कश्मीर का मतलब है वह जमीन जहाँ से पानी को निकाल दिया गया हो। ब्रह्मा के पौत्र और मरीचि के पुत्र कश्यप ऋषि ने इस भूमि से वराहमुला (बारामुल्ला) की पहाड़ियों को काट कर जल को रास्ता दे कर ब्राह्मणों को बसाया था। कश्मीर के मुख्य शहर को कश्यपपुर भी कहा जाता था जिसका रिकॉर्ड हेकेटेइयस और हेरोडोटस के लेखन में क्रमशः कसपेपीरोस और कसपातायरोस, एवम् टोल्मी के समय में ‘कस्पेरिया’ के नाम से मिल जाता है।
यूँ तो कश्मीर में मानवीय सभ्यता आज से लगभग 5,000 वर्ष पूर्व से शुरु हो जाती है, जिसके पौराणिक, वैदिक और प्रागौतिहैसिक प्रमाण उपलब्ध हैं जहाँ वैदिक काल में उत्तर कुरुओं को कश्मीर में बसने का जिक्र आता है। अगर ऐतिहासिक तथ्यों की बात करें तो कल्हण की ‘राजतरंगिनी’ में पौराणिक काल से ले कर बारहवीं शताब्दी तक के शासकों की चर्चा है।
सिकंदर के समकालीन, 326 ईसा पूर्व में अभिसार कश्मीर का राजा था। उसके बाद यह मौर्य साम्राज्य का हिस्सा बना और बौद्ध स्तूप और शिव मंदिरों ने कश्मीर में जगह बनाई। फिर कनिष्क का शासनकाल आया, जब बौद्ध और हिन्दू धर्म की शिक्षा का केन्द्र बन कर कश्मीर की ख्याति चीन तक पहुँच चुकी थी। उसके बाद हूणों ने कश्मीर को जीत लिया, फिर कारकोटा साम्राज्य आया, तत्पश्चात उत्पलों का शासन चला। नवीं से 11वीं शताब्दी तक शैव दर्शन पर यहाँ खूब कार्य हुआ।
उसके बाद लोहार वंश के जनविरोधी शासन के कारण वहाँ पहली बार मुगलों के आगमन का रास्ता खुला। चौदहवीं शताब्दी आते-आते इस्लाम कश्मीर घाटी का बहुसंख्यक मजहब बन चुका था। संस्कृत साहित्य गायब कर दिया गया और सुल्तान सिकंदर ने ‘बुतशिकन’ की उपाधि ले कर इस्लामी आतंक की नींव रख दी थी। फारसी ने आधिकारिक भाषा की जगह ले ली। 16वीं शताब्दी में हुमायूँ के सेनापति ने हमला बोल कर कश्मीर को कब्जे में लिया, लेकिन अकबर के काल तक इसे सीधे तौर पर मुगलों ने शासन में नहीं लिया था। शिया, शाफी और सूफियों की प्रताड़ना का सिलसिला हुमायूँ के दौर में खूब चला। बाद में औरंगजेब ने आतंकी शासकों की परंपरा कायम रखी और मजहबी भेदभाव के साथ-साथ हिन्दुओं और बौद्धों से मुगलिया उगाही जारी रखी।
लगभग चार सौ सालों के इस्लामी शासन के बाद 19वीं शताब्दी में कुछ समय तक कश्मीर सिखों के शासन में रहा जब पंजाब के रंजीत सिंह ने इसे अपने साम्राज्य का हिस्सा बनाया। 1846-1947 तक डोगरा राजाओं ने कश्मीर पर राज किया। 1901 में कश्मीर घाटी में समुदाय विशेष का प्रतिशत 93.6 था, हिन्दू 5.4% थे। कहने को तो कथित अल्पसंख्यकों का यह प्रतिशत सौ सालों में बहुत बदला नहीं है, जो कि अब 95% से ज्यादा है, लेकिन कश्यप ऋषि के द्वारा वराहमुला की पहाड़ी को काट कर ब्राह्मणों को बसाने वाले कश्मीर में तीस साल पहले जो हुआ, वो धार्मिक नरसंहार हिन्दुओं को भूलना नहीं चाहिए।
तीस साल पहले के कुछ किस्से
25 जून 1990 गिरिजा टिकू नाम की कश्मीरी पंडित की हत्या के बारे में आप जानेंगे तो सिहर जाएँगे। सरकारी स्कूल में लैब असिस्टेंट का काम करती थी। इस्लामी आतंकियों के डर से वो कश्मीर छोड़ कर जम्मू में रहने लगी। एक दिन किसी ने उसे बताया कि स्थिति शांत हो गई है, वो बांदीपुरा आ कर अपनी तनख्वाह ले जाए। वो अपने किसी मुस्लिम सहकर्मी के घर रुकी थी। इस्लामी आतंकी आए, उसे घसीट कर ले गए। वहाँ के स्थानीय मुस्लिम चुप रहे क्योंकि किसी काफ़िर की परिस्थितियों से उन्हें क्या लेना-देना। गिरिजा का सामूहिक बलात्कार किया गया, बढ़ई की आरी से उसे दो भागों में चीर दिया गया, वो भी तब जब वो जिंदा थी। ये खबर कभी अखबारों में नहीं दिखी।
4 नवंबर 1989 को जस्टिस नीलकंठ गंजू को दिनदहाड़े हायकोर्ट के सामने मार दिया गया। उन्होंने आतंकी मकबूल भट्ट को इंस्पेक्टर अमरचंद की हत्या के मामले में फाँसी की सजा सुनाई थी। 1984 में जस्टिज नीलकंठ के घर पर बम से भी हमला किया गया था। उनकी हत्या कश्मीरी हिन्दुओं की हत्या की शुरुआत थी।
7 मई 1990 को प्रोफेसर के एल गंजू और उनकी पत्नी को मजहबी आंतंकियों ने मार डाला। पत्नी के साथ सामूहिक बलात्कार भी किया। 22 मार्च 1990 को अनंतनाग जिले के दुकानदार पी एन कौल की चमड़ी जीवित अवस्था में शरीर से उतार दी गई और मरने को छोड़ दिया गया। तीन दिन बाद उनकी लाश मिली।
उसी दिन श्रीनगर के छोटा बाजार इलाके में बी के गंजू के साथ जो हुआ वो बताता है कि सिर्फ इस्लामी आतंकी ही इस लम्बे चले धार्मिक नरसंहार की चाहत नहीं रखते थे, बल्कि स्थानीय कट्टरपंथियों का पूरा सहयोग उन्हें मिलता रहा। कर्फ्यू हटा था तो बी के गंजू, टेलिकॉम इंजीनियर, अपने घर लौट रहे थे। उन्हें इस बात का अंदाजा नहीं था कि उनका पीछा किया जा रहा है, हालाँकि घर के पास आने पर उनकी पत्नी ने यह देख लिया। उनके घर में घुसते ही पत्नी ने दरवाजा बंद कर दिया। दोनों ही घर के तीसरे फ्लोर पर चावल के बड़े डब्बों में छुप गए।
आतंकियों ने छान मारा, वो नहीं मिले। जब वो लौटने लगे तो मजहबी पड़ोसियों ने उन मजहबी आतंकियों को वापस बुलाया और बताया कि वो कहाँ छुपे थे। आतंकियों ने उन्हें बाहर निकाला, गोलियाँ मारी, और जब खून चावल में बह कर मिलने लगा, तो जाते हुए आतंकियों ने कहा, “इस चावल में खून को मिल जाने दो, और अपने बच्चों को खाने देना। कितना स्वादिष्ट भोजन होगा वो उनके लिए।”
12 फरवरी 1990 को तेज कृष्ण राजदान को उनके एक पुराने सहकर्मी ने पंजाब से छुट्टियों में उनके श्रीनगर आने पर भेंट की इच्छा जताई। दोनों लाल चौक की एक मिनि बस पर बैठे। रास्ते में मजहबी मित्र ने जेब से पिस्तौल निकाली और छाती में गोली मारी। इतने पर भी वो नहीं रुका, उसने राजदान जी को घसीट कर बाहर किया और लोगों से बोला कि उन्हें लातों से मारें। फिर उनके पार्थिव शरीर को पूरी गली में घसीटा गया और नजदीकी मस्जिद के सामने रख दिया गया ताकि लोग देखें कि हिन्दुओं का क्या हश्र होगा।
24 फरवरी 1990 को अशोक कुमार काज़ी के घुटनों में गोली मारी गई, बाल उखाड़े गए, थूका गया और फिर पेशाब किया गया उनके ऊपर। किसी भी मजहबी दुकानदार ने, जो उन्हें अच्छे से जानते थे, उनके लिए एक शब्द तक नहीं कहा। जब पुलिस का सायरन गूंजा तो भागते हुए उन्होंने बर्फीली सड़क पर उनकी पीड़ा का अंत कर दिया। पाँच दिन बाद नवीन सप्रू को भी इसी तरह बिना किसी मुख्य अंग में गोली मारे, तड़पते हुए छोड़ा गया, मजहबियों ने उनके शरीर के जलने तक जश्न मनाया, नाचते और गाते रहे।
30 अप्रैल 1990 को कश्मीरी कवि और स्कॉलर सर्वानंद कौल प्रेमी और उनके पुत्र वीरेंदर कौल की हत्या बहुत भयावह तरीके से की गई। उन्होंने सोचा था कि ‘सेकुलर’ कश्मीरी उन्हें नहीं भगाएँगे, इसलिए परिवार वालों को लाख समझाने पर भी वो ‘कश्मीरी सेकुलर भाइयों’ के नाम पर रुके रहे। एक दिन तीन ‘सेकुलर’ आतंकी आए, परिवार को एक जगह बिठाया, और कहा कि सारे गहने-जेवर एक खाली सूटकेस में रख दें।
उन्होंने प्रेमी जी को कहा कि वो सूटकेस ले लें, और उनके साथ आएँ। घरवाले जब रोने लगे तो उन्होंने कहा, “अरे! हम प्रेमी जी को कोई नुकसान नहीं पहुँचाएँगे। हम उन्हें वापस भेज देंगे।” 27 साल के बेटे वीरेन्द्र ने कहा कि पिता को अँधेरे में वापसी में समस्या होगी, तो वो साथ जाना चाहता है। “आ जाओ, अगर तुम्हारी भी यही इच्छा है तो!” दो दिन बाद दोनों की लाशें मिलीं। तिलक करने की जगह को छील कर चमड़ी हटा दी गई थी। पूरे शरीर पर सिगरेट से जलाने के निशान थे, हड्डियाँ तोड़ दी गईं थीं। पिता-पुत्र की आँखें निकाल ली गईं थीं। फिर दोनों को रस्सी से लटकाया गया था, और उनकी मृत्यु सुनिश्चित हो, इसके लिए गोली भी मारी गई थी।
मुजू और दो अन्य लोगों को मजहबी आतंकियों ने किडनैप किया और कहा कि कुछ लोगों को खून की जरूरत है, तो उन्हें चलना होगा। आतंकियों ने उनके शरीर का सारा खून बहा दिया और उनकी मृत्यु हो गई। 9 जुलाई 1990 को हृदय नाथ और राधा कृष्ण के सर कटे हुए मिले। 26 जून 1990 को बी एल रैना जब अपने परिवार को जम्मू लाने के लिए कश्मीर जा रहे थे, तो आतंकियों ने घेर कर मार दिया। 3 जून को, आतंकियों ने उनके पिता दामोदर सरूप रैना की हत्या घर में घुस कर की थी। उन्होंने पड़ोसियों से मदद माँगी, ‘मजहबी’ ही थे, नहीं आए।
अशोक सूरी के भाई को गलती से मजहबी आतंकियों ने उठा लिया। उसे खूब पीटा, टॉर्चर किया और पूरे शरीर को सिगरेट से जलाने के बाद, अधमरे हो जाने पर, बताया कि वो तो उसके भाई के मारना चाहते थे। उसे छोड़ दिया गया। वो किसी तरह घर पहुँच कर भाई को भाग जाने की सलाह देने लगे। भाई ने सलाह नहीं मानी। आधी रात को वो आतंकी घर में आए, लम्बे चाकू से गर्दन काटी और मरने छोड़ कर चले गए।
सोपोर के चुन्नी लाल शल्ला इंस्पेक्टर थे। कुपवाड़ा में पोस्टिंग होने पर उन्होंने दाढ़ी बढ़ा रखी थी कि उन्हें आतंकी पहचान न सकें। एक दिन आतंकी खोजते हुए आए और उन्हें पहचान नहीं पाए, और वापस जाने लगे। उनके साथ ही एक मजहबी सिपाही भी काम करता था। उसने आतंकियों को वापस बुलाया और बताया कि दाढ़ी वाला ही शल्ला हैं। आतंकी कुछ करते उस से पहले उनके मजहबी सहकर्मी ने छुरा निकाला और पूरा दाहिना गाल चमड़ी सहित छील दिया। चुन्नी लाल अवाक् रह गए। तब मजहबी सिपाही ने कहा, “अबे सूअर! तेरे दूसरे गाल पर भी जमात-ए-इस्लामी वाली दाढ़ी नहीं रखने दूँगा।” फिर छुरे से दूसरी तरफ भी काट दिया गया। उसके बाद आतंकियों के साथ मिल कर चुन्नी लाल के चेहरे पर हॉकी स्टिक से ताबड़तोड़ प्रहार किया गया और फिर आतंकियों ने कहा, “दोगले, तेरे ऊपर गोली बर्बाद नहीं करेंगे हम।” रक्त बहते रहने के कारण उनकी मृत्यु हो गई।
28 अप्रैल 1990 को भूषण लाल रैना के साथ जो हुआ वो मजहबी आतंकियों की क्रूरता सटीक तरीके से बयान करता है। अगले दिन अपनी माँ के साथ घाटी छोड़ने की योजना थी, सामान बाँध रहे थे। मजहबी आतंकियों की एक टोली आई और रैना के सर में नुकीला छड़ घोंप कर हमला किया। उसके बाद उन्हें खींच कर बाहर निकाला गया, कपड़े उतार कर एक पेड़ पर कीलें ठोंक कर लटकाने के बाद वो उन्हें तड़पाते रहे। भूषण बार-बार कहते रहे कि वो उन्हें गोली मार दें, आतंकियों ने इंतजार किया, गोली नहीं मारी।
25 जनवरी 1998 की रात को वन्धामा गाँव के 23 कश्मीरी हिन्दुओं की हत्या पूर्वनिर्धारित तरीके से की गई। एक बच्चा जो बच गया, उसने बताया कि आतंकी आर्मी की वर्दी में आए, चाय पिया, और अपने वायरलेस सेट पर संदेश का इंतजार करने लगे। जब खबर आ गई कि सारे कश्मीरी पंडितों के परिवार को एक साथ फँसा लिया गया है, तब एक साथ क्लासनिकोव रायफलों से उनकी नृशंस हत्या कर दी गई। उसके बाद हिन्दुओं के मंदिर तोड़ दिए गए और घरों में आग लगा दी गई।
अगर सिक्खों की बात करें तो कई सिक्खों को उनके परिवार के साथ 1990 से 1992 के बीच इसी क्रूरता से मारा गया। इनमें कई जम्मू कश्मीर पुलिस के सिपाही या अफसर भी शामिल थे। ऐसे ही 1989 से 1992 के बीच छः बार ईसाई मिशनरी स्कूलों पर आतंकियों ने बम धमाके किए।
ये कहानियाँ आज क्यों?
इन कहानियों को अभी कहने का मतलब क्या है? इन कहानियों को अभी कहने का मतलब मात्र यह है कि इसमें से 99% कहानियों के पात्रों का नाम आपको याद भी नहीं होगा। इसलिए, इन्हें इनके शीशे की तरह साफ दृष्टिकोण में मैं आपको बताना चाहता हूँ कि शाब्दिक भयावहता जब इतनी क्रूर है तो उनकी सोचिए जिनके साथ ऐसा हुआ होगा। ये किसी फिल्म के दृश्य नहीं हैं जहाँ नाटकीयता के लिए आरी से किसी को काटा जाता है, किसी की खोपड़ी में लोहे का रॉड ठोक दिया जाता है, किसी की आँखें निकाल ली जाती हैं, किसी के दोनों गाल चाकू से चमड़ी सहित छील दिए जाते हैं, किसी के तिलक लगाने वाले ललाट को चाकू से उखाड़ दिया जाता है…
ये सब हुआ है, और लम्बे समय तक हुआ है। इसमें वहाँ के वो मजहबी भी शामिल थे, जो आतंकी नहीं थे, बल्कि किसी के सहकर्मी थे, किसी के पड़ोसी थे, किसी के जानकार थे। सर्वानंद कौल सोचते रहे कि उन्होंने तो हमेशा उदारवादी विचार रखे हैं, उन्हें कैसे कोई हानि पहुँचाएगा, लेकिन पुत्र समेत ऐसी हालत में मरे जिसे सोच कर रीढ़ की हड्डियों में सिहरन दौड़ जाती है।
ये आतंकी बनाम हिन्दू नहीं था, बल्कि ये मुस्लिम बनाम गैर-मुस्लिम था। आतंकी ही होते तो बाजार में घसीटे जा रहे लाश पर कोई मजहबी कुछ बोलता, आतंकियों को घेरता, पत्थर ही फेंक देता। ऐसा नहीं हुआ। चार सौ सालों के इस्लामी शासन के बाद कश्मीर के गैर-मुस्लिम सिमट कर 6% रह गए थे। 1990 की जनवरी से जो धार्मिक नरसंहारों का दौर चला और विभिन्न स्रोतों के मुताबिक तीन से आठ लाख कश्मीरी हिन्दू पलायन को मजबूर हुए।
आज शाहीन बाग के कुछ मजहबी शांतिप्रिय तख्तियाँ लिए उनके प्रति सहानुभूति जता रहे हैं। यह सहानुभूति नहीं है, यह अपने मतलब के लिए तिरंगे से ले कर राष्ट्रगान और संविधान पर थूकने वाले लोगों द्वारा चली गई एक बारीक चाल है। इनकी धूर्तता देखिए कि इनके पोस्टरों में कश्मीरी हिन्दुओं के लिए कथित सहानुभूति तो है, लेकिन जिन्होंने ऐसी नृशंस हत्याएँ की, उन कट्टरपंथियों के लिए एक भी शब्द नहीं?
क्या कश्मीरी हिन्दू किसी उल्कापिंड के गिरने से कश्मीर छोड़ आए थे? क्या उनके मंदिरों पर उत्तरी कोरिया के इंटरकॉन्टिनेंटल मिसाइलों के नाभिकीय हथियारों से हमला हुआ था! क्या उनके घर दीवाली की पटाखेबाजी में जल गए थे? क्या उनके सिर में घुसा लोहे का रॉड किसी कश्मीरी भालाफेंक एथलीट का जैवलिन था? क्या भूषण रैना को पेड़ में कीलों से टाँगने की कोशिश रोम के लोगों ने की थी कि यह देखा जाए कि तीन दिन बाद पुनर्जीवित होता है कि नहीं?
तो वो लोग, जो स्वार्थ के कारण, आज कश्मीरी हिन्दुओं की पीड़ा बाँटने की कोशिश कर रहे हैं, कम से कम अपने गिरेबान में तो झाँके कि ये सब वो बस इसलिए कर रहे हैं क्योंकि शाहीन बाग से पहले एक खास विचारधारा के लोगों ने देश के कई हिस्सों में तो आगजनी और पत्थरबाजी की है, पेट्रोल बम फेंके हैं और कट्टे चला कर 19 लोगों की जानें ली हैं, उनसे देश का ध्यान हट जाए।
वो जानते हैं कि शाहीन बाग की नौटंकी करते रहने से जामिया नगर के बसों में लगाई गई आग को लोग भूल जाएँगे। लोग यह भी भूल जाएँगे कि वहाँ इस्लामी कट्टरपंथी संगठन PFI के 150 मजहबी लोग घुस आए थे। लोग यह भी भूल जाएँगे कि वहाँ ‘हिन्दुओं से आज़ादी’ के नारे लगे थे। लेकिन उन्हें भूलना नहीं चाहिए। वो तुम्हें ‘शाहीन बाग में आज ये हुआ’ दिखाते रहेंगे, लेकिन तुम जामिया नगर की आग, उत्तर प्रदेश में 19 मौतें, बंगाल में 250 करोड़ की प्रॉपर्टी के नुकसान, लखनऊ के परिवर्तन चौक की आगजनी, मस्जिदों से बाहर निकल कर पत्थरबाजी और पेट्रोल बम पर सवाल पूछते रहना। नहीं पूछोगे, तो ये वामपंथी मीडिया तुम्हें ही आतंकी बना कर भुना लेगी।
आपको इनकी दोगलई की दाद देनी चाहिए कि कश्मीर के दो-तीन नारे, जो विशुद्ध रूप से हिन्दुओं को भगाने के लिए ही बने थे, वो जामिया में लगते रहे, शाहीन बाग में लगते रहे, और इनकी हिम्मत इतनी बढ़ गई कि उन्होंने कश्मीरी हिन्दुओं की पीड़ा बाँटने के पोस्टर हाथ में ले लिए! ‘ला इलाहा इल्लिल्लाह’ और ‘आज़ादी‘ तो हिन्दुओं से घृणा दर्शाने के कश्मीरी नारे हैं। तुम वो नारे भी लगा रहे हो, और कश्मीरी हिन्दुओं का दुख बाँटने का भी दावा करते हो?
हम वापस आएँगे
आज हजारों कश्मीरी हिन्दुओं ने ये कहा है कि ‘हम वापस आएँगे’। लेकिन उनके ऐसा कहने भर से उनकी वापसी संभव नहीं हो जाती। वो अगर यह सोच रहे हैं कि शाहीन बाग के धूर्त प्रपंचियों की तरह उनके स्वागत में घाटी के मुस्लिम तख्तियाँ ले कर खड़े मिलेंगे, तो यह उनकी मूर्खता है। सरकार ने कैम्प तो लगाए थे न इन हिन्दुओं के लिए, उस पर पत्थरबाजी किसने की?
ये वही लोग हैं जिन्होंने अपने पड़ोसी बी के गंजू के चावल के कंटेनर में छिपे होने की बात घर छोड़ कर वापस जाते आतंकियों को बताई थी। और ऐसे पड़ोसियों ने एक बार नहीं, कई बार अपने पड़ोसी होने के इस धर्म को निभाया जब हिन्दुओं की हत्या करने आए आतंकियों को इन्होंने प्रत्यक्ष सहयोग से ले कर, मौन सहमति तक दी। इसलिए आप यह तो भूल ही जाएँ कि इस्लामी शासन के शुरुआत से ही गायब हुए संस्कृत को फारसी से बदल देने वाले लोगों की संतानें ‘स्वागतम्-स्वागतम्’ करती लाल चौक पर आएँगीं।
इनकी वापसी का रास्ता इतना आसान नहीं है। इस्लाम का इतिहास और वर्तमान बड़ा ही स्पष्ट रहा है, जिस भी इलाके में ये बहुसंख्यक हैं, वहाँ अल्पसंख्यकों के लिए इनके पास घृणा के अलावा और कुछ नहीं। अगर सिर्फ मुस्लिम ही रहे, तो भी इसी कश्मीर ने 16वीं शताब्दी में इन्हीं मुस्लिमों को आपस ही में शिया, शाफी, और सूफी को प्रताड़ित करते देखा है। म्याँमार में बौद्धों को वहाँ के कट्टरपंथियों ने हथियार उठाने पर मजबूर कर दिया! उदाहरण असंख्य हैं, इसलिए 95% से ज़्यादा मुस्लिम जनसंख्या वाले इस इलाके में हिन्दुओं को पुनर्स्थापित करना लगभग असंभव कार्य है।
अगर ये हिन्दू वापस जा कर, सर्वानंद कौल की तरह ‘सेकुलर’ राग गा कर, ये सोचने लगेंगे कि तीस साल में वहाँ के मुस्लिमों में बदलाव आ गया होगा, और वो उनकी कविताएँ सुन कर भावुक हो जाएँगे, तो वो भूल जाएँ। भूल इसलिए जाएँ कि हिन्दुओं की सहिष्णुता और उदारवाद को इस्लामी आतंकियों ने सदियों से रौंदा है, उसका फायदा उठाया है। जैसा कि के के मुहम्मद कहते हैं कि भारत अगर एक धर्मनिरपेक्ष और शांत समाज है, जिसमें बीस करोड़ मुस्लिम भी हैं, तो ये सिर्फ हिन्दुओं की वजह से है।
हिन्दुओं को वहाँ बसने के लिए पुराने तरीके त्यागने होंगे। उन्हें यह याद रखना होगा कि उनके मंदिरों पर जब लाउडस्पीकर लगे थे, और वहाँ से न सिर्फ इस्लामी शब्द कहे गए थे, बल्कि यह भी गूँज रहा था कि इनके मर्दों को जाने दो, हमें सिर्फ हिन्दू औरतें चाहिए। इन्होंने उन लड़कियों और स्त्रियों के साथ हर बार एक ही दुष्कृत्य किया है, और उसका पाप वहाँ के हर उस मजहबी को ढोना ही पड़ेगा जो इस त्रासदी पर चुप रहता है।
शाहीन बाग की नौटंकीबाज़ मजहबी औरतों को हर उस हिन्दू का नाम, उनकी हत्या की तारीख, उनकी हत्या का पूर्ण विवरण, हत्या का कारण और उनकी बहू-बेटियों की स्थिति के पोस्टर हाथ में ले कर पूरी दिल्ली में फैल जाना चाहिए और कहना चाहिए कि कट्टरपंथियों के इन कुकर्मों के लिए उनका पूरा समुदाय शर्मिंदा है। अगर इससे एक डिग्री कम भी कुछ कर रहे हैं ये लोग, तो ये बस स्टंट है अपने पिछले पापों को छुपाने का।
मैं नहीं जानता कश्मीरी हिन्दू वापस कब जाएँगे, कैसे जाएँगे। लेकिन मैं यह बात अवश्य जानता हूँ कि कश्यप ऋषि की धरती पर, शारदा और शिव की भूमि पर, जबरन बसे हुए कट्टरपंथी इन हिन्दुओं के लिए पलक-पाँवड़े तो नहीं बिछाएँगे। अगर ये सत्ता के संरक्षण में उस धरती पर कदम रख कर, अपने काष्ठगृहों को दोबारा उठाने की कोशिश करेंगे, तो हाथ में पेट्रोल बम और माचिस ले कर घूमते मजहबी आतंकियों का कोई जत्था, उसे जलाने से बिलकुल नहीं हिचकेगा।
उन्हें यह याद रखना चाहिए कि जब उनकी बेटी को कोई खींच कर ले जाएगा, सामूहिक बलात्कार करने को बाद, बढ़ई की आरी से दो हिस्सों में काट देगा, और लाश दो जगह मिलेगी, तब सेना या पुलिस ये सब होने के बाद मदद को आएगी। क्योंकि सरकारी और न्यायिक प्रक्रिया तो इसी तरह से चलती है। लेकिन ऐसा होने ही न पाए, उसके लिए कश्मीरी हिन्दू क्या करेगा?
तब सवाल यह उठता है कि अगर वो इस बार भी पेट्रोल बम, माचिस, सरिया, क्लासनिकोव, चाकू और बमों से तुम्हारा स्वागत करते हैं, तो हिन्दू इस बार क्या करेगा? मेरे ख्याल से वापस जाने वाले हिन्दुओं को इज़रायल के यहूदियों की कहानी पढ़नी चाहिए। खास कर, द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद वाली।