राष्ट्रीय जनता दल- एक ऐसी राजनीतिक पार्टी, जिसकी राजनीति की बुनियाद ही जातिवाद और विभिन्न जातियों बीच वैमनस्य पैदा करने पर टिकी हुई है। एक ऐसी पार्टी, जिसके वोट बैंक का आधार ही गुटबंदी है। एक ऐसी पार्टी, जिसके नेता जातिवादी राजनीति और जातिगत गुटबंदी में खुलेआम गर्व का अनुभव करते फिरते हैं। पार्टी के संस्थापक सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव ख़ुद अपने कई बयानों में ‘माई की कृपा‘ का जिक्र करते रहे हैं, जिसका सीधा अर्थ है बिहार में मुस्लिमों और यादवों की संयुक्त गुटबंदी, जो राजद के वोटबैंक का आधार रहा है। पूर्व मुख्यमंत्री लालू ‘भूरा बाल साफ करो‘ का भी नारा देते रहे हैं, जिसका विश्लेषण सामान्य वर्ग में आने वाली बिहार की 4 प्रमुख जातियों के सफाए के रूप में किया गया।
2017 में भी यादव ने कहा था कि भूरा चूहा बिहार के तटबंधों को खाए जा रहा है। बार-बार ‘भूरा’ और ‘माई’ शब्दों का इस्तेमाल कर या फिर उसका सन्दर्भ दे कर जनता के एक विशेष वर्ग में अपनी बात कैसे पहुँचानी है, इस बात को लालू छात्र राजनीति के जीवन से ही समझते हैं। आज लालू जेल में अपने किए की सज़ा भुगत रहे हैं, उन पर तमाम भ्रष्टाचार के आरोप हैं। लेकिन, उनकी अनुपस्थिति में गर्त में जाती पार्टी राज्य में सबसे ज्यादा विधायक लेकर भी अस्तित्व के संकट से जूझती नज़र आ रही है। ताज़ा मामला यह बताता है कि लालू की पार्टी अभी भी उन्हीं की भूली-बिसरी राजनीतिक बिसात बिछा कर सत्ता में वापसी करना चाह रही है, या यूँ कहें कि सुर्खियाँ बटोर रही है।
बंगाल में एक मरीज की मृत्यु के बाद उसके परिजनों ने गुंडई की और डॉक्टरों की पिटाई की। मूकदर्शक बंगाल पुलिस की तो छोड़िए, उन गुंडों को राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का भी समर्थन मिला। नतीजा यह हुआ कि डॉक्टरों ने देशव्यापी हड़ताल किया और अंततः ममता सरकार को उनकी माँगें माननी पड़ी। इस पूरे घटनाक्रम को लेकर शायद राजद की एक टीम ने बैठक की होगी कि कैसे इससे राजनीतिक मलाई निकाल कर उसे चूसा जाए। जहाँ सभी संगठनों ने डॉक्टरों के साथ हुए अन्याय को लेकर उनका साथ दिया, राजद ने इसे एक अलग मोड़ देने की कोशिश की। मुद्दा वही था, बस उनमें जाति घुसा कर कर अपनी वही पुरानी ‘भूरा बाल’ वाली राजनीति फिर से चमकाने की कोशिश में राजद ने एक ट्वीट किया, जिसे आप नीचे पढ़ सकते हैं:
इस ट्वीट में दो-तीन ऐसी चीजें हैं, जिस पर ध्यान देनी ज़रूरी है, जैसे- ‘महज’, ‘सवर्ण’, ‘एक-दो’ और ‘200 दलित’। राष्ट्रीय जनता दल को लगता है कि अगर डॉक्टर सवर्ण है तो वह पिटने के लिए ही बना है, उसकी पिटाई होनी चाहिए। लेकिन हम इस पर बहस कर के राजद की कोशिशों को कामयाब नहीं होने दे सकते। हमारे बहस का मुद्दा है कि राजद को कैसे पता चला कि बंगाल में जिन डॉक्टरों की पिटाई हुई, वे सभी कथित सवर्ण थे? इसके क्या सबूत हैं? देश भर में डॉक्टरों ने विरोध-प्रदर्शन किया, अगर देखा जाए तो उसमें सभी जाति, धर्म, समाज और क्षेत्र के लोग थे, फिर इसमें सवर्ण कहाँ से आ गए?
एक मिनट को मान भी लें कि जिस डॉक्टर की पिटाई हुई वह सामान्य जाति का था, फिर भी यह मुद्दा है क्या? क्या सीमा पर वीरगति को प्राप्त हुए जवानों को जाति देख कर श्रद्धांजलि दी जाएगी? क्या पीड़ितों की संख्या भी ‘महज’ होती है? क्या अगर एक-दो डॉक्टरों की पिटाई होती है तो बाकियों को इन्तजार करना चाहिए 100 डॉक्टरों की पिटाई का, तभी वे सड़क पर निकलें? राजद से पूछा जाना चाहिए कि उनका ‘महज’ कितने तक के आँकड़ों के लिए प्रयोग किया जाता है? राजद ने डॉक्टरों की पिटाई को जस्टिफाई किया है, उसे सही ठहराया है। राजद ने साफ़ कर दिया है कि अगर कभी कोई भी दुर्भाग्यपूर्ण घटना होती है और उसमें पीड़ित अगर सामान्य वर्ग का है तो उसे लेकर कोई विरोध प्रदर्शन नहीं होना चाहिए।
अब राजद की इसी ट्वीट में एक और ग़लती। पार्टी ने मुजफ्फरपुर में मर रहे बच्चों की भी जाति ढूँढ़ ली। पार्टी का दावा है कि AES (एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम) से मर रहे बच्चे दलित हैं। हाँ, इनमें से अधिकतर बच्चे ग़रीब, पिछड़े और मुख्यधारा से कटे परिवारों से आते हैं, लेकिन इनमें कौन ओबीसी है और कौन दलित है, कौन सामान्य वर्ग से है – इस बारे में बात करने का औचित्य ही क्या बनता है? मरते मासूमों की जाति खोजने वाली राजद बिहार की मुख्य विपक्षी पार्टी है। लेकिन बिहार में विपक्ष कहाँ है? 80 से भी अधिक विधायकों वाली पार्टी अगर गंभीरता दिखाई होती तो शायद नीतीश सरकार व स्थानीय प्रशासन की हिम्मत नहीं होती कि इस बीमारी को लेकर ढिलाई बरतते। लेकिन बिहार में विपक्ष संख्याबल में मुख्य सत्ताधारी पार्टी से ज्यादा मजबूत होने के बावजूद निकम्मी और निष्क्रिय है क्योंकि पार्टी हर घटना में जाति देखने में लगी है। पार्टी को तो इस पर बात करनी चाहिए कि मरते बच्चों को कैसे बचाया जाए, लेकिन जाति है कि जाती नहीं।
क्या विपक्ष की यह ज़िम्मेदारी नहीं बनती कि अगर इस बीमारी से एक भी बच्चे की मौत होती है तो वह प्रशासन को कटघरे में खड़ा करे? दोषी नीतीश और भाजपा सरकार है, लेकिन क्या इस दोष में साझेदारी उस विपक्ष की नहीं है जिसने जनता द्वारा दिए गए संख्याबल का मजाक उड़ाते हुए मरते बच्चों के मामले में सरकार को घेरने में हद से ज्यादा देरी की। राजद के किसी भी नेता से जब पूछा जाता है कि 15 वर्षों तक राज्य में शासन चलाने के बावजूद पार्टी ने क्या किया, इस पर उनका जवाब होता है कि सामाजिक न्याय किया। सामाजिक न्याय दिखाई और सुनाई नहीं देने वाली चीज है। अगर वो कहते कि सड़कें बनाई गईं और बिजली पहुँचाई गई तो शायद इस पर बहस हो सकती थी कि कितना काम किया गया, लेकिन राजद का कथित ‘समाजिक न्याय’ पार्टी के लिए हर विवाद से बचने का माध्यम है।
राजद के इस ट्वीट से लगता है कि महीनों से RIMS में इलाजरत पार्टी सुप्रीमो भी शायद डॉक्टरों की जाति देख अपना चेक-अप करने देते हैं। पहले मार-मार के खोपड़ी फोड़ दी जाती है और तब उस डॉक्टर की जाति पूछते हैं, फिर उससे चेक-अप करवाते हैं। जहाँ राजद को उस डॉक्टर के स्वास्थ्य के बारे में चिंता करनी चाहिए थी, देश भर के डॉक्टरों की माँगें मानी गईं या नहीं, इस पर मनन करना चाहिए था, वहाँ पार्टी ने उस घटना को डाउनप्ले करने की ठानी और उसमें जाति घुसा कर राजनीतिक फसल काटने की कोशिश की। पत्रकारों से जूठी पत्तल उठवाने का दावा करने वाली राबड़ी देवी की पार्टी के मन में दुनिया के किसी भी प्रोफेशन के लिए कोई सम्मान है ही नहीं, ऐसा उसने साबित कर दिया है। पार्टी अभी भी ‘भूरा बाल साफ़ करो’ वाले युग में ही जी रही है, जिसकी पोल जनता पहले ही खोल चुकी है।
राजद ने कुछ नया नहीं किया है। संवेदनशील मुद्दों को जातिगत मोड़ देने की लालू की पुरानी शैली पर ही वे काम करते दिख रहे हैं। अपने पुराने दिनों में की गई हर रैली में ‘अहीर के घर पैदा होने’ की बता करने वाले लालू यादव की पार्टी अब भी ‘सवर्ण विरोध’ वाली मानसिकता से ही ग्रसित है। भले ही सच्चाई जो भी हो, पीड़ित पक्ष को सवर्ण साबित कर यह दिखाने की कोशिश है कि ये तो बने ही हैं पिटने के लिए, इसके पिटने का मजा लो। राजद जाति की बात करेगी, विरोधी बताएँगे कि डॉक्टर कौन सी जाति के थे और पार्टी का उद्देश्य पूरा हो जाएगा। लेकिन, असली सवाल यूँ ही जस का तस बना रहेगा कि डॉक्टर ही नहीं, किसी भी व्यक्ति को अगर प्रताड़ित किया जाता है तो इसमें उसकी जाति देख यह निर्णय लिया जाएगा क्या कि मामला कितना गंभीर है? या फिर प्रताड़ना का स्तर देख कर?
असली सवाल जस का तस बना रहेगा कि क्या देश भर में विरोध प्रदर्शन कर रहे हज़ारों डॉक्टरों को एक प्रोफेशन के विरोध प्रदर्शन के रूप में देखा जाएगा या फिर पहले यह गणना कराई जाएगी कि इसमें कितने यादव हैं, कितने ब्राह्मण है और कितने दलित हैं? राजद शायद लालू की इसी राजनीति को लेकर आगे बढ़ती रही तो पार्टी का क्षय तय है, जिसकी शुरुआत हो चुकी है। रही बात डॉक्टरों और स्वास्थ्य क्षेत्र को लेकर राजद के रवैये की तो इस पर पार्टी न ही कुछ बोले तो बेहतर है। हाल ही में नीतीश के साथ सत्ता के साझीदार होने के दौरान अपने पुत्र तेज प्रताप को स्वास्थ्य मंत्री बनवा कर लालू ने कैसे अस्पतालों व मेडिकल अधिकारियों के कार्यों में प्रबल हस्तक्षेप किया था, इसकी भी हम कभी चर्चा करेंगे।