Wednesday, November 6, 2024
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स्मार्ट सिटी अभियान ने बदला भारतीय शहरों का चेहरा

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के महत्वाकांक्षी अभियानों में एक अभियान स्मार्ट सिटी अभियान भी है; जिसका मक़सद भारतीय शहरों में ‘ईज ऑफ़ लिविंग’ को प्रोत्साहन देना है। इस अभियान के तहत 6,85,758 करोड़ रुपये के निवेश का असर शहरों में परिवहन, स्वच्छता, प्रशासनिक कार्यप्रणाली, पर्यावरण और लोगों की मानसिकता पर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। इस प्रभावशाली अभियान से प्रधानमंत्री मोदी की देश को आगे ले जाने की सोच बयां होती है।

जानकारी के मुताबिक स्मार्ट सिटी अभियान के तहत 2,05,018 करोड़ रुपये की 5000 से ज़्यादा स्मार्ट परियोजनाओं की शुरूआत की गई थी। इन परियोजनाओं के फलीभूत होने से निश्चित रूप से शहरों की तस्वीर बदली है और आगे भी बदलेगी।

प्रधानमंत्री आवास योजना में शहरी क्षेत्रों में 65 लाख से ज़्यादा मकानों के निर्माण को मंज़ूरी भी दी गई। प्रधानमंत्री मोदी द्वारा उठाए गए इस क़दम से शहरी क्षेत्रों की दशा बेहतर होने में काफी हद तक मदद मिलेगी।

अमृता योजना के तहत पानी, सीवरेज और सफ़ाई के लिए 77,640 करोड़ रुपये की योजना का प्रावधान किया गया जो कि सामान्य जन-जीवन को पहले से बेहतर करने में सहायक सिद्ध होगा।

शहरों के लिए लाइफ़लाइन बनी मेट्रोलाइन के ज़रिये आवागमन को सरल और उसे विस्तार देने के लिए युवाओं के कौशल का विकास कर उन्हें ‘दीनदयाल अंत्योदय योजना’ और ‘राष्ट्रीय शहरी आजीविका मिशन’ के तहत रोज़गारपरक प्रशिक्षण दिया गया है। ऐसा करने से एक तरफ तो युवाओं को रोज़गार मुहैया होगा और दूसरी तरफ शहरों के नवीनीकरण को भी विस्तार मिलेगा।

इसके अलावा क़रीब 12 शहरों के लिए ‘सिटी हृदय योजना’ के कार्यान्वयन को भी मंज़ूरी दी गई जिसका असर आने वाले समय में बख़ूबी देखने को मिलेगा।

शहरों की सुरक्षा और उसकी निगरानी के लिए ‘स्मार्ट कमांड’ और ‘कंट्रोल सेंटर’ योजना के लिए लगभग 11 शहरों में परियोजनाएँ पूरी हो चुकी हैं और 29 शहरों में काम चल रहा है। इसके अलावा ऐतिहासिक और दर्शनीय स्थलों के सौंदर्यीकरण से संबंधित परियोजनाएँ 16 शहरों में पूरी की जा चुकी हैं और क़रीब 32 शहरों में काम चल रहा है।

स्वच्छ भारत मिशन के ज़रिये मूलभूत शहरी सुधार, शहरों के कायाकल्प की योजनाएँ, निजी और सार्वजनिक शौचालयों का निर्माण और ठोस अपशिष्ट प्रबंधन के ज़रिये बदलाव की शुरूआत की जा चुकी है।

यह मिशन प्रधानमंत्री मोदी की सटीक दूरदर्शिता और उनकी बेहतर कार्यशैली को स्पष्ट रूप से दिखाता है। निश्चित रूप से ये सभी परियोजनाएँ उनके विरोधियों और आलोचकों के लिए क़रारा जवाब है, जो बेवजह की अड़चनों से देशवासियों के ध्यान को भटकाने का काम करती हैं।

कॉन्ग्रेस के विधायक ने वन अधिकारी को दी हाथ-पाँव काट देने की धमकी

राम मंदिर पर सबसे ज्यादा अटकलें लगाने वाली कॉन्ग्रेस सरकार के ही एक विधायक ने कर्नाटक में वन अधिकारी को धमकी दी है- “अगर मंदिर के निर्माण में कोई रोक लगाई तो हाथ पैर काट दूँगा।”

जब भी चुनावों के ज़रिए जनता अपने लीडर को किसी भी पद के लिए चुनती है तो उनकी बहुत अपेक्षाएँ होती हैं। इन्हीं अपेक्षाओं में एक अपेक्षा क़ानून और न्यायव्यवस्था को बनाए रखने की भी होती है। लेकिन कर्नाटक के भद्रवती इलाके में विधायक जी ने सबकी तमाम अपेक्षाओं को और अपने पद की गरिमा को उस समय तार-तार कर दिया, जब उन्होंने वन अधिकारी को गुस्से में हाथ-पाँव तोड़ने की धमकी दी।

ये मामला उस समय टूल पकड़ने लगा जब कर्नाटक के भद्रवती इलाके में मंदिर बनने की बात शुरू हुई, लेकिन वन विभाग के एक अधिकारी ने इस मंदिर निर्माण पर कथित तौर से रोक लगा दी। जिससे बात बढ़ गई और अधिकारी की ‘न’ पर स्थानीय विधायक बी के संगमेश्वर नाराज़ हो गए। जिसके बाद अपना आपा खोते हुए उन्होंने अधिकारी को फोन करके कहा कि वह मंदिर की नींव रख रहे हैं और जिसके बाद गाँव वाले आगे काम करना शुरू कर देंगे। साथ मे उन्होंने ये भी कह डाला ‘कोई अधिकारी रोकने नहीं आएगा वरना मैं हाथ और पैर काट दूंगा।’ 

विधयाक जी का ये रवैया दिखाता है कि वह कानून की और न्यायप्रणाली के साथ अपने पद की और अन्य अधिकारियों की कितनी इज्ज़त करते हैं। वैसे देखा जाए अगर तो कर्नाटक की राजनीति में ऐसे बयान आना कोई बड़ी बात नहीं है। इससे पहले भी कर्नाटक के मुख्यमंत्री जी फोन कॉल पर मारने की धमकी दे चुके हैं।

डियर थरूर जी, मोदी के कपड़े खींचते हुए आप मोर बन जाते हैं

सामाजिक संरचना और उससे उपजा भेदभाव अंग्रेज़ी के ‘टेन्जिबल’ और ‘इन्टेन्जिबल’, दोनों ही, स्तरों पर दिखता है। टेन्जिबल यानि प्रकट रूप से, जिसे आप वास्तविक रूप से देख सकते हैं। इन्टेन्जिबल यानि वो दिखता नहीं, पर महसूस किया जा सकता है। तमाम तरह के ‘वाद’ हैं, जो कि नकारात्मक स्वरूप में हमारे हर तरफ दिखते हैं। उसी में एक बीमारी है ‘एलिटिस्ट’ मानसिकता वाली। 

यह एक ऐसी मानसिकता है जो अपने साथ एक तरह का कैंसर लिए चलती है: एनटायटलमेंट। एनटायटलमेंट का मतलब है कि आपको ऐसा लगता है कि किसी भी चीज पर आपका अधिकार है। ये मानसिकता तब आती है जब आप सत्ता और पैसे के बहुत क़रीब होते हैं। उसके बाद जब से दोनों चीज़ें, या एक भी, चली जाए तो आपको लगता है कि जो मेरा था, वो किसी और का कैसे। 

दूसरी बात है आज कल का पोलिटिकल डिस्कोर्स। हर पक्ष के नेता एक से एक क्रिएटिव मुहावरे, फब्तियाँ और शब्दों का प्रयोग करते नज़र आते हैं। इसमें एक समय में एक स्तर हुआ करता था। एक समय तक मजाक के लहजे में कुछ कहा जाता था, पार्टी के छोटे नेता भले ही कुछ भी बकवास करते हों, पर बड़े नाम आमतौर पर एक स्तर बनाकर रखते थे।

फिर सत्ता पर 55 साल आठों पाँव से जकड़ बनानेवाले साम्राज्य का पतन हो गया। उसकी चारदीवारी, क़िले और यहाँ तक की दरबारी तक भगा दिए गए। सत्ता गई, पार्टी को फ़ंड देने वाले हाथ खींचने लगे। लेकिन एलिटिज्म और एनटायटलमेंट तो मानसिकता का हिस्सा बन चुके हैं, तो ऐसे में जली रस्सी की ऐंठन तो रहेगी ही।

उसी का परिणाम ‘चाय वाला’, ‘नीच’, ‘ख़ून का दलाल’, ‘गंगू तेली’ से लेकर ‘मौत का सौदागर’, ‘ज़हर की खेती’ और तमाम तरह की उपमाएँ और बयान हैं। ये सारे बयान कॉन्ग्रेस के शीर्ष नेताओं के मुखारविन्दों से निकले हैं। और, हर बार चुनावों में जनता ने इसका जवाब दिया है। 

स्वयंसिद्ध डिक्शनरीबाज़ शशि थरूर ने नेहरू ख़ानदान से अपनी वफ़ादारी निभाते हुए ये कहा है कि किसी चायवाले के प्रधानमंत्री बनने के पीछे नेहरू द्वारा पोषित संस्थाएँ हैं। ये उसी पार्टी के शीर्ष नेता का बयान है जिसके कई नेता कई बार ये पता लगाने में व्यस्त रहे हैं कि मोदी न तो चाय बेचता था, न ही वो ओबीसी से है। 

पहले कॉन्ग्रेस के नेताओं को एक बात पर टिक जाना चाहिए कि वो मोदी को चायवाला मानता है कि नहीं? अगर हाँ, तो आगे बात करते हैं। नेहरू क्या था, क्या नहीं, वहाँ जाने की आवश्यकता नहीं है। नेहरू ने कॉन्ग्रेस को एक पार्टी नहीं पारिवारिक संपत्ति की तरह पाला, और यही कारण है कि कॉन्ग्रेस का अध्यक्ष राहुल गाँधी है। जबकि पूरा देश जानता है कि राहुल गाँधी किसी भी सरकारी स्कूल की कक्षा का मॉनिटर बनने के भी क़ाबिल नहीं है। 

इसलिए ‘लोकतंत्र’ और लोकतांत्रिक संस्थाओं को पोषित करने के चुटकुले कॉन्ग्रेस के मुँह से अच्छे नहीं लगते। लोकतंत्र को राजतंत्र बनाने, और स्वयं को ही ‘भारत रत्न’ मानने वाले चोरों के ख़ानदान ने इस देश को जो भी देने की बातें की हैं, वो डाके डालने के बड़े प्रयोजन थे। जो भी विकास हो पाया वो बस इसलिए कि प्रोजेक्ट को लूटने के लिए प्रोजेक्ट बनाना तो पड़ेगा ही। 

नेहरू ने कुछ किया हो या न किया हो, उसने ये ज़रूर किया कि उसके बच्चे प्रधानमंत्री ज़रूर बनें। चायवाला तो चायवाला ही रहेगा, ये भी तय ही था। उसके समय के कितने नेताओं को आज के भारत में किस पत्थर पर कितनी जगह हासिल हुई है ये सबके देखने की बात है। मजबूरी में ही परिवार से बाहर का कोई प्रधानमंत्री बना है इनके 55 साल के राज में। इतिहास देख लीजिए। 

जिस विकास और सामाजिक समानता की बात कॉन्ग्रेस करती है, वो विकास होने की एक नैसर्गिक प्रक्रिया का चरण है। सामाजिक समानता की बात तो ऐसे लोगों के मुँह से शोभा नहीं देती जिसके लिए किसी निचली जाति के चायवाले का प्रधानमंत्री बनना इतना दुखदायी है कि हर चुनाव में इनके नेता अपशब्द और घटिया मुहावरे लेकर उपस्थित हो जाते हैं। 

ये लोग सामाजिक समानता की बातें करेंगे जिनके लिए सत्तर साल बाद भी ‘गरीबी हटाओ’ एक प्रमुख नारा है? ये लोग सामाजिक समानता और लोकतांत्रिक संस्थाओं को पालने की बातें करेंगे जिन्होंने हर संस्था पर एक परिवार के पाँच लोगों के नाम चिपका रखे हैं? ये लोग सामाजिक समानता की बात करेंगे जो प्रधानमंत्री और पार्टी विशेष की घृणा में इतना गिर चुका है कि जातिवादी गालियाँ देकर ‘नीच’ आदमी और ‘गंगू तेली’ जैसे आक्षेप करके अल्पवयस्कों की तरह आपस में खीं-खीं करके हँसता है?

इनकी सड़ी हुई मानसिकता, सत्ता से दूर होने और भविष्य में बेघर होने की सोच की सिहरन से ऐसे शब्द बोल जाती है जो कि इनके अंदर, बंद कमरों में, बसती है, बोली जाती है। शशि थरूर, मणिशंकर अय्यर, गुलाम नबीं आज़ाद, राहुल गाँधी या सोनिया गाँधी जैसे लोगों की बिलबिलाहट उनसे ऐसी भाषा बुलवा लेती है। 

ये कोई मिसकोट नहीं है। ऐसी बातें फ़्रस्ट्रेशन हैं, छटपटाहट है, अभिजात्यता की ऐंठ से जनित सोच है। ये अगर बाहर नहीं आएगा तो ये लोग सड़कों पर कुत्तों की तरह आते-जाते भाजपाइयों या उनके समर्थकों को दाँत काटने लगेंगे। दाँत काटने से बेहतर है कि अंग्रेज़ी में ऐसे बयान दो कि आदमी को समझने में दो मिनट लगे कि क्या बोल गया। 

नेहरू मर गया। नेहरू अगर प्रधानमंत्री था, तो वो एक बाप भी था। फिर उसकी बेटी आई जो प्रधानमंत्री थी, और एक माँ भी। फिर उसका बेटा आया जो एक प्रधानमंत्री था, और पारिवारिक परम्परा के हिसाब से बेटे को सेटल करने वाले बाप का दायित्व पूरा कर पाता, उससे पहले उसकी हत्या कर दी गई। अब एक माँ है, और एक पार्टी है जो हर हाल में एक नकारे और निकम्मे लौंडे को प्रधानमंत्री बनाने के चक्कर में इस हालत में आ चुकी है कि पता चले किसी जिले में मुखिया संघ के चुनाव में किसी ‘बैंगन छाप’ वाली पार्टी को समर्थन दे देगी। 

यही कॉन्ग्रेस है। राजमाता से मोतियों के हार पाने के लिए उसकी नकली महात्वाकांक्षा को हवा देते रहने के लिए, इस तरह के बयान दिए जाते रहेंगे। एक नंबर के नशेड़ी और निकम्मे लौंडे को भारत की सत्ता दिलवाने के लिए, तमाम बातें की जा रही हैं। इस चक्कर में इनका जो काम है, वो भी ढंग से नहीं कर पा रहे हैं: विपक्ष की ज़िम्मेदारी। 

रिएक्शन की राजनीति करनेवाली, विचारहीन पार्टी आखिर गालियों और अपनी असुरक्षाओं को अंग्रेज़ी में ढालकर नहीं कहेगी तो करेगी क्या? ऐसे बयानों से भाजपा को लगातार फायदा ही हुआ है, और होता ही रहेगा, लेकिन कॉन्ग्रेसियों की नंगई और साफ़ तरीके से सामने आएगी। भाजपा की जीत के ये छुपे मोहरे हैं जो हर बार चुनाव के समय पर ऐसे बयान देकर लोगों पर अपनी सच्चाई ज़ाहिर कर देते हैं। 

पंजाब AAP MLA सुखपाल खैहरा ने लगाए केजरीवाल पर आरोप, दिया इस्तीफ़ा

आम आदमी पार्टी पर छाए हुए संकट के बादल हटने का नाम ही नहीं ले रहे हैं। एक ही सप्ताह में पार्टी के 2 बड़े विकेट पवेलियन जा चुके हैं। फुलका के त्यागपत्र के बाद रविवार को आम आदमी पार्टी विधायक सुखपाल सिंह खैहरा ने भी आप पार्टी के साथ चल रहे लम्बे विवाद के बाद अपने इस्तीफे की घोषणा कर दी है।

एक ओर जहाँ आम आदमी पार्टी पंजाब राज्य की जनता से बहुत उम्मीद लगाकर चल रही है, वहीं दूसरी ओर पार्टी के भीतर चल रही उठा-पटक कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। एक सप्ताह पहले ही आम आदमी पार्टी के वरिष्ठ नेता एडवोकेट एचएस फुलका ने पार्टी के सभी पदों से इस्तीफ़ा देकर सक्रिय राजनीति को अलविदा कह दिया था। फुलका आम आदमी पार्टी की तरफ से पिछले लोकसभा चुनाव में पार्टी प्रत्याशी रह चुके हैं।

क्या है सुखपाल सिंह खैहरा के इस्तीफ़े का कारण?

रविवार सुबह ही काफी समय से पार्टी से चल रहे विवाद के बाद आम आदमी पार्टी के एमएलए सुखपाल सिंह खैहरा ने भी पार्टी को त्यागपत्र दे दिया। खैहरा ने दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी अध्यक्ष अरविंद केजरीवाल को लिखे पत्र में पार्टी द्वारा उन्हें अपमानित किए जाने की बात लिखी है। साथ ही पत्र में ये भी लिखा है कि वो जिस उद्देश्य से अन्ना हज़ारे आंदोलन के दौरान पार्टी से जुड़े थे, पार्टी उन मुद्दों से भटक चुकी है।

अरविंद केजरीवाल कर चुके थे अनुशासनहीनता के लिए निलंबित

वर्तमान में पंजाब विधानसभा में आम आदमी पार्टी विधायकों की संख्या घटकर 18 हो चुकी है। एचएस फुलका के इस्तीफ़े के बाद नेता विपक्ष खैहरा को बनाया गया था, लेकिन पार्टी-विरोधी गतिविधियों के कारण उनसे ये पद आम आदमी पार्टी द्वारा छीन लिया गया। इसके बाद खैहरा बागी हो गए थे और पार्टी ने खैहरा के साथ उनके साथी विधायक कंवर संधू को पार्टी से निलंबित कर दिया था। पार्टी अध्यक्ष अरविंद केजरीवाल से खैहरा के संबंध काफी समय से विवादित चल रहे थे। पिछली पंजाब रैली के बाद अरविंद केजरीवाल ने खैहरा और कंवर संधू को अनुशासनहीनता के कारण निलंबित कर दिया था। तभी से सुखपाल सिंह खैहरा नया राजनीतिक मोर्चा बनाने का प्रयास कर रहे थे।


फोटो फ़ीचर: ‘नमामि गंगे’ से बदलती माँ गंगा की सूरत

‘नमामि गंगे’, गंगा नदी और उसकी सहायक नदियों की रक्षा के लिए अग्रणी अभियान में से एक है। 2014 में मोदी सरकार ने एक साहसिक कदम उठाया और गंगा नदी के लिए एक अलग मंत्रालय बनाया। गंगा के लिए मंत्रालय जो गंगा और उसकी सहायक नदियों की शुद्धता और निर्मलता को सुनिश्चित करने के लिए केंद्रित था। यह गंगा नदी की रक्षा के लिए एक सहयोगी और वैज्ञानिक पहल है।

गंगा
तस्वीर: अनूप गुप्ता

यह नदी के तट के पास सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (STP) के निर्माण को शामिल करता है जो यह सुनिश्चित करता है कि सभी गंदे नाले जो नदी की धारा में गिरते हैं, उन्हें अच्छी तरह से शुद्धिकरण करके ही नदी में प्रवाहित किया जाना चाहिए। अपने अपशिष्टों को सीधे नदी में डालने वाले उद्योगों के लिए एफ्लुएंट ट्रीटमेंट प्लांट (ETP) स्थापित किए गए हैं। जहाँ गंदे जल को शुद्ध करने के बाद ही गंगा में प्रवाहित करने का सख़्त आदेश है। गंदे नाले से अभिप्राय उन बड़े नालों से है जिससे करोड़ों लीटर कचरा नदी में सीधा गिरा दिया जाता है।

तस्वीर: अनूप गुप्ता

पिछले 3-4 वर्षों में कई नए STP और ETP की स्थापना की गई है। ये जहाँ से गंगा गुजराती हैं, उन शहरों के अलग-अलग हिस्सों में, बंद पड़े प्लांट को फिर से चालू किया गया है या नए स्थापित किये गए हैं। उत्तराखंड से शुरू करके कोलकाता तक कई ऐसे ट्रीटमेंट प्लांट स्थापित किये गए हैं। हाल ही में कानपुर में सबसे बड़े गंदे नाले को चिन्हित किया गया है, जो लाखों लीटर सीवेज को सीधे गंगा की धारा में प्रवाहित करता था।  वाराणसी में तीन नए सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) शुरू किए गए हैं।

कई ऐसे उद्योगों पर जो गंगा में कचरा सीधे प्रवाहित करते थे, प्रतिबंधित किया गया है। यही कारण है कि अभी कुछ महीने पहले तक लोगों ने इस मंत्रालय के अस्तित्व और प्रोजेक्ट के लिए स्वीकृत बजट पर सवाल उठाने शुरू कर दिए थे। लोग ये नहीं समझ पा रहे हैं कि सीधे नदी की सफ़ाई करने से पहले उसमें करोड़ों लीटर गिरते हुए कचड़े को रोकना, उसे दूसरी तरफ़ मोड़ना, उसे रसायनों एवं अन्य तरीकों से ट्रीट करना सबसे पहला कदम है। साथ ही, पहला कदम सफ़लतापूर्वक सम्पन्न हो जाए तो नदी के पानी को साफ़ करना बेहद आसान हो जायेगा। इसी क्रम में दूसरा कदम गंगा की सहायक नदियों में मिलने वाले गंदे नाले को रोकना और ट्रीटमेंट प्लांट की मदद से उनका परिष्करण करना है।

तस्वीर : साभार- पत्रिका


गंगा नदी की सफाई को एक बड़ा बढ़ावा मिला जब कानपुर में इंजीनियरों को आखिरकार सीसामऊ नाले से निकलने वाले कचरे से छुटकारा मिला, इसे जाजमऊ सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट में बदल दिया गया है। इस नाले को एशिया का सबसे बड़ा और लगभग 128 साल पुराना माना जाता था। इस परियोजना के पूरा होने से नमामि गंगे परियोजना पर गहरा असर पड़ने की उम्मीद है।

तस्वीर: अनूप गुप्ता

एक जल निकाय को कुछ मापदंडों के आधार पर शुद्ध किया जा सकता है, जैसे विघटित ऑक्सीजन (डीओ), बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी), रासायनिक ऑक्सीजन की मांग (सीओडी), कुल निलंबित ठोस (टीडीएस), रंग, पीएच, विद्युतीकरण और विघटित ठोस पदार्थ (टीडीएस)। सामान्य रूप में हम सभी जानते हैं कि ऑक्सीजन जलीय जीवन के लिए या अन्य के लिए सबसे महत्वपूर्ण तत्व है। इसके बिना हम आमतौर पर जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते।

तस्वीर: अनूप गुप्ता

जल में ऑक्सीजन घुला हुआ है जिसका उपयोग विभिन्न जलीय जीवों द्वारा किया जाता है। इसलिए जब जल निकाय में ऑक्सीजन की कमी होगी तो पारिस्थितिकी तंत्र (Ecosystem) पर इसका व्यापक दुष्प्रभाव होगा। पूरा जलीय जीवन ही संकट में आ जायेगा। जल निकाय में सीवेज और अन्य औद्योगिक अपशिष्ट के घुले होने से ऑक्सीजन की कमी के कारण जीवित जलीय प्राणियों के लिए अस्वास्थ्यकर स्थिति बन रही है।

तस्वीर: अनूप गुप्ता

जब सीवेज से कार्बनिक अपशिष्ट पदार्थ नदी के संपर्क में आता है, तो सूक्ष्म जीव कचरे को क्षीण करने के लिए तेजी से विकसित होने लगते हैं। इसके लिए जल निकाय से ऑक्सीजन की माँग बढ़ जाती है क्योंकि जल में सीवेज या कार्बनिक घटक बढ़ जाता है। परिणामतः, अधिक रोगाणुओं, सूक्ष्म जीवों द्वारा ऑक्सीजन की और अधिक आवश्यकता पड़ जाती है और इस प्रकार जल में घुली हुई ऑक्सीजन के कम होने के कारण BOD (Biological Oxygen Demand) मान बढ़ता है।

यदि रासायनिक और जैविक दोनों घटक हैं तो अधिक ऑक्सीजन की आवश्यकता होगी और ऐसा करने के लिए पानी में घुलित ऑक्सीजन का अधिक होना ज़रूरी है। इसे पानी की रासायनिक ऑक्सीजन मांग (सीओडी) कहा जाता है। टीएसएस, पीएच जल निकाय में शुद्धता और ऑक्सीजन मूल्य को भी बदल सकता है।

तस्वीर: अनूप गुप्ता

‘नमामि गंगे’ अभियान के एक हिस्से के रूप में, सभी प्रामाणिक निकाय, विशेष रूप से प्रत्येक राज्य में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और केंद्रीय निकाय, द्वारा लगातार सूचित करने के आदेश हैं और यह सुनिश्चित करने के लिए इन मापदंडों का पालन किया जा रहा है या नहीं रूटीन चेकअप करने का निर्देश दिया गया है। ताकि, यह सुनिश्चित किया जा सके कि बदली हुई परिस्थितियों के अनुसार कौन-सी पहल करने की आवश्यकता है। पिछले 6 महीनों की वैज्ञानिक जाँच के अनुसार, अब हम कह सकते हैं कि अभियान सही तरीके से चल रहा है, और गंगा जल की गुणवत्ता में व्यापक बदलाव आया है।

अमित शाह की रैली में पकेगी 3 हजार किलो खिचड़ी, 3 लाख दलितों के घर से जुटाए गए हैं चावल

लोकसभा चुनाव आने में अब ज्यादा समय नहीं बचा है। ऐसे में हर राजनैतिक पार्टी खुद को दूसरी पार्टी से बेहतर बनाने में जुटी हुई है। अलग-अलग एजेंडे को लेकर और रैलियां करके हर पार्टी जनता के दिल में उतरना चाहती है ताकि 2019 में कुर्सी पर वो स्वयं आसित हो सकें।

ऐसे में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह भी आज रविवार (6 जनवरी 2019) को रामलीला मैदान पर रैली करने करने वाले हैं। इस रैली में भाजपा के कार्यकर्ता मिलकर 3000 किलो खिचड़ी पकाएंगे। जिसे ‘समरसता खिचड़ी’ का नाम दिया गया है। इस खिचड़ी की सबसे खास बात यह होगी कि इस खिचड़ी में उपयोग किये जाने वाले चावल को 3 लाख दलित समुदाय के लोगों के घर से जुटाया गया है। इस खिचड़ी को भाजपा के कार्यकर्ताओं में और भीम महासंगम विजय संकल्प के समर्थकों में बाँटा जाएगा।

बता दें कि अमित शाह की इस रैली का आयोजन भी दलित मोर्चा ही कर रहा है। जहाँ तक उम्मीद जताई जा रही है इस रैली में करीब 50 हज़ार लोगों के आने की सम्भावना है। 3000 किलो खिचड़ी बनाकर बीजेपी वर्ल्ड रिकॉर्ड भी कायम करना चाहती है। अभी फिलहाल,नवंबर 2017 खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्रालय (Ministry of Food Processing Industries) द्वारा आयोजित ‘वर्ल्ड फ़ूड इंडिया’ फेस्टिवल में संजीव कपूर द्वारा बनाई गई 918 किलो खिचड़ी खूब प्रसिद्ध हुई थी। जिसने अभी तक वर्ल्ड रिकॉर्ड पर अपना नाम कायम कर रखा हुआ है।

अमित शाह इस रैली में भाजपा द्वारा दिल्ली में रह रहे दलितों के लिए किए गए कार्यों की भी चर्चा करेंगे। इस रैली की सबसे खास बात ये होगी कि ये उस समय पर हो रही है, जब काँग्रेस द्वारा देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बार-बार ये कहकर निशाना बनाया जाता रहा है कि वो देश के दलित समुदाय के लिए कोई भी कदम उठाने में विफल रहे हैं ।

कुछ समय पहले, काँग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने नरेंद्र मोदी पर आरोप लगाया था कि वो देश के कमज़ोर समुदाय को नकार रहे हैं। जंतर-मंतर में एक सभा पर राहुल गांधी का कथन था कि कोई भी चीज़ नीयत से शुरू होती है। उनकी माने तो प्रधानमंत्री वही काम कर रहे हैं जो उनके दिल में था। उनके अनुसार प्रधाममंत्री चाहते हैं कि देश का दलित समुदाय हमेशा हाशिये की स्थिति में ही जिए।

ऐसे में ज़रूरी हो जाता है कि भाजपा द्वारा किये गए उन सभी कार्यों को खुद भाजपा द्वारा दोहराया जाए, जो उन्होंने हाशिये में जी रहे लोगों के लिए किया है, ताकि भूली-बिसरी बातों को याद करके विरोधी अपने कथनों में सुधार कर सकें। अमित शाह की रैली मुमकिन है विश्व रिकॉर्ड भी कायम करेगी और दलितों के मन में अपनी पार्टियों को लेकर और कार्यनीतियों को लेकर जगह भी बना पाएगी।

कर्ज़ के चलते कर्नाटक में किसान परिवार के 6 सदस्यों ने की आत्महत्या

कर्नाटक में कोप्पल तालुका के मेटागल (Metagal) गांव में रहने वाले एक परिवार के 6 सदस्य शनिवार सुबह मृत पाए गए। इसके पीछे अंदेशा ये लगाया जा रहा है कि परिवार के सदस्यों ने कि शुक्रवार देर रात ज़हर खाकर आत्महत्या कर ली थी। खेती से जुड़े कर्ज़ को इस आत्महत्या की वजह बताया जा रहा है।

शुरूआती पूछताछ के मुताबिक, मृतकों की पहचान किसान शेखरैय्या, जयम्मा, परम्मा, बसम्मा, गौरम्मा और सावित्री के रूप में हुई है।

स्थानीय ग्रामीणों के अनुसार, शेखरैय्या ने बैंकों और निजी ऋणदाताओं से 6 लाख रुपये का ऋण लिया था। पड़ोसियों ने कहा कि परिवार शुक्रवार की रात हमेशा की तरह सोने चले गए, लेकिन शनिवार को देर सुबह तक नहीं उठे।

घटना का पता शनिवार सुबह तब चला जब भयभीत स्थानीय ग्रामीणों ने घर के दरवाज़े खोले। संयोग से, कृषि मंत्री एन.एच. शिवशंकर रेड्डी शनिवार को अपने किसी निजी काम से कोप्पल में ही मौजूद थे।

कृषि मंत्री, डिप्टी कमिश्नर पी.सुनील कुमार और पुलिस अधीक्षक रेणुका सुकुमार ने गाँव का दौरा किया। आत्महत्या संबंधी यह मामला वहाँ स्थित कोप्पल ग्रामीण पुलिस स्टेशन में दर्ज किया गया है। जानकारी के मुताबिक मृतकों के शवों को पोस्टमार्टम के लिए ज़िला स्तर के अस्पताल में लाया गया है।

एसपी ने कहा कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट से आत्महत्या के कारण और तरीक़े के बारे में अधिक जानकारी मिल सकती है। वहीं डीसी ने बताया कि मृतकों के अंतिम संस्कार करने का निर्णय मृतक शेखरैय्या के भाइयों के साथ परामर्श के बाद ही लिया जाएगा।

किसानों द्वारा आत्ममहत्या किये जाने की ये ख़बर कोई नई नहीं है, लेकिन सवाल ये उठता है कि आख़िर कॉन्ग्रेस द्वारा किये जाने वाले उन वायदों का क्या जिसका दंभ हमेशा से ही कॉन्ग्रेस पार्टी भरती आई है। कॉन्ग्रेस ने अपने चुनावी दौर में इस कर्ज़ माफ़ी के वाक्य को चुनाव के दौरान जमकर भुनाया था नतीजतन राजस्थान और मध्यप्रदेश की सत्ता कॉन्ग्रेस के हाथों आई।

इन परिस्थितियों में क्या ये मान लिया जाए कि सत्ता की बागडोर हाथ में आते ही पार्टी ने अपना रंग बदल लिया है या फिर अपनी धुर विरोधी पार्टी बीजेपी को बेवजह बदनाम करने से ही फ़ुर्सत नहीं मिल पा रही है।

किसानों की दशा तो राजस्थान और मध्यप्रदेश में भी वही है जो अन्य कॉन्ग्रेस-शासित राज्यों में है। ऐसे में, कर्नाटक के कोप्पल में किसान परिवार की यह आत्महत्या कॉन्ग्रेस को ना सिर्फ़ कटघरे में ला खड़ा करती है बल्कि कॉन्ग्रेस की कार्यशैली पर भी प्रश्नचिन्ह लगाती है, जो हक़ीकत से परे है।

हाल ही में, यह बताया गया कि कर्नाटक राज्य सरकार ने स्वयं स्वीकार किया था कि 44,000 करोड़ रुपये की कर्ज़ माफ़ी ने राज्य में केवल 800 किसानों की मदद की थी। उन्होंने पुष्टि की थी कि तथाकथित कर्ज़ माफी से केवल कुछ ही किसानों को लाभ हुआ था।

चोखा धंधा है अभिव्यक्ति की आज़ादी का छिन जाना!

नसीरुद्दीन शाह को एक बार फिर इस देश में भय महसूस होने लगा है। कम लोग ही ये बात जानते हैं कि आखिरी बार जब उन्हें इस देश मे रहकर भय महसूस हुआ था तब वो ‘वेलकम’ , ‘जैकपॉट’ और ‘बूम’ जैसी फिल्मों में अपनी एक्टिंग देख रहे थे।

आम आदमी तो बस ये सोचकर हैरान है कि जो इंसान हर दूसरे दिन वैश्विक स्तर पर विवादित संस्थाओं के साथ बैठकर अपने दातून करने से लेकर सोने और जागने तक की खबरों को हाई क्वालिटी कैमरा से रिकॉर्ड कर के हर दूसरे दिन लोगों को दिखा रहा है, उसे आखिर और कितनी अभिव्यक्ति की आज़ादी की ज़रूरत है? रही बात डर लगने की, तो डर तो वास्तव में अब आपसे सबको लगना चाहिए नसीरुद्दीन साहब, कि न जाने ऐसे अभी और कितने लोग यहाँ छुपे हुए हैं, जो भारत-विरोधी ताकतों का सबसे पहला हथियार बन सकते हैं। आप ये भूल रहे हैं कि देश में जिस अंधकार की आप बात कर रहे हैं, उसी माहौल के बीच अपनी बात खुलकर किसी विवादित संस्था के साथ मिलकर रख पा रहे हैं।

ये महज इत्तेफ़ाक़ ही हो सकता है कि अभिव्यक्ति की आज़ादी पर जितने निबंध और सत्संग इस देश में 2014 लोकसभा चुनावों के बाद हुए हैं, शायद ही किसी लोकतन्त्र के इतिहास में कभी इस विषय पर इतनी खुलकर चर्चा हुई हो। वरना इतिहास जानता है कि अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर इस देश में लगभग साठ लाख लोगों की नसबंदी करवा डाली थी। गुलफ़ाम हसन साहब कभी नहीं जान पाएँगे कि ये देश अपने नागरिकों से लंबे-घने-घुँघराले बालों वाले, डरावने फ़ैशन रखने वाले बच्चे पैदा करने तक की आजादी छीन चुका है।

कुछ साल पहले ऐसे ही एक मनचले, भटके हुए युवाओं के समूह ने जब अभिव्यक्ति की आज़ादी छिन जाने की बात की थी तब उन्हें इस देश ने राष्ट्रीय स्तर का नेता बना दिया था। उसके बाद अभिव्यक्ति की आज़ादी छिन जाना बेकार युवाओं के बीच एक तगड़ा प्लेटफॉर्म बनकर उभरा है। ‘मेक इन जेएनयू’ ने ‘मेक इन इंडिया’ से ज्यादा नम्बर हासिल किए हैं।

अब हर युवा जैसे ही सनसनी बनने निकलता है, अभिव्यक्ति की आज़ादी छिन जाने का दिव्य पाशुपत्यास्त्र उसकी जेब में है। घर में सुबह 11 बजे तक रज़ाई मे दुबककर फ़ेसबुक पर ‘एंजेल प्रिया’ बनकर लड़कों से चैटिंग कर रहे क्रांतिजीव युवा को जब घरवाले बिस्तर छोड़ने की बात करते हैं तो वो भी अभिव्यक्ति की आज़ादी छिन जाने का खुलकर दावा करने लगता है।

देश में रहकर डरने वालों में नसीरुद्दीन शाह पहले आदमी नहीं हैं। शाहरुख खान का नाता यूँ तो ‘डर’ के साथ पुराना है लेकिन फिर भी यश चोपड़ा के रहते वो इस देश में कभी नहीं डरे। डरने का मौका उन्हें 2014 के बाद नसीब हुआ और उसके बाद वो जी भरकर डरे। अपना डर दूर करने के लिए वो कभी पाकिस्तान तो वो नहीं जा पाए लेकिन एयरपोर्ट पर उनका डर दूर करने के साक्ष्य अमेरिका के पास जरूर हैं।

डरे हुए लोगों की लिस्ट में एक नाम सबसे बड़े कलाकार आमिर खान का भी रहा है। जिन्होंने हिन्दू आस्था पर तसल्ली से प्रहार करती ‘PK’ जैसी फ़िल्म इसी देश के दर्शकों के बीच रहते हुए उन्हीं के लिए बनायी। उन्हीं हिन्दुओं से रुपए और नाम कमाने के बावजूद भी उन्हें इस देश में डर लगा।

ये बात अलग है कि इस डर का बदला अब आमिर खान ने यहाँ की जनता को अपनी फ़िल्म ‘ठग्स ऑफ़ हिंदुस्तान’ दिखा कर ले लिया है। इसलिए शायद अब वो हिंदुस्तान छोड़कर जाने का अपना मन भी बदल चुके हैं। अब इतने कद्दावर लोगों के बाद अगर नसीरूद्दीन साहब डर रहे हैं तो इसका कारण ये भी हो सकता है कि उन्होंने टीवी पर हर सप्ताह आती ‘ग़दर’ फ़िल्म देख ली हो।

नसीरुद्दीन शाह के बयानों से प्रभावित होकर अब सनी लियोनी और पूनम पांडे को भी महसूस होने लगा है कि इस देश ने सच में उनकी अभिव्यक्ति की आज़ादी का हनन किया है, जब पत्रकारों ने पूछा कि वो डिविलियर्स के स्ट्राइक रेट से क्यों अंग प्रदर्शन करने लगी हैं? इस पर उनका भी यही जवाब था कि अपनी अभिव्यक्ति का अधिक इस्तेमाल वो अब मोदी सरकार का विरोध करने के लिए कर रही हैं।

जिस तरह मुखर होकर वर्तमान सरकार के अंदर लोग बोलने की स्वतन्त्रता को लेकर आश्वस्त हुए हैं, अगले चुनाव आने से पहले किसी दिन पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भी पहल कर बोल देना चाहिए कि ‘हाँ, वाकई में राजमाता ने उन्हें प्रधानमंत्री बनाकर दस वर्षों के लिए उनसे अभिव्यक्ति कि आज़ादी छीन ली थी।’

‘मोहरा’ फ़िल्म के उस ज़िंदाल सेठ को अभी तक दुनिया भूली नहीं है, जो दुनिया की आँखों मे धूल झोंकने के लिए खुद अपनी आँखों पे काला चश्मा पहनकर विशाल अग्निहोत्री जैसे सीधे-सादे नवयुवक से तस्वीर पर लाल निशान खिंचवाने की प्रैक्टिस करवाता था। फिर विशाल क्या बन गया ये हम सब जानते हैं। शायद नसीरुद्दीन शाह अपने अंदर के गुलफ़ाम हसन वाले किरदार से अभी तक बाहर नहीं आ पा रहे हैं।

नसीरुद्दीन शाह साहब, असंवेदनशील भीड़ से हर किसी को डर लगता है। बहुत लोगों को मुहर्रम की भीड़ से डर लगता है, बहुत से लोग हैं जिन्हें बाज़ार जाते हुए भी डर लगता है, क्योंकि वो इस देश में मुंबई आतंकी हमले जैसी तमाम घटनाओं पर इस्लामी आतंक के हस्ताक्षरों को भूल नहीं सके हैं। हम में से कइयों को हर 15 अगस्त और 26 जनवरी को ‘फलाँ ज़िले में बम फटने से कई मरे’ की ख़बर सुनने से डर लगता है। किसी को बनारस के घाट पर जाने से डर लगता है, किसी को संकटमोचन मंदिर जाने से डर लगता है। डर तो इस बात से भी लगता है कि हिन्दू-मुस्लिम दंगे/झगड़े मे ‘समुदाय विशेष’ की जगह ‘मुस्लिम समुदाय’ लिखने पर मुझे साम्प्रदायिक कह दिया जाएगा। लेकिन क्या करें साहब, मन मारकर जी रहे हैं, क्योंकि यहाँ तो हिन्दू नाम होना ही साम्प्रदायिक हो जाने की निशानी है।

शायद आपके राजनीतिक सिद्धान्त इस बात को ना मानते हों लेकिन इस देश का इतिहास जानता है कि इस देश ने हर धर्म, आस्था, मत, सम्प्रदाय को शरण दी है, जबकि बदले में इस देश को सिर्फ उन्हीं में से अधिकांश शरणार्थियों ने नफ़रत, घृणा और हिंसा से नवाज़ा है।

यही वो देश है जिसके प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों के अंदर से इसी देश के विरोध में नारेबाज़ी की जा सकती है। और यही वो सरकारें हैं जो इस बात को आसानी से नज़रअंदाज़ कर आपको रातों-रात शहीद भगत सिंह के बराबर लाकर खड़ा कर देती हैं।

इस देश कि सहिष्णुता का मिज़ाज ये है कि हिंदुओं की आस्था के सबसे बड़े प्रतीक, गाय को कभी चुनावी फ़ायदों के लिए पार्टी का चुनाव चिह्न बनाया जाता है, तो कभी सिर्फ हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं को आहत करने के उद्देश्य से ही सड़कों पर गाय काट कर उत्सव मनाया जाता है।

उम्र और कैरियर के जिस पड़ाव पर आप आज खड़े हैं, वहाँ पर आपसे हर कोई एक जिम्मेदार बयान की उम्मीद करता है, लेकिन इस देश के हर नागरिक की आपसे बस यही विनती हो सकती है कि आप इस घृणा और नफ़रत की खाई को अगर कम नहीं कर सकते हैं, तो कम से कम इस खाई को और बढ़ाने का काम ना करें। वरना आपकी सस्ती लोकप्रियता के लिए अपनाए जा रहे हथकंडे यही साबित करते हैं कि इस देश के लिए ‘गुलफाम हसन’ साहब सिर्फ अफसोस हो सकते हैं सरफरोश नहीं।

चलते-चलते ये सूचना भी देता चलूँ कि नसीर जी की पिछले 7 सालों में 35 फ़िल्मों को बॉक्सऑफिस इंडिया पर ‘डिज़ास्टर’ की रेटिंग मिली है जो कि ऐसे महान अदाकार को लेकर देश के जनता की असहिष्णुता ही कही जा सकती है। ‘उह ला ला’ इनका आख़िरी हिट गाना है।

रॉबर्ट वाड्रा की लंदन में ₹17 करोड़ की संपत्ति! जारी हुआ गैर जमानती वॉरंट

ED (प्रवर्तन निदेशालय) ने काले धन को वैध धन बनाने के मामले में सोनिया गाँधी के दामाद, रॉबर्ट वाड्रा को एक बार फिर से घेरे में ले लिया है। इस बार मनी लॉन्ड्रिंग मामले की छान-बीन के लिए एजेंसी ने अदालत की तरफ रुख ले लिया है।

शनिवार को दिल्ली कोर्ट में प्रवर्तन निदेशालय ने बताया कि लंदन के 12, ब्रायनस्टन स्क्वायर में संपत्ति खरीदने के लिए यूएई से धन प्रवाह का इस्तेमाल किया गया, और इस संपत्ति का कथित तौर पर मालिकाना अधिकार रॉबर्ट वाड्रा के पास है। इसकी क़ीमत £1.9 मिलियन है, जो भारतीय रुपये के अनुसार लगभग 17 करोड़ है।

प्रवर्तन निदेशालय के अभियोजक नितेश राणा द्वारा विशेष कोर्ट के न्यायाधीश अरविंद कुमार के समक्ष रोबर्ट वाड्रा के सहायक मनोज अरोड़ा के खिलाफ बेमियादी गैर जमानती वारंट जारी करने की बात रखी गई। जिसकी तर्ज पर कोर्ट 8 जनवरी के बाद सुनवाई करेगा। एजेंसी की शिकायत है कि बार-बार सम्मन जारी करने के बाद भी मनोज अरोड़ा पूछताछ के लिए हाज़िर नहीं होता है।

प्रवर्तन निदेशालय का यह दावा है कि रॉबर्ट वाड्रा की अघोषित संपत्ति की जानकारी करने के लिए मनोज अरोड़ा एक महत्वपूर्ण व्यक्ति है। साथ ही रॉबर्ट के काले धन को वैध बनाने में मनीष सहायता भी करता है।

एजेंसी का कहना है कि 12, ब्रायनस्टन स्कवायर, लंदन, ब्रिटेन में संपत्ति पर रॉबर्ट का लाभकारी रूप से नियंत्रण है। एक तरफ जहाँ इस संपत्ति की कीमत 19 लाख पाउंड है, वहीं खरीददारी के बाद इस संपत्ति की मरम्मत करने के लिए धन की भी व्यवस्था की गई।

प्रवर्तन निदेशालय ने अपनी शिकायत में कहा कि एजेंसी द्वारा परिसर की तलाशी के बाद से ही मनोज अरोड़ा फरार है। पूछताछ के लिए बुलाने पर भी मनोज कभी हाजिर नहीं हुआ। जिसकी वजह से कोर्ट तक बात पहुँची और बेमियादी ग़ैर जमानती वारंट जारी किया गया। आपको बता दें कि बेमियादी गैर ज़मानती वारंट की कोई सीमा नहीं होती है। इसलिए ग़ैर ज़मानती वारंट की माँग न करके बेमियादी ग़ैर जमानती वारंट की बात की गई।

ब्राह्मण, ब्राह्मणवाद और अब ब्राह्मणवादी पितृसत्ता

कुछ दिन पहले ट्विटर के संस्थापक जैक डोरसी कुछ तथाकथित महिला एक्टिविस्टों के साथ मीटिंग में थे और वहाँ से निकले तो बवाल हो गया। बवाल इसलिए हुआ कि जैक भैया ने एक फोटो खिंचाई, जिसमें उन्होंने ‘स्मैश ब्रैह्मिणिकल पैट्रियार्की’ का एक पोस्टर पकड़ा हुआ था। 

उस ग्रुप फोटो में बरखा दत्त भी थी। ज़ाहिर है कि उनके नाम भी गालियाँ पड़ीं। गालियों (जिसे ट्रोलिंग भी कहा जाता है) का मूल उद्देश्य यह बताना था कि पेट्रियार्की बस पेट्रियार्की है, और इसमें ब्राह्मणों को खींच लाना मूर्खता और अनभिज्ञता है। साथ ही, ऐसे पोस्टर के साथ खड़े होने का अर्थ है कि आप एक जाति के लोगों को बेवजह अपनी घृणा का निशाना बना रहे हैं, जबकि आपके पास आपकी बात को साबित करने का कोई प्रत्यक्ष या परोक्ष ज़रिया नहीं। 

पेट्रियार्की या पितृसत्ता लगभग हर समाज में है। इसमें जाति की गुंजाइश बिलकुल ही नहीं है क्योंकि हर जाति के, अधिकांश घरों में मर्दों ने हर समय औरतों को सताया है, उनकी पढ़ाई रोकी है, उनको बाहर जाने से रोका है, घसीटा है, पीटा है, नीचा दिखाया है। आप बुरी बातें सोचिए, और वो बातें हर समाज में, आर्थिक स्थिति, जाति, धर्म आदि से परे औरतों के साथ हो रही हैं, और वही पितृसत्ता का भयावह रूप है। 

इस पोस्टर के बाद हुई फ़ज़ीहत को बरखा दत्त ने, और उसी गिरोह के कई सदस्यों ने ये कहकर पोतने की कोशिश की कि ‘हमारे साथ तो ये ट्रोलिंग रोज होती है, वेलकम टू द गैंग’। अब आप यह बात देखिए कि किसी बात के हर दिन होने का ये क़तई मतलब नहीं कि वो सही है, या गलत। हर दिन बहुत सारे लोग सड़क पर गलत ट्रैक में चलते हैं, लेकिन वो सही नहीं हैं। हर दिन स्वरा भास्कर ट्रोल नहीं होती, वो ट्रोल तब होती है जब बकवास करती है, और मुद्दों को मरोड़कर चर्चा में आना चाहती है। 

बरखा दत्त ने, इस बवाल पर, ट्वीटों की झड़ी लगाकर ये कहना चाहा कि पेट्रियार्की तो हर जगह है लेकिन लाखों दलित महिलाओं के लिए पेट्रियार्की और सेक्सिज्म में अंतर नहीं। और इस बात के लिए ‘ब्रैह्मिनिकल पैट्रियार्की’ एक टर्म है जो इस्तेमाल में आता रहा है। 

ये बात कोरी गप्प है, और मैंने इस पोस्टर वाली नौटंकी से पहले इस नए मुहावरे के बारे में नहीं सुना था। अभी तक नारीवाद की बात होती रही तो पितृसत्ता को हर वर्ग के लोगों ने लताड़ा है। इसमें ब्राह्मणों को घुसाना इस सामाजिक समस्या को अचानक से एक पोलिटिकल टोन देने जैसा है। पोलिटिकल टोन से तात्पर्य है कि रेप, मर्डर, लिंचिंग जैसे हर सामाजिक मुद्दे की तरह इसे भी दलित-ब्राह्मण के डिस्कोर्स में घसीटकर ले आया गया है, जिसका कोई अर्थ नहीं है। 

बरखा दत्त लाख चीख़कर अंग्रेज़ी में फ़र्ज़ी बातें लिखे, लेकिन उससे समाज का यह सत्य कि पितृसत्ता का कोढ़ रंग, जाति, धर्म, और कई बार लिंग तक से ऊपर होता है, झुठलाया नहीं जा सकता। पितृसत्ता में पली लड़कियाँ स्वयं ही एक समय बाद, पावर के पोजिशन में जाने पर, पितृसत्ता का स्तंभ बन जाती है। जिन दलितों की बात बरखा कर रही हैं, शायद कभी उनके मुहल्ले में गई नहीं।

अगर वो वहाँ जाती तो देख पाती कि वहाँ की नारियाँ इस कैंसर को लेकर ऊँची जाति के महिलाओं से ज़्यादा मुखर हैं। लेकिन मुखर होने का यह मतलब बिलकुल नहीं कि वहाँ पेट्रियार्की नहीं है। इसका मतलब यह है कि इन जातियों की महिलाएँ स्वयं मज़दूरी भी करती हैं, तो आर्थिक रूप से सक्षम होने के कारण अपने पतियों को गाली देने से भी नहीं हटती। वो पिटती रहेगी, जो कि पितृसत्ता का उदाहरण है, लेकिन वो गाली भी देती रहती है, जो कि उनके संघर्ष का उदाहरण है। 

ये समझ पाना बहुत कठिन नहीं है। लेकिन, जब आपकी मंशा गलत हो, और आपकी बातों में एक जाति विशेष को हमेशा निशाने पर रखने का अघोषित लक्ष्य रहे, तो फिर आप अपने पेट खराब होने पर भी ब्राह्मणों को दोषी ठहरा देंगे ये कहकर कि वो तंत्रविद्या के उपासक रहे हैं। हालाँकि, आप पहले ही तंत्रविद्या को दक़ियानूसी बताकर उस पर विश्वास न करने का दावा भी ठोक चुकी होंगी। 

बात घूम-फिरकर यही है कि जैक जैसे आदमी को यो-यो टाइप, बिना टाय-पैंट वाला हैप सीईओ बनने के चक्कर में किसी भी समाज के, किसी भी वर्ग के लोगों द्वारा थमाए पोस्टर को बस इसलिए नहीं उठा लेना चाहिए कि उसमें से दो शब्द उसको समझ में आ रहे हैं। जिस समाज को आप नहीं समझते, वहाँ बस अपनी विचारधारा से मिलते लोगों को साथ मिल लेने से आप ज्ञानी नहीं हो जाएँगे, न ही इन्क्लूसिव और प्लूरलिस्ट। आप वहाँ अपनी अज्ञानता के कारण जैक से जैकऐस बन जाएँगे। 

ट्विटर ने इस पर प्रतिक्रिया दी कि ये पोस्टर सीईओ या कम्पनी की पॉलिसी का प्रतिनिधित्व नहीं करता। फिर आखिर वो करता क्या है? जैक की राहुल गाँधी या नरेन्द्र मोदी से मुलाक़ात किस कैपेसिटी में थी? क्या भारत के प्रधानमंत्री से, या राहुल गाँधी से कोई भी टॉम, डिक या हैरी मिल सकता है? जैक को दूसरे जैक, जैक मा, से पूछना चाहिए कि उसका भी नाम तो जैक ही है, उससे मोदी क्यों नहीं मिलते।  

ट्विटर ने ये कहा कि ऐसी मुलाक़ातें ट्विटर के वैल्यूज़ का प्रतिनिधि हैं जहाँ हम हर पक्ष को सुनते और समझते हैं। लोगों ने पूछा कि भाई हर पक्ष का मतलब क्या है, और दूसरे पक्षों से हुई मुलाक़ातों के फोटो या विवरण कहाँ हैं? ट्विटर जवाब नहीं दे पाया। 

ट्विटर और ट्विटर इंडिया की पॉलिसी हमेशा दक्षिणपंथी विचारधारा को हेट-स्पीच के नाम पर शैडोबेनिंग से लेकर ब्लॉक और सस्पैंड करने की रही है जबकि यहाँ आतंकवादियों और उसके हिमायतियों के हैंडल सदाबहार चलते रहे हैं। जब आप किसी स्टेट के द्वारा अपराधी साबित हो चुके आतंकी को अपना समर्थन देने वालों को, या उनके वैसे ट्वीट्स को बंद नहीं करते, तो फिर आपकी मंशा और पॉलिसी के बारे में डॉक्यूमेंट पढ़ने की ज़रूरत नहीं। 

भारत की उस अल्पसंख्यक आबादी को निशाना बनाना, जिसके ख़िलाफ़ चंद लोगों के अनुवाद किए विचार हैं, तथ्य नहीं, बताता है कि आपकी दिशा किस तरफ की है। यहाँ भारतीय राजनीति और लिबरल, वामपंथी और बिलबिलाते चिरकुट गिरोह का दर्द है क्योंकि सत्ता की चाबुक खींचकर मारनेवालों के हाथ से वो चाबुक छीन ली गई है। जिन्हें वो चाबुक मारते थे, उन्होंने चाबुक पकड़ लिए हैं। तो विक्टिम कार्ड खेलने से लेकर, नए प्रतिमान मैनुफ़ैक्चर करने का उद्योग तो फलेगा ही। 

इसीलिए, इस तरह की शब्दावली और एक खास जाति को सामूहिक निशाना बनाना आपकी समझ पर सवाल खड़े करता है। ब्राह्मणों को जो भी मिला है, वो उनकी विद्या और मेहनत का नतीजा है। उन्हें किसी ने आरक्षण नहीं दिया, किसी ने मुफ़्त में पढ़ने के लिए उपाय नहीं किए। कितने ब्राह्मणों का परिवार आज मिडिल/अपर इनकम ग्रुप में आता है, इसका कोई सर्वे अगर हो, तो पता चल जाएगा कि कौन क्या कर रहा है। 

सच तो यह है कि सत्ता, या पावर, सिर्फ एक बात पर निर्भर है, और वो है पैसा। जिसके पास पैसा है, वो चाहे जाति का दलित हो या सवर्ण, उसकी हर बात ज़ायज हो जाती है। ये बात भी है कि दलितों के पास पैसा बहुत कम केस में आया है। लेकिनजब दलित की बात करने वाला लालू यादव या मधु कोड़ा बन जाता है तो वो समाज को कैसे लूटता है ये जगज़ाहिर है। ऐसा आदमी पैसों के बल पर सत्ता के क़रीब जा सकता है, सत्ता पर क़ाबिज़ हो सकता है, अपराध करके बरी हो सकता है, किसी दूसरे समाज के लोगों पर क़हर बरपा सकता है। उसके लिए जाति महज़ एक शब्द बनकर कहीं दूर छूट जाती है। वो जाति से ऊपर उठ जाता है। 

बरखा दत्त जैसे लोग यह तो स्वीकारते हैं कि वो एक ऊँचे पोजिशन पर हैं, लेकिन यह नहीं स्वीकारते कि इसी ऊँचाई की वजह से वो सच्चाई से भी बहुत दूर हैं। दूसरी बात यह भी है कि कई बार लोग अपने किसी लक्ष्य का पीछा करते हुए, अपना ज़मीर त्याग देते हैं। बरखा दत्त ने वही किया है।