Monday, November 18, 2024
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जानिए उन 10 आतंकियों के नाम, जिनकी गृह मंत्री अमित शाह ने तैयार करवाई है लिस्ट

लोकसभा चुनाव के बाद की प्रक्रियाएँ पूरी होते ही मोदी 2.0 पूरे एक्शन मोड में आ चुकी है। देश की जनता की निगाहें गृह मंत्री अमित शाह पर टिकी हुई हैं। पदभार संभालने के बाद अमित शाह एक्शन मोड में आ गए हैं। शाह ने गृहमंत्री का पद संभालने के बाद सबसे पहले, जम्मू-कश्मीर में सक्रिय टॉप 10 आतंकियों की सूची तैयार कराने का काम किया है। शाह के इस फैसले से संदेश चला गया है कि वह आतंकवादियों के खिलाफ जीरो टॉलरेंस की नीति अपनाने वाले हैं।

गृह मंत्री अमित शाह ने जो लिस्ट तैयार करवाई है, उसमें हिजबुल मुजाहिदीन, लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद और अल-बदर जैसे आतंकी संगठनों के प्रमुख आतंकियों को शामिल किया गया है। ये आतंकवादी जम्मू-कश्‍मीर के अलग-अलग हिस्सों में आतंक फैला रहे हैं।

गृह मंत्री की टॉप 10 लिस्ट में शामिल आतंकवादियों की सूची :

  1. वसीम अहमद उर्फ ओसामा – वसीम अहमद लश्कर-ए-तैयबा का आतंकवादी है और शोपियाँ डिस्ट्रिक्ट का कमांडर है।
  2. रियाज अहमद नाईकू – यह हिजबुल मुजाहिदीन का चीफ कमांडर है।
  3. मुहम्मद अशरफ खान – मुहम्मद अशरफ हिजबुल मुजाहिदीन का आतंकवादी और अनंतनाग का डिस्ट्रिक्ट कमांडर है।
  4. मेहराजुद्दीन – यह भी हिजबुल मुजाहिदीन का आतंकवादी है और बारामूला डिस्ट्रिक्ट का कमांडर है।
  5. डॉ. सैफुल्ला – डॉ. सैफल्ला हिजबुल मुजाहिद्दीन से जुड़ा है और इसका काम संगठन में नए लोगों को भर्ती करने का है।
  6. अरशद-उल-हक – अरशद उल हक हिजबुल का आतंकवादी है और पुलवामा का डिस्ट्रिक्ट कमांडर है।
  7. हाफिज उमर – ये जैश-ए-मोहम्मद का आतंकवादी है और पाकिस्तान का रहने वाला है।
  8. जाहिद शेख – जाहिद शेख भी जैश-ए-मोहम्मद का ही आतंकवादी है।
  9. जावेद अहमद मट्टू – जावेद अहमद मट्टू आतंकवादी संगठन अल बदर से जुड़ा हुआ है।
  10. एजाज अहमद मलिक – सुरक्षा एजेंसियों को अंदेशा है कि हिजलुब ने एजाज को कुपवाड़ा का कामांडर नियुक्त किया है।

286 आतंकी अभी भी सक्रिय हैं घाटी में

मंत्रालय ने दावा किया है कि घाटी में इस साल 102 आतंकवादी मारे गए हैं। जबकि 286 आतंकी अभी भी सक्रिय हैं। गौरतलब है कि पदभार संभालने के बाद अमित शाह ने तुरंत जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल सत्य पाल मलिक से मुलाकात की। इस मुलाकात में शाह ने राज्य में सुरक्षा स्थिति के बारे में जानकारी दी। जम्मू-कश्मीर में फिलहाल राष्ट्रपति शासन लागू है। 15 मिनट की मुलाकात में राज्यपाल ने गृह मंत्री अमित शाह को अमरनाथ यात्रा की तैयारी से अवगत कराया। 46 दिन तक चलने वाली यह यात्रा 1 जुलाई को मासिक शिवरात्रि के दिन से शुरू होगी और 15 अगस्त को श्रावण पूर्णिमा के दिन संपन्न होगी।

‘द हिन्दू’ वालो, पुरी में रथ बनेगा भी, चलेगा भी, और तुम्हारी एंटी हिन्दू छाती पर मूंग भी दलेगा

‘हिन्दू’ नाम होते हुए भी हिन्दूफ़ोबिया का गढ़ अख़बार ‘द हिन्दू’ हिंदुत्व के पीछे हाथ धोकर पड़ गया है। गौड़िया वैष्णव संप्रदाय/इस्कॉन के एनजीओ ‘अक्षयपात्र फाउंडेशन’ के खिलाफ बच्चों के मिड-डे मील को प्याज-लहसुन, दलित कुक और पता नहीं क्या-क्या लेकर प्रोपेगैंडा किया था, और अब उनका जगन्नाथ पुरी के खिलाफ ‘हिट जॉब’ सामने आया है। इसमें जगन्नाथ पुरी की रथयात्रा में विघ्न डालने के लिए पर्यावरण की झूठी चिंता के बहाने रथ बनाने पर रोक लगाने की ज़मीन तैयार की जा रही है। एक संदिग्ध दिख रहे एनजीओ के हवाले से यह माँग की जा रही है कि पुरी की रथयात्रा के रथ बनाने के लिए पेड़ काटना बंद कर दिया जाए।

एकतरफ़ा कवरेज

पत्रकारिता के ककहरे में से एक होता है ‘संतुलित कवरेज’। यानि कि किसी भी स्टोरी के किसी एक पहलू को पकड़ने की बजाय हर पक्ष को अपनी बात कहने का मौका दिया जाता है, उसके बाद सभी के उत्तर प्रकाशित किए जाते हैं। 140 साल पुराने और 12 लाख प्रतियाँ रोज़ प्रकाशित करने वाले अख़बार की स्टोरी में यह सन्तुलन, यह निष्पक्षता पूरी तरह गायब हैं। केवल उस एनजीओ, वैदिक साइंस रिसर्च सेंटर, के निराधार, अनर्गल आरोपों को ऐसे छापा गया है मानो वह ब्रह्म-वाक्य हों।

कोई आँकड़े नहीं

एनजीओ दावा करता है कि पेड़ों के कटने से होने वाले ‘असली नुकसान’ की कभी भी भरपाई नहीं हो सकती- तब भी नहीं जब यह धूर्त एनजीओ खुद मानता है कि जगन्नाथ पुरी आगामी वर्षों में रथ-निर्माण के लिए जरूरी लकड़ी के लिए खुद पहले से पेड़ लगाता है। लेकिन यह कौन सा ‘असली नुकसान’ है, इसका क्या पैमाना है, इसे कौन नाप रहा है, कैसे नाप रहा है, इसका कोई भी हिसाब नहीं है। और हो भी नहीं सकता, क्योंकि ऐसा कोई ‘असली नुकसान’ है ही नहीं। एनजीओ को छपास की पिपासा है, और ‘द हिन्दू’ जैसे हिन्दूफ़ोबिक पत्रकारिता के समुदाय विशेष के अख़बार को कोई चाहिए जिसके हवाले से हिन्दूफ़ोबिक प्रोपेगैंडा फैलाया जा सके।

एनजीओ की भी कोई विश्वसनीयता नहीं

जिस एनजीओ, वैदिक साइंस रिसर्च सेंटर, का हवाला द (एंटी-)हिन्दू देता है, वह खुद भी विश्वसनीयता के किसी भी पैमाने पर खरा नहीं उतरता। जैसा कि ऊपर बताया गया है, वह ‘असली नुकसान’ का कोई आँकड़ा या प्रमाण नहीं देता, केवल दावा फेंक देता है। इसके अलावा भी इसकी कहानी में कई छेद हैं। द हिन्दू इसे ओडिशा स्थित एनजीओ बताता है, लेकिन इसके फेसबुक पेज पर अगर देखें तो यहाँ अधिकतर तमिल भाषा के अन्य लोगों के पोस्ट्स साझा होते हैं। न ही बहुत ज्यादा इस पेज के खुद के पोस्ट्स हैं, न ही इसकी कथित स्थानीय भाषा ओड़िया में पोस्ट्स हैं।

इसके अलावा इस लेखक ने जब इस एनजीओ की वेबसाइट पर जाने की कोशिश की तो कंप्यूटर के एंटी-वायरस सॉफ्टवेयर ने चेतावनी दी कि इस वेबसाइट पर जाने में निजी जानकारी के अनधिकृत प्रयोग, ऑनलाइन पहचान की चोरी (आइडेंटिटी थेफ़्ट) आदि का खतरा है। यह इस एनजीओ पर, और उसके ‘विरोध’ पर आधारित द (एंटी-)हिन्दू की रिपोर्ट पर और भी सवालिया निशान खड़े करता है।

हिन्दुओं की आस्था और परंपराओं पर सीधा हमला

हिन्दुओं की आस्था पर, उनकी परंपराओं पर हमला, उन्हें खत्म करने के लिए पृष्ठभूमि तैयार करना ही इस लेख का असली मकसद है, और उपयुक्त ज़मीन तैयार करने के बाद द (एंटी-)हिन्दू सीधे-सीधे यही करने पर उतर भी आता है। लेख में द (एंटी-)हिन्दू आगे लिखता है (संदिग्ध एनजीओ के हवाले से)- यह परंपरा आम लोगों के मानस में पेड़ों की महत्ता को कम करती है जो पेड़ों के परिपक्व होने में लगने वाले समय और उनके धरती के रक्षक होने को समझ नहीं पाते। यानि सीधे-सीधे रथयात्रा की परंपरा को अवैध साबित कर खत्म करने के लिए आह्वाहन किया जाता है।

अकेला अपवाद नहीं, पूरी शृंखला है

यह लेख कोई अपवाद नहीं, बार-बार आजमाया हुआ फार्मूला है हिन्दुओं की हर परंपरा को खत्म करने का- पहले सालों तक धीरे-धीरे उस पर परंपरा पर कभी समाजशास्त्रीय बहाने से, कभी पर्यावरण तो कभी लैंगिक-न्याय के नाम पर सवाल उठाओ, और जब ‘माहौल’ बन जाए, अपने प्रेशर ग्रुप तैयार हो जाएँ, तो न्यायिक याचिका डालकर उसे प्रतिबंधित कर दो।

सबरीमाला पर सालों तक मैगज़ीन्स आदि के जरिए सवाल उठा कर सामाजिक रूप से अमान्य करने का माहौल तैयार हुआ; पटाखों पर प्रतिबंध लगाने के पहले चुन-चुन कर केवल दीपावली के समय वायु प्रदूषण पर लेख लिखे गए ताकि ऐसा लगे कि एक दीपावली का त्यौहार ही सब लोगों के हिस्से की साल भर की ऑक्सीजन हड़प रहा है; दही-हांडी और जल्लीकट्टू को भी प्रतिबंधित करने के पहले ‘इकोसिस्टम’ ने उनपर सालों तक ‘चिंता जाहिर कर’ लोगों को इनमें भाग न लेने की एडवाइज़री जारी की, और अब काले दिल वाले इन असुरों की गिद्ध-दृष्टि पुरी के श्री कृष्ण के रथ पर है। यह हिन्दुओं पर है कि वह इन असुरों को रथ का पहिया तोड़ देने देते हैं, या इनके आसुरिक इरादों को ही रथयात्रा के नीचे कुचल देते हैं…

वाड्रा के सवालों में हर बार झलकता है विरोधाभास, इसलिए ED बुलाती है बार-बार

आज ईडी दफ्तर जाने से पहले रॉबर्ट वाड्रा ने अपने ‘दुख’ को फेसबुक पर शेयर किया। रॉबर्ट ने फेसबुक पर लिखा, ‘जाँच एजेंसियों ने मुझे 13 बार पूछताछ के लिए बुलाया। मैंने हर सवाल का जवाब दिया है, मुझे बेवजह परेशान किया जा रहा है।’ रॉबर्ट के इस पोस्ट के बाद किसी को भी उनसे सहानुभूति हो जाएगी, कि बार-बार कौन से सवाल है जो 13 बार में पूछे नहीं गए। लेकिन हम आपको बताते हैं कि आखिर क्यों रॉबर्ट से ईडी को बार-बार सवाल पूछने के लिए जरूरत पड़ रही है।

दरअसल, ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि रॉबर्ट के सहयोगियों द्वारा लिए बयानों और रॉबर्ट के बयानों में बार-बार विरोधाभास देखने को मिल रहा है। इतना ही नहीं, कभी-कभी तो एक ही सवाल के जवाब पर रॉबर्ट वाड्रा खुद ही जवाब बदलते पाए गए हैं। अब ईडी द्वारा पूछे गए ये सवाल कौन से हैं और इनका जवाब रॉबर्ट के सहयोगियों ने क्या दिया और रॉबर्ट वाड्रा ने क्या दिया? आइए हम आपको बताएँ।

दरअसल, अपनी पूछताछ के जरिए ईडी कुछ तथ्यों पर स्पष्टता चाहती है। लेकिन रॉबर्ट और उनके बयानों से ऐसा मुमकिन नहीं हो पा रहा है। मसलन कुछ सवाल और विरोधारभास के साथ जवाब निम्नलिखित हैं।

1. तथ्य- क्या रॉबर्ट वाड्रा, पूजा चड्ढा को जानते हैं?
इस तथ्य पर स्पष्टता पाने के लिए ईडी ने रॉबर्ट वाड्रा से दो दिन सवाल किए 7 फरवरी को ईडी के सवाल नं-15 पर रॉबर्ट ने कहा कि वह इस बारे में स्पष्ट नहीं बता सकते (cannot categorically state) जबकि 8 फरवरी को ईडी के सवाल नं-35 पर उन्होंने मना कर दिया कि पूजा चड्ढा को जानते ही नहीं हैं।

2. तथ्य-क्या रॉबर्ट वाड्रा, सुमित चड्ढा को जानते हैं?
7 फरवरी को ईडी के सवाल नं-9 और 11 पर रॉबर्ट ने बयान दिया कि वो सुमित से मिले ही नहीं हैं। जबकि 14 फरवरी को सवाल नं-16 के उत्तर में रॉबर्ट के सहयोगियों के बयान अनुसार वो सुमित चड्ढा को सुमित भंडारी के जरिए जानते हैं।

3. तथ्य- क्या रॉबर्ट वाड्रा, सीसी थंपी को जानते हैं?
6 फरवरी को ईडी के सवाल नं-33 पर रॉबर्ट ने कहा कि वो सीसी थंपी को अमीरात की फ्लाइट में मिले थे। जबकि सीसी थंपी ने 6 अप्रैल 2017 को पूछताछ के दौरान सवाल नं-11 पर जवाब दिया था कि वो सोनिया गाँधी के पीए माधवन के जरिए रॉबर्ट से मिले।

4. तथ्य- क्या रॉबर्ट वाड्रा को 12 ब्राएंस्टन स्क्वायर के बारे में जानकारी थी?
7 फरवरी को सवाल नं-30 के जवाब में रॉबर्ट ने बताया था कि वो उस जगह कभी नहीं रुके हैं। जबकि सीसी थंपी का कहना है कि वह 12 ब्राएंस्टन स्क्वायर में ठहर चुके हैं।

5. तथ्य- रॉबर्ट वाड्रा के पास सुमित चड्ढा और पूजा चड्ढा के ईमेल?
6 फरवरी सवाल नं-6 पर रॉबर्ट ने स्वीकारा कि [email protected] उनकी इमेल आईडी है और 7 फरवरी की पूछताछ में सवाल संख्या 43 से 54 में वो बार-बार नकारते दिखे कि ईमेल उन्हें लिखे ही नहीं गए हैं। वहीं, मनोज अरोड़ा ने 16 फरवरी को सवाल संख्या 8 और 15 के जवाब में बयान दिया कि सुमित चड्ढा द्वारा भेजे गए ईमेल में रॉबर्ट वाड्रा के ही हैं।

6. तथ्य- क्या रॉबर्ट वाड्रा विपुल बेरीवाल और संजीव वर्मा को जानते हैं?
7 फरवरी को सवाल नं- 23 पर रॉबर्ट वाड्रा ने साफ़ मना किया कि वो विपुल बेरीवाल को नहीं जानते हैं। इसके बाद 14 जनवरी को सवाल नं-39 पर और 31 जनवरी को पूछे गए सवाल नं-28 पर मनोज अरोड़ा ने बयान दिया कि वो विपुल बेरीवाल और रॉबर्ट को नहीं जानते हैं। हालाँकि हो सकता है कि उनकी रॉबर्ट के साथ अपॉइंटमेंट थी, जिस कारण उनके मोबाइल में बेरीवाल के नाम से विपुल का नंबर हो सकता है। संजीव वर्मा को भी दो पक्षों ने जानने से इंकार किया।

7. तथ्य- क्या RV का मतलब रॉबर्ट वाड्रा है?
7 फरवरी को हुई पूछताछ में सवाल नं-24 के जवाब में रॉबर्ट ने कहा कि उन्हें RV के नाम से नहीं जाना जाता है, और न ही लोग उन्हें RV कहकर पहचानते हैं। जबकि मनोज अरोड़ा का कहना है कि उनके मोबाइल में रॉबर्ट वाड्रा का नाम MRV के नाम से सेव है। जिसका मतलब मिस्टर रॉबर्ट वाड्रा है।

8. तथ्य- क्या रॉबर्ट वाड्रा जगदीश शर्मा को जानते हैं?
6 फरवरी को दिए बयान में सवाल-22 और 24 में रॉबर्ट वाड्रा ने कहा कि वो जगदीश शर्मा उनके आस-पास मंडराता रहता था, उनको फॉलो करता था और उनसे जुड़ना चाहता था, लेकिन उन्होंने उनके साथ कभी काम नहीं किया था। जबकि 8 दिसंबर 2018 को हुई पूछताछ में सवाल 3 और 5 में जगदीश शर्मा ने बताया था कि वो गाँधी परिवार के करीबियों में से है, लेकिन सबसे ज्यादा वो रॉबर्ट वाड्रा के करीब है। वो रॉबर्ट वाड्रा के लिए पॉलिटिकल प्रोफाइलिंग करते थे और कई मामलों में सलाह भी देते थे।

9. क्या रॉबर्ट वाड्रा को ‘साहब’ के नाम से जाना जाता है?
7 फरवरी 2019 को सवाल नं-24 का जवाब देते हुए रॉबर्ट ने बताया था कि उनके अधीन काम करने वाले उन्हें बॉस कहते हैं, लेकिन 8 मार्च को सवाल नं-24 पर रॉबर्ट ने कहा कि उन्हें रॉबर्ट साहब कहकर नहीं बुलाया जाता। जबकि दिसंबर 12, 2019 की पूछताछ में जगदीश शर्मा का कहना था कि रॉबर्ट साहब कहकर ही बुलाया जाता था।

8 दिसंबर 2018 को अनुज नौटियाल ने अपने बयान में कहा कि जगदीश शर्मा ने उन्हें बतया था कि उनके बॉस ने विदेशी सम्पत्तियों में निवेश कर रखा है। यहाँ जगदीश ने रॉबर्ट वाड्रा के लिए बॉस शब्द का प्रयोग किया गया था। 16 जनवरी की पूछताछ में मनोज अरोड़ा द्वारा भी बताया गया था कि रॉबर्ट वाड्रा को RV कहा जाता है।

सचिवालय में पॉर्न वीडियो चला, क्या आपने राजीव गाँधी को शुक्रिया कहा?

कॉन्ग्रेस और इस पार्टी के समर्थकों ने मोदी सरकार के दौरान चर्चा में आने वाली हर दूसरी चीज को गलत बताया लेकिन सच्चाई जानकार आप हैरान रह जाएँगे। वास्तविकता यह है कि जितना लाभ डिजिटल इंडिया और दैनिक सस्ते इंटरनेट का मोदी विरोधियों ने उठाया है, उतना शायद ही किसी और ने उठाया होगा। चाहे कुणाल कामरा जैसे सस्ते कॉमेडियंस के माध्यम से दर्शनशास्त्र सीखकर फेक न्यूज़ को पूरी चौड़ाई से सतसंग बनाकर पढ़ाने वाले सोशल मीडिया विचारक हों, या फिर उदाहरण के लिए आज राजस्थान सचिवालय में घटी एक निंदनीय घटना को ही ले लीजिए।

दरअसल, सोमवार को शासन सचिवालय में खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति विभाग की ओर से वीडियो कॉफ्रेंस का आयोजन किया गया था। उस समय विभाग की सचिव मुग्धा सिन्हा विभाग के अधिकारियों से विभिन्न योजनाओं पर चर्चा कर रही थीं। इसी दौरान स्‍क्रीन पर अचानक ‘गन्दी’ वीडियो चल गई। यह वीडियो तकरीबन 2 मिनट तक चलता रहा और किसी तरह से टेक्निकल टीम ने वीडियो को बंद किया। सुनने में तो यह भी आ रहा है कि इस घटना की अब जाँच होनी है। जबकि कॉन्ग्रेस सरकार ‘हुआ तो हुआ’ के ध्येयवाक्य पर काम करती है, ऐसे में जाँच सिर्फ घटिया की जगह अच्छी क्वालिटी की वीडियो तलाशने से ही हो सकता है।

नहीं, राजीव गाँधी इसलिए नहीं लेकर आए थे देश में कम्प्यूटर

टेक्नोलॉजी, कम्प्यूटर का विषय हो और बोफोर्स घोटालों के आरोपित हमारे भूतपूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी जी को याद न किया जाए. यह संभव ही नहीं है। नेहरुघाटी सभ्यता में जन्मे कुछ विचारकों के अनुसार रॉबर्ट वाड्रा के ससुर राजीव गाँधी जी खुद अपने कन्धों पर लादकर कम्प्यूटर इस देश में लेकर आए थे। लेकिन सोमवार को सचिवालय में घटी इस निंदनीय घटना के बाद कुछ अराजक तत्वों ने प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू की जगह पर शुक्रिया राजीव के नारे लगाने शुरू कर दिए।

लेकिन, फेकिंग न्यूज़ की ख़बरों का फैक्ट चेक कर के मशहूर हुए कुछ फेक न्यूज़ एक्सपर्ट विचारकों ने तुरंत इसका भी फैक्ट चेक किया और बताया, “नहीं, जिस कम्प्यूटर में यह पॉर्न वीडियो चला, उसे राजीव गाँधी देश में लेकर नहीं आए थे।”

हालाँकि, यह मनन करने लायक बात है कि जब इस देश में लाए गए एक-एक कम्प्यूटर के पीछे राजीव गाँधी का हाथ है, तो आखिर उन्होंने कॉन्ग्रेस के नेताओं को क्यों छोड़ दिया?

वहीं, इस घटना के अरविन्द केजरीवाल के कानों में पड़ते ही उन्होंने तुरंत उच्चस्तरीय कमिटी बैठाकर निर्णय लिया कि राजस्थान में जब भी विधानसभा चुनाव होंगे वो बिना टेक्नीकल मिस्टेक के ही जनता के उत्साह को ध्यान में रखते हुए मुफ्त में ‘गन्दी बात’ उपलब्ध कराएँगे। उन्होंने तर्क दिया कि ऐसे समय में जब लोग जेसीबी की खुदाई के अलावा कुछ और बात करने को तैयार ही नहीं थे, ऐसे में कॉन्ग्रेस शासित राजस्थान में हुई इस घटना ने लोगों का पूरा ध्यान बटोर लिया।

खैर, हुआ तो हुआ का समय है। कभी दिल्ली के राजीव चौक मेट्रो स्टेशन पर हो जाता है, तो कभी राजस्थान के सचिवालय में हो जाता है, कभी-कभी तो संसद में भी चल पड़ा था। लेकिन, इसका मतलब ये नहीं कि एक बार गलती से चला दो और दूसरी बार जाँच करने के लिए। हालाँकि, जो भी हुआ उसमें डिजिटल इंडिया और दैनिक सस्ते इंटरनेट की छाप तो है ही, चाहे गोदी मीडिया कितना भी छुपाने की कोशिश करे।

आप तो नेहरू और राजीव गाँधी को शुक्रिया कहना भूल गए, लेकिन नेहरुघाटी सभ्यता के विचारक नहीं भूले- एक नजर

10 दिन की NIA कस्टडी में भेजे गए अलगाववादी नेता शब्बीर शाह, आसिया अंद्राबी और मशरत आलम

कश्मीर घाटी में टेरर फंडिंग के मामले में राष्ट्रीय जाँच एजेंसी (एनआईए) ने शिकंजा कसना शुरू कर दिया है। एनआईए ने तीन अलगाववादी नेताओं शब्बीर शाह, आसिया आंद्राबी, और मशरत आलम को गिरफ्तार कर दिल्ली की एक स्पेशल कोर्ट के सामने पेश किया, जहाँ से उन्हें 10 दिन की एनआईए कस्टडी में भेज दिया गया। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के बतौर केंद्रीय गृह मंत्री पदभार संभालने के हफ्ते भर के भीतर ही कश्मीर में आतंक के खिलाफ यह पहली बड़ी कार्रवाई है।

दरअसल, यह मामला 2008 के मुंबई आतंकवादी हमले के सरगना और जमात उद दावा प्रमुख हाफिज सईद से जुड़ा हुआ है। राष्ट्रीय जाँच एजेंसी ने विशेष न्यायाधीश राकेश स्याल की अदालत में बंद कमरे में चल रही सुनवाई के दौरान तीनों को गिरफ्तार किया और 15 दिनों तक उन्हें हिरासत में लेकर पूछताछ करने की माँग की। आरोपियों के वकील एम एस खान ने बताया कि आसिया और शाह अलग-अलग मामलों में पहले से ही हिरासत में हैं, जबकि आलम को ट्रांजिट रिमांड पर जम्मू- कश्मीर से लाया गया था।

एनआईए ने 2018 में सईद, एक अन्य आतंकवादी सरगना सैयद सलाउद्दीन और दस कश्मीरी अलगाववादियों के खिलाफ घाटी में आतंकवादी गतिविधियों के लिये कथित तौर पर धन मुहैया कराने और अलगाववादी गतिविधियों के मामले में आरोपपत्र दायर किया था। आरोपियों के खिलाफ जिन अपराधों के तहत आरोपपत्र दायर किया गया है, उनमें आईपीसी की धारा 120बी (आपराधिक षड्यंत्र) और गैर कानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम, 1967 के विभिन्न प्रावधानों के तहत दंडनीय अपराध शामिल है।

गौरतलब है कि, 30 मई 2017 को एनआईए ने अलगाववादी नेताओं और हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के कुछ अज्ञात सदस्यों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की थी। इस मामले में पहली गिरफ्तारी 24 जुलाई 2018 को हुई थी। इन पर हिजबुल मुदाहिदीन, दुख्तरन-ए-मिल्लत और लश्कर-ए-तैयबा जैसे आतंकी संगठनों के साथ मिलकर आतंक के लिए धन जुटाने (टेरर फंडिंग) का आरोप है।

हिंदीभाषियों के विशाल हृदय का सबूत है दक्षिण की फिल्मों का व्यापक बाज़ार

नई शिक्षा नीति पर जो ड्राफ्ट बनी है, उसे फाइनल नीति समझ कर हल्ला मचा रहे दक्षिण के नेता जनता की भावनाओं को समझने में अक्षम रहे हैं। ऐसा नहीं है कि वे उत्तर भारतीय जनता के बात-विचार से दूर हैं, बल्कि वे ख़ुद के प्रदेश की जनता से भी बुरी तरह अनभिज्ञ हैं। यहाँ हम ‘नेशनल एजुकेशन पॉलिसी ड्राफ्ट’ से इतर एक व्यापक स्तर पर चर्चा करेंगे क्योंकि इसे लेकर काफ़ी बहस हो चुकी है और सरकार को बदलाव करने को मजबूर होना पड़ा है। वैसे, यह ड्राफ्ट लाया ही गया था जनता की राय के आधार पर बदलाव करने के लिए, सरकार ने साफ़ कर दिया है कि यह सिर्फ़ एक रिपोर्ट है, फाइनल नीति नहीं है। हिंदी से किसे दिक्कत है? दक्षिण भारतियों को? इसका जवाब है- नहीं, बिलकुल नहीं।

दक्षिण भारतीय नेता हिंदी से दिक्कत होने का दिखावा करते हैं क्योंकि उन्हें पता है कि एक बार दक्षिण भारत के लोग अच्छी तरह हिंदी सीख जाएँ तो इन नेताओं का काम काफी कठिन हो जाएगा। इसके लिए हमें 15 वर्ष पीछे जाना पड़ेगा। द्रमुक और अन्नाद्रमुक कई वर्षों से लगातार हिंदी का विरोध करते रहे हैं और करुणानिधि की तो पूरी राजनीति ही हिंदी का विरोध कर के चमकी थी (अन्य आन्दोलनों के अलावा)। आज करुणानिधि के बेटे और डीएमके प्रमुख स्टालिन अपने पिता की ही नीति पर चल रहे हैं, जो सफल रही थी। आज से लगभग 15 वर्ष पहले जब अभिनेता विजयकांत ने राजनीति में एंट्री ली थी, तब उन्होंने हिंदी भाषा पढ़ाए जाने का समर्थन किया था।

तब युवाओं के बीच खासे लोकप्रिय रहे विजयकांत तमिलनाडु में नेता प्रतिपक्ष बने। हो सकता है कि अब एक फुल टाइम राजनीतिज्ञ के रूप में उनकी राय बदल गई हो लेकिन तब उन्होंने कहा था कि तमिलनाडु के स्कूलों में तमिल को पहली प्राथमिकता देते हुए हिंदी और अंग्रेजी पढ़ाई जानी चाहिए। विजयकांत का मानना था कि अंग्रेजी से तमिलनाडु के छात्रों के लिए एक वैश्विक दरवाजा खुल जाएगा, वहीं हिंदी भाषा सीखने के बाद उत्तर भारत में या तमिलनाडु से बाहर अन्य कई राज्यों में नौकरी करने में उन्हें कोई परेशानी नहीं होगी। विजयकांत एक सफल अभिनेता रहे हैं, अब उनका राजनीतिक करियर भले ही बुरे दौर से गुज़र रहा हो लेकिन तमिलनाडु जैसे बड़े राज्य में नेता प्रतिपक्ष का राजनीति से परे बयान का अध्ययन ज़रूरी है।

अब सवाल यह उठता है कि जिस राज्य में हिंदी को गालियाँ देने पर वोट मिलते हों, वहाँ कोई उभरता हुआ नेता हिंदी का समर्थन क्यों करेगा? इसका जवाब है- बदलते जमाने के साथ बदलती इंडस्ट्री और बदलती पीढ़ियों के साथ बदलती सोच। फ़िल्म इंडस्ट्री में लम्बे समय तक सक्रिय रहे विजयकांत को इंडस्ट्री की समझ थी और बदलते दौर में उन्हें पता चल गया था कि अगर तमिल फ़िल्मों को राज्य की दहलीज पार करा कर देश-दुनिया में लोकप्रिय बनाना है तो हिंदी में डब्ड फ़िल्मों के बाजार में घुस कर छाना पड़ेगा, अन्यथा तमिलनाडु के कुछ जिलों में छोड़ कर टॉलीवुड का कहीं भी कोई प्रभाव नहीं रह जाएगा।

समझदार विजयकांत को सिनेमा के बदलते दौर का अनुभव था और इसीलिए उन्होंने ऐसा बयान दिया। और देखिए, हुआ भी ऐसा ही। न सिर्फ़ तमिल बल्कि तेलुगु सिनेमा इंडस्ट्री भी इस मामले में काफ़ी आगे निकल गई। आज दक्षिण भारतीय फ़िल्मों का हिंदी डब्ड मार्केट इतना बड़ा है, जिसकी आप कल्पना तक नहीं कर सकते। इसके लिए सबसे पहले बात यूट्यूब से शुरू करते हैं, फिर हिंदी टीवी चैनलों से होकर बॉक्स ऑफिस तक पहुँचेंगे। इसके लिए हम कुछ स्टेप बाय स्टेप प्रक्रिया बता रहे हैं, जिसे आप आजमा कर देख सकते हैं। इसे चरणबद्ध तरीके से कुछ यूँ करें:

  • सबसे पहले तो यूट्यूब पर जाएँ।
  • अब सर्च बॉक्स में लिखें- ‘Movie’ और इंटर दबाएँ।
  • अब फ़िल्टर वाले विकल्प में जाकर ‘Type’ में ‘Video’ चुनें, ‘Duration’ में ‘Long’ चुनें और ‘Sort By’ में ‘View Count’ चुनें।
  • ये सब करने का अर्थ है कि जिस भी वीडियो में ‘Movie’ शब्द का प्रयोग होगा और इसमें से सबसे ज्यादा बार जिसे देखा गया होगा, वो सबसे ऊपर दिखेगी। और, इसी तरह दर्शकों की संख्या के हिसाब से दर्शकों के घटते क्रम में ऐसी फ़िल्में दिखने लगेंगी।

अब आपने क्या देखा? सबसे पहले, नंबर एक पर जो फ़िल्म आती है, उसका नाम है- “सराईनोडू”। आश्चर्य की बात है कि जहाँ विश्व भर में इतनी सारी फ़िल्म इंडस्ट्री है और इनमें हजारों फ़िल्में हर साल बनती हैं, वहाँ एक दक्षिण भारतीय भाषा का हिंदी डब्ड फ़िल्म नंबर एक पर कब्ज़ा जमाए बैठे हैं। आखिर यह संभव कैसे हुआ? किसनें किया? “सराईनोडू” मशहूर तेलुगु स्टार अल्लू अर्जुन की फ़िल्म है और इसे यूट्यूब पर 17 करोड़ से भी अधिक बार देखा गया है। हिंदी भाषा में किसी फ़िल्म को 17 करोड़ बार देखने वाले कौन लोग हैं? इसमें कोई दो राय नहीं कि ये उत्तर भारतीय अथवा हिन्दीभाषी ही हैं, जिन्होंने इसे इतनी बार देखा।

अगर ऐसा भी मान लें कि इस हिंदी डब्ड फ़िल्म को एकाध लाख तेलुगु बोलने वाले लोगों ने देखा, तब भी इसके दर्शकों की संख्या कई करोड़ में होगी। अगर यह मान कर चलें कि एक व्यक्ति ने एक बार इस फ़िल्म को देखा, तो उत्तर प्रदेश की जनसंख्या इससे बहुत ज्यादा नहीं है। यूट्यूब पर इसी आधार पर देखें तो दूसरे नम्बर पर भी एक तेलुगु फ़िल्म का हिंदी डब्ड वर्जन ही आता है और तीसरे नम्बर पर फिर अल्लू अर्जुन की ही ‘डीजे’ नामक फ़िल्म आती है। यहाँ एक बात ध्यान देने लायक है। अल्लू अर्जुन की इन फ़िल्मों का नामकरण टिपिकल हिंदी डब्ड फ़िल्मों की तरह करने की बजाय उसके ओरिजिनल नामों से ही अपलोड किया गया (जैसे- जीने नहीं दूँगा, मेरा इन्साफ, काट डालूँगा इत्यादि)।

इसका अर्थ यह है कि यह सब कुछ एक्सीडेंटल नहीं है बल्कि सच में दक्षिण भारतीय फ़िल्मों को उत्तर भारतीयों का प्यार मिलता है। यहाँ के लोग बाकायदा वीडियो स्ट्रीमिंग वेबसाइट पर इन फ़िल्मों को सर्च करते हैं, इनका इन्तजार करते हैं और फिर इन्हें देखते हैं। ये बहुत बड़ी बात है। ये उन दक्षिण भारतीय टुटपुँजिया नेताओं की पोल खोलता है, जो हिंदी का विरोध करते हैं और कहते हैं कि हिन्दीभाषी जनता तमिल और तेलुगु को पसंद नहीं करती। अगर ऐसा होता तो शायद सुदूर झारखण्ड के किसी कॉलेज में बैठा चौकीदार अपने फोन में दक्षिण भारतीय फ़िल्म नहीं देख रहा होता। अगर ऐसा होता तो कई दक्षिण भारतीय फ़िल्मों के हिंदी डब्ड वर्जनों को करोड़ों व्यू नहीं मिलते।

यूपी और बिहार हो या झारखण्ड और उत्तराखंड, यहाँ कहीं भी दक्षिण भारतीय भाषाओं के प्रति घृणा का भाव देखने को नहीं मिलता। “चेन्नई एक्सप्रेस” जैसी फ़िल्म में तमिल भाषा का बड़े स्तर पर प्रयोग किया गया और इसे दर्शकों का बहुत प्यार मिला, सबका मनोरंजन हुआ। लेकिन, दक्षिण भारतीय नेतागण इन सभी चीजों को कभी भी हाईलाईट नहीं करना चाहेंगे, क्योंकि इससे सबको यह पता चल जाएगा कि हिन्दीभाषी जनता तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम जैसी भाषाओं से निकल कर आने वाले प्रोडक्ट्स और सर्विस को पसंद करती है, उनसे घृणा नहीं करती। इसका सबूत है हिंदी डब्ड फ़िल्मों को मिले करोड़ों व्यूज।

सिर्फ़ तेलुगु और तमिल ही नहीं, बल्कि मलयालम फ़िल्मों के हिंदी डब्ड वर्जन्स को भी यूट्यूब पर कई मिलियन व्यू मिलते हैं। अगर आप सेट मैक्स या स्टार गोल्ड जैसे बड़े हिंदी सिनेमा चैनल के कार्यकर्मों को देखें तो पता चलता है कि इन पर हिंदी फ़िल्मों से ज्यादा दक्षिण भारतीय फ़िल्में ही चलती रहती हैं। इसे लेकर कभी विरोध प्रदर्शन हुआ क्या? किसी ने कुछ भी कहा क्या? नहीं। ऐसा इसीलिए, क्योंकि जनता इन फ़िल्मों से, इनके अभिनेताओं से प्यार करती है। चैनलों को टीआरपी मिलती है और वे इन फ़िल्मों को बेधड़क चलाते हैं। आज तक किसी ने इसमें राजनीति नहीं घुसाई। लेकिन, अब आप एक बार इसका उल्टा सोच कर देखिए।

मान लीजिए, तमिल भाषा के सभी चैनलों पर दिन भर अमिताभ बच्चन और सलमान खान की फ़िल्में चल रही हों, तब क्या होगा? इन चैनलों के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन शुरू हो जाएँगे, द्रविड़ नेतागण इन्हें ‘Slave Of Hindi’ ठहरा देंगे (जैसा वे हर उस व्यक्ति या संस्थान के साथ करते हैं, जो हिंदी भाषा की जरा सी भी पैरवी करे)। जब उत्तर भारतीय दर्शक हिंदी डब्ड फ़िल्में देख सकता है, तो वह सबटाइटल के साथ अच्छी तमिल और तेलुगु फ़िल्में भी देखता है। दक्षिण भारत के नेता और कथित एक्टिविस्ट्स कभी भी उत्तर भारतीय फ़िल्मों को वहाँ उतना प्यार मिलने नहीं देंगे, जितना वहाँ की फ़िल्मों को देश के अन्य हिंदीभाषी भागों में मिलता है।

इसका उदाहरण समझने के लिए “बाहुबली-द कन्क्लूजन” फ़िल्म का बॉक्स ऑफिस कलेक्शन पर एक नज़र डालिए। क्या आपको पता है कि हिंदी भाषा में बॉक्स ऑफिस पर सबसे ज्यादा कारोबार करने वाली फ़िल्म दक्षिण भारत में बनी थी? क्या आपको पता है कि सबसे ज्यादा कमाई करने वाली हिंदी फ़िल्म दंगल का भारत में बॉक्स ऑफिस कलेक्शन बाहुबली के हिंदी वर्जन के कलेक्शन से कम है। अर्थात यह, कि तेलुगु फ़िल्म इंडस्ट्री की एक फ़िल्म आज हिंदी भाषा की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फ़िल्म है। इतना प्यार कहाँ से आता है, कौन से लोग देते हैं और क्यों देते हैं? अब हैदराबाद के लोगों ने रातो-रात पटना पहुँच कर फ़िल्म देख कर तो इसका बॉक्स ऑफिस कलेक्शन बढ़ाया नहीं होगा न?

ऐसा इसीलिए, क्योंकि उत्तर भारत में दक्षिण भारतीयों के लिए वह हीन भावना नहीं है, जो दक्षिण भारत के नेताओं व एक ख़ास वर्ग में हिन्दीभाषी जनता के लिए है। ऐसा इसीलिए, क्योंकि बिहार का एक व्यक्ति तमिल या तेलुगु फ़िल्म देखते वक़्त ये नहीं सोचता कि इसे कहाँ बनाया गया है और ये ओरिजिनल किस भाषा में थी, वो बस इसीलिए देखता है क्योंकि उसे यह अच्छी लगती है, हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री के फ़िल्मों की तरह। यहाँ तोड़-फोड़ वाली राजनीति घुसाकर उस प्यार के बंधन को तोड़ने का प्रयास नहीं किया जाता। यही बात दक्षिण भारत के लोगों को समझना पड़ेगा। 17 करोड़ के बदले अगर 1 करोड़ लोग भी हिंदी के प्रति प्यार दिखाते हैं, तो इससे देश का ही भला होगा, एकता बढ़ेगी।

तमिलनाडु और आंध्र-तेलंगाना में फ़िल्म इंडस्ट्री और राजनीति एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। ऐसे में, कई ऐसे नेता हैं, जो फ़िल्म प्रोड्यूसर भी हैं। ख़ुद कर्नाटक के मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी ने कई फ़िल्मों का निर्माण किया है। यह ज़ाहिर सी बात है कि कन्नड़ फ़िल्मों में हिंदी का काफ़ी ज्यादा प्रयोग होता है और कन्नड़ फ़िल्म इंडस्ट्री के बारे में एक बात कही जाती है कि वहाँ के गानों में जब तक हिंदी भाषा के शब्द न डाले जाएँ, तब तक वे पूर्ण नहीं होते।ऐसे में, जब कर्नाटक का मुख्यमंत्री कथित ‘Hindi Imposition’ पर बोलता है, तो यह अच्छा नहीं लगता। कमल हासन हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में आकर ‘एक दूजे के लिए’ और ‘सागर’ जैस फ़िल्में करते हैं और सारे अवार्ड्स ले जाते हैं। कभी विरोध हुआ क्या? इसीलिए नहीं हुआ, क्योंकि होना ही नहीं चाहिए और ऐसा यहाँ कोई सोचता ही नहीं।

क्या इसका उल्टा संभव है? अगर किसी हिंदी फ़िल्मों के एक्टर को तमिल फ़िल्मों के सारे अवार्ड्स मिलने लगे तो वहाँ कैसा माहौल होगा? वहाँ के नेता कहने लगेंगे कि ये तमिल फ़िल्म इंडस्ट्री के लिए अपमानजनक है क्योंकि ‘गैरों’ को अवार्ड्स दी जा रहे हैं। जब धनुष ने राँझना फ़िल्म की और उन्हें अवार्ड्स मिले, तब उन्हें इतना प्यार मिला कि वे वापस हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में फ़िल्म करने आए। एक बात जानने लायक है कि यह प्यार इंडस्ट्री के वीआईपी लोगों से नहीं बल्कि आम जनता से मिला था। जब रजनीकांत मुंबई आकर “अँधा कानून” फ़िल्म करते हैं तो उन्हें इस फ़िल्म में उनके को-स्टार अमिताभ जैसा ही प्यार मिलता है, क्यों? क्योंकि यहाँ इन सब बकवास मुद्दों को लेकर उत्पात नहीं मचाया जाता।

इस पूरे लेख का सार यह बताना है कि एक बार अगर जनता किसी चीज से कनेक्ट करने लगे तो उसे उखाड़ फेंकना मुश्किल होता है। दक्षिण भारतीय राज्यों में हिंदी पढ़ाने का उद्देश्य भी यही था कि अपनी मातृभाषा के साथ-साथ देश में सबसे ज्यादा बोली और समझी जाने वाली भाषा का भी बच्चों को ज्ञान दिया जाए, ताकि इस विशाल देश के अलग-अलग हिस्सों में रह रही जनता के बीच कनेक्शन स्थापित हों, वे एक-दूसरे से और ज्यादा जुड़ें। इससे बिहार और यूपी के बच्चे तेलुगु सीखेंगे और तमिलनाडु के बच्चे हिंदी सीखेंगे और वो एक-दूसरे को और अधिक अच्छी तरह से समझेंगे। इसमें उनका अपना अभी फायदा है क्योंकि वे नौकरी और पढाई के लिए अगर अपने राज्य से बाहर निकलते हैं तो उन्हें भाषा की समझ में दिक्कतें नहीं आएँगी।

अगर फ़िल्में देश के अलग-अलग हिस्सों को जोड़ने के काम आएँ, तो उसे बढ़ावा दिया जाना चाहिए। केवल हिंदी, तमिल, तेलुगु और मलयालम ही क्यों, उड़िया, पंजाबी, असमी और मराठी फ़िल्मों को भी हूबहू देश के अलग-अलग हिस्सों में पहुँचाया जाना चाहिए, ताकि देश के एक हिस्से के लोग दूसरे हिस्से की फ़िल्म इंडस्ट्री से परिचित हो सकें, एक-दूसरे के क्षेत्रों की अच्छी फ़िल्मों से रूबरू हो सकें। नहीं तो कल का भविष्य भयावह हो सकता है। जैसे आज सभी राज्यों के सिलेबस में अंग्रेजी पाँव जमा कर बैठी है, कल को भारतीय फ़िल्मों को स्क्रीन न मिलें और हॉलीवुड फ़िल्में ही चारों तरफ चलती रहें, तब शायद एक-दूसरे की भाषा का विरोध करने वाले नेताओं को अच्छा लगे।

Article 15: यादवों द्वारा किए रेप में ब्राह्मणों को बताया बलात्कारी क्योंकि वही बिकता है

हाल ही में, आयुष्मान खुराना स्टारर फ़िल्म ‘आर्टिकल 15’ का ट्रेलर रिलीज़ किया गया। इस फ़िल्म के निर्माता अनुभव सिन्हा हैं, जिन्हें फ़िल्म ‘मुल्क’ और ‘रा-वन’ से प्रसिद्धि मिली थी। यह फ़िल्म सच्ची घटनाओं पर आधारित होने का दावा करती है। ट्रेलर को देखने के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि इस फ़िल्म की कहानी यूपी में बदायूँ के गाँव में दो युवा लड़कियों की हत्या कर उन्हें पेड़ से लटका देने वाली घटना पर आधारित है।

एक ख़बर में, फ़िल्म के एक कलाकार मनोज पाहवा के हवाले से लिखा गया है, “यह फ़िल्म बदायूँ में हुए जघन्य अपराध पर पूरी तरह से आधारित नहीं है, जहाँ दो लड़कियों के साथ बलात्कार किया गया और उन्हें फाँसी दे दी गई। हम कह सकते हैं कि यह फ़िल्म उस घटना से प्रेरित है और हमने इसमें कुछ अंश शामिल किए हैं।”

ट्रेलर की शुरुआत भारतीय संविधान के आर्टिकल 15 के संदर्भ से होती है जो सभी को समानता का अधिकार देता है। ऐसा लगता है जैसे यह फ़िल्म इस तथ्य से प्रेरित है कि घरों में ‘समानता’ का अर्थ ब्राह्मणों को खलनायक के रूप में दिखाने से है।

फ़िल्म के ट्रेलर में एक गाँव की दो युवा लड़कियों को बेरहमी से बलात्कार और हत्या करते दिखाया गया, उनके शव एक पेड़ से लटके हुए दिखाए गए। यह उस लड़की को दिखाता है, जिसका परिवार हाशिए पर है और उन्हें दिहाड़ी मज़दूर के रूप में काम करने के लिए मजबूर किया जाता है, उन्हें इसलिए निशाना बनाया गया क्योंकि उन्होंने अपने दैनिक वेतन में 3 रुपए की बढ़ोतरी की माँग की थी और यह दर्शाता है कि क्षेत्र में जातिगत समीकरण कैसे प्रचलित हैं। ट्रेलर में यह भी दिखाया गया कि अपराध ‘महंत जी के लड़के’ द्वारा किया गया था। महंत जी को सर्वोच्च श्रेणी का ब्राह्मण बताया गया।

ट्रेलर के दृश्य यह भी बताते हैं कि कैसे क्षेत्र के लोगों को लगता है कि दलितों को मजदूरी में बढ़ोतरी की माँग करने का कोई अधिकार नहीं है, और उनकी स्थिति यह है कि ‘उच्च जाति’ के लोगों को जो उपयुक्त लगता है, वो उन्हें (दलितों) वही दर्जा देते हैं।

बदायूँ मामले से ‘प्रेरित’ होने के अपने प्रयास में, फ़िल्म ने तथ्यों के साथ व्यापक स्तर पर छेड़छाड़ की। यूपी की तत्कालीन अखिलेश यादव सरकार के लिए शर्म की बात है कि इस मामले को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में व्यापक रूप से देखा गया, क्योंकि इसे दलितों के खिलाफ उच्च जाति के अत्याचार के रूप में उजागर किया गया था।

आरोपितों के नाम पप्पू यादव, अवधेश यादव, उर्वेश यादव, छत्रपाल यादव और सर्वेश यादव था। छत्रपाल और सर्वेश पुलिसकर्मी थे। पुलिस विभाग पर आरोप लगाया गया था कि वो समाजवादी पार्टी के राजनीतिक दबाव में काम कर रहा है, जो यादवों का पक्ष ले रहा था। यहाँ तक ​​कि पुलिस जाँच की भी कड़ी आलोचना हुई थी और लोगों ने सीबीआई जाँच की माँग की थी।

बाद में सीबीआई ने कहा था कि उन्होंने अपनी जाँच में पाया कि 14 और 15 साल की दो लड़कियों ने आत्महत्या की थी, उनका न तो बलात्कार हुआ था और न ही उनकी हत्या हुई थी। इसके बाद पाँचों आरोपियों को क्लीन चिट दे दी गई।

अनुभव सिन्हा, वही व्यक्ति है जो स्वयं के धन को लूटने के प्रयास में उजागर हो चुका है। इसके अलावा उसने पाकिस्तानियों से अपनी ‘मुल्क’ फ़िल्म को अवैध रूप से देखने का अनुरोध किया था। सिन्हा ने अपनी फ़िल्म में व्यापक रूप से सार्वजनिक अपराध करने और इसे जातिवाद के रंगों में रंगने का ख़ूब प्रयास किया है। अदृश्य ‘महंत जी’ (संभावित रूप से योगी आदित्यनाथ) जो एक ब्राह्मण हैं उन्हें फ़िल्म में बुराई के रूप में चित्रित किया गया। साथ ही इस फ़िल्म का मुख्य विषय उच्च जातियों और ब्राह्मणों के अत्याचारों पर केंद्रित है।

एक जघन्य अपराध को दिखाने के लिए बदायूँ घटना को ब्राह्मण-विरोधी, उच्च-जातिवाद के रंगों में रंगने का प्रयास अनुचित है। जबकि सच्चाई यह है कि बदायूँ मामले में कोई ब्राह्मण एंगल नहीं था। इस अपराध की जातीयता और पहचान को बदलना केवल संकीर्ण राजनीतिक एजेंडा है, जो ख़तरनाक होने के साथ-साथ और विभाजनकारी भी हो सकता है।

हाल ही में संपन्न लोकसभा चुनावों में, उत्तर प्रदेश ने दिखा दिया कि उसने जाति और समुदाय के अपने पुराने राजनीतिक साधनों को अब त्याग दिया है। सपा-बसपा का गठबंधन जिसकी पूरी राजनीति जातिगत विभाजन और विरोध पर आधारित है, जनता ने उसे ख़ारिज कर दिया और भाजपा ने विकास और राष्ट्रवाद के मुद्दों पर चुनाव लड़ा था उसे (भाजपा) जनता ने भारी जनादेश के साथ चुना। ऐसे समय में जब लोग अपनी ग़लती को सुधारने के लिए तैयार हैं और आगे की तरफ बढ़ रहे हैं, इस तरह की फ़िल्में जातिगत पहचान के पुराने ढकोसले को अपने गले से नीचे उतारने का एक बेशर्म प्रयास है, जिसकी जितनी निंदा की जाए वो कम है।

26-0: पश्चिम बंगाल निकाय चुनावों में BJP ने किया क्लीन स्वीप, TMC को लगा बड़ा झटका

भारतीय जनता पार्टी ने पश्चिम बंगाल में हुए निकाय चुनाव में बड़ी जीत दर्ज की है। भाजपा का बढ़ा हुआ जनाधार न सिर्फ़ लोकसभा चुनाव, बल्कि स्थानीय निकाय चुनावों में भी दिखने लगा है। ये इस बात की पुष्टि करता है कि ज़मीन पर भी भाजपा की लहर है, और यह केवल लोकसभा चुनाव तक ही सीमित नहीं है। बंगाल के भाटपारा नगरपालिका के लिए हुए चुनाव में भाजपा ने सभी 26 सीटों पर बड़ी जीत दर्ज की है। इस चुनाव के परिणाम आने के साथ ही भाटपारा नगरपालिका पर भाजपा का कब्ज़ा हो गया है। भाजपा नेता सौरभ सिंह को भाटपारा नगरपालिका का चेयरमैन बनाया गया है।

अभी हाल ही में संपन्न हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 42 में से 18 सीटों पर बड़ी जीत दर्ज करते हुए तृणमूल के गढ़ में काफ़ी मजबूती से दस्तक दी है। भाजपा ने सभी उम्मीदों को पार करते हुए 40% से भी अधिक वोट शेयर हासिल किया, जो अपने आप में बहुत बड़ी बात है। बंगाल में लगातार 30 सालों से भी अधिक समय तक शासन करने वाले वामदलों की हालत पतली हो गई है और वो अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं।

भाजपा की लोकसभा चुनाव में जीत के बाद हुए सभी कार्यक्रमों में पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने बंगाल का जिक्र कर राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को सीधी चुनौती दी थी। भाटपारा में मिली जीत के बाद “जय श्री राम” को लेकर भाजपा की चल रही लड़ाई और मजबूत होने की उम्मीद है। मुख्यमंत्री ममता को कई जगह “जय श्री राम” का नारा लगाती आमजनों की भीड़ का सामना करना पड़ रहा है और चिल्लाती हुई तृणमूल सुप्रीमो के विडियो सोशल मीडिया पर ख़ूब वायरल हो रहे हैं।

विजेंद्र गुप्ता ने केजरीवाल-मनीष सिसोदिया पर किया मानहानि का केस, जाने क्या है मामला

भाजपा नेता विजेंद्र गुप्ता ने अपनी छवि धूमिल करने का आरोप लगाते हुए मंगलवार (जून 4, 2019) को दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया के खिलाफ पटियाला हाउस कोर्ट में मानहानि का मामला दर्ज कराया है।

दरअसल, कुछ दिनों पहले केजरीवाल और सिसोदिया ने विजेंद्र गुप्ता पर AAP प्रमुख की हत्या की साजिश रचने वालों में शामिल होने का आरोप लगाया था। जिसके बाद विजेंद्र गुप्ता ने लीगल नोटिस देकर दोनों को 7 दिनों के अंदर माफी माँगने के लिए कहा था। मगर इसका जवाब न मिलने के बाद आज उन्होंने केजरीवाल और सिसोदिया के खिलाफ मानहानि का मुकदमा दायर कर दिया। अब इस मामले की सुनवाई 6 जून को दिल्ली की राउज एवेन्यू कोर्ट में होगी।

गौरतलब है कि, लोकसभा चुनाव के दौरान केजरीवाल ने एक इंटरव्यू में कहा था कि जिस तरह से इंदिरा गाँधी की हत्या की गई थी ठीक उसी तरह भारतीय जनता पार्टी भी उनके (केजरीवाल के) अपने निजी सुरक्षा अधिकारी (पीएसओ) के जरिए उनकी हत्या करवाना चाहती है। इस आरोप के जवाब में गुप्ता ने ट्वीट किया, “4 मई को थप्पड़कांड से पहले अरविंद केजरीवाल ने संपर्क अधिकारी से अपने वाहन के आस-पास मौजूद सुरक्षा घेरे को हटाने का निर्देश दिया था। मुख्यमंत्री का निर्देश रोजनामचे में दर्ज हैं। यह खुलासा मैने किया था, इससे AAP को कोई चुनावी लाभ नहीं मिला। इस बौखलाहट में केजरीवाल यह कह रहे हैं कि उनका पीएसओ भाजपा को रिपोर्ट करता है।”

जिसके बाद सिसोदिया ने भी पलटवार करते हुए कहा कि विजेंद्र गुप्ता के ट्वीट ने साबित कर दिया कि सीएम की डेली सिक्योरिटी की रिपोर्ट रोज़ाना बीजेपी के पास पहुँच रही है और इसके आधार पर भाजपा सीएम की हत्या की साज़िश रच रही है। इसके साथ ही उन्होंने आरोप लगाया कि इस साजिश में विजेंद्र गुप्ता भी शामिल हैं। बता दें कि, मानहानि का केस दायर करने से एक दिन पहले यानी सोमवार (जून 3, 2019) को इफ्तार पार्टी के दौरान विजेंद्र गुप्ता अपने हाथों से केजरीवाल को खजूर खिलाते हुए नजर आए थे।

राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए 7 प्राथमिकताएँ, जिन पर रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह को खरे उतरना है

लोकसभा चुनाव हाल ही में संपन्न हुए हैं। इस चुनाव में नरेंद्र मोदी की सरकार को दूसरी बार केंद्र में रखकर जनता ने स्पष्ट जनादेश दिया है। और यह स्पष्ट जनादेश भाजपा को मिला है राष्ट्रवाद एवं राष्ट्रीय सुरक्षा के महत्वपूर्ण चुनावी मुद्दे पर। अब जब सरकार बन गई है, नेताओं के मंत्रालयों का फैसला कर लिया गया है, तो ऐसे में नए रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के लिए आगे का कार्य बहुत स्पष्ट है।

सेना के साथ-साथ सशस्त्र बलों के आधुनिकीकरण का कार्य रक्षा मंत्री की प्राथमिकता होनी चाहिए। मेरी समझ से नीचे के 7 पॉइंट राजनाथ सिंह के एजेंडे में यह सबसे ऊपर होने चाहिए।

1. भारतीय नौसेना के लिए 111 हेलिकॉप्टरों का अनुबंध। इस अनुबंध को ‘रणनीतिक साझेदारी’ मॉडल के तहत जमीन पर उतारा जाएगा। इस अनुबंध के लिए पहले से ही भारतीय और विदेशी कंपनियों के बीच EoI जारी किया जा चुका है। अब अगला क़दम RFP जारी करना है। चूँकि नए मंत्री ने कार्यभार संभाला है, तो उन्हें यह सुनिश्चित करना होगा कि इस प्रक्रिया को अंतिम रूप देने के लिए कैसे तेजी लाई जाए।

2. लड़ाकू जेट की घटती संख्या पर तत्काल निर्णय लेना आवश्यक है। वर्तमान में, भारतीय वायु सेना के एक स्क्वॉड्रन में 30-31 लड़ाकू विमान हैं, जबकि आदर्श स्थिति में यह 42 होने चाहिए। पिछली सरकार द्वारा किए गए 36 राफ़ेल विमानों का सौदा भी अस्थायी रूप से ही इस समस्या को दूर कर सकता है। इसलिए इस पर तत्काल निर्णय की आवश्यकता है।

देश को 114 और फाइटर जेट्स ख़रीदने की तत्काल आवश्यकता है, जिसकी प्रक्रिया भी अभी शुरू नहीं की गई है। ऐसे में, राफ़ेल की ख़रीदारी करना ही एक समझदारी वाला क़दम होगा, लेकिन हाल ही में संपन्न हुए चुनावों को देखते हुए, जहाँ राफ़ेल सौदे को कई बार उछाला गया और केंद्र सरकार को घेरने का प्रयास किया गया, उससे मुझे शक़ है कि अब शायद ही राजनाथ सिंह उस रास्ते का रुख़ करें। यहाँ फिर से, सरकार ‘एसपी’ मॉडल मतलब रणनीतिक साझेदारी मॉडल का रास्ता अपनाएगी और इतनी बड़ी खरीद के लिए हमारे रक्षा मंत्री को निश्चित तौर पर तेजी दिखानी होगी।

3. हाल ही में, समाप्त हुए एयरो इंडिया 2019 में, भारत के AMCA कार्यक्रम के लिए एक टाइमलाइन दी गई थी। AMCA की सफलता कावेरी इंजन (स्वदेशी) पर निर्भर करती है। दुर्भाग्य से, ऐसा लगता है कि कावेरी इंजन अपनी मौत मर रही है और किसी को भी इसकी परवाह नहीं है। हमारे नए रक्षा मंत्री को इस मामले को अपने हाथ में लेना चाहिए और सुनिश्चित करना चाहिए कि कावेरी इंजन को उचित स्थान मिले और वो वायु सेना के काम आ सके।

4. हिंद महासागर में श्रेष्ठता बनाए रखने और चीन से ख़तरे का मुक़ाबला करने के लिए, भारत को एक मज़बूत नौसेना की आवश्यकता है। और इसके लिए एयरक्राफ्ट कैरियर इन उद्देश्यों को पूरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। वर्तमान में, भारतीय नौसेना के पास केवल एक ऑपरेशनल एयरक्राफ्ट कैरियर है और एक निर्माणाधीन है। एक तीसरा विमान वाहक, INS विशाल, बजट के जाल में फँसा हुआ है। एचएमएस क्वीन एलिजाबेथ पर आधारित 65,000 टन का यह INS विशाल, भारतीय नौसेना को मज़बूती प्रदान करेगी। हमारे नए रक्षा मंत्री को इस परियोजना को जल्द से जल्द पूरा करने के लिए नए तरीक़े खोजने पड़ेंगे।

5. भारतीय नौसेना को तत्काल सी किंग यूटिलिटी हेलीकॉप्टरों के अपने बेड़े में शामिल करने की जरूरत है। DAC ने पिछले साल 24 एमएच-60आर की खरीद की मंजरी दे दी थी लेकिन अमेरिकी सरकार ने अपनी तरफ से LoA हाल-फिलहाल ही भेजा है। अब दोनों देशों की सरकारों को अंतिम अनुबंध पर हस्ताक्षर करने की ज़रूरत है। हमारे नए रक्षा मंत्री को ऐसे में यह देखना होगा कि डील फाइनल होने में देरी न हो। यह डील काफी महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि ये डील 123 अतिरिक्त मीडियम मल्टी-रोल हेलीकॉप्टरों की खरीद का रास्ता खोलेगी।

6. युद्ध या युद्ध जैसी स्थिति में, ISR और कमांड एंड कंट्रोल सिस्टम भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। बालाकोट एयर स्ट्राइक के बाद इस व्यवस्था की आवश्यकता पर जोर दिया गया। चिंताजनक बात यह है कि हमारे पास AWACS की संख्या पाकिस्तान की अपेक्षा कम है। चीजें अभी पाइपलाइन में हैं, लेकिन इसमें तत्काल हस्तक्षेप की जरूरत है और रक्षा मंत्री अगर हस्तक्षेप करते हैं तो अधिग्रहण में तेजी आएगी।

7. मित्र देशों को रक्षा उपकरणों का निर्यात करना रक्षा मंत्रालय की प्राथमिकताओं में से एक है। साल 2025 तक सालाना ₹35,000 करोड़ का लक्ष्य निर्धारित किया गया है, जो कि वर्तमान समय में ₹4000 करोड़ है। हालाँकि, यह एक बेहद ही मुश्किल लक्ष्य है, लेकिन अगर इसे संगठित और अनुकूल तरीके से पूरा करने का प्रयास किया जाए, तो इस लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है। इस लक्ष्य को पूरा करने में मित्र देशों को LCA तेजस की बिक्री से मदद मिल सकती है। मलेशिया इस फाइटर जेट को खरीदने की फ़िराक में है और उसे बस आखिरी स्वरूप देने की आवश्यकता है। जहाँ एक तरफ़ एचएएल लागत को नीचे लाने की कोशिश कर रहा है, तो वहीं दूसरी तरफ़ राजनाथ सिंह को मलेशिया का दौरा करना चाहिए और इस सौदे पर हस्ताक्षर करने की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए।

दिवंगत मनोहर पर्रिकर ने रक्षा मंत्री के रूप में एक अमिट छाप छोड़ी है। उनके कार्यकाल के दौरान एस-400 की खरीद उनकी बड़ी उपलब्धियों में से एक थी। वर्तमान रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के पास ऐसे कई अवसर आएँगे और मेरे ख्याल से उनको इन अवसरों को अपने हाथ से जाने नहीं देना चाहिए। इस बार देश की जनता ने देश को सुरक्षित बनाने के लिए भाजपा को वोट दिया है। जाहिर सी बात है कि इस मंत्रालय के प्रदर्शन पर लोगों की खास नजर रहेगी, इस विभाग के काम को बारीकी से देखा जाएगा।