क्या मीडिया में राइट विंग समर्थक पत्रकारों को ठिकाने लगाया जा रहा है? पिछले कुछ दिनों में ऐसे कई मामले सामने आए हैं, जो इसी बात की तरफ़ इशारा करते हैं। कुछ प्रमुख मीडिया समूहों में दक्षिणपंथी पत्रकारों को नौकरी से निकालने या साइडलाइन किए जाने की रिपोर्ट्स मिल रही हैं। ऑपइंडिया ने ऐसे कुछ लोगों से बात की और जो जानकारी सामने आई है वो चौंकाने वाली है।
ख़ुद को सबसे तेज़ बताने वाला मीडिया ग्रुप इस अभियान में सबसे आगे है। बताया जा रहा है कि यहाँ पर लोकसभा चुनावों के पहले ही दक्षिणपंथी पत्रकारों की लिस्ट तैयार कर ली गई थी और माना जा रहा था कि चुनाव में नरेंद्र मोदी के हारते ही इन लोगों की नौकरी जानी तय है। चुनाव में बीजेपी की जीत से इस प्लान को झटका लगा, लेकिन पिछले कुछ महीनों में अलग-अलग बहानों से या आरोप लगाकर उन्हें निकाला जा रहा है। मैनेजमेंट का संदेश है कि जो लोग भी उनके आदेश के मुताबिक़ एकतरफ़ा ख़बर लिखने या दिखाने को तैयार नहीं होंगे उन्हें जाना होगा। इसी तरह एक केंद्रीय मंत्री की बहन के न्यूज़ चैनल से भी एक पत्रकार को नौकरी छोड़ने को मजबूर कर दिया गया, क्योंकि वो नागरिकता क़ानून और ऐसे दूसरे मुद्दों पर मैनेजमेंट की लाइन से सहमत नहीं थे। कई दूसरे मीडिया समूहों में भी कमोबेश यही हालात बताए जा रहे हैं।
चुन-चुनकर बनाया जा रहा है निशाना
हमें बताया गया कि ‘सबसे तेज़’ समूह ने यह अभियान लोकसभा चुनाव से पहले ही शुरू कर दिया था। मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में बीजेपी की हार से समूह के मैनेजमेंट के हौसले बुलंद थे और उन्हें पूरा भरोसा था कि लोकसभा चुनाव में बीजेपी किसी भी तरह बहुमत से पीछे छूट जाएगी। लेकिन जब नतीजे आए मैनेजमेंट और संपादकीय टीम को निराशा हाथ लगी। नतीजों वाले दिन एक पत्रकार ने न्यूज़रूम में मिठाई बाँटी। उन पत्रकार को पिछले दिनों बुलाकर कह दिया गया कि आपका कॉन्ट्रैक्ट रीन्यू नहीं होगा। इस कार्रवाई का कारण कुछ नहीं बताया गया, लेकिन हर कोई जानता है कि कारण क्या है। ये वही पत्रकार हैं जिसने कन्हैया का भाषण कई घंटे लाइव दिखाने पर चैनल के संपादक से औपचारिक विरोध दर्ज कराया था। वो अक्सर दिखाई जाने वाली फ़र्ज़ी और एकतरफ़ा ख़बरों पर विरोध किया करते थे, जिसकी क़ीमत उन्हें नौकरी गंवाकर चुकानी पड़ी।
दूसरा मामला, दक्षिणपंथी माने जाने वाले एक अन्य पत्रकार का है जिन पर कुछ मनगढ़ंत आरोप लगाकर इस्तीफ़ा ले लिया गया। माना जाता है कि असली कारण यह था कि वो मीडिया के पक्षपात के ख़िलाफ़ फ़ेसबुक पर बहुत खुलकर लिखा करते थे। नागरिकता क़ानून और जेएनयू के मुद्दे पर भी उन्होंने कुछ ऐसा लिखा था जो मैनेजमेंट को नागवार गुजरा। इसी तरह के कुछ और मामलों की जानकारी भी हमें मिली है। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो विचारधारा के आधार पर साइडलाइन कर दिए गए और नौकरी छोड़ने को मजबूर कर दिए गए। इन घटनाओं का नतीजा यह कि संपादकीय टीम में एक डर का माहौल है। जो लोग भी बीजेपी के समर्थक समझे जाते हैं उनमें से ज़्यादातर ने सोशल मीडिया पर कुछ भी लिखना बंद कर दिया है। जबकि वामपंथी, कॉन्ग्रेसी और आम आदमी पार्टी समर्थक माने जाने वालों पर ऐसी कोई पाबंदी लागू नहीं है।
न्यूज़रूम में संदेश देने की है कोशिश
हमने जब इस इस स्थिति का कारण जानना चाहा तो सभी लोगों का मानना था कि ‘सबसे तेज़’ समूह का मैनेजमेंट पूरे न्यूज़रूम को एक मैसेज देना चाहता था। जिन लोगों को निकाला गया है वो सभी मिड से सीनियर रैंक के हैं। जिससे जूनियर और सीनियर दोनों ही स्टाफ़ में साफ-साफ संदेश चला गया है। ‘सबसे तेज़’ समूह के एक पत्रकार ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, “नागरिकता कानून के ख़िलाफ़ लखनऊ में आगज़नी कर रही भीड़ के लिए मैंने दंगाई शब्द टॉप बैंड में लिख दिया था। जिस पर मुझे चेतावनी दी गई। जब मैंने पूछा कि जाट, गुर्जर और कर्णी सेना के आंदोलनों में भी हिंसा पर हमने ऐसी ही भाषा लिखी थी तो यहाँ पर ये फ़र्क़ क्यों? तो कोई जवाब नहीं मिला। अगले दिन मुझे शिफ़्ट की ज़िम्मेदारी से हटा दिया गया।” इसी तरह एक पत्रकार ने “नागरिकता क़ानून के नाम पर हिंसा” लिखा तो संपादक ने आकर उसे “संघी” करार दिया और कहा कि लिखो “नागरिकता क़ानून के ख़िलाफ़ भड़का गुस्सा”। जब इतने से भी ज़्यादा असर नहीं पड़ा तो लोगों को विचारधारा के आधार पर नौकरी से निकालने का काम शुरू किया गया।
दूसरी तरफ़, इसी ग्रुप में वो महिला रिपोर्टर भी हैं जो आनंद भवन के बाहर बीजेपी के ख़िलाफ़ नारे लगवाते देखी गई थीं और वो लल्लनछाप एडिटर भी है, जो ट्वीट करता है कि बीजेपी नेताओं को कॉन्डोम इस्तेमाल करना चाहिए ताकि उनके जैसे बच्चे देश में पैदा न हों। ऐसी ढेरों कहानियाँ भरी पड़ी हैं, लेकिन ऐसे किसी भी तथाकथित पत्रकार के ख़िलाफ़ कभी कोई एक्शन नहीं लिया गया। उल्टा उन्हें ऐसा करने पर तरक़्क़ी और अवॉर्ड मिल जाते हैं। ज़्यादातर तथाकथित निष्पक्ष चैनलों के न्यूज़रूम में एक ख़ास विचारधारा के ही लोग भरे पड़े हैं, जो अपनी ख़बरों में न सिर्फ खुलकर अपनी राजनीतिक पसंद दिखाते हैं, बल्कि बीजेपी और इससे जुड़े संगठनों के लिए अपनी नफ़रत को भी झलकाते हैं।
निष्पक्ष पत्रकारिता का आलम देखिए कि मोदी की जीत पर लड्डू खिलाने वाला नौकरी से हाथ धो देता है और आप की जीत पर डांस करने वाला निष्पक्ष कहलाता है। जश्न थम ही नहीं रहा है। कल जलेबी समोसा पार्टी हुई। मालिक ने राजदीप से फिर नाचने को बोला। लेकिन वो शरमा गए और नहीं नाचे।
सबसे तेज़ ग्रुप की खूबी है कि यहाँ संपादकीय पदों पर ज़्यादातर वामपंथी या कॉन्ग्रेसी मानसिकता वाले ही बिठाए जाते हैं। कुछ दक्षिणपंथी लोग दिखावे के लिए वरिष्ठ पदों पर ज़रूर हैं ताकि भ्रम बना रहे। लेकिन उन पर भी कई तरह की बंदिशें थोपी गई हैं। उदाहरण के लिए राष्ट्रवादी छवि वाले एक चैनल से आए एक तेज़तर्रार एंकर को लगभग चुप करा दिया गया है। उनके वो तेवर ग़ायब हैं जो पिछले चैनल में हुआ करते थे।
मीडिया के अंदर की यह तस्वीर उस नैरेटिव से बिल्कुल अलग है जो “गोदी मीडिया” के नाम पर बनाई गई है। कॉन्ग्रेसी इकोसिस्टम के तमाम मीडिया समूहों के अंदर काम करने वाले कई पत्रकारों से बातचीत के आधार पर आने वाले दिनों में हम और भी जानकारियाँ सामने लाएँगे। यह भी बताएँगे कि कॉन्ग्रेस और उसकी सहयोगी पार्टियों के इशारे पर चलने वाले ये चैनल किस तरह से बीजेपी और बीजेपी के समर्थकों की आँखों में धूल झोंकते हैं।