किसानों की कर्जमाफी आजकल चुनावों में एक बड़ा मुद्दा बन कर उभर रही है। नयी धरना ये बनी है कि अगर कोई पार्टी चुनाव से ऐन पहले किसानों को उनके कर्ज माफ़ कर देने का वादा कर दे तो वह चुनावी वैतरणी सफलतापूर्वक पार कर जाती है। हाल के विधानसभा चुनावों में छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस को मिली जीत को भी इसी वादे से जोड़ कर देखा जा रहा है। वहीं तीनो राज्यों में सरकार गठन के साथ ही कांग्रेस ने कुछ शर्तों के साथ किसानों की कर्ज माफ़ी की घोषणा भी कर दी। कांग्रेस ने इस निर्णय के बाद अपना चुनावी वादा निभाने का दावा किया। लेकिन टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार अकेले मध्य प्रदेश में कृषि सम्बंधित एनपीए तीन सालों में दोगुने से भी ज्यादा हो गया।
यहाँ ये बताना जरूरी है कि एनपीए का अर्थ नॉन-पेरफोर्मिंग एसेट होता है। रिज़र्व बैंक के अनुसार अगर अल्प सामायिक कृषि कार्य जैसे कि धान, बाजरा, ज्वार इत्यादि की खेती के लिए लिए गए कर्ज पर अगर दो क्रॉप सीजन तक किसी तरह का ब्याज नहीं दिया जाता है तो वह एनपीए के अंतर्गत आ जाता है। वहीं लॉन्ग टर्म वाले लोन में यह समय सीमा एक क्रॉप सीजन तक ही होती है। कहा जा रहा है कि कर्ज माफ़ी की उम्मीद में किसान लिए गए कर्ज पर ब्याज देना बंद कर देते हैं जिसके कारण बैंकों पर बोझ बढ़ता चला जता है। किसानों के कर्ज माफ़ होने से उन्हें त्वरित रहत तो मिलती है लेकिन इसका बैंक के प्रबंधन पर भी असर पड़ता है। और बैंकों द्वारा किसानों को कर्ज देने की प्रक्रिया धीमी करने से अंततः किसानों को ही मार पड़ती है। उन्हें मजबूरन रुपये के अन्य श्रोतों का अहारा लेना पड़ता है जिसे से उनके घाटे में जाने की संभावना रहती है।
होता ये है कि किसानों के ऋण भुगतान ना करने से बैंकों के वित्तीय प्रबंधन पर बुरा असर पड़ता है और वो नये कर्ज देना बंद कर देती है या धीमी कर देती है। ताजा आंकड़े भी इस दावे की पुष्टि करते दिखाई पड़ रहे हैं। मध्य प्रदेश की राज्य स्तरीय बैंकरों की समिति के अनुसार केवल एक साल की अवधि में राज्य के कृषि ऋण पर 24 प्रतिशत एनपीए बढ़ गया है। एक वरिष्ठ बैंकर ने इस बारे में कहा;
“लेनदारों के लिए यह स्वाभाविक है कि एक बार त्वरित राहत मिलने के बाद वह कर्ज की रकम का भुगतान करना बंद कर देते हैं। हमने इस तरह के ट्रेंड को राजस्थान में भी देखा है।”
वहीं एक अन्य बैंकर ने कहा;
“इससे क्रेडिट साइकिल टूट जाती है क्योंकि बैंक अपनी बकाया राशि को क्लीयर करना चाहते हैं।”
उदाहरण के तौर पर हम तमिलनाडु को देख सकते हैं। वहां राज्य सरकार ने एक योजना के तहत 2016 में 6,041 करोड़ की राशि की घोषणा की थी। वह पिछले पांच सालों में सहकारी संस्थानों को केवल 3,169 करोड़ रुपये ही वापस दे पाई है। कर्नाटक की भी यही स्थिति है। वहां हाल ही में हुई राज्य स्तरीय बैंकर समिति की बैठक में यह पाया गया कि 5,353 करोड़ रुपये के उत्कृष्ट कृषि ऋण में गिरावट आई।
ज्ञात हो कि कुछ ही दिनों पहले रीर्वे बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने भी कर्ज माफ़ी के बढ़ते चलन को लेकर चेताया था। किसानों की कर्ज माफ़ी का विरोध करते हुए उन्होंने कहा था;
“ऐसे फैसलों से राजस्व पर असर पड़ता है। किसान कर्ज माफी का सबसे बड़ा फायदा सांठगाठ वालों को मिलता है. अकसर इसका लाभ गरीबों को मिलने की बजाए उन्हें मिलता है, जिनकी स्थिति बेहतर है। जब भी कर्ज माफ किए जाते हैं, तो देश के राजस्व को भी नुकसान होता है।”
वहीं अर्थशास्त्री राधिका पाण्डेय ने दैनिक जागरण से बातचीत में कहा कि कर्ज माफ़ी का किसानों और राज्य सरकार की अपनी अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। उनका कहना था कि इस कर्जमाफी का बड़े किसानों पर कुछ हद तक हो सकता है, लेकिन छोटे किसानों पर इसका कोई असर नहीं होगा। रिपोर्ट के अनुसार उन्होंने कहा;
“जिस तेजी से राज्य सरकारों ने कर्ज माफी की घोषणा की है उससे अब राज्यों का राजकोषीय घाटा काफी बढ़ जाएगा। इसकी भरपाई के लिए राज्यों को केंद्र से या फिर दूसरे विकल्पों के माघ्यम से कर्ज लेना होगा और उसके दूसरे विकास कार्य कहीं न कहीं इसकी वजह से प्रभावित होंगे। बाहर से कर्ज लेने पर राज्य सरकारों को इसकी अदायगी के लिए ज्यादा ब्याज भी देना होगा। इसकी वजह ये है कि भारत की बॉण्ड मार्किट या डेब्ट मार्किट दूसरे देशों के राज्यों की तरह से डेवलेप नहीं हैं। यही वजह है कि यहां पर ब्याज की दर ज्यादा होती है।”
ऐसे में इस सवाल का उठना लाजिमी है कि क्या वाकई किसानों के कर्ज माफ़ होने से उनके अच्छे दिन आ जाते हैं?