कुछ दिन पहले ट्विटर के संस्थापक जैक डोरसी कुछ तथाकथित महिला एक्टिविस्टों के साथ मीटिंग में थे और वहाँ से निकले तो बवाल हो गया। बवाल इसलिए हुआ कि जैक भैया ने एक फोटो खिंचाई, जिसमें उन्होंने ‘स्मैश ब्रैह्मिणिकल पैट्रियार्की’ का एक पोस्टर पकड़ा हुआ था।
उस ग्रुप फोटो में बरखा दत्त भी थी। ज़ाहिर है कि उनके नाम भी गालियाँ पड़ीं। गालियों (जिसे ट्रोलिंग भी कहा जाता है) का मूल उद्देश्य यह बताना था कि पेट्रियार्की बस पेट्रियार्की है, और इसमें ब्राह्मणों को खींच लाना मूर्खता और अनभिज्ञता है। साथ ही, ऐसे पोस्टर के साथ खड़े होने का अर्थ है कि आप एक जाति के लोगों को बेवजह अपनी घृणा का निशाना बना रहे हैं, जबकि आपके पास आपकी बात को साबित करने का कोई प्रत्यक्ष या परोक्ष ज़रिया नहीं।
पेट्रियार्की या पितृसत्ता लगभग हर समाज में है। इसमें जाति की गुंजाइश बिलकुल ही नहीं है क्योंकि हर जाति के, अधिकांश घरों में मर्दों ने हर समय औरतों को सताया है, उनकी पढ़ाई रोकी है, उनको बाहर जाने से रोका है, घसीटा है, पीटा है, नीचा दिखाया है। आप बुरी बातें सोचिए, और वो बातें हर समाज में, आर्थिक स्थिति, जाति, धर्म आदि से परे औरतों के साथ हो रही हैं, और वही पितृसत्ता का भयावह रूप है।
इस पोस्टर के बाद हुई फ़ज़ीहत को बरखा दत्त ने, और उसी गिरोह के कई सदस्यों ने ये कहकर पोतने की कोशिश की कि ‘हमारे साथ तो ये ट्रोलिंग रोज होती है, वेलकम टू द गैंग’। अब आप यह बात देखिए कि किसी बात के हर दिन होने का ये क़तई मतलब नहीं कि वो सही है, या गलत। हर दिन बहुत सारे लोग सड़क पर गलत ट्रैक में चलते हैं, लेकिन वो सही नहीं हैं। हर दिन स्वरा भास्कर ट्रोल नहीं होती, वो ट्रोल तब होती है जब बकवास करती है, और मुद्दों को मरोड़कर चर्चा में आना चाहती है।
बरखा दत्त ने, इस बवाल पर, ट्वीटों की झड़ी लगाकर ये कहना चाहा कि पेट्रियार्की तो हर जगह है लेकिन लाखों दलित महिलाओं के लिए पेट्रियार्की और सेक्सिज्म में अंतर नहीं। और इस बात के लिए ‘ब्रैह्मिनिकल पैट्रियार्की’ एक टर्म है जो इस्तेमाल में आता रहा है।
ये बात कोरी गप्प है, और मैंने इस पोस्टर वाली नौटंकी से पहले इस नए मुहावरे के बारे में नहीं सुना था। अभी तक नारीवाद की बात होती रही तो पितृसत्ता को हर वर्ग के लोगों ने लताड़ा है। इसमें ब्राह्मणों को घुसाना इस सामाजिक समस्या को अचानक से एक पोलिटिकल टोन देने जैसा है। पोलिटिकल टोन से तात्पर्य है कि रेप, मर्डर, लिंचिंग जैसे हर सामाजिक मुद्दे की तरह इसे भी दलित-ब्राह्मण के डिस्कोर्स में घसीटकर ले आया गया है, जिसका कोई अर्थ नहीं है।
बरखा दत्त लाख चीख़कर अंग्रेज़ी में फ़र्ज़ी बातें लिखे, लेकिन उससे समाज का यह सत्य कि पितृसत्ता का कोढ़ रंग, जाति, धर्म, और कई बार लिंग तक से ऊपर होता है, झुठलाया नहीं जा सकता। पितृसत्ता में पली लड़कियाँ स्वयं ही एक समय बाद, पावर के पोजिशन में जाने पर, पितृसत्ता का स्तंभ बन जाती है। जिन दलितों की बात बरखा कर रही हैं, शायद कभी उनके मुहल्ले में गई नहीं।
अगर वो वहाँ जाती तो देख पाती कि वहाँ की नारियाँ इस कैंसर को लेकर ऊँची जाति के महिलाओं से ज़्यादा मुखर हैं। लेकिन मुखर होने का यह मतलब बिलकुल नहीं कि वहाँ पेट्रियार्की नहीं है। इसका मतलब यह है कि इन जातियों की महिलाएँ स्वयं मज़दूरी भी करती हैं, तो आर्थिक रूप से सक्षम होने के कारण अपने पतियों को गाली देने से भी नहीं हटती। वो पिटती रहेगी, जो कि पितृसत्ता का उदाहरण है, लेकिन वो गाली भी देती रहती है, जो कि उनके संघर्ष का उदाहरण है।
ये समझ पाना बहुत कठिन नहीं है। लेकिन, जब आपकी मंशा गलत हो, और आपकी बातों में एक जाति विशेष को हमेशा निशाने पर रखने का अघोषित लक्ष्य रहे, तो फिर आप अपने पेट खराब होने पर भी ब्राह्मणों को दोषी ठहरा देंगे ये कहकर कि वो तंत्रविद्या के उपासक रहे हैं। हालाँकि, आप पहले ही तंत्रविद्या को दक़ियानूसी बताकर उस पर विश्वास न करने का दावा भी ठोक चुकी होंगी।
बात घूम-फिरकर यही है कि जैक जैसे आदमी को यो-यो टाइप, बिना टाय-पैंट वाला हैप सीईओ बनने के चक्कर में किसी भी समाज के, किसी भी वर्ग के लोगों द्वारा थमाए पोस्टर को बस इसलिए नहीं उठा लेना चाहिए कि उसमें से दो शब्द उसको समझ में आ रहे हैं। जिस समाज को आप नहीं समझते, वहाँ बस अपनी विचारधारा से मिलते लोगों को साथ मिल लेने से आप ज्ञानी नहीं हो जाएँगे, न ही इन्क्लूसिव और प्लूरलिस्ट। आप वहाँ अपनी अज्ञानता के कारण जैक से जैकऐस बन जाएँगे।
ट्विटर ने इस पर प्रतिक्रिया दी कि ये पोस्टर सीईओ या कम्पनी की पॉलिसी का प्रतिनिधित्व नहीं करता। फिर आखिर वो करता क्या है? जैक की राहुल गाँधी या नरेन्द्र मोदी से मुलाक़ात किस कैपेसिटी में थी? क्या भारत के प्रधानमंत्री से, या राहुल गाँधी से कोई भी टॉम, डिक या हैरी मिल सकता है? जैक को दूसरे जैक, जैक मा, से पूछना चाहिए कि उसका भी नाम तो जैक ही है, उससे मोदी क्यों नहीं मिलते।
ट्विटर ने ये कहा कि ऐसी मुलाक़ातें ट्विटर के वैल्यूज़ का प्रतिनिधि हैं जहाँ हम हर पक्ष को सुनते और समझते हैं। लोगों ने पूछा कि भाई हर पक्ष का मतलब क्या है, और दूसरे पक्षों से हुई मुलाक़ातों के फोटो या विवरण कहाँ हैं? ट्विटर जवाब नहीं दे पाया।
ट्विटर और ट्विटर इंडिया की पॉलिसी हमेशा दक्षिणपंथी विचारधारा को हेट-स्पीच के नाम पर शैडोबेनिंग से लेकर ब्लॉक और सस्पैंड करने की रही है जबकि यहाँ आतंकवादियों और उसके हिमायतियों के हैंडल सदाबहार चलते रहे हैं। जब आप किसी स्टेट के द्वारा अपराधी साबित हो चुके आतंकी को अपना समर्थन देने वालों को, या उनके वैसे ट्वीट्स को बंद नहीं करते, तो फिर आपकी मंशा और पॉलिसी के बारे में डॉक्यूमेंट पढ़ने की ज़रूरत नहीं।
भारत की उस अल्पसंख्यक आबादी को निशाना बनाना, जिसके ख़िलाफ़ चंद लोगों के अनुवाद किए विचार हैं, तथ्य नहीं, बताता है कि आपकी दिशा किस तरफ की है। यहाँ भारतीय राजनीति और लिबरल, वामपंथी और बिलबिलाते चिरकुट गिरोह का दर्द है क्योंकि सत्ता की चाबुक खींचकर मारनेवालों के हाथ से वो चाबुक छीन ली गई है। जिन्हें वो चाबुक मारते थे, उन्होंने चाबुक पकड़ लिए हैं। तो विक्टिम कार्ड खेलने से लेकर, नए प्रतिमान मैनुफ़ैक्चर करने का उद्योग तो फलेगा ही।
इसीलिए, इस तरह की शब्दावली और एक खास जाति को सामूहिक निशाना बनाना आपकी समझ पर सवाल खड़े करता है। ब्राह्मणों को जो भी मिला है, वो उनकी विद्या और मेहनत का नतीजा है। उन्हें किसी ने आरक्षण नहीं दिया, किसी ने मुफ़्त में पढ़ने के लिए उपाय नहीं किए। कितने ब्राह्मणों का परिवार आज मिडिल/अपर इनकम ग्रुप में आता है, इसका कोई सर्वे अगर हो, तो पता चल जाएगा कि कौन क्या कर रहा है।
सच तो यह है कि सत्ता, या पावर, सिर्फ एक बात पर निर्भर है, और वो है पैसा। जिसके पास पैसा है, वो चाहे जाति का दलित हो या सवर्ण, उसकी हर बात ज़ायज हो जाती है। ये बात भी है कि दलितों के पास पैसा बहुत कम केस में आया है। लेकिनजब दलित की बात करने वाला लालू यादव या मधु कोड़ा बन जाता है तो वो समाज को कैसे लूटता है ये जगज़ाहिर है। ऐसा आदमी पैसों के बल पर सत्ता के क़रीब जा सकता है, सत्ता पर क़ाबिज़ हो सकता है, अपराध करके बरी हो सकता है, किसी दूसरे समाज के लोगों पर क़हर बरपा सकता है। उसके लिए जाति महज़ एक शब्द बनकर कहीं दूर छूट जाती है। वो जाति से ऊपर उठ जाता है।
बरखा दत्त जैसे लोग यह तो स्वीकारते हैं कि वो एक ऊँचे पोजिशन पर हैं, लेकिन यह नहीं स्वीकारते कि इसी ऊँचाई की वजह से वो सच्चाई से भी बहुत दूर हैं। दूसरी बात यह भी है कि कई बार लोग अपने किसी लक्ष्य का पीछा करते हुए, अपना ज़मीर त्याग देते हैं। बरखा दत्त ने वही किया है।