जम्मू-कश्मीर में 14 फ़रवरी को हुए आत्मघाती हमले में जहाँ एक तरफ देश में ग़ुस्सा और पाकिस्तान से बदले की भावना है वहीं दूसरी तरफ आतंकियों की उन गतिविधियों का ख़ुलासा भी हो रहा है जिसके फलस्वरूप इस हमले को अंजाम तक पहुँचाया गया। ऐसी ही एक ख़बर सामने आई है जिसके मुताबिक़ पुलवामा में आतंकी हमला करने के लिए विस्फोटक ढोने के लिए आतंकवादियों ने कश्मीरी बच्चों और महिलाओं को काम पर रखा।
टाइम्स नाउ की ख़बर के अनुसार, RDX ग्रेड-5 विस्फोटक को पुलवामा ज़िले के त्राल से विस्फोटक स्थल तक पहुँचाने में आतंकवादियों ने बच्चों और महिलाओं का इस्तेमाल किया।इसके लिए महीनों तक काम किया गया। आतंकियों ने बच्चों और महिलाओं को इसलिए अपना माध्यम बनाया ताकि सुरक्षा बलों की नज़र से बचा जा सके।
ख़बर के अनुसार विस्फोटक के ट्रिगर को स्थानीय स्तर पर ही बनाया गया था। अमोनियम नाइट्रेट और RDX को विस्फोटक के रूप में इस्तेमाल किया गया था। सैन्य ग्रेड A5 RDX पाकिस्तानी सेना द्वारा सप्लाई किया गया था और डिवाइस को विस्फोट स्थल से लगभग 10 किमी की दूरी पर तैयार किया गया।
ज़ी न्यूज़ की एक ख़बर के अनुसार, पुलवामा हमले में इस्तेमाल किए गए RDX को अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए अमोनियम नाइट्रेट को छर्रे के साथ मिलाया गया था। इसे SUV वाहन में तीन ड्रमों में रखा गया था। RDX की इस ख़तरनाक क्वॉलिटी और ऑपरेशन को बड़े ही चुस्त-दुरुस्त रूप से अंजाम देने के कारण, इसमें पाकिस्तानी सेना की भागीदारी पर संदेह किया जा रहा है।
कीर्तिवर्धन भागवत झा आज़ाद। इतना लंबा नाम किसे याद रहेगा भला! लोग कीर्ति आज़ाद बोलकर ‘मुक्ति’ पा लेते हैं। बिहार में एक मुख्यमंत्री हुआ करते थे – भागवत झा आज़ाद। उन्हीं के बेटे हैं। लालू के बेटे की तरह इन्होंने भी क्रिकेट खेला। तेजस्वी IPL में पानी ढोने के लिए फेमस हुए। जबकि कीर्ति ने 1983 विश्व कप क्रिकेट के सेमीफाइनल में इंग्लैंड के इयान बॉथम का विकेट लेकर कीर्ति पाई थी। इसके अलावा इंटरनेशनल क्रिकेट में कुछ और ख़ास किया, ऐसा गूगल भी नहीं बता पा रहा।
ख़ैर! कीर्तिवर्धन भागवत झा आज़ाद अपनी कीर्ति का वर्धन करने के ख्याल से राजनीति में आ घुसे। लेकिन अफसोस! क्रिकेट वाली गुगली ने उनका साथ राजनीति में भी नहीं छोड़ा। पहले दिल्ली में विधायक बने। अब तक तीन बार सांसदी भी जीत चुके हैं। लेकिन नेता वाला रुतबा या भौकाल बना पाए हों, ऐसा कभी ख़बरों में भी न देखा, न पढ़ा। सांसदी के बावजूद इनका वजूद छुटभैये नेता से कभी ऊपर न उठ सका। वज़ह ये खुद रहे।
लक्ष्य – पता नहीं।
पार्टी – पता नहीं।
क्या बोलना है – पता नहीं।
ऊपर के तीन लक्षण इन्होंने क्रिकेट के फ़िल्ड से लेकर राजनीति के क्षेत्र तक हमेशा दिखाया – एकसमान दिखाया। राजनीति में जिस BJP के सहारे विधायकी से सांसदी तक का सफ़र तय किया, उसी के ख़िलाफ़ हमेशा झंडा (एजेंडा ज्यादा सटीक शब्द होगा वैसे) बुलंद करते रहे। अब नए-नए कॉन्ग्रेसी बने हैं। वैसे रगों में कॉन्ग्रेसी खून ही है। क्योंकि इनके पिताजी कॉन्ग्रेसी ही थे।
‘मैं आपके लायक हूँ’ – यह एक ब्रह्म वाक्य है। लेकिन सिर्फ उनके लिए जिन्हें स्वामी-भक्ति दिखानी होती है।
‘मैं आप ही के लायक हूँ’ – यह महा-ब्रह्म वाक्य है। लेकिन सिर्फ उनके लिए जिन्हें हद से ज्यादा स्वामी-भक्ति दिखनी होती है। इतनी ताकि ऐसा लगे कि पुराना वाला स्वामी लायक नहीं था।
बस, यहीं पर कीर्तिवर्धन भागवत झा आज़ाद ने झंडे गाड़ दिए। गाड़ा भी कहाँ – बिहार में अपने संसदीय क्षेत्र दरभंगा में। जहाँ की जनता ने पिछली बार उन्हें BJP सांसद के रूप में लोकसभा भेजा था, वहीं की जनता के सामने उन्होंने कॉन्ग्रेसी गुलामी कुबूल करते हुए स्वीकारा कि उनके पिताजी और खुद उनके लिए भी कॉन्ग्रेस के लोगों ने बूथ कब्जा किया था।
2019 में हम जी रहे हैं। लेकिन सांसद महोदय 90 के दशक से आगे बढ़ ही नहीं पा रहे। अभी की जनता, ख़ासकर युवाओं के सामने बूथ कब्जे की बात करके कीर्ति साहब न जाने कौन सी कीर्ति फैलाना चाहते हैं! शायद कॉन्ग्रेस को पता हो। या हो सके जिस बात से वो बाद में मुकर गए, सच में ऐसा किया-करवाया हो। जाँच होनी चाहिए। और अगर यह सच है तो जैसी सज़ा क्रिकेट में मिलती है, वैसी ही सज़ा दोनों बाप-बेटों को मिलनी चाहिए – गद्दार क्रिकेटरों के नाम से उनका सारा रिकॉर्ड डिलीट कर दिया जाता है, इन दोनों बाप बेटों के नाम विधायकी-सांसदी के रिकॉर्ड से हटाया जाए। देश को चोर-उचक्के-वोट_डकैत नेताओं की जरूरत नहीं।
अपना टाइम आएगा – जनता के बीच यह गाना पॉपुलर हो रहा है। क्या पता यह गाना राजनैतिक जागरूकता की मिसाल बन जाए। और अगर ऐसा हुआ तो बाप के नाम पर बेटे अभिषेक बच्चन को नहीं झेलने वाला पैरामीटर, वोटर लोग भी सेट करने लगें। तब कीर्ति के साथ-साथ बहुत से नेता-‘वीर’ पुत्रों को अपकीर्ति हाथ लगेगी। राजनीतिक संभावनाओं और समीकरण के साथ मिलते हैं अगले लेख में। तब तक के लिए राम-राम?
पुलवामा आत्मघाती हमले का गुस्सा राजस्थान की जयपुर सेंट्रल जेल में भी देखने को मिला। यहाँ एक पाकिस्तानी क़ैदी शकर उल्लाह की हत्या कर दी गई। इस हत्या की सूचना दिल्ली स्थित पाकिस्तानी दूतावास को दे दी गई है।
जयपुर जेल के आईजी रुपिंदर सिंह के अनुसार शकर उल्लाह को साल 2011 में जेल में बंद किया गया था।
Rajasthan: Pakistani prisoner Shakar Ullah found dead today in Jaipur Central Jail; Jaipur Jail IG Rupinder Singh says, “he was lodged here since 2011 and died following a brawl with other inmates.” pic.twitter.com/G20cICefpi
वहीं हत्या की घटना पर अधिक जानकारी देते हुए जेल के एडिश्नल कमिश्नर लक्ष्मण गौर ने बताया कि टीवी के वॉल्यूम को लेकर शकर उल्लाह और कैदियों में आपस में विवाद हो गया था जिसके बाद बुधवार (फ़रवरी 20, 2019) को वह मृत पाया गया।
आतंकी शकर उल्लाह के बारे में आपको बता दें कि क़रीब आठ साल पहले उसे राजस्थान पुलिस ने गिरफ़्तार किया था। राजस्थान पुलिस को इस बात के पुख़्ता सबूत मिले थे कि उल्लाह के संबंध आतंकी संगठन लश्कर-ए-तैयबा से थे। जाँंच के दौरान उसकी फोन रिकॉर्डिंग से आतंकियों के स्लीपर सेल का ख़ुलासा भी हुआ था। इसके बाद सात साल तक चली सुनवाई के बाद इसे और इसके साथियों को 30 नवंबर 2017 को उम्र क़ैद की सज़ा सुनाई गई थी। शकर उल्लाह के साथियों में दो अन्य पाकिस्तानी असगर अली और मोहम्मद इकबाली भी शामिल थे।
ख़बरों के अनुसार, शकर उल्लाह समेत आरोपितों के तार सीधे पाकिस्तान से जुड़े थे। इस बात का ख़ुलासा हुआ कि जेल में बैठकर भी ये आतंकी अपने पाकिस्तानी आकाओं से बातचीत करता था।
जल्द ही देश में लोकसभा चुनाव के कारण राजनीति और अधिक गरमाने वाली है। हर किसी में उत्सुकता है कि इस साल चुनाव के क्या परिणाम आएँगे। ऐसे में टाइम्स मेगा ऑनलाइन पोल के नतीजों में सामने निकल कर आया है कि जनता पीएम के रूप में एक बार फिर नरेंद्र मोदी को चाहती है।
इस ऑनलाइन पोल के नतीजों में नरेंद्र मोदी को दोबारा बड़ा समर्थन मिलता दिखाई दे रहा है। इस सर्वेक्षण में हिस्सा लेने वाले 84% पाठकों ने मोदी को ही अपनी पहली पसंद बताया है और लगभग इतने ही लोगों का मानना है कि पीएम मोदी के नेतृत्व में ही केंद्र में एनडीए की सरकार बनेगी।
बता दें कि इस सर्वे में करीब पाँच लाख से अधिक पाठकों ने हिस्सा लिया लेकिन टॉइम्स ने सिर्फ़ उन्हीं यूजर्स के मत गिने जो ईमेल आईडी से लॉग-इन कर सर्वे का हिस्सा बने। दरअसल, यह लॉग-इन की शर्त टाइम्स ने इसलिए रखी ताकि कोई भी एक यूजर एक से ज्यादा बार वोटिंग न कर सके। इस पोल को 11 से 20 फरवरी के बीच कराया गया था। साथ ही लोगों की निष्पक्ष वोटिंग जानने के लिए रिजल्ट को साथ-साथ नहीं दर्शाया गया था।
प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी लोकप्रियता में सबसे आगे
पोल में सामने आए नतीजे बताते हैं कि नरेंद्र मोदी लोकप्रियता के मामले में अपने प्रतिद्वंद्वियों से बहुत आगे हैं। इसलिए लगभग 84% यूज़र्स ने बताया कि अगर आज की तारीख़ में चुनाव होते हैं तो वे पीएम के तौर पर मोदी को चुनेंगे।
पोल के नतीजों की लिस्ट में राहुल गांधी दूसरे स्थान पर हैं। सर्वे में शामिल 8.33% पाठकों ने उन्हें पीएम के रूप में अपनी पहली पसंद बताया जबकि ममता बनर्जी को केवल 1.44% पाठकों ने और मायावती को सिर्फ़ 0.43% पाठकों ने पीएम के रूप में अपनी पहली पसंद बताया। इसके अलावा 5.92% लोग चाहते हैं कि कोई और नेता पीएम बने।
राफेल विवाद से एनडीए को चुनाव में होगा कोई नुकसान?
इस पोल में यह भी पूछा गया कि राफेल विवाद से एनडीए को लोकसभा चुनाव में नुकसान होगा? लगभग 74.59% ने इस फैक्टर को नकार दिया और 17.51% लोगों ने इससे सहमति जताई, 7.9% लोगों ने इसपर कुछ नहीं कहा।
2014 के मुकाबले राहुल की लोकप्रियता?
क्या राहुल गांधी 2014 के मुकाबले ज्यादा लोकप्रिय हैं? इस सवाल पर 31% लोग सहमत हुए जबकि 63% लोग राहुल को आज भी लोकप्रिय नहीं मानते हैं।
एनडीए-2 के पाँच साल की समीक्षा
बीते पाँच सालों में एनडीए के कार्यकाल की समीक्षा करते हुए 22.29% यूजर्स ने इसे बढ़िया और 59.51% ने इसे बहुत बढ़िया बताया है। 8.25% लोगों ने मोदी सरकार के कार्यकाल को एवरेज बताया जबकि 9.9 % यूजर्स की नजरों में बेहद खराब रहा।
मोदी सरकार की सबसे बड़ी सफलता और विफलता?
इस पोल में मोदी सरकार की सबसे बड़ी सफलता और विफलता के बारे में भी पूछा गया था। इस सवाल की प्रतिक्रिया पर 34.39% लोगों ने कहा कि मोदी ने गरीबों की योजनाओं के विस्तार के लिए में सबसे अच्छा काम किया। जबकि 29% लोग GST लागू कराने को सबसे बड़ी सफलता मानते हैं। इसके अलावा मोदी सरकार की विफलता की बात करें तो 35.72% लोग राम मंदिर के मुद्दे पर कोई प्रगति न होने को सबसे बड़ी विफलता मानते हैं, वहीं 29.5% यूज़र्स रोजगार के मुद्दे पर मोदी सरकार को विफल मानते हैं।
लोकसभा चुनाव में सबसे बड़ा मुद्दा?
सर्वेक्षण में 2019 में लोगों से लोकसभा चुनाव का सबसे बड़े मुद्दे के बारे में पूछा गया तो 40.2% लोगों ने रोज़गार को सबसे बड़ा मुद्दा बताया। वहीं 21.8% लोग किसानों के संकट को सबसे बड़ा मुद्दा मानते हैं। इसके अलावा राम मंदिर पर लोग भले मोदी सरकार की आलोचना करें लेकिन सिर्फ 10% लोग ही इसे लोकसभा चुनाव में बड़ा मुद्दा मानते हैं।
बीते पाँच सालों में अल्पसंख्यक कितने असुरक्षित?
मोदी सरकार में अल्पसंख्यकों के असुरक्षित होने के सवाल पर 65.5% लोगों ने कहा कि उन्हें ऐसा नहीं लगता कि मोदी सरकार में अल्पसंख्यक सुरक्षित नहीं हैं। वहीं 24.2% लोगों का यह मानना है कि मोदी सरकार में अल्पसंख्यक असुरक्षित महसूस करते हैं।
आर्थिक रूप से पिछड़ों को आरक्षण के सवाल पर 72.6% लोगों ने कहा कि इस कदम से बीजेपी को चुनावों में फायदा पहुँचेगा। इस पोल में कुछ लोगों का यह भी कहना था कि 2019 में UPA और NDA के समर्थन वाली गठबंधन वाली सरकार बनेगी।
बता दें हिंदी और अंग्रेज़ी के अलावा टाइम्स के अन्य सात अन्य भाषाओं (गुजराती, मराठी, बंगाली, कन्नड़, तेलुगू, तमिल और मलयालम) की वेब साइट्स के संपादकों ने इस पोल के लिए 10 सवाल तय किए ताकि उन सवालों के जवाब से लोकसभा चुनावों के लिए देश की जनता के मूड का अनुमान लगाया जा सके। टाइम्स द्वारा कराया गया यह पोल सिर्फ ऑनलाइन यूजर्स के लिए ही था और इसके परिणाम सभी वर्ग के भारतीयों मतदाताओं का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं।
पुलवामा में CRPF के काफिले पर आत्मघाती हमला करने के बाद जैश-ए-मोहम्मद (JeM) ने एक और बड़े फिदायीन हमले को अंजाम देने की योजना बनाई थी। ख़ुफ़िया जानकारी के अनुसार पता चला है कि 16-17 फ़रवरी को JeM के पाकिस्तानी लीडरों और कश्मीर स्थित आतंकवादियों के बीच बातचीत हुई थी।
टाइम्स ऑफ़ इंडिया द्वारा गोपनीय रूप से जुटाई गई जानकारी से पता चला है कि जैश के आतंकवादियों ने भारतीय सुरक्षा बलों को बड़े पैमाने पर हताहत करने के लिए एक और हमले को अंजाम देने का संकल्प लिया था। टाइम्स ऑफ़ इंडिया को किसी उच्च पदस्थ इंटेलिजेंस अधिकारी द्वारा जानकारी मिली है कि जम्मू या जम्मू-कश्मीर के बाहर एक बड़ा हमला हो सकता है। टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने 19 फरवरी को जानकारी दी थी कि तीन फिदायीन समेत समेत 21 जैश आतंकियों ने पिछले साल दिसंबर में कश्मीर में घुसपैठ की थी।
यह भी पता चला है कि जैश-ए-मुहम्मद, पुलवामा आत्मघाती बम विस्फोट की तैयारियों का वीडियो भी जारी करने वाला है। खुफिया विश्लेषकों ने कहा कि वीडियो जारी करने का इरादा 20 वर्षीय आदिल अहमद डार का महिमामंडन करना है, जिसने अपनी विस्फोटक से भरी मारुति ईको वैन CRPF के क़ाफ़िले में शामिल बस से टकरा दी थी, जिसके कारण 14 फ़रवरी को 40 जवान वीरगति को प्राप्त हुए थे। एक विश्लेषक के अनुसार जैश-ए-मोहम्मद द्वारा जारी होने वाले वीडियो से कश्मीरी युवाओं को आत्मघाती बम बनाने वाले मिशन में भर्ती करने में मदद मिल सकती है।
जैश ने यह भी दावा किया है कि उसके पूर्व ऑपरेशनल कमांडर मोहम्मद वकास डार ने पिछले हफ़्ते राजौरी के नौशेरा सेक्टर में IED लगाई थी जिसमें सेना के मेजर चित्रेश बिष्ट की मृत्यु हो गई थी। हालाँकि, पुलिस अधिकारियों ने कहा कि जैश आतंकवादियों के बीच हुई बातचीत भारत को आतंकित करने के लिए लक्षित एक ‘मानसिक ऑपरेशन’ जैसा लगता है। लेकिन जब से पुलिस ने जैश आतंकियों की बातचीत ख़ुफ़िया रूप से सुनना शुरू किया है, वे इसे अनदेखा नहीं कर सकते। एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने कहा कि वे हाई अलर्ट पर हैं और अन्य माध्यमों से भी ख़तरे को कम करने की कोशिश कर रहे हैं।
यह बलिदान की गाथा है। यह मातृभूमि की रक्षा के लिए सर्वस्व समर्पण करने वाले वीरों की कहानी है। यह त्याग का माहात्म्य है। यह महज़ 21 शूरवीर सिखों द्वारा हज़ारों इस्लामी आक्रांताओं से भारत-भूमि को सुरक्षित रखने की कथा है। इसका नाम है- सारागढ़ी का युद्ध। एक ऐसा युद्ध, जिसे अंग्रेजों ने तो याद रखा लेकिन अपने ही देशवासियों ने भुला दिया। आज जब इतिहास से जुड़ी फ़िल्में बन रही हैं, समय आ गया है कि हम उन सिख जांबाजों की वीरता को फिर से याद करें। आज अक्षय कुमार अभिनीत फ़िल्म ‘केसरी’ का ट्रेलर भी आया, जो इसी युद्ध पर आधारित है। फ़िल्म में अक्षय के लुक्स को लेकर पहले ही काफ़ी चर्चा हो चुकी है। आइए समझते हैं केसरी की असली कहानी।
कठिन एवं अशांत भौगोलिक परिस्थितियाँ
12 सितंबर 1897 का दिन था। दुनिया के सबसे बड़े साम्राज्यों में से एक ब्रिटिश साम्राज्य ने भारतीय राज्यों की आपसी लड़ाई का फ़ायदा उठा कर देश को पहले ही परतंत्र बना लिया था। लेकिन उस दिन कुछ ऐसा हुआ, जिसने शक्तिशाली ब्रिटिश को भी भारतीय जवानों की शौर्य गाथा गाने को मजबूर कर दिया। ब्रिटिश संसद की कार्यवाही चल रही थी लेकिन उसे अचानक बीच में ही रोक दिया गया। सारे ब्रिटिश सांसदों ने खड़े होकर उन 21 सिखों को ‘Standing Ovation’ दिया, जिन्होंने दुनिया के युद्ध इतिहास में सबसे पराक्रमी ‘Last Standing’ का उदाहरण पेश किया था।
इस युद्ध की परिस्थितियों को समझने के लिए उस क्षेत्र की भौगोलिक स्थितियाँ समझनी पड़ेंगी क्योंकि उसकी प्रासंगिकता आज भी उतनी ही है, जितनी उस समय थी। अविभाजित भारत का उत्तर-पश्चिमी प्रांत आज भी एक अशांत क्षेत्र है। पाकिस्तान में पल रहे आतंकवादी, अफ़ग़ानिस्तान स्थित आतंकी संगठन तालिबान और कश्मीर में पाकिस्तान द्वारा चलाए जा रहे आतंकी अभियान के कारण यह इलाक़ा आज भी रोज़ ख़ूनी संघर्ष का गवाह बनता है। ख़ैबर पख़्तूनख़्वा आज पाकिस्तान के 4 प्रांतों में से एक है लेकिन तब यह अविभाजित भारत का हिस्सा हुआ करता था।
सिख रेजीमेंट 1846 में गठित। सारागढ़ी की लड़ाई हो, 27 अक्टूबर 47 को श्रीनगर में पहली पलटन, सिख रेजीमेंट हमेशा साहस, वीरता के प्रतीक रहें है। रेजिमेंटल सेंटर रामगढ़ में है, आदर्श वाक्य है ‘निश्चय कर अपनी जीत करुँ’, युद्धघोष ‘जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल’#IndianArmy#OurGloriouspic.twitter.com/EnJNRuRCsq
अंग्रेजों ने वर्ष 1897 में उत्तर-पश्चिमी सीमा पर सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए एक छोटी सी चौकी स्थापित की थी। यह चौकी उस प्रान्त में स्थित दो किलों के बीच संचार का माध्यम थी। ये किले थे- गुलिस्तान और लॉकहार्ट। यह संघर्ष उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रान्त के बंजर पहाड़ों में लड़ा गया था। एक तरफ थे मुट्ठी भर सिख तो दूसरी तरफ उत्तर-पश्चिमी भारत के हिन्दुकुश पर्वत निवासी अफ़ग़ानी जनजातीय कबीले थे। इनकी संख्या हज़ारों में थी। ये कबीले सदियों से युद्धरत थे और ख़ूनी भी।
सारागढ़ी दोनों किलों के बीच स्थित था। इन किलों को सिख इतिहास के सबसे पराक्रमी एवं सफल योद्धाओं में से एक- रणजीत सिंह द्वारा बनवाया गया था। इस क्षेत्र में अफ़रीदी व ओरकज़ई जनजातीय समूहों ने ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार का विरोध शुरू कर दिया था। 1897 के सितंबर महीने में इन दोनों ही किलों पर हमले किए गए। कर्नल जॉन हॉटन के आदेशानुसार 36वें सिख (36th Sikh infantry) को यहाँ तैनात किया गया था।
सारागढ़ी की चौकी एक दुर्गम स्थान पर स्थित थी। पथरीली पहाड़ी पर स्थापित की गई इस चौकी की सुरक्षा की व्यवस्था भी की गई थी। यहाँ पर दोनों किलों में संकेतों के आदान-प्रदान के लिए एक टावर भी था। रात को प्रकाश के माध्यम से संकेत दिए जाते थे।
ख़ूनी इस्लामिक कबीलों का हमला और युद्ध की शुरुआत
1897 के दिन कबाइलियों ने लॉकहार्ट और सारागढ़ी में डेरा डाल दिया ताकि दोनों के बीच के संपर्क को भंग कर सेना की आवाजाही रोकी जा सके। कबाइलियों ने उचित समय देख कर हमला बोल दिया। जैसा कि इस्लामी आक्रांताओं का इतिहास रहा है, उन्हें न युद्ध के नियम की परवाह होती थी और न ही वे मानवीय तौर-तरीकों में विश्वास रखते थे। इसीलिए, उनसे इन किलों को बचाना ज़रूरी था। अगर वे इन किलों में घुसने में सफल हो जाते तो पूरे इलाक़े को तबाह कर सकते थे। यही नहीं, अपने इतिहास के अनुरूप वे इन किलों को आग के हवाले भी कर सकते थे।
10,000 के आसपास कबाइलियों ने सारागढ़ी में युद्ध की शुरुआत कर दी। सेपॉय गुरुमुख सिंह ने हॉटन को इसकी जानकारी दी लेकिन उधर से जो जवाब आया, वह निराशाजनक था। हॉटन ने कहा कि वह तुरंत किसी भी प्रकार की मदद भेजने में असमर्थ हैं। टुकड़ी के कमांडर हवलदार ईशर सिंह ने अंतिम साँस तक लड़ कर चौकी को बचाने का निर्णय लिया। यही सिख युद्धनीति की परम्परा थी। यही उनकी रेजिमेंट की पहचान भी थी। आज भी सिख रेजिमेंट बहादुरी की उसी मिसाल को क़ायम रखे हुए है।
दो बार सारागढ़ी की चौकी पर हमला किया गया लेकिन दोनों ही बार उसे विफल कर दिया गया। लॉकहार्ट किले से सैन्य मदद भेजने की कोशिश की गई लेकिन कबाइलियों की संख्या इतनी ज्यादा थी और वो इतनी तैयारी के साथ आए थे कि सैन्य टुकड़ी चौकी तक पहुँच भी नहीं पाई। ऐसा नहीं था कि सिखों के पास बचने के रास्ते नहीं थे। स्वयं कबाइली कमांडर गुल बादशाह ने उन्हें निकलने के लिए रास्ता देने की पेशकश की थी। ईशर सिंह को कबाइलियों ने आत्मसमर्पण कर कोहट चले जाने को कहा। उसने वचन दिया कि उनकी बात मानने के बाद वो सिखों को कोई हानि नहीं पहुँचाएँगे।
लेकिन, सिख पीछे हटने वालों में से न थे। ब्रिटिश-भारतीय रेजिमेंट की उस टुकड़ी को ‘36 सिख‘ के नाम से जाना जाता था। इन्हें बाद में 11वें सिख रेजिमेंट की चौथी बटालियन बना दिया गया। आज़ादी के बाद ये भारतीय सेना का हिस्सा बने। रेजिमेंट के वीर जवानों को ब्रिटिश आर्मी आज भी याद करती है।
वो युद्ध जिसे भारतीयों ने ही भुला दिया
ईशर सिंह ने पहाड़ी से नीचे उतर कर दुश्मनों से लड़ने का निर्णय लिया। उन्हें पता था कि हज़ारों कबाइलियों के सामने पत्थर और मिट्टी की दीवारों एवं लकड़ी के दरवाज़ों की कोई औकात नहीं है। उनके नीचे उतरने के फ़ैसले के पीछे सिर्फ़ वीरता, शौर्य और साहस ही नहीं था बल्कि रणनीति भी थी। उन्हें पता था कि वो इस युद्ध को जीत नहीं पाएँगे। संख्या बल में मुट्ठी भर सिखों की योजना थी- किसी तरह उन दरिंदों को रोके रखना। सिख जानते थे कि अगर वे कुछ देर भी दुश्मन का सामना करने में क़ामयाब हो गए तो वहाँ सैन्य मदद पहुँचने तक अफ़ग़ानों को रोका जा सकता है।
सिखों के नीचे उतरते ही दुश्मन भी एक पल के लिए काँप गया। उन्हें तो विश्वास ही नहीं हुआ कि 21 लोग 10,000 दुश्मनों का सामना करने के लिए उन पर निर्भयतापूर्वक टूट पड़ेंगे। भगवान सिंह इस युद्ध में वीरगति को प्राप्त होने वाले पहले सैनिक बने। नाइक लाल सिंह और सेपॉय जीवा सिंह ने उनके पार्थिव शरीर को किसी तरह दुश्मनों के चंगुल से बचा कर पोस्ट के अंदर ले जाकर रखा। कबाइलियों के लगातार हमले विफल होते गए लेकिन अंततः उन्होंने दीवार पार करने में सफलता पा ली।
सिखों के हथियार ख़त्म हुए जा रहे थे लेकिन उनके जज़्बे का कोई तोड़ न था। हवलदार ईशर सिंह ने असीम वीरता का परिचय देते हुए अपने सैनिकों को अंदर जाने का आदेश दिया और स्वयं बाहर आकर अफ़ग़ानों से लड़ने लगे। लेकिन, बाकी सिखों को यह गवारा न था। वो सभी अफ़ग़ानों पर बाज की तरह टूट पड़े और इस तरह से एक-एक कर सिख सैनिकों ने मातृभूमि की रक्षा के लिए बलिदान दिया। सिपाही गुरुमुख सिंह चौकी से ही बटालियन के मुख्य कार्यालय को इस भीषण युद्ध की पल-पल की जानकारी देते रहे। उन्हें अपनी सुरक्षा की चिंता नहीं थी। चिंता थी तो बस किले को बचाने की।
जो बोले सो निहाल… सत श्री अकाल…
हथियार ख़त्म हो चुके थे। ताक़त जवाब दे रही थी। लेकिन, साहस अभी भी कम नहीं हुआ था। हथियारों के जवाब देने पर मल्ल्युद्ध का सहारा लिया गया। वाहेगुरु का नाम लेकर भारतीय सैनिकों ने हाथ से युद्ध करना शुरू कर दिया। लेकिन संख्या और हथियार- दोनों मामलों में सिखों व अफ़ग़ानों में ज़मीन-आसमान का अंतर था।
जब युद्ध अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया, तब गुरुमुख सिंह ने मुख्यालय से युद्ध में जाने की आज्ञा माँगी। मुख्यालय से आदेश मिलते ही उन्होंने संकेत देने वाले हैलियोग्रफिक यंत्रों को बैग में बंद कर संगीनों को चढ़ाना शुरू कर दिया। उनके अलावा बाकी सारे सिख जवान वीरगति को प्राप्त हो चुके थे। मातृभूमि की रक्षा करते और अपना फर्ज़ निभाते हुए वीरगति को प्राप्त सिखों ने एक ऐसी अमर गाथा लिख दी थी, जिसे हर एक भारतीय के मुख पर होना चाहिए था। लेकिन, दुर्भाग्य से ऐसा न हो सका। हाँ, तो हम युद्ध की बात कर रहे थे। सारागढ़ी के युद्ध का अंतिम क्षण। वो क्लाइमेक्स जो आप फ़िल्म में देख कर अभिभूत हो जाएँगे। वो दृश्य शायद आपकी आँखों में आँसू ला दे।
जब अफ़ग़ानों को अपनी विजय का एहसास होना शुरू हुआ, तभी चौकी ‘वाहेगुरु जी दा खालसा, वाहेगुरु जी दी फ़तेह’ के नारों से गूँज उठी। यह बुलंद आवाज गुरुमुख की थी। मानों रणजीत सिंह स्वयं युद्ध में प्रकट हो गए हों। ऊँचे टावर से हमला कर एक अकेले गुरुमुख ने हज़ारों दुश्मन को थर्रा दिया। देखते ही देखते उन्होंने 20 अफ़ग़ानों को मार गिराया। गुरुमुख को मारने के लिए पूरे पोस्ट को जला दिया गया। चौकी को आग के हवाले कर दिया गया और उसी आग में समा गया उस युद्ध का अंतिम सिख योद्धा।
जरा याद करो क़ुर्बानी
ब्रिटेन ने आज भी इस युद्ध से जुड़े दस्तावेजों को सहेज कर रखा है। सारे सैनिकों को मरणोपरांत ‘इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट’ दिया गया। यह आज के परमवीर चक्र के बराबर था। यह सैन्य इतिहास की एक अनोखी घटना है क्योंकि एक साथ इतने सैनिकों को ये सम्मान मिलने का और कोई अन्य उदाहरण कहीं भी नहीं है। इस युद्ध को फ्रांस के कई पाठ्य पुस्तकों में शामिल किया गया। मात्र 21 सिखों ने क़रीब 200 दुश्मनों को मार गिराया था, कइयों को घायल किया था।
दुश्मन को इतनी भारी क्षति की उम्मीद सपने में भी नहीं थी। कुछ लोगों ने इस युद्ध को अंग्रेजों के लिए लड़ा गया युद्ध बताया लेकिन यह वाहेगुरु और देश का नाम लेकर लड़ रहे उन सिखों का अपमान होगा। उन्होंने देश की सुरक्षा करते हुए जान दी थी, सिख विरासत को बचाने के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर किया था। अगर वे सिर्फ़ ब्रिटिश के लिए लड़ रहे होते तो आत्मसमर्पण कर के अपनी जान बचा सकते थे।
12 सितंबर को ‘सारागढ़ी दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। महारानी विक्टोरिया ने भी इन जवानों की प्रशंसा की है। पंजाब के फ़िरोज़पुर में जनता ने धन इकठ्ठा कर इन वीरों की समाधि बनवाई है। इस कार्य के लिए महारानी विक्टोरिया ने भी धन उपलब्ध कराया था। वीरगति को प्राप्त होने वाले अधिकतर जवान फ़िरोज़पुर के ही थे। इसीलिए, यहीं पर स्मारक बनाने का निर्णय लिया गया। इस युद्ध का प्रभाव इतना था कि चीन से लड़ाई के दौरान भी सिख बटालियन के कमांडर ने अपने सन्देश में कहा था कि उन्हें सारागढ़ी का इतिहास दोहराना है।
केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (CBSE) ने सैनिक व अर्धसैनिक बलों के जवानों के बच्चों को राहत देते हुए उन्हें अपने परीक्षा केंद्र बदलने की छूट दी है। सीबीएसई ने एक नोटिस जारी कर इस बाबत जानकारी दी। सीबीएसई की आधिकारिक वेबसाइट पर जारी नोटिस में कहा गया है कि आतंकवाद, वामपंथी कट्टरवाद इत्यादि से लड़ने वाले सशस्त्र बलों, सेना व अर्धसैनिक बलों के जवानों के बच्चों को कुछ राहत दी जाएगी। जो जवान अपना कर्त्तव्य निभाते हुए मातृभूमि के लिए वीरगति को प्राप्त हो गए, उनके बच्चों को भी ये छूट दी जाएँगी। इन बच्चों को निम्नलिखित रियायतें दी जाएँगी:
वर्ग 10वीं व 12वीं की फाइनल परीक्षा में शामिल होने वाले विद्यार्थी अगर समान शहर में अपने परीक्षा केंद्र में बदलाव करना चाहते हैं, तो वे ऐसा कर सकते हैं।
वर्ग 10वीं व 12वीं की फाइनल परीक्षा में शामिल होने वाले विद्यार्थी अगर किसी अन्य शहर में अपने परीक्षा केंद्र में बदलाव करना चाहते हैं, तो वे ऐसा कर सकते हैं।
अगर उन्होंने किसी कारणवश अपनी प्रैक्टिकल परीक्षाएँ नहीं दी हैं तो उनके लिए 10 अप्रैल तक उनके स्कूल में ही ये परीक्षाएँ आयोजित की जाएँगी।
अगर वे दिए गए विषयों की परीक्षा बाद में देना चाहते हैं, तो वो ऐसा कर सकते हैं।
सीबीएसई के इस सर्कुलर में कहा गया है कि अभ्यर्थी अगर इन सुविधाओं का लाभ लेना चाहते हैं तो उन्हें इसके लिए अपने स्कूल से निवेदन करना होगा। इसके बाद स्कूल उस रिक्वेस्ट को सम्बंधित क्षेत्रीय अधिकारी के पास भेजेगा। इसके लिए 28 अप्रैल, 2019 तक की समय-सीमा तय की गई है ताकि समय रहते सीबीएसई द्वारा कार्यवाही की जा सके।
सरकार ने बड़ा निर्णय लेते हुए 18 हुर्रियत नेताओं व 160 से भी अधिक अन्य कश्मीरी नेताओं की सुरक्षा वापस ले ली है। इस से पहले सरकार ने कड़ा क़दम उठाते हुए 4 प्रमुख हुर्रियत नेताओं की सुरक्षा वापस ले ली थी। पुलवामा हमले के तुरंत बाद यह निर्णय लिया गया था। बुधवार को हुई ताज़ा कार्रवाई के बाद अब सभी 22 अलगाववादियों की सुरक्षा वापस हो गई है। जिन अलगाववादियों की सुरक्षा वापस ली गई है, उनमे से कुछ के नाम एसएएस गिलानी, अगा सैयद मौसवी, मौलवी अब्बास अंसारी, यासीन मलिक और सलीम गिलानी हैं।
Among the leaders whose security has been downgraded & withdrawn by J&K govt are Farooq Ahmed Kichloo, Masroor Abbas Ansari, Aga Syed Abul Hussain, Abdul Gani Shah and Mohd Musadiq Bhat.
इन अलगाववादियों व अन्य कश्मीरी नेताओं की सुरक्षा में 100 से भी अधिक गाड़ियाँ व हज़ार से अधिक सुरक्षाकर्मी लगे थे। हुर्रियत ने सरकार द्वारा सुरक्षा वापस लेने पर टिप्पणी करते हुए कहा कि उसने कभी सुरक्षा की माँग ही नहीं की थी। जम्मू में गृह विभाग की बैठक में लिए गए इस निर्णय के बाद अब इन अलगाववादियों व कश्मीरी नेताओं की सुरक्षा पर ख़र्च होने वाले करोड़ों रुपयों की बचत होगी।
Govt has also decided to withdraw security of Shah Faesal, who resigned from the IAS and Wahid Parray based on their threat assessment.
Through this entire move, over 1000 J&K police personnel and over 100 vehicles are freed to do regular police work. This was long overdue!
बैठक की अध्यक्षता राज्यपाल के सलाहकार विजय कुमार ने की। इस उच्च स्तरीय बैठक में मुख्य सचिव, जिला प्रशासन और गृह विभाग के कई अधिकारी उपस्थित रहे। हुर्रियत ने कहा है कि सुरक्षा वापस लेने से ज़मीनी स्तर पर कोई बदलाव नहीं आएगा। साथ ही उन्होंने अपने रुख में बदलाव करने से भी साफ़ इनकार कर दिया। हुर्रियत ने अपने बयान में कहा कि उन्होंने कई बार स्वयं ही सुरक्षा वापस करने की पेशकश की थी। हुर्रियत ने कहा कि सरकार द्वारा सुरक्षा इसीलिए दी गई थी ताकि हुर्रियत नेताओं की गतिविधियों पर नज़र रखी जा सके।
राजनीतिक पार्टियों के जिन नेताओं की सुरक्षा वापस ली गई है, उनमे पूर्व IAS शाह फ़ैसल भी शामिल है। सरकार ने यह भी साफ़ कर दिया है कि अब किसी भी अलगाववादी को भविष्य में सुरक्षा प्रदान नहीं की जाएगी। साथ ही, इन्हें मिल रही अन्य सुविधाएँ भी छीन ली जाएँगी। केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह पुलवामा हमले के बाद जब कश्मीर दौरे पर गए थे, तभी उन्होंने अलगाववादियों की सुरक्षा हटाने के संकेत दिए थे। उन्होंने कहा था कि पाकिस्तान और आईएसआई के पैसों से पोषित कुछ लोगों की दी गई सुरक्षा छीन ली जाएगी। उन्होंने बिना नाम लिए इन अलगाववादियों के आईएसआईएस व अन्य आतंकी संगठनों से संपर्क होने की बात भी कही थी।
पुलवामा आतंकी हमले के बाद एक तरफ़ जहाँ पूरा राष्ट्र भारतीय सुरक्षा बलों और शहीद हुए लोगों के परिवार के समर्थन में एक साथ आगे आया, वहीं भारतीय राजनीति और तथाकथित उदारवादी वर्ग के कुछ वर्गों द्वारा पूरे मामले का राजनीतिकरण करने का हर संभव प्रयास किया गया।
उस पर भी विडम्बना ये कि कुछ यह भी आरोप लगाने से नहीं चूके कि भारत सरकार ने राजनीतिक लाभ पाने के लिए हमारे ही सैनिकों की हत्या की साजिश रची, दूसरों ने कश्मीर में जनमत संग्रह कराने का भी आह्वान कर डाला।
अब, सोशल मीडिया पर एक आम आदमी समर्थक पेज द्वारा एक तस्वीर सर्कुलेट की जा रही है। उसमें जानबूझकर फर्ज़ी आंकड़ों से एनडीए सरकार के दौरान नेशनल सिक्योरिटी पर झूठे दावे किये जा रहे हैं।
तस्वीर में दावा किया गया है कि यूपीए के दूसरे कार्यकाल के दौरान 109 आतंकवादी हमले हुए, जिसमें 139 जवान बलिदान हुए, 12 नागरिक मारे गए और 563 संघर्ष विराम उल्लंघन हुए, जबकि एनडीए सरकार के लिए समान संख्या 626, 483, 210 और 5596 हैं। तस्वीर में आम आदमी समर्थक पेज़ का दावा है कि यह डेटा दक्षिण एशिया आतंकवाद पोर्टल (SATP) से लिया गया है।
हालाँकि, अगर हम जम्मू और कश्मीर में SATP वेबसाइट के आँकड़ों को देखें तो UPA के दूसरे कार्यकाल में 146 नागरिक हताहत हुए थे। एनडीए के तहत, अब तक 205 नागरिक हताहत हुए हैं। UPA-II के दौरान सुरक्षा बलों में हताहतों की संख्या 242 थी जबकि NDA सरकार के दौरान 346 थी। यह सच है कि पिछली सरकार की तुलना में एनडीए शासन के दौरान अधिक जवान बलिदान हुए हैं। लेकिन पूरा सच ये भी है कि इस दौरान अधिक आतंकवादियों को भी समाप्त कर दिया गया है। UPA-II के दौरान यह आँकड़ा जहाँ 752 थी वहीं NDA शासन के दौरान यह 859 थी। यह डेटा 3 फरवरी, 2019 तक का है, इसलिए इसमें पुलवामा टेरर अटैक के हताहतों और आतंकवाद विरोधी हमलों में शामिल बलिदानियों को शामिल नहीं किया गया है।
संघर्ष विराम उल्लंघन के रूप में, LOC पर 2009-2014 के बीच 335 उल्लंघन हुए। और 2015-2018 के बीच 576। दिए गए आँकड़ों से, यह स्पष्ट है कि नरेंद्र मोदी सरकार के दौरान अधिक संघर्ष विराम उल्लंघन हुए हैं। फिर भी यह संख्या तस्वीर में उल्लिखित सँख्या के आस-पास भी नहीं हैं।
यह स्पष्ट नहीं है कि आतंकी हमलों की संख्या कहाँ से प्राप्त हुई क्योंकि हमें SATP वेबसाइट पर ऐसा कोई आँकड़ा नहीं मिला। स्पष्ट है कि केवल झूठ फ़ैलाने के लिए ऐसे ही एक बड़ी संख्या चुनी गई ताकि सुरक्षा के मामले में NDA को कमज़ोर साबित किया जा सके।
निष्कर्ष बिल्कुल स्पष्ट है, जब आतंकवादियों को ख़त्म करने की बात आती है तो एनडीए का रिकॉर्ड यूपीए के दूसरे कार्यकाल से बेहतर रहा है। हालाँकि, अधिक सुरक्षाकर्मी बलिदान हुए हैं, लेकिन इसका कारण भारतीय सेना द्वारा किए गए आतंकवाद विरोधी अभियानों की अधिक संख्या भी हो सकता है। संसद में स्पष्ट बहुमत वाली सरकार के कार्यकाल के दौरान भारत को अस्थिर करने की पाकिस्तान की इच्छा भी इतनी ज़्यादा संघर्ष विराम उल्लंघन की वजह है।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि तस्वीर में सर्कुलेट किए जा रहे आँकड़ों में केंद्र सरकार द्वारा वामपंथी उग्रवाद को समाप्त करने के लिए उठाए गए कदमों को शामिल नहीं किया गया है। जबकि तथ्य ये है कि नरेंद्र मोदी सरकार की नक्सल आतंकवादियों पर कठोर कार्रवाई के कारण, निकट भविष्य में देश में माओवादी हिंसा के अंत की कल्पना करना बहुत आसान हो गया है।
घाटी के बाहर कश्मीरियों के ख़िलाफ़ हमलों और “सांप्रदायिक घृणा” के ख़बरों के बीच, पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) ने अब जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर के ख़िलाफ़ “मनगढ़ंत कहानियाँ और हास्यास्पद आरोप” लगाने के लिए कार्रवाई की माँग की है।
पुलवामा मामले पर JNU की लॉ गवर्नेंस एवं आपदा अध्ययन की प्रोफ़ेसर अमिता सिंह ने महबूबा मुफ़्ती को ट्वीट करते हुए कहा कि यदि पुलवामा पर उनको ज़्यादा अफ़सोस है तो वो अपने 40 लोग सार्वजानिक तौर पर मारने के लिए दे सकती हैं।
इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार, अमिता सिंह ने अपने बयान में ये भी कहा कि महबूबा मुफ़्ती के आदेश पर तीन चेकिंग बैरियर हटाए गए थे जिससे RDX लिए वह आतंकी पकड़ में नहीं आ सका और इतना बड़ा हमला करने में सफल रहा। अमिता सिंह के बयान पर महबूबा मुफ़्ती का कहना है कि वह उन पर केस करेंगी।
This is a professor at #JNU making up concocted stories & ridiculous allegations against @MehboobaMufti She does not stop at that, is also calling for public hanging of Kashmiris. We register strong protest and will initiate legal action against her. @DelhiPolice pls take note pic.twitter.com/feqw2qz3gP
पीडीपी ने ट्वीट किया, “JNU को प्रोफ़ेसर महबूबा मुफ़्ती पर मनगढंत कहानियाँ और बेबुनियाद आरोप लगा रही हैं और 40 लोगों के सार्वजानिक फाँसी की माँग कर रही हैं। हम इसकी कड़ी निंदा करते हैं। दिल्ली पुलिस को यह मामला संज्ञान में लेना चाहिए।”
जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री ने इस पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि शिक्षा देने वाला कोई शख़्स ऐसा कैसे हो सकता है? अगर वह वाकई शिक्षित हैं तो? या फिर जानबूझकर कश्मीरियों को कष्ट पहुँचाना चाहती हैं। विडंबना यह है कि वह लॉ गवर्नेंस की अध्यापिका हैं।