतों की पहचान की गई है।

इन लोगों ने अधिसूचित क्षेत्र में निर्माण के लिए PWD से कोई अनुमति नहीं ली थी। हलफनामे में अधिकारी का एक पत्र भी शामिल है, जिसमें कहा गया है कि किलोमीटर 38 पर भवन के निर्माण के लिए जिला मजिस्ट्रेट बहराइच के कार्यालय से कोई अनुमति जारी नहीं की गई थी। इसके बाद निरीक्षण रिपोर्ट में सूचीबद्ध 23 व्यक्तियों को नोटिस जारी किए गए।

इस नोटिस एवं ध्वस्तीकरण अभियान के खिलाफ ‘एसोसिएशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स’ ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के लखनऊ बेंच में एक जनहित याचिका दायर की थी। इस पर सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति अताउरहमान मसूदी और न्यायमूर्ति सुभाष विद्यार्थी की पीठ ने राज्य सरकार से हलफनामा दायर कर संबंधित सड़क पर निर्माण के लिए स्वीकृत मानचित्रों की संख्या निर्दिष्ट करने को कहा था।

दशहरा के दिन माता दुर्गा की मूर्ति विसर्जन के दौरान रामगोपाल मिश्रा की हत्या के अगले दिन यूपी के PWD विभाग ने इस हत्याकांड के मुख्य अभियुक्त अब्दुल हमीद सहित अन्य आरोपितों को नोटिस जारी किया था। अब्दुल हमीद महरागंज के महसी का रहने वाला है। इन लोगों ने सड़क के किनारे अवैध रूप से अतिक्रमण कर रखा है।

मुँह पर कपड़ा बाँधकर तड़पाया, फिर जंगल में कर दी हत्या: जम्मू-कश्मीर के किश्तवाड़ में आतंकी हमला, गाँव रक्षा समिति के 2 सदस्यों के शव मिले

जम्मू-कश्मीर के किश्तवाड़ जिले में आतंकी हमले की घटना सामने आई है। हमले में दो होमगार्ड्स (ग्राम रक्षा समूह के होमागार्ड्स) की हत्या कर दी गई। मृतकों की पहचान नजीर अहमद और कुलदीप कुमार के रूप में हुई है। वह ओहली कुंतवाड़ा गाँव के निवासी थे।

आतंकियों ने इस घटना को तब अंजाम दिया जब दोनों लोग शाम के समय में मवेशी चराने के लिए जंगल गए थे। इसी दौरान आतंकवादियों ने उन्हें अगवा किया और बाद में उन्हें तड़पाकर उनकी हत्या कर दी।

बताया जा रहा है कि आतंकवादियों ने नजीर और कुलदीप का अपहरण करने के बाद पहले उनका मुँह बंद करके उन्हें यातनाएँ दीं, फिर उन्हें मारा। अभी तक सामने आई जानकारी के अनुसार इस घटना की जिम्मेदारी जैश-ए-मोहम्मद संगठन की एक शाखा, कश्मीर टाइगर्स ने ली है। संगठन ने एक पत्र जारी करते हुए कहा कि ये हत्याएँ इस्लाम और कश्मीर की आजादी के नाम पर की गई हैं।

नजीर और कुलदीप की लाश मिलने के बाद, सुरक्षा बलों ने इलाके में व्यापक तलाशी अभियान शुरू किया है। पुलिस और सेना ने मिलकर संदिग्ध गतिविधियों पर नजर रखने के लिए सर्च ऑपरेशन चलाया है। वहीं जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला और JKNC अध्यक्ष डॉ. फारूक अब्दुल्ला ने इस बर्बरता की निंदा की है। सोशल मीडिया पर भी स्थानीय नेता इस घटना को लेकर चिंता जाहिर कर रहे हैं।

बता दें कि पिछले एक महीने से आतंकी लगातार स्थानीय लोगों में डर बसाने के लिए ऐसे हमलों को अंजाम दे रहे हैं। 9 अक्तूबर को अनंतनाग में आतंकियों ने एक भारतीय सेना के जवान का अपहरण करके उनकी हत्या की थी। उस समय भी जवान को जंगल के इलाके में ले जाकर माना गया था

रवीश जी मुरझा नहीं गया है मिडिल क्लास, पर आपका जो सूजा है उसका दर्द खूब पहचानता है मिडिल क्लास: अब आपके कूथने से हिंदुओं को नहीं पड़ता फर्क

यूट्यूब पत्रकार रवीश कुमार का एक नया प्रोपगेंडा वीडियो सामने आया है। इस बार उन्होंने अपने वीडियो में भर-भरकर मिडल क्लास ‘हिंदुओं’ को गाली दी है। उन्होंने देश में हो रही अवैध घुसपैठ से लेकर चोरी होते टैक्स और बाजार में कम होती खरीदारी सबके लिए मिडल क्लास ‘हिंदुओं’ को कोसा है और नफरत से सनी इस पूरी वीडियो को टाइटल दिया है- ‘मुरझा गया है मिडिल क्लास।’

रवीश का कहना है कि मिडिकल क्लास का हिंदू अब आकांक्षी और महत्वकांक्षी नहीं रहा बल्कि अब वो सांप्रदायिक हो गया है। उसकी जेब में कुछ है नहीं और दिमाग में जहर भर गया है। रवीश के मुताबिक देश के मिडिल क्लास के हिंदुओं की भाषा एकदम कबाड़ है और वो सिर्फ इस बात से खुश हो जाता है कि मुस्लिमों के घरों को बुलडोजर गिरा रहा है।

‘हिंदू’ शब्द से रवीश को कितनी घृणा है इसे रवीश की वीडियो में हर मिनट में महसूस किया जा सकता है, लेकिन इस घृणा के पीछे का कारण क्या है ये लोग पिछले कई सालों से महसूस कर रहे हैं।

दरअसल, रवीश की खुंदस वामपंथी हिंदुओं से नहीं है रवीश की खुंदस उन हिंदुओं से है जो भारतीय जनता पार्टी का समर्थन करते हैं और उन्हें वोट देकर पिछले 11 साल से सत्ता उन्हें सौंपी हुई हैं। रवीश को परेशानी इस बात से है कि आखिर हिंदू अपने आपको हिंदू कैसे समझने लगा?

उनके हिसाब से तो हिंदू के ऊपर देश के सेकुलरिज्म को ढोने का सारा दारोमदार था…तो फिर वो क्यों तिलक लगाकर, भगवा ओढ़कर अपने धर्म को बचाने की बात कर रहा है? या 2047 तक देश को इस्लामी मुल्क बनाने वाले मंसूबों के बारे में जान रहा है।

रवीश चाहते हैं कि मिडिल क्लास ‘हिंदू’ ऐसी किसी जॉब में हो जहाँ इतना सेकुलर माहौल हो कि अगर कोई उसके भगवान को, उसके मंदिर को, उसके धर्म को गाली दे तो भी उसके पास इतना समय न हो कि वो अपनी पहचान के लिए आवाज उठा सके।

अजीब बात है कि रवीश की यह चिंता अब जाकर जगी है जब उन्हें लगता है कि हिंदू कुछ ज्यादा हिंदू बनने लगे हैं। काश, उनका सेकुलरिज्म उस समय भी उन्हें जग पाता जब समय-समय पर इस्लामी भीड़ ने सड़कों पर उतरकर दंगे किए, मस्जिदों से पत्थरबाजी की और अपने इलाकों में हिंदुओं से निकालने का काम किया।

उन्होंने तब एक भी बार ये नहीं कहा कि इस देश के मुस्लिम को थोड़ा कम मुस्लिम बनना चाहिए और देश का नागरिक ज्यादा बनना चाहिए या उन्हें भी कानून का सम्मान करना चाहिए या फिर देश में संविधान के हिसाब से चलना चाहिए…।

रवीश कुमार की यह सारी नफरत और सारा ज्ञान सिर्फ हिंदुओं से है। उन्होंने मिडिल क्लास के नाम पर उस तबके को निशाना बनाया है जो पिछले कुछ समय से धार्मिक पहचान की बात करने लगे हैं। वो समझने लगे हैं कि उन्हें किस कदर सेकुलरिज्म की पट्टी पहनाकर धर्म का पालन करने से दूर रखा गया। कभी तिलक लगाने, कभी शिखा रखने पर उनका मखौल उड़ाया गया और पूजा-पाठ करने पर उसे पिछड़ा बताया जाता रहा…।

आज हिंदू अगर अपनी सांस्कृति पहचान पर गौरवान्वित होता है और उसका प्रचार करता है तो समस्या होना तो जाहिर है।

रवीश वीडियो में एक हिंदू आईएएस ग्रुप की चर्चा करते हैं और बताते हैं कि पिता को लगता होगा कि बेटा नाम करेगा और बेटा हिंदू आईएएस बन रहा है। रवीश को ऐसे उदाहरण देते हुए साथ में समझा भी देना चाहिए कि उन्हें समस्या हिंदू के आईएएस बनने से है या फिर आईएएस बनने के बाद भी कोई हिंदू छवि को स्वीकारे रखने से है।

रवीश का राजनैतिक झुकाव किस तरफ है इसे भी वीडियो में इस्तेमाल की गई क्लिपों से समझा जा सकता है। देश में पड़े नकारात्मक प्रभावों को समझाने के लिए रवीश ‘मोदी सरकार’ के बयानों का इस्तेमाल करते हैं और मोदी सरकार को घेरने के लिए तथ्यों पर बात करने की जगह कॉन्ग्रेस नेता ‘पवन खेड़ा’ की क्लिप डालते हैं।

रवीश कहते हैं कि मिडल क्लास के दिमाग में कबाड़ भाषा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने डाली है। इस दौरान उदाहरण वो पीएम के उस रोटी, बेटी और माटी वाले बयान का देते हैं तो उन्होंने झारखंड में प्रचार के दौरान दिया…। अब देखने वाली बात ये है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आखिर गलत बोला क्या?

उन्होंने उन स्थानीय मुद्दों को उठाया जिससे झारखंड प्रभावित है। वहाँ हो रही बांग्लादेशी घुसपैठ को लेकर तो अदालत तक चिंता जाहिर कर चुके हैं। फिर पीएम ने ‘माटी’ का मुद्दा उठाकर क्या गलत किया। क्या राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर बोलना अभद्र भाषा का इस्तेमला कहलाएगा।

इसी तरह झारखंड से आए दिन लव जिहाद की घटनाएँ सामने आती हैं। किसी मामले में लड़कियों को मार दिया जाता है तो किसी में घर में सोते समय उसे जला दिया जाता है। ऐसे में अगर प्रधानमंत्री इन विषयों पर खुलकर स्थानीय लोगों से बात कर रहे हैं तो समस्या क्या है।

अपने आपको सबसे निष्पक्ष पत्रकार मानने वाले रवीश जी आगे मिडल क्लास की खराब होती अर्थव्यवस्था पर चिंता जाहिर करते हैं। वो ऑनलाइन शॉपिंग जैसी चीजों को नकारते हुए कहते हैं देश में दीवाली बीत गई लेकिन बाजा में भीड़ नहीं दिखी और क्या-क्या सामान कितना-कितना बिका इसकी जानकारी नहीं आई। मतलब साफ है कि मिडिल क्लास आर्थिक रूप से बेहाल है…।

रवीश जी का कहना है कि या तो मिडिल क्लास के जीवन में क्या चल रहा है, कैसे चल रहा है, उसने क्या खरीददारी की है इस सबका ब्यौरा वो अखबार में दे वरना वो यही मानेंगे किं हिंदुओं की हालत खराब है।

कुल मिलाकर रवीश की वीडियो देख साफ पता चलता है कि उनकी समस्या केवल ‘मिडल क्लास हिंदुओं’ से है। कारण- ‘अमीर’ होते हिंदुओं का उदाहरण देकर वो अपना प्रोपगेंडा चला नहीं पाएँगे और गरीब क्लास का अगर जिक्र करेंगे तो उन्हें उन योजना, परियोजनाओं के बारे में भी बताना पड़ेगा जो मोदी सरकार ने उनके लिए लाई है। दोनों काम रवीश से नहीं हो सकते…।

यही वजह है कि अपने टारगेट पर रवीश कुमार ने मिडल क्लास हिंदुओं को लिया और उन्हें ऐसे पेश किया जैसे घर में होने वाली सीलन, बाथरूम की लीकेज, किचन के सिंक में फँसे खाने, पड़ोसियों के घर हुई कलह, भाई-बहन में हुए संपत्ति के झगड़े सबके लिए सिर्फ मिडल क्लास हिंदू जिम्मेदार है और बेचारे वो लोग हैं जो हिंदुस्तान में अपने मजहब को इस कदर फैलाना चाहते हैं कि हिंदुओं की संख्या साफ हो जाए।

रवीश की थ्योरी से चलें तो देश तब तक खतरे में है जब तक हिंदू खुद को हिंदू कहता रहेगा और सेकुलर तब होगा जब मुस्लिम खुलकर हिंदुओं को ‘काफिर’ कह पाएँगे।

रवीश कुमार की पूरी वीडियो देखने के लिए यहाँ क्लिक करें।

अब ‘डिग्री’ वाले मौलवी नहीं होंगे पैदा, पर बच्चों को आधुनिक शिक्षा से दूर रखना कितना जायज: क्या मदरसा एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील करेगी योगी सरकार?

सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार (5 नवंबर 2024) को उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड अधिनियम-2004 की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा। इस कानून के तहत मदरसा बोर्ड की स्थापना और अल्पसंख्यक कल्याण विभाग द्वारा मदरसों के प्रशासन का प्रावधान किया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट द्वारा इस कानून को निरस्त करने के लिए फैसले को भी पलट दिया।

भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने इस मामले में सुनवाई की। इसके साथ ही इलाहाबाद हाई कोर्ट के उस फैसले को खारिज कर दिया, जिसमें संविधान के मूल ढाँचे के एक पहलू ‘धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों’ का उल्लंघन करने के लिए अधिनियम को निरस्त कर दिया गया था।

कोर्ट ने कहा कि संविधान के भाग III के तहत मौलिक अधिकारों के उल्लंघन या विधायी क्षमता के आधार पर किसी कानून को निरस्त किया जा सकता है, लेकिन मूल ढाँचे के उल्लंघन के लिए नहीं। अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “इलाहाबाद हाई कोर्ट ने यह मान कर गलती की है कि मूल ढाँचे के उल्लंघन के लिए कानून को निरस्त किया जाना चाहिए।”

सुप्रीम कोर्ट ने तर्क दिया कि इस अधिनियम का मूल उद्देश्य अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा करना है। कोर्ट ने कहा, “अधिनियम की विधायी योजना मदरसों की शिक्षा का मानकीकृत करना है। मदरसा अधिनियम मदरसों के दैनिक कामकाज में हस्तक्षेप नहीं करता है। यह राज्य के सकारात्मक दायित्व के अनुरूप है, जो छात्रों को उत्तीर्ण होने और एक सभ्य जीवन जीने के लिए सुनिश्चित करता है।”

हालाँकि, सुप्रीम कोर्ट ने मदरसा अधिनियम के उन प्रावधानों को खारिज कर दिया, जो मदरसा बोर्ड को ‘कामिल’ (स्नातक पाठ्यक्रम) और ‘फाजिल’ (स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम) जैसे उच्च शिक्षा के लिए निर्देश और पाठ्य पुस्तकें निर्धारित करने का अधिकार देता है। न्यायालय ने कहा कि इससे विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अधिनियम (यूजीसी अधिनियम) का उल्लंघन होगा।

अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उच्च शिक्षा से संबंधित फाजिल और कामिल पर मदरसा अधिनियम के प्रावधान असंवैधानिक हैं। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि संविधान का अनुच्छेद 21A (निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार) और शिक्षा का अधिकार अधिनियम को इस तरह से पढ़ा जाना चाहिए कि धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यक संस्थान शिक्षा प्रदान कर सकें।

इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 22 मार्च 2024 को एक याचिका पर सुनवाई करते हुए उत्तर प्रदेश मदरसा एक्ट को धर्मनिरपेक्षता विरोधी और असंवैधानिक बताते हुए उसे निरस्त कर दिया था। हाई कोर्ट ने राज्य सरकार को मदरसों में मजहबी शिक्षा ग्रहण कर रहे बच्चों को औपचारिक शिक्षा से जोड़ने के लिए भी निर्देश दिया था। इस पर जस्टिस विवेक चौधरी और जस्टिस सुभाष विद्यार्थी की बेंच ने सुनवाई की थी।

अंशुमान सिंह राठौड़ नाम के एक व्यक्ति ने मदरसा बोर्ड के खिलाफ याचिका दायर करके इस एक्ट की कानूनी वैधता को चुनौती दी थी। इसके साथ-साथ उन्होंने निःशुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार संशोधन अधिनियम 2012 के कुछ प्रावधानों पर भी आपत्ति जताई थी। याचिका में पूछा गया था कि क्या मदरसों का उद्देश्य शिक्षा देना है या फिर मजहबी शिक्षा देना है?

याचिका में सवाल ये भी पूछा गया था कि जब संविधान सेक्युलर है तो फिर सिर्फ एक खास मजहब के व्यक्ति को शिक्षा बोर्ड में क्यों नियुक्त जाता है? इसमें सुझाव दिया गया था कि बोर्ड में विद्वान लोगों की नियुक्ति अलग-अलग क्षेत्रों में उनकी दक्षता को देखते हुए बिना मजहब देखे की जानी चाहिए। इससे शिक्षा नीतियों के लाभ से मदरसे के छात्र वंचित रह जाते हैं।

याचिका में ध्यान दिलाया गया था कि जैन, सिख ईसाई इत्यादि मजहबों से संबंधित सभी शैक्षिक संस्थानों को शिक्षा मंत्रालय के अंतर्गत संचालित किया जाता है, जबकि मदरसों को अल्पसंख्यक विभाग के तहत। इस पर हाई कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकार से पूछा था कि मदरसा बोर्ड को शिक्षा विभाग की जगह अल्पसंख्यक विभाग द्वारा क्यों संचालित किया जा रहा है।

इलाहाबाद हाई कोर्ट के निर्णय का उत्तर प्रदेश सरकार ने विरोध नहीं किया था। सुप्रीम कोर्ट में उत्तर प्रदेश सरकार ने कहा कि वह हाई कोर्ट का निर्णय मानेगी। केंद्र सरकार की तरफ से पेश अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी ने भी इस मामले में इलाहाबाद हाई कोर्ट के निर्णय का समर्थन किया। राज्य सरकार ने कोर्ट को यह भी आश्वासन दिया था कि मदरसों में पढ़ने वाले बच्चों को सरकारी स्कूलों में लिया जाएगा।

इलाहाबाद हाई हाई कोर्ट के निर्णय के खिलाफ मैनेजर्स असोसिएशन मदारिस ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका डाली थी। मदारिस ने कहा था कि हाई कोर्ट के निर्णय से राज्य के 17 लाख मदरसा छात्र प्रभावित होंगे। उसने यह भी कहा कि मदरसों में पढ़ने वाले छात्रों को इकट्ठे राज्य सरकार के ढाँचे में नहीं घुसाया जा सकता है।

क्या कहता है कि यूपी मदरसा शिक्षा बोर्ड अधिनियम

मदरसा ऐसे संस्थानों को कहा जाता है, जहाँ मुस्लिम समुदाय के लोग मुस्लिमों को कुरान-हदीस के अलावा इस्लामी किताबों का अध्ययन करते हैं। आमतौर पर यह शिक्षा हिंदू, उर्दू और अरबी में होती है। इसमें आधुनिक शिक्षा की जगह मजहबी शिक्षा पर जोर होता है। इन पर मस्जिद के इमामों एवं मौलाना का अधिकतर प्रभाव रहता है। इसका विनियमन करने के लिए साल 2004 में एक कानून बना था।

इस कानून को उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड अधिनियम 2004 कहा जाता है। इस कानून में मदरसा शिक्षा को अरबी, फारसी, उर्दू, इस्लामी अध्ययन, दर्शन और उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड द्वारा निर्दिष्ट अन्य शाखाओं में शिक्षा के रूप में परिभाषित किया गया था। इस कानून का घोषित उद्देश्य मदरसा के कामकाज की देखरेख करके मदरसा शिक्षा बोर्ड को सशक्त बनाना था।

मदरसा एक्ट की धारा 9 कहती है कि मदरसा बोर्ड का काम मदरसों का पाठ्यक्रम तैयार करना और मौलवी से लेकर फाजिल तक की परीक्षा का आयोजन करना है। इस ऐक्ट के तहत ही मदरसा शिक्षा बोर्ड का गठन हुआ था। इस बोर्ड में मुस्लिम ही शामिल होते हैं। अन्य वर्ग के लोगों को इसमें शायद ही शामिल किया जाता है।

क्या होती है कामिल-फाजिल की डिग्री

मदरसा शिक्षा में ‘कामिल’ को स्नातक यानी बैचलर डिग्री के बराबर रखा गया है। वहीं, ‘फाजिल’ को स्नातकोत्तर यानी PG या मास्टर डिग्री के बराबर रखा गया है। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद उत्तर प्रदेश मदरसा बोर्ड कामिल-फाजिल की पढ़ाई कराने वाले मदरसों को मान्यता नहीं दे सकता। मदरसों में अब सिर्फ बारहवीं कक्षा तक ही पढ़ाई हो सकती है।

मदरसा बोर्ड से मदरसों को तहतानिया, फौकानिया, आलिया स्तर की मान्यता दी जाती है। इनमें तहतानिया की प्राथमिक, फौकानिया का माध्यमिक और आलिया जूनियर हाई स्कूल की पढ़ाई मानी जाती है। 10वीं के समकक्ष मुंशी/मौलवी और 12वीं के समकक्ष आलिम की डिग्री दी जाती है। आलिया स्तर के मदरसों में ही कामिल और फाजिल की डिग्री दी जाती रही है।

योगी आदित्यनाथ सरकार को सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर क्यों करना चाहिए अपील

इस कानून के खिलाफ राज्य सरकार कोर्ट में नहीं गई थी, बल्कि इसके खिलाफ सबसे पहले मुस्लिम ही खड़े हुए थे। साल 2012 में दारुल उलूम वासिया मदरसा के प्रबंधक सिराजुल हक ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दाखिल की थी। साल 2014 में लखनऊ के माइनॉरिटी वेलफेयर डिपार्टमेंट के सेक्रेटरी अब्दुल अजीज याचिका डाली।

मामला यही खत्म नहीं हुआ। आधुनिक शिक्षा के महत्व को समझते हुए साल 2019 में लखनऊ के मोहम्मद जावेद ने कोर्ट में याचिका दायर की। इसके बाद साल 2020 में रैजुल मुस्तफा ने दो याचिकाएँ लगाईं। सबसे अंत में साल 2023 में अंशुमान सिंह राठौड़ ने मदरसा शिक्षा को लेकर हाई कोर्ट में याचिका दायर की।

सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय का उत्तर प्रदेश के योगी आदित्यनाथ सरकार में मंत्री ओमप्रकाश राजभर और दानिश आजाद अंसारी ने स्वागत किया। राजभर ने कहा कि देश की सबसे बड़ी अदालत के फैसले का वे सम्मान करते हैं। वहीं, दानिश अंसारी ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देश का सरकार पालन करेगी। उन्होंने कहा कि यूपी सरकार ने मदरसा शिक्षा की बेहतरी के लिए के लिए काम किया है।

योगी सरकार के मंत्रियों ने भले ही सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत किया है, लेकिन कानूनी पक्ष को छोड़ दें तो व्यवहारिक पक्ष में इसके कई नुकसान हैं। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है कि सरकार मदरसों के प्रबंधन में दखल नहीं दे सकती, लेकिन मदरसों में क्या पढ़ाया जाए, शिक्षा का स्तर बेहतर कैसे हो, मदरसों में बच्चों को अच्छी सुविधाएँ कैसे मिलें, इन विषयों पर नियम बना सकती है।

किसी भी संस्थान की गुणवत्ता एवं उत्कृष्टता में प्रबंधन का बड़ा हाथ होता है। IIT, IIM जैसे संस्थान इसके उदाहरण हैं। अब अक्सर मदरसों का प्रबंधन अगर एक ही समुदाय के व्यक्तियों के पास रहता है, जो आधुनिक शिक्षा के बजाय दीनी शिक्षा पर ज्यादा फोकस करते हैं तो इसका सीधा प्रभाव संस्थान द्वारा उपलब्ध कराए जा रहे शिक्षा पर पड़ेगा। आज जहाँ भी मदरसे दिख रहे हैं, उनमें अधिकांश में इस्लामी शिक्षा को तरजीह दी जाती है।

अगर राज्य सरकार इन मदरसों के आधुनिकीकरण के लिए पाठ्यक्रम तय कर भी दे तो प्रबंधन उसे अच्छे से लागू नहीं करे तो उसका लाभ क्या बच्चों को मिल पाएगा? शायद नहीं है। इस तरह बच्चों की आधुनिक शिक्षा की बुनियाद ही कमजोर हो जाएगी। वे आगे जाकर आधुनिक शिक्षा को ग्रहण करना भी चाहें तो उनके सामने तमाम तरह की परेशानियाँ खड़ी होंगी।

सबसे महत्वपूर्ण है धर्मनिरपेक्षता की बात है। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने मदरसा बोर्ड धर्मनिरपेक्षता विरोधी बताया था। भारत के संविधान में अल्पसंख्यकों सहित सबको अपनी धार्मिक शिक्षा लेने-देने एवं उसके लिए स्कूल-कॉलेज खोलने का अधिकार है, लेकिन मदरसा बोर्ड द्वारा राज्य बोर्ड के बराबर दर्जा एक समानांतर व्यवस्था की तरह है। आखिर एक संस्थान, जो सिर्फ अपने मजहब के लोगों को अपने मजहब से संबंधित शिक्षा देता है, उसे राज्य सरकार द्वारा अनुदान क्यों देना चाहिए, ये एक महत्वपूर्ण सवाल है।

मदरसों की हर कक्षा में इस्लाम की पढ़ाई करना जरूरी है। आधुनिक विषय या तो नहीं के बराबर पढ़ाए जाते हैं या फिर वे वैकल्पिक होतेे हैं। मदरसे में शिक्षा पाने वाले बच्चे आधुनिक शिक्षा प्रणाली के तहत डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, चार्टर्ड अकाउंटेंट जैसी शिक्षा हासिल करने में पिछड़ जाते हैं। सरकार की मदद के बावजूद वे आगे चलकर अपना एवं अपने परिवार का जीवन बेहतर बनाने में पिछड़ जाते हैं।

मुस्लिमों की मदरसों की तरह ही अगर हिंदू, बौद्ध, जैन, सिख, लिंगायत आदि भी अपने-अपने धर्मशास्त्रों के अनुसार अपने समाज के बच्चों को शिक्षा देने लगे तो भारत में आधुनिक शिक्षा ह्रास सा हो जाएगा और अंततोगत्वा इसका सीधा असर देश पर पड़ेगा। इसलिए जहाँ पढ़ाई का मामला है वहाँ सभी वर्ग के लोगों को समान शिक्षा दी जानी चाहिए। धार्मिक शिक्षा परिवार का आंतरिक विषय होना चाहिए कि वो कैसे अपने बच्चों को पढ़ाए या सिखाए।

अभी ज्यादा दिन नहीं हुए, जब एक दशक पहले तक मुस्लिमों में पिछड़ापन और अशिक्षा की बात करके मुस्लिम समाज के लोग सच्चर कमिटी रिपोर्ट को लागू करने की माँग करते थे। दिल्ली हाई कोर्ट के न्यायाधीश रहे राजिंदर सच्चर की 2005 में गठित कमिटी ने अपनी रिपोर्ट में मुस्लिम क्षेत्रों में सरकारी स्कूल खोलने और रोजगार में उनकी साझेदारी बढ़ाने की सिफारिश की थी।

मदरसों में बच्चों को बढ़ती संख्या के पीछे गरीबी और शैक्षणिक पिछड़ना है। जिन मुस्लिम परिवारों के लोग आगे बढ़ गए हैं, वे अपने बच्चों की शिक्षा मदरसों में नहीं दिलाते। वे आधुनिक शिक्षा के महत्व को बखूबी समझते हैं। पीएम मोदी और सीएम योगी ने इसके लिए कई उपाय भी किए, लेकिन दीनी शिक्षा के बल पर रोजगार पाना और सरकारी स्कूलों के बजाय मदरसों में मुस्लिम बच्चों की उपस्थिति ने इस पर पानी-सा फेर दिया है।

उत्तर प्रदेश में लगभग 16.5 हजार मदरसों में 17 लाख बच्चे पढ़ते हैं। उनके भविष्य का ख्याल रखना सरकार की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। ऐसे में उत्तर प्रदेश सरकार सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को लेकर अपील करती है तो यह मुस्लिम समाज के उत्थान के लिए एक बड़ा कदम होगा। इससे मुस्लिम समाज में उच्च शिक्षा में बढ़ोतरी के साथ-साथ उनके परिवार में समृद्धि भी आएगी।