कॉमरेड क्रांति काम नहीं करता था, उसके पास कागज़ नहीं थे सो मनरेगा से भी लाभ न ले सका। इस तरह से क्रांति कुमार सर्वहारा होने के साथ साथ गरीब सर्वहारा क्रांति कुमार भी था। क्रांति पुस्तैनी खेत बेचता, कच्ची पीता, अपनी स्वैण (बीवी) को पीटता, फिर भी क्रांति कुमार सर्वहारा ही रहा कभी अपने नाम के साथ बुजुर्वा न जोड़ सका। क्रांति इस तरह से व्यवस्थाओं से हर वक़्त खिसियाया ही रहता था। इस तरह क्रांति कुमार, उर्फ़ केके के अंदर हर वक़्त एक ‘एनार्किस्ट’ मौजूद था।
कोई कहता रे क्रांति! दिन भर छत पर पड़ा धूप सेंकते कान का मेल निकालता है, कच्ची पी-पीकर तो मर ही जाएगा, तो केके तुरंत फैज़ या ग़ालिब का कोई शेर पढ़कर अपनी पढ़ाई-लिखाई को जस्टिफाई करता। सामने वाला भी ये सोचकर चुप हो जाता कि उर्दू में कहा है तो ठीक ही कहा होगा। कोई उसकी बेवजह बीच में लाई हुई नज़्म पर सवाल करता भी, तो क्रांति कुमार फ़ौरन उसको अनपढ़ और ट्रोल कह देता। कॉमरेड केके दिनभर दैनिक सस्ते इंटरनेट से कुणाल कामरा जैसे सस्ते कॉमेडियंस के यूट्यूब वीडियो देखता था। संविधान उसने फेसबुक पर पढ़ा था और बोल्शेविकों की कहानियाँ व्हाट्सएप्प यूनिवर्सिटी पर।
क्रांति की कविताएँ पढ़-पढ़कर बोर हो चुके क्रांति ने एक दिन निर्णय ले लिया कि अब कोई ऐसा कदम उठाएगा जिससे एक झटके में क्रांति हो सके। हालाँकि क्रांति कुमार जनता था कि फैज़ और अल्ताफ राजा इतना कुछ लिखकर गए हैं कि अगर वो सालभर भी क्रांति की ही माँग करता रहे, तब भी उसके लिए क्रांति के नारे कम नहीं पड़ेंगे।
क्रांति ने फैसला लिया कि अब वापस दिल्ली जाकर किसी वामपंथी गुट का चेहरा बन जाएगा और सब कुछ फिर से शुरू करेगा। गाँव लौटकर नहीं आएगा और जिंदगी की सारी समस्याओं का समाधान हो जाएगा। क्रांति उर्फ़ केके ने अपने फैसले की शुरुआत बाकी के बचे हुए खेतों का सौदा करके की। उसने घर बेच दिया, खेत बेच दिया बोला दिल्ली जा रहा, वहाँ क्रांति हो रही। लेकिन क्रांति बैलों की जोड़ी का सौदा न कर पाया और दिल्ली निकल लिया।
दिल्ली जाकर केके ने पुराने यार को फोन लगाया। बोला- रियूनियन करनी है। साथी बोले- शाहीन बाग़ चले आओ यहाँ आजकल सब इकट्ठे हुए हैं। खाना-पीना सब मुफ्त है और मीडिया कवरेज भी ऐसा, जैसा आज तक नहीं मिला। शाहीनबाग पहुँचते ही केके ने जो देखा उसकी पतलून भीग गई। दो कॉमरेड्स महँगी सिगरेट को लेकर भिड़ गए। एक कॉमरेड ने हाथ में जूता लिया और दूसरे कॉमरेड की कनपट्टी पर रसीद दिए। इतने में देखते ही देखते दोनों गुट भिड़ गए। केके ने देखा अब मामला बहुत बदल गया है, उसकी उम्र में सिर्फ बीड़ी बाँटकर काम चल जाता था। केके ने फ़ौरन अपनी बीवी को फोन घुमाया। केके बोला- “अरे कम्बख्त सुन, तूने वो बैलों की जोड़ी बेची तो नहीं? उसे मत बेचना, मैं घर लौट रहा हूँ। फुन्डू फुक्क… कै की क्रान्ति, कै कू कुछ!!”
जब से क्रांति कुमार उर्फ़ केके दिल्ली के मशहूर ‘विष-विद्यालय’ से अपनी सदियों से चली आ रही पीएचडी पूरी कर गाँव लौटा था, तब से वो बुझा-बुझा सा रहने लगा था। गाँव में न गंगा ढाबा का सस्ता किन्तु लजीज खाना था, ना ही सस्ते हॉस्टल और ना ही ढपली बजाने के लिए किसी तरह की कोई सब्सिडी।
लेकिन CAA और NRC के बवाल ने तो मानों उसके डूबते क्रांति के करियर में फिर से जान ही फूँक दी। कुछ साल पहले ही जो क्रांति कुमार जंतर-मंतर पर “मैं भी अन्ना” की टोपी पहने खुद को “एनार्किस्ट” की संज्ञा देने लगा था, वो आजकल शाहीन बाग़ जाकर “सेव डेमोक्रेसी” के नारे लगता नजर आ रहा है।
जो कॉमरेड केके कभी भारत को एक देश मानने को राजी नहीं हुआ था, वो भी आजकल इस देश की मिटटी में किस-किस का खून शामिल है उसकी डीएनए रिपोर्ट दिखाता फिर रहा है। वो कह रहा है कि वो इस देश के साथ खिलवाड़ नहीं होने देंगे।
आज की क्रांति को देखकर सात-आठ साल पहले का जंतर-मंतर वाला ‘एनार्किस्ट क्रांति कुमार’ फूट-फूटकर जरूर रोता। कहाँ वो क्रांति कुमार, व्यवस्था और तिरंगा जिसके ठेंगे पर रहा करती थी, उसी क्रांति कुमार की जुबान पर आज व्यवस्थाओं का रोना है और हाथों में तिरंगा। आज उसकी जुबान केसरी है और मुँह में राष्ट्रगान।
मैं पूछता हूँ कि क्या हमें उस महान फासीवादी, मनुवादी सरकार को शुक्रिया कहना चाहिए या नहीं कहना चाहिए भाइयों-बहनों जिसने एक अराजकतावादी को भी संविधान का प्रहरी बनने के लिए प्रेरित कर दिया है? हर हाल में हमें उस सरकार को शुक्रिया कहना चाहिए। लेकिन सवाल ये है कि अगर वाकई में यह सरकार फासीवादी होती और इसका लीडर हिटलर होता तो क्या अब तक शाहीन बाग़ को पोलैंड ना बना दिया गया होता?क्या देश के ‘वोक लिबरल्स’ और उनके ‘जर्मन होलोकॉस्ट’ को लेकर देखे हर हसीन सपने को अब तक सपनों की दुनिया से उठाकर जमीन पर ना उतार दिया गया होता? लेकिन वह ऐसा नहीं कर रहा है, क्रांति कुमार इस बात से भी दुखी हैं।
क्रांति कुमार एक ‘सेडिस्ट’ भी है और ‘होपलेस रोमेंटिक’ भी। वह चाहता है कि किसी भी क्रांति की हर बुरी याद से वो ‘काश’ जुड़ा होता। यह ‘काश’ ही क्रांति कुमार की सबसे बेहतरीन रूमानी फंतासी भी है। कम से कम जिस तरह उसका यह ‘काश’ 2014 के चुनावों से ‘काश’ की ही अवस्था में है, उससे तो यही साबित होता है। उसने नारे लगाए, मनुवाद के खिलाफ, आजादी के खिलाफ, ब्राह्मणों के खिलाफ, और अब किसी कथित गैस चैंबर के खिलाफ भी वो नारेबाजी कर रहा है, लेकिन ‘शासक’ हैं कि यह सब वास्तविकता के धरातल पर उतरते ही नहीं।
महान सेक्युलर गायक अल्ताफ राजा इसी दिन के लिए एक सुंदर सी ‘नज़्म’ गा चुके थे- “दुश्मनी में दोस्ती का सिला रहने दिया, उसके सारे खत जलाए और पता रहने दिया….”
कबीरा इस संसार में भाँति-भाँति के कामरेड्स: कथा कामरेड क्रांति कुमार की