Wednesday, April 24, 2024
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मंदिर तोड़ा, खजाना लूटा पर हिला नहीं सके शिवलिंग: औरंगजेब के दरबारी लेखक ने भी कबूला था, शिव महापुराण में छिपा है इसका राज़

1669 में औरंगजेब के समय जब मूल मंदिर को तोड़कर मंडपम के ऊपर गुम्बद-मेहराब बनाकर उसे मस्जिद के रूप में तामीर करा दिया गया तो भी शिवलिंग को अपनी जगह से हिला पाने की कोशिशें नाकाम ही रहीं।

प्राचीन काशी विश्वनाथ मंदिर के सम्बन्ध में कई किताबें प्रमाण के तौर पर उपलब्ध हैं जो ज्ञानवापी विवादित ढाँचे में जहाँ अब शिवलिंग प्राप्त हुआ है वहीं पर बाबा विश्वनाथ के अविमुक्त रूप में स्थापित होने को प्रमाणित करती हैं। वहीं मंदिर के तोड़े जाने का एक महत्वपूर्ण प्रमाण ‘मा-असीर-ए-आलमगीरी’ नाम की पुस्तक भी है। यह पुस्तक औरंगज़ेब के दरबारी लेखक सकी मुस्तईद ख़ान ने 1710 में लिखी थी। इसी किताब में उस शाही फरमान का उल्लेख है, जिसमें औरंगज़ेब ने विश्वनाथ मंदिर को तोड़ने के लिए जारी किया था।

फारसी में जारी शाही फरमान-1 (‘मा-असीर-ए-आलमगीरी’ से) बाकी के दो पन्ने नीचे दिए गए हैं।

ज्ञानवापी वह जगह है जहाँ काशी में शिव का आदिस्थान माना गया है। जहाँ शिव स्वयं अविमुक्तेश्वर लिंग रूप में इस तरह से विराजमान हैं कि आक्रांताओं द्वारा कई बार की कोशिशों के बावजूद भी उसे हिलाया तक नहीं जा सका जबकि कोशिशें मुहम्मद गोरी, सुल्तान महमूद शाह, शाहजहाँ सहित कई मुग़ल आक्रांताओं ने की। बाद में 1669 में औरंगजेब के समय जब मूल मंदिर को तोड़कर मंडपम के ऊपर गुम्बद-मेहराब बनाकर उसे मस्जिद के रूप में तामीर करा दिया गया तो भी शिवलिंग को अपनी जगह से हिला पाने की कोशिशें नाकाम ही रहीं। यहीं पर वजूखाना बनवा दिया गया था जहाँ नमाजी हाथ-पैर धोते हैं जो उसी तरफ सिर किए बैठे नंदी से करीब 40 फिट की दूरी पर है। इसलिए भी इसके मुख्य मंदिर होने के प्रमाण सामने आए हैं।

ग्राफिक्स से समझें वर्तमान स्थिति (साभार-अवधेश कुमार)

शिवलिंग को क्षति न पहुँचाए जाने का जिक्र प्रायः मुगलकालीन सभी इतिहासकारों ने करते हुए लिखा है कि काशी के प्रधान शिवालय का ध्वंस करने के बाद जब शिवलिंग को अपने साथ ले जाने की कोशिश हुई तो तमाम कोशिशों के बाद भी शिवलिंग अपने मूल स्थान से हिला भी नहीं। अंतत: शिवलिंग छोड़ दिया गया और अंत में सारा खजाना लूटकर चले गए।

बार-बार लूटा और नष्ट किया गया मुख्य मंदिर परिसर

बता दें कि पुराणों में शिव और पार्वती के आदि स्थान काशी विश्वनाथ को प्रथम लिंग माना गया है। इसका उल्लेख महाभारत में भी किया गया है। वहीं औरंगजेब से पहले जाएँ तो 11वीं सदी तक यह मंदिर अपने मूल रूप में बना रहा, सबसे पहले इस मंदिर के टूटने का उल्लेख 1034 में मिलता है। इसके बाद 1194 में मोहम्मद गोरी ने इसे लूटने के बाद तोड़ा। काशी वासियों ने इसे उस समय अपने हिसाब से बनाया लेकिन वर्ष 1447 में एक बार फिर इसे जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह ने तुड़वा दिया। फिर वर्ष 1585 में राजा टोडरमल की सहायता से पंडित नारायण भट्ट ने इसे बनवाया था लेकिन वर्ष 1632 में शाहजहाँ ने एक बार फिर काशी विश्वनाथ मंदिर को तुड़वाने के लिए मुग़ल सेना की एक टुकड़ी भेज दी। लेकिन हिन्दुओं के प्रतिरोध के कारण मुग़लों की सेना अपने मकसद में कामयाब न हो पाई। हालाँकि, इस संघर्ष में काशी के 63 जीवंत मंदिर नष्ट हो गए।

इसके बाद सबसे बड़ा विध्वंश औरंगजेब ने करवाया जो काशी के माथे पर सबसे बड़े कलंक के रूप में आज भी विद्यमान है। साक़ी मुस्तइद खाँ की किताब ‘मासिर -ए-आलमगीरी’ के मुताबिक़ 16 जिलकदा हिजरी- 1079 यानी 18 अप्रैल 1669 को एक फ़रमान जारी कर औरंगजेब ने मंदिर तोड़ने का आदेश दिया था। साथ ही यहाँ के ब्राह्मणों-पुरोहितों, विद्वानों को मुसलमान बनाने का आदेश भी पारित किया गया था।

मंदिर से औरंगजेब के ग़ुस्से की एक वजह यह थी यह परिसर संस्कृत शिक्षा बड़ा केन्द्र था और दाराशिकोह यहाँ संस्कृत पढ़ता था। और इस बार विश्वनाथ मंदिर की महज एक दीवार को छोड़कर जो आज भी मौजूद है और बिना किसी सर्वे के भी साफ दिखाई देती है, समूचा मंदिर संकुल ध्वस्त कर दिया गया। मुग़ल इतिहासकारों के अनुसार ही 15 रब- उल-आख़िर यानी 2 सितम्बर 1669 को बादशाह औरंगजेब को खबर दी गई कि मंदिर न सिर्फ़ गिरा दिया है, बल्कि उसकी जगह मस्जिद की तामीर भी करा दी गई है।

इसे औरंगजेब के समय अंजुमन इंतजामिया जामा मस्जिद नाम दिया गया था लेकिन बाद में ज्ञानवापी कूप के कारण इसका नाम भी ज्ञानवापी मस्जिद ही रहा। वहीं मंदिर के खंडहरों पर ही बना वह मस्जिद बाहर से ही स्पष्ट दीखता है जिसके लिए न किसी पुरातात्विक सर्वे की जरुरत है न किसी खुदाई की। लेकिन अभी सर्वे के बाद मिले शिवलिंग और दूसरे प्रमाणों की वजह से हिन्दुओं की स्थिति और भी मजबूत हुई है।

शिवलिंग को तहस-नहस करने की कोशिश

मुगलों द्वारा कई बार के हमलों में मूल शिवलिंग को नष्ट करने और अपने साथ ले जाने की कई कोशिशें हुईं लेकिन हर बार आक्रांताओं की तमाम कोशिशें क्यों नाकाम हुईं। इसका एक उत्तर शिवमहापुराण के 22वें अध्याय के 21वें श्लोक में मिलता है। यह इन दिनों चर्चा का विषय है। काशी विद्वत परिषद ने भी इस बात का जिक्र करते हुए बताया कि मुग़ल आक्रांताओं की नजर हमेशा से काशी के देवालयों पर रही और कई बार के हमलों में उन्होंने कई सदियों तक समय-समय पर नुकसान भी पहुँचाया। सभी ने अपने-अपने काल में काशी विश्वनाथ मंदिर पर भी आक्रमण किए। मंदिर का खजाना लूटा लेकिन लाख कोशिश के बाद भी विश्वेश्वर शिवलिंग को अपने साथ नहीं ले जा सके।

यहाँ तक कि शिवलिंग अपने स्थान से टस से मस भी नहीं हुआ। लेकिन, इसके प्रमाण के तौर पर जो एक बात कही जा रही है वो पौराणिक भले हो लेकिन उसका प्रमाण जमीन पर आज भी दिखता है। शिवमहापुराण में एक श्लोक की चर्चा हो रही है-

‘अविमुक्तं स्वयं लिंग स्थापितं परमात्मना। न कदाचित्वया त्याज्यामिंद क्षेत्रं ममांशकम्।’

जिसकी व्याख्या कई विद्वानों ने करते हुए बताया है कि मूल शिवलिंग को काशी से बाहर अन्यत्र नहीं ले जा सकते क्योंकि स्वयं महादेव शिव यहाँ अविमुक्त रूप में स्थापित हैं। श्लोक के आधार पर ही कहा जा रहा है कि शिव ने स्वयं आदेश दिया कि मेरे अंश वाले ज्योतिर्लिंग तुम इस क्षेत्र को कभी मत छोड़ना। ऐसा कहते हुए देवाधिदेव महादेव ने इस ज्योतिर्लिंग को अपने त्रिशूल के माध्यम से काशी में स्थापित कर दिया।

अंग्रेजों के समय भी हो चुकी है समझौते की कोशिश

बाद के दूसरे प्रमाणों की बात करें तो काशी विश्वनाथ का इतिहास मुगलों के आक्रमण के बाद से कई बार बनने-बिगड़ने का रहा। वहीं आज की कानूनी प्रक्रिया भी नई नहीं है। जहाँ 18वीं सदी में मराठा सरदार ने मंदिर मुक्ति के प्रयास किए और 1770 ई में बादशाह शाह से मंदिर के क्षतिपूर्ति की वसूल करने का आदेश भी पारित करा लिया। लेकिन उस वक्त तक देश में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन हो गया था। वहीं सन् 1809 में काशी के हिंदुओं ने मंदिर के स्थान पर बनाए गए मस्जिद पर कब्जा कर लिया जिसे आज के समय में ज्ञानवापी मस्जिद कहा जाता है। तब 1810 में काशी के तत्कालीन डीएम मि. वाटसन ने एक पत्र लिखकर ज्ञानवापी परिसर को हिंदुओं को सौंपने के लिए कहा।

अंग्रेज दंडाधिकारी वॉटसन ने 30 दिसम्बर 1810 को ‘वाईस प्रेसिडेंट ऑफ कॉउन्सिल’ में कहा था, “ज्ञानवापी परिसर हमेशा के लिए हिन्दुओं को सौप दिया जाए। उस परिसर में हर तरफ हिंदुओं के देवी-देवताओं के मंदिर हैं। मंदिरों के बीच में मस्जिद का होना इस बात का प्रमाण है कि वह स्थान भी हिंदुओं का ही है।” तब अंग्रेजी शासन ने अपने अधिकारी की बात नहीं मानी थी। परिणाम स्वरुप यह कभी वास्तविक रूप से लागू नहीं हो पाया।

1936 का ज्ञानवापी मुकदमा

अभी प्रमाणों पर बात चल ही रही है तो थोड़ा सा जिक्र 1936 में चले मुकदमें की भी कर लेते हैं। जिसमें मंदिर के पक्ष में जो अकाट्य प्रमाण दिए गए थे यदि उन्हीं के आलोक में अभी भी सुनवाई हो तो नए सर्वेक्षण और पुराने ऐतिहासिक और पुरातात्विक प्रमाणों के आगे मुस्लिमों के दावे कहीं नहीं ठहरेंगे।

इन्हीं मामलों पर प्रमाण के साथ अपना पक्ष रखते हुए काशी विद्वत परिषद के संगठन मन्त्री पंडित गोविन्द शर्मा बताते हैं कि विश्वनाथ मंदिर के सम्बन्ध में कई पुस्तकें प्रमाण के तौर पर उपलब्ध हैं लेकिन सबसे महत्वपूर्ण प्रमाण ‘मा-असीर-ए-आलमगीरी’ नाम की पुस्तक है। यह पुस्तक औरंगज़ेब के दरबारी लेखक सकी मुस्तईद ख़ान ने 1710 में लिखी थी। इसी पुस्तक में उस फरमान का उल्लेख है, जिसमें औरंगज़ेब ने विश्वनाथ मंदिर को तोड़ने का आदेश दिया था।

लेकिन, जहाँ तक 1936 के मुक़दमे की बात है। तब अदालत में दोनों पक्षों के द्वारा सबूत पेश किए जा रहे थे। ‘मा-असीर-ए-आलमगीरी’ और औरंगज़ेब के फ़रमान की भी चर्चा हुई। तब मुस्लिमों ने उर्दू में लिखी ‘मा-असीर-ए-आलमगीरी’ पेश की जिसमें विश्वनाथ मंदिर को तोड़े जाने और औरंगज़ेब के ऐसे किसी फ़रमान का ज़िक्र नहीं था। कहते हैं कि जब इस छल से हिन्दू पक्ष निराश होने लगा और हिन्दू पक्षकारों के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगी तब कुछ ही दिनों के अन्दर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के इतिहासकार डॉ. परमात्मा शरण ने फ़ारसी में लिखी और 1871 में बंगाल एशियाटिक सोसाइटी के द्वारा प्रकाशित असली ‘मा-असीर-ए-आलमगीरी’ अदालत के समक्ष प्रस्तुत कर दी।

फारसी में जारी शाही फरमान-2 (‘मा-असीर-ए-आलमगीरी’ से)

जिसकी पृष्ठ संख्या-88 पर औरंगज़ेब के आदेश पर काशी विश्वनाथ मन्दिर को तोड़े जाने का ज़िक्र है। कहते हैं तब जाकर उस साज़िश का पर्दाफ़ाश हुआ जो उस्मानिया यूनिवर्सिटी, हैदराबाद में रची गई थी। इसी यूनिवर्सिटी ने ‘मा-असीर-ए-आलमगीरी’ का 1932 में उर्दू अनुवाद प्रकाशित किया था। जिसमें से षडयंत्रपूर्वक श्री काशी विश्वनाथ के इतिहास वाले पन्नों को निकाल दिया गया था।

फारसी में जारी शाही फरमान-3 (‘मा-असीर-ए-आलमगीरी’ से)

खैर, ये सब इसलिए कि वामपंथी इतिहासकारों और इस्लामिक विद्वानों ने कई बार ऐसे छलपूर्वक अधूरे साक्ष्य के आधार पर प्रपंच रचाने की कोशिश की। वही काम वो इस बार भी ज्ञानवापी विवादित ढाँचे में मिले शिवलिंग को ख़ारिज करने के लिए कई उल-जलूल बातें प्रमाण के नाम पर पेश करते नजर आ रहे हैं। ऐसे में बस इतना जान लीजिए कि सबूतों को गायब कर देना, सबूतों के साथ छेड़-छाड़ करना, फ़र्ज़ी सबूत बनाने का प्रयास करना, फ़र्ज़ी कहानियाँ गढ़ना ये सब इनकी पुरानी चालें हैं। बाद में जब सच उजागर हो जाता है तो ये बकवास और बेसिर-पैर की बातें करने लगते हैं।

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रवि अग्रहरि
रवि अग्रहरि
अपने बारे में का बताएँ गुरु, बस बनारसी हूँ, इसी में महादेव की कृपा है! बाकी राजनीति, कला, इतिहास, संस्कृति, फ़िल्म, मनोविज्ञान से लेकर ज्ञान-विज्ञान की किसी भी नामचीन परम्परा का विशेषज्ञ नहीं हूँ!

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