टिकटॉक के साथ ही 59 चायनीज मोबाइल एप्लीकेशन को प्रतिबंधित कर एक बार फिर भारत में स्वदेशी और आत्मनिर्भरता की माँग जोरों पर है। भारतीय जनमानस के वैचारिक जागरण के लिए ‘स्वदेशी’ शब्द बिलकुल भी नया नहीं है। इस एक शब्द ने ही औपनिवेशिक ब्रिटिश साम्राज्य की नींव खोखली करने में अहम भूमिका निभाई थी। लेकिन इससे भी पहले स्वदेशी शब्द को आन्दोलन की शक्ल जिस व्यक्ति ने दी थी, उनका नाम था स्वामी दयानंद सरस्वती!
स्वदेशी की भावना को जगाने के लिए स्वामी दयानंद सरस्वती ने इतना तक कहा था कि अंग्रेज अपने देश के जूते का भी जितना मान करते हैं, उतना भी अन्य देश के मनुष्यों का नहीं करते। उन्होंने कहा था- “जब विदेशी हमारे देश में व्यापार करेंगे तो दारिद्रय और दुःख के सिवाय यहाँ दूसरा कुछ भी नहीं हो सकता।”
कालांतर में जितने भी स्वदेशी आन्दोलन हुए या स्वदेशी की भावना पर जितने भी बड़े आन्दोलन हुए, वह दयानंद सरस्वती के ही स्वदेशी के मूल मन्त्र की परिणति थे। इसी मन्त्र का परिणाम था कि भारत में सबसे पहले वर्ष 1879 में आर्य समाज लाहौर के सदस्यों ने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का सामूहिक संकल्प लिया था।
आजादी से पहले ‘आत्मनिर्भर भारत’
इस तरह से देखें तो ‘आत्मनिर्भर भारत‘ का विचार इस देश में कई चरण से होकर गुजरा है। इसका दूसरा चरण था बंगाल के विभाजन के बाद हुआ स्वदेशी आन्दोलन! दिसम्बर, 1903 में बंगाल विभाजन के प्रस्ताव की ख़बर फैलने पर चारों ओर विरोधस्वरूप अनेक बैठकें हुईं। स्वदेशी आन्दोलन की औपचारिक शुरुआत अगस्त 07, 1905 में कलकत्ता के टाउन हॉल में 7 अगस्त ,1905 को एक बैठक में की गई थी।
आन्दोलन के फलस्वरूप स्वतंत्रता सेनानियों ने भारत की जनता से अपील की कि वे सरकारी सेवाओं, स्कूलों, न्यायालयों और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करें और स्वदेशी वस्तुओं को प्रोत्साहित करें। इसके साथ ही राष्ट्रीय कॉलेज और स्कूलों की स्थापना के माध्यम से राष्ट्रीय शिक्षा को प्रोत्साहित करने के विचार ने भी तेजी पकड़ी।
इसका उद्देश्य था ब्रिटेन में बने माल का बहिष्कार करना और भारत में बने सामान का अधिकाधिक प्रयोग करके ब्रिटेन को आर्थिक हानि पहुँचाना और भारत की जनता के लिए रोज़गार सृजन करना। इस आन्दोलन को ‘स्वराज्य’ की आत्मा भी कहा गया था।
यह समय था, जब भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान गरम दल और नरम दल के बीच वैचारिक टकराव भी पनपने लगे थे। तब बाल गंगाधर तिलक ने उदारवादियों द्वारा ब्रिटिश साम्राज्य से स्वतंत्रता की माँग को राजनीतिक भिक्षावृत्ति बताते हुए कहा था कि हमारा उद्देश्य आत्म-निर्भरता है, भिक्षावृत्ति नहीं।
तब इन नेताओं ने विदेशी माल का बहिष्कार, स्वदेशी माल को अंगीकार कर राष्ट्रीय शिक्षा एवं सत्याग्रह के महत्व पर बल दिया। वहीं, उदारवादी नेता स्वदेशी एवं बहिष्कार आन्दोलन को मात्र बंगाल तक ही सीमित रखना चाहते लेकिन उग्रवादी दल के नेता चाहते थे कि इसे एक राष्ट्रव्यापी आन्दोलन बनाया जाए। बाल गंगाधर तिलक, बिपिन चन्द्र पाल, लाला लाजपत राय, अरविन्द घोष और बाबा गेनू इस आन्दोलन के प्रमुख सूत्रधार थे।
इस आन्दोलन का परिणाम यह हुआ कि लोगों ने न सिर्फ विदेशी कपड़ों का ही बहिष्कार किया बल्कि सरकारी स्कूलों, अदालतों, उपाधियों, सरकारी नौकरियों का भी बहिष्कार इसमें शामिल किया। इसके बदले भारत के लोगों को अपने देश में बने हुए सामान का प्रयोग करना था।
स्वदेशी आन्दोलन का सबसे महत्वपूर्ण पहलू आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता पर बल देना था। बंगाल केमिकल स्वदेशी स्टोर्स, लक्ष्मी कॉटन मिल, मोहिनी मिल और नेशनल टैनरी जैसे अनेक भारतीय उद्योगों को इसी समय खोला गया था।
हालाँकि, इस देशव्यापी आन्दोलन का एक परिणाम यह भी हुआ कि अनेक भारतीयों ने अपनी नौकरी खो दी और जिन छात्रों ने आन्दोलन में भाग लिया था, उन्हें स्कूलों व कालेजों में प्रवेश करने से रोक दिया गया। आन्दोलन के दौरान वन्दे मातरम को गाने का मतलब देशद्रोह हो गया था।
स्वदेशी आन्दोलन के बीच नेहरू परिवार में आया विदेशी वाहन
ऐसे में, जब पूरा देश ‘स्वदेशी’ की लहर में डूबा था, देश में कई समानांतर आन्दोलन और क्रांतियाँ जन्म लेने लगीं, और ब्रिटिश साम्राज्य इस आन्दोलन से घबराकर इसके नेताओं को जेल में बंद करने लगा था, नेहरू परिवार में एक विदेशी वाहन पहुँचा।
मोतीलाल नेहरू इसी आन्दोलन के समय अखिल भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस का एक प्रमुख चेहरा थे। भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के पिता मोतीलाल नेहरू के दादाजी लक्ष्मी नारायण मुगल कोर्ट में ईस्ट इंडिया कंपनी के पहले वकील थे। मोतीलाल अपने वकील भाई से प्रेरित थे। इसी कारण उन्होंने भी वकालक का ही पेशा अपनाया था। वे दो बार कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे।
कॉलेज के दिनों में मोतीलाल नेहरू पश्चिमी सभ्यता से बहुत प्रभावित थे। भारत में जब पहली बार बाइसिकल आई, तो मोतीलाल नेहरू पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने इसे खरीदा था। वर्ष 1907 में पूरा भारत जब स्वदेशी आन्दोलन का हिस्सा बना था, ठीक उसी समय मोतीलाल नेहरू इलाहाबाद में विदेशी गाड़ी खरीदने वाले पहले भारतीय थे।
मोतीलाल नेहरू के इस फैसले पर जब लोगों ने नाराजगी जताई तब मोतीलाल नेहरू ने अपने प्रिय पुत्र जवाहरलाल नेहरू को एक पत्र में लिखा- “क्या तुम मुझे तब तक इन्तजार करने की सलाह दोगे, जब तक मोटर कार भारत में बननी शुरू नहीं हो जाती?”
हालाँकि, मोतीलाल नेहरू ने 1918 में महात्मा गाँधी के नेतृत्व में विदेशी कपड़ों का त्याग करके देसी कपड़े पहनने शुरू कर दिए थे।